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२२६] जीव और कर्म-विचार । देव शास्त्र गुरुकी अविचल श्रद्धा ही सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करने वाली है। परंतु लोस मोह प्रतिष्ठा गोरष आदिके प्रलोभनसे जिनागम जिनधर्म जिनगुरु और जिनदेयके स्वरूपमें किसी प्रकारका विपर्यास मत करो देव गुरु शास्त्रके स्वरूपको पैसाके लिये भोग विलासके लिये और गगन बडाईके पानेकी गरजसे अन्यथा मत करो अपने मतलब ( संसारकी इच्छाओंकी पनि ) के लिये देव शास्त्र गुरु और धर्मका स्वरूप परिवर्तन मत करो। देव शास्त्र गुरु धर्मकी सर्वोत्कृष्टता-सर्वोच्चता-परमपवित्रता और सबोंस्कृष्ट निर्दोषताको नष्ट मत करों । पूर्णभावोंसे विशुद्ध परिणामोंसे देवशास्त्र गुरु और धर्मकी श्रद्धा करो बस इसीमें सवका हित है । इसीमें भलाई है और यही सुखका मार्ग है।
बधार्वधक प्रकृतियोंका विवरण पांच ज्ञानावरण ५ नव दर्शनावरण १४ दो प्रकारकी वेदनीय ६ सोलहकपाय ३२ नर नोकषाय ४१ मिथ्यात्व ४२ चार प्रकारके आयुकर्म ४६ चारों प्रकारकी गति ५० पांच प्रकारको जाति ५५ पांच प्रकारके शरीर ६. तीन आगोपाग ६३ छह संहनन ६६ छह संस्थान ७५ स्पर्श ७६ रस ७७ गंध ७८ वर्ण ७६ चार भानुपूर्व्य ८३ मगुरुलघु ८४ उपद्यात ८५परघात ८६ आतम ८७ उचोत ८८ उच्छ्वा स८६ दो प्रकार विहायोगति ६१ प्रत्येक शरीर ६२ साधारणशरीर ६३ अस ६४ स्धारर ६५ सुभग ६६ दुर्भग १७ सुखर १८ दुस्वर. २६ शुम १०० अशुभ १०१ सूक्ष्म,१०२ वादर १०३. पर्याप्ति,१०४ अपर्याप्ति १०५ स्थिर १०६ अस्थिर १०७ आदेय १०८ जनादेय १०६