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'जीर और फर्म-विचार। , क्षेत्रसे यथा-गैरव कुंभीपाकादिनरक क्षेत्रकी प्राप्ति, दुगंध अशुचि कोच आदिसे व्यामिश्रित क्षेत्रकी प्राप्ति, गंधक तेजाप सोस पारी आदि धातुओंसे परिपूर्ण अत्यन्त उष्ण क्षेत्रकी प्राप्ति या समुद्र नदी वर्फ आदि शीतमय क्षेत्रकी प्राप्ति के द्वारा जो कमे जीवोंको दुःख उत्पन्न करे वह असातावेदनी कर्म है। कालसे यथा--शीत गत्यंत शोतकाल, विपम और दुस्सह उष्णता-पूर्ण काल, रोग आधि-व्याधिसे परिपुर्ण काल, अतिवृष्टि अनावृष्टिसं व्याप्तकाल, शरीर और मनको संतापकारी कालवे द्वारा जो कर्म जीवोंको दुःख उत्पन्न करे यह मलातावेदनी कर्म है। ' भावसे यथा-क्रोधसे संतप्त भाव, मानसे जर्जरित भाव, मायासे कलुषित भाव, लोभसे व्याकुलित भाव, कामसे पीडित भाव, चिंतासे अमनस्क भाव, ईर्षा मत्सर द्वपसे कलहकारीभाव, राग प्रेम और हर्पसे उन्मादित भाव नादि कुत्सित भावोंके द्वारा जो कर्म जीयोको दुःख उत्पन्न करे वह असातावेदनी कर्म है। , इस प्रकार वेदनीकर्म जीवोंको सुख दुःखका प्रदान करने घाला है। संसारमें सुख दुःखके जितने कारण हैं वे सब प्रायः वेदनीकर्मके उदयसे जीवोंको पाहा निमितकारणसे प्राप्त होते है। जिन जीवोंको सातावेदनी धर्म का उदय है तो ही उनका उद्योग सफलीभूत होगा, असातावेदनो फर्मके उदयसे कितना ही उद्योग किया जाय, परन्तु वह सफल नहीं होता है यह कमेकी विचित्रता है इसलिये सुखमें हर्प और दुःखमें शोफ नहीं करना चाहिये।