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१३२] जोव और कर्म विचार । संशय और अज्ञान भावको धारण करता है। जीवके स्वरूपमें मतत्व-श्रद्धान करता है।
आत्माका खभाव या धर्म अरहंत भगवानके स्वरूपके समान अनंतचतुष्टय सहित राग द्वे पसे रहित-शरीरसे भिन्न है। यात्मा. का असली स्वरूप सिद्ध भगवानका है और कथंचित् अरहता भगवानके समान है । इपलिये अरहंत भगवान और उनकी वाणी (क्योंकि जिनवाणी में आत्माके सत्य-स्वरूपका लक्षण घतलाया है इसलिये जिनवाणी भी आत्माके असली स्वरूपकी प्राप्तिका मार्गप्रदर्शिका है) तथा मरहंत भगवानके स्वरूपका ओराधन करनेवाले-सिद्ध करनेवाले आवार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुके
घद्धान न कर विपरीतभावोंको धारण करना, अतत्व श्रद्धान करना, देवको अदेव मानना, गुरुको गुरु नहीं मानना, शास्त्रको मिथ्या समझना सो ये सव भावमोहनी कर्मके उदयसे जीवको होते हैं । इसी प्रकार अदेवमें देव-बुद्धि कुशास्त्र में शास्त्रबुद्धि
और कुगुरुमें गुरु बुद्धि-माननाभी मोहनीकर्मका कार्य है। — मोहनोकर्मके उदयसे आत्माके स्वभाव आत्माके स्वरूपमें आत्मा गुणोंमें-आत्माके भावोंमें-आत्माके परिणामोंमें-आत्माके शानमें-आत्माके सुखमें-आत्माके दर्शनमें विपरीत भाव हो जाता है। विपरोत श्रद्धान होता है विपरीत रुची होती है।
मोहनीय कर्मके उदयसे हिंसादि पापिष्ट-कार्यों में जीव धर्म मानता है मलिनावरणोंमें धर्म व नीति मानता है। त्याग-धर्ममें ग्लानि करने लग जाता है। कर कर्मों में रुचि होती है।