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________________ जीव और धर्म-विचार। [२५६ यद धन और या मनुष्य भर महान् पुण्यफे योगसे प्राप्त हुमा है उसो त अपनी धनकी उन्मत्ततामें विचाराध होकर च्यामनार, हिंसा,नठ, सन्याय, परखी हरण सप्तव्यसनसेयन और अत्याचारोंक फाषिो बनर्गल सेवन कर रहा है। रे भाई ! सुष विचार और गन्छी सोच, फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा और नये सयोग मिलंगे। इसलिये धन और बुद्धिशे प्राप्त कर जिन पूजन, सत्यानदान, गुरु सेवा, जिनप्रतिमा निर्माण, जिन मंदिगंदार, ग्धोत्तय, धर्मात्मा भाइयोंकी मुश्रपा, जिनागमकी सेवा आदि उत्तर फार्यो में धनको रगार यात्म पल्याण कर। जगन जोगशोसन्मार्ग पर लगा। पवित्र जैनधर्मकी सेवा कर मोर जग जीवोंको जैनधर्म की पवित्रता एवं सर्वोत्कएनाका योघ फरा। भव्यात्मन् ! मानका प्राप्त करना महान् दुलंम है पुण्यके योगले मानकी प्राप्ति होती है। एक सम्मान द्वारा अनंत भवफे फर्म बधन पफ क्षणाप्रमें नष्ट हो जाते है। तो मौकी निर्जरा सनत भरमें घोर तपश्चरणके द्वारा (बडे २ कर सहन फर) करता दै उन फर्मों की निर्जरा जागी त्रिगुप्तिमे लोला मात्र फर लेता है। हे भव्य तु यो० ए० हुआ, वकील हुबा, ज्ञानका प्रोफेसर पना, शानफा वैरिएर दुया, मानको प्राप्त कर अपनेको ज्ञानी समझने लगा परन्तु जान प्राप्नफर चाहे जो चाहे जैसा खाया, मदिरा पान किया, गरिमें भोजन फिया, होटलमें जुना पहनकर अभक्ष भक्षण किया, परस्त्री रपटी धना, व्यभिवार और अनीतिका प्रचार करनेवाला
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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