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जोच और फर्म-विवार ।
[ १४७ स्वरूपमें स्थिर है उसको ज्ञानके द्वारा प्रकट करना अथवा जानना अनुभवमें लाना वह सम्यग्ज्ञान है ।
सम्यग्दर्शनादि समस्त गुणका वक्तव्य ज्ञानगुण द्वाराहो होता है इसलिये सम्यग्दर्शन सम्यग्यान और सम्यक्वारित्र ये तीनोंदी कथंचित् एक लक्षको ग्रहण करलेते हैं । परन्तु उसका प्रकाश वक्तव्य द्वारा तीन प्रकार हो जाता है फिर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और चारित्र ये तीनों गुण भिन्न है। तीनोंदी गुण एक साथ प्रकट होते हैं इसलिये नीनों गुणोंका परस्पर सहचर भाव है पृथकता है | अभिन्नता है ।
जिम समय मिध्यात्वभाव दूर होता है उसी समय मात्मामें सम्यग्दर्शन गुण प्रकट हो जाता है । और सम्यग्दर्शन के प्रकट होनेसे आत्माका मानगुण ( जो प्रथम मिध्यात्वके योग से विपरीत परिणमन फरा रहा था, भावार्थ - मिथ्यात्व के योग से छानगुणमें विपरोत प्रतिभास हो रहा था वह ज्ञान मिध्यात्वभावके दूर होने पर ) शुद्ध परिणमन ( प्रतिभास) करने लगता है । सभ्यग्दर्शन के साथही स्वरूपाचरण चारित्र होता है क्योंकि अनंतानुबंधी कपायके क्षय क्षयोपशम या उपशमके साथ साथ दर्शनमोहनीका क्षय या उपशम होनेसे प्रकट होता है इसलिये सम्यग् - दर्शनके साथ २ सम्यक् चारित्रका होना आवश्यंभावी है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणों का प्रकाश एक साथही होता है । इसलिये तीनोंको कथंचित् एकरूप कह सके हैं। वास्तविक तीनों गुण भिन्न भिन्न हैं । और