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१५६] जीव और कम-विचार । स्यत्वक रूपमें समावेश होगा। क्योंकि सम्यक्त्वगुणसे भी शत्लखकएकाही प्रकाश होता है समग्दर्शन के प्रभावसे आत्माके खझपका श्रद्धान आत्माको होता, मात्माका स्वरूप - पुद्गलादि द्रव्यले पृथक् ज्ञानदर्शनमय है प्रकारको प्रतीति सम्यग्दर्शनके प्रमावसे आत्माको हो जाती है। इसीलिये सम्यग्दृष्टी जीव स्व में रुचि करता है और परको भिन्न मानता है। अपनी आत्माका स्वास सिद्धोंके समान पर-पदार्थसे सर्वथा भिन्न प्रतीति, करने लगता है इसप्रकार पर पदार्थलें भिन्न शानदर्शनलय आत्माका स्वरूप है। और उस स्वरूपमें स्थिर होना वही स्वरूपाचरण चारित्र है। - अनंतानुबंधी कपायके उद्यले जव स्वरूपाचरण चारित्र नष्ट हो जाता है । तब सम्यग्दर्शन आत्मामें किस प्रकार स्थिर रह सकता है। व्योंकि स्वरूपावरण चारित्र और सम्यग्दर्शनका इन दोनोंका अविनामावविध है और एक अभिन्न रूप अखंडपदार्थे है इस दृष्टिसे परहो लक्ष है. एकही पदार्थ है और एकही वस्तु है। मात्र वकन्यकी अपेक्षा दो प्रकार है । ज्ञानदृष्टिसे चारित्रगुणकी अपेक्षा विचार किया जाय तो वह स्वरूपावरण चारित्र चारित्रअंशमें ग्रहण होगा, सम्यगदर्शनले पृथक् चारित्रगुणका ( आत्मस्वसावर स्थिरता रूप) फरेला और सम्यगदर्शनका विचार किया जाए तो स्वरूपाचरण आत्माका स्वरूप होनेसे
आत्याकाही गए है और आत्माका रूपही सम्यग्दर्शन है। आत्मज्ञपकी रुचि, यात्मरूपकी प्रतीति, आत्मरूपको श्रद्धाही सभ्यग्दर्शन है । आत्साही श्रद्धा जिस भाव रूप हुई है और जिस