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________________ जोध और कर्म-विचार व्यय और धोव्य नहीं रहना हो। सर्वथा अपरिवर्तनशील, सर्वथा नित्य, ' सर्वथा अपरिणमनशोल कोई भी पदार्थ नहीं है। 'सर्वधा अपरिणमनशील पदार्थ मान लिया जाय तो पदार्थोकी दृश्यमान होने वाली पर्यायोंका (जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है) सर्वथा अभाव हो जायगा । प्रत्यक्ष होनेवाली पर्यायोंका अभाव माननेसे वस्तुका ही सं. वथा अभाव होता है । द्रव्य अपना स्वरूप धारण कर नहीं सक्ती है। संसारी जीवोंकी प्रत्यक्षमें होनेवालो नर-नारकादि पर्यायोंको नहीं माननेसे जीवपदार्थ नहीं माना ऐसा कहने में किसी भी प्रकारकी अतिशयोक्ति नहीं है। यदि जीव कूटस्थ नित्य है तो नर-नारकादि होनेवाली पर्याय जीवकी है या नहीं ? यदि जीवकी है तो फिर कूटस्थनित्य किसप्रकार माना जाय । क्योंकि नर-नरकादि पर्याय क्षणस्थायी है। क्षणक्षणमें नवीन नवीन पर्याय अपने अपने कमोसे जीवमें 'उत्पन्न होती है और विलीन हो जाती हैं। जीवकी अशुद्धता है तो केवल नर-नरकादि पर्यायकी दृष्टिसे 'हो होती है । फर्मोदयसे जीव 'नरकादि पर्यायोंको धारण करता है । इसलिये जीवको सर्वथा नित्य मान नहीं सके हैं। सर्वथा नित्य माननेसे पदार्थों में क्रियाकारक्त्वका अभाव होगा। अर्थक्रियाकारक प्रभाव होनेसे संसारके समस्त व्यापार नष्ट हो जायगे । सर्वथा नित्य माननेसे द्रव्यका सद्भाव नहीं ठहर सका है।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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