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जीव और कर्म-विवार ।
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जिस प्रकार वाला मनुष्य दुःष और केराको मानता है और नीवको मधुर मानता है। उसी प्रकार मोहन कर्मके उदयसे जीव पापकामें धर्म और पुण्य कार्यमें अघ मानना है । जीवको अजीव मानना है और मानता है ।
जीव
कर्मग्रहिल मनुष्य के समान स्वछंद प्रवृति
होनी है । हिठोनिका विचार नहीं होता है | सन्मार्ग और कुमार्गका परिमान नहीं रहता है । धर्म धर्मका विचार नहीं रहता है । देव देवत विचार नहीं रहता है । सदाचार, कदावारका विचार नहीं रहता है ।
मोहनी के उदयसे उन्मादी मनुष्य के समान रूप से मिथ्यावरण पर लपको सुखी मानना है। इसीलिये किसी प्रकार मी शरीरको तुम प्राप्त हो और उस शरीरके सुखने सात्माको सुत्री मानना है 1
जिसके कोका तुम और कोद्रवके तंडुल ( चावल ) में नेत्रुद्धि नहीं है । ऐसी श्रद्धा ऐसी प्रतीति वह सब मोहनीकर्मका ही फल है ।
मोहनीक के द
मोहनी कर्मके मुख्य दो भेट है एक दर्शनमोहनी दूसरा चारित्रमोहनी | दर्शनमोहनी के तीन भेद है- मिध्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व और सम्यक्क |
यद्यपि दर्शनमोहनीका एक मिध्यात्व ही भेद है । तो मी