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जीव और कर्म विचार।
ही श्रद्धा सर्वथा नहीं है। इसलिये अनंतानुबन्धी माया अनंत . संसारको ही वहानेवाली है।
अनतानुवधी लोम-यह कपाय कृमि रागके समान मनुष्यको पर-पदार्थके लोभमें विवेकहीन बना देती हैं अनंतानुवन्धी लोम मायके उदयसे जीवोंके परिणाम मिध्यात्वभावमें रंगित रहते हैं । अनतानुबन्धी लाभ यह मिथ्यात्वकी एश प्रकारकी पर्याय है। जिस जीवके मिथ्यात्वका उदय होता है उसके अनतानुबंधी लोभ. का अवश्य ही उदए है अथवा जिसके अनंतानुवधी लोभका उदय हैं उसके मिथयात्वझी सन्मुखता है। जीवोंके समत्वपरिणाम (परपदार्थ में अहधुद्धि) अनंतानुबन्धी कषायके रदयसे निरंतर बनेही रहते हैं। • जिस प्रकार वस्त्रको रंगनेकेलिये कृमिका (हिरमिजीका) रंग चढ़ा दिया जाय तो वह रंग पका हो जाता है। धोनेपर भी नहीं जाता है । वस्त्रको अंतिम अवस्था पर्यंत रहता है इसीप्रकार अनं. तानुवन्धी लोभ अनेक भवांतर पर्यंत भी अपनी वासनाको नहीं छोड़ता है।
रागद्वेष दोनोंमेले असल ए हो राग शुख्य माना है। रागको ही मिथ्यात्व कहा है और नागको ही जीतनेपर वीत. राग अवस्था प्राप्त होती है। रागको होष प्रतिपक्षी है। एक धस्तुमें गग किया जाय तो इतर वस्तुमें द्वैप अपने आप हो जाता है। पसलिये एक राग ही लमस्त संसारक रंधका कारण माना गया है रागको ही लोस कहते हैं।