________________
४]]
air कर्म-विचार |
मानसे तत्काल ही होता है । यह बात इतिहास, प्रत्यक्ष प्रमाण
और युक्तिसे निराबाध सिद्ध होती है ।
आत्मवल्याण करनेवाले भव्यजीवोंको सन्मार्ग पर चलनेके ( लिये सबसे प्रथम जीवकर्म और कर्मफल पर पूर्ण श्रद्धान रखना चाहिये।"
+
+ 1
1
जीवकी सिद्धि ऊपर अनेक प्रमाणोंसे की जा चुकी है। और कर्म तथा कर्म फल जीवके साथ किस प्रकार संबंध रखते हैं जीवको कर्मोने किस प्रकार अपने स्वाधीन परतंत्र कर रखा है दिग्दर्शन मांगे किया जायगा परंतु अभी हमें जीवके स्वरूप 'में जो भॉति है वह जानलेना परमावश्यक है । : f कितने ही विचारशील महाशय ! जीवको मानते हैं परंतु - उसको कूटस्थ नित्य मानते हैं। जीवको कूटस्थनित्य मानना या नहीं इसी वातका विचार सामने रखते हैं। कूटस्थनित्य शब्द के दो अर्थ होते हैं ।
!
Į
( १ ) जिस वस्तु के कारण कलापोंको न मान कर वस्तु अनादिकाल से स्वयं सिद्ध सर्वथा अपरिवर्तनशील सर्वथा नित्य अधिकारी मानना यह कूटस्थनित्य है । ( २ ) जो वस्तु अपने स्वभावसे च्युत हो वह भी कूटस्थनित्य कहलाता है ।
यदि कूटस्थ नित्य जीव पदार्थ मान लिया जाय तो वस्तुका स्वरूप कभी किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सका है । समस्त पदार्थ अपने गुणपर्यायोंसे भिन्न भिन्न अवस्थाको धारण कर रहे है ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है कि जिसमें समय समय पर उत्पाद