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________________ २५२] जीव और Eम-विचार । समस्त कर्मो काफल प्रायः संसारी जीव मागते ही हैं. परंतु कितने हो कर्मोको संक्रमण भी करते हैं। अशुभस शुभ कर सके हैं। दान पूजा जप तप आदि पुण्य कार्योस शुभधर्मके; रसको बदलकर शुभरूप करसके है। जो फर्म अशुभ उदग्ररूप होरहा है उसको पूजा दानादि शुभकार्यों के द्वारा शुभरूप परिणमन करा सक्त है परंतु जिनको नि:काचन पंध हुआ है यह मर्म अपना रस (फल) दिये विना सर्वथा वहीं रहता है । चाहे पुण्य कर यो और कुछ भी महान कार्य (उत्तम जप तप) करो उसका फल तो भोगनाही पडेगा।" , . ., एक निकाचन मर्मबंधयो छोडफर इतर (अन्य ) कर्मवं के रस ( फल अनुमाग) का परिणमन शुभाशुभ: रूप हो सकता TO ।' कितने ही भाई यह प्रश्न करते रहते है कि जिनपूजन करने वाले हमने बहुतसे दरिद्र देखे फिर पूजनका फल क्या? दान देनेका फल क्या? . . . . उन भाइयोंको विचार करना चाहिये कि कोई भी कर्म (जिन पूजा दान आदि कमे) तत्काल ही, उदय रूप नहीं आता है। माघाधा फालके पश्चात् ही उदयमें आता है। इससे तत्काल पूजादि कार्योंका फल सबको नहीं दीखता है। दूसरे भावोंकी सात्तिशय विशुद्धता हो तो पूजादि शुभ कार्योंका फल. तत्काल भी दृष्टि गोचर हो परंतु जिनको प्रथम ; नि:काधन नामफा धर्मबंधका उदया है मह तो "टारेना टरे" 'कर्म, विधि मिटेना मेटेसे' उनको
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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