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________________ २२२) जीव यौर धर्म.विचार । अपने अन्तरंगका पवित्र रखो मनकी शुद्धि करो। ज्ञानको शुद्धि करो। फिर अपने आवरण शुद्ध करो तो पुण्यकर्म संपादन कर सकोगे। जिनका मन मैला है। जिनका हृद्य कलुषित है, जिनका पेट साफ नहीं है जिनके माव मैले है जिनके परिणाम मलिन है जिनकी बुद्धिपर कुशिक्षा और कुसंगतिका मैलो परदा पड़ा है वे धर्मका कितना ही ढोंग बतलावे परन्तु वे धर्म कर्मको जानते हो नहीं। वे पुण्य और पापको समझतेहा नहीं है । और इसीलिये वे पुण्यकार्यको करना नहीं चाहते हैं। तथा पापकर्मको छोड़ना नहीं चाहते हैं। हे भाई! जो तू अपना हित चाहता है तो सत्यभावोंले धर्मकी परीक्षा कर । सत्याल्त्यका विद्यारकर राग द्वेष पक्षपातको छोड़ कर विचार कर । नय निक्षेपके द्वारा वस्तु स्वरूप विचार अपना मतलब या दुष्ट अभिप्रायको लामने मत रत! मनको पवित्र रख कर और वुद्धिकी पवित्रताको बराबर स्थिर रखकर धर्मको परोक्षा कर। अपनी वुद्धि ( मलिन दुद्धि) के योग्य तर्क पर विश्वास मत कर किंतु अपनी बुद्धि और ज्ञानको आगमके अनुकूल रख कर तर्क कलौटीपर धर्मकी परीक्षार । अपने पवित्र भावोंकी अनुभव अग्निके द्वारा धर्मखरी सुवर्णको तपाकर परीक्षाकर परतु अहिल. मदोन्मत्त और स्वच्छ बनकर धर्मकी परीक्षा मृतकर, देखाना जो तूने लोगोंके देखादेखी मदोन्मन बनकर धर्मकी परीक्षाकी तो त सबसे प्रथम अपनी आत्माकोही ठगेगा ठहर जरा धैर्य रख जरा सोचविचार
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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