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________________ 1 . ८८ । जीव और कम-विवार । परिणामोंमें विशुद्धता होती है. उसे अविरतगुगस्थान कहते हैं। इस चतुर्थ गुणस्थानमें जोधके-सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है और उस स्वामाविक परिणामके प्रगट होनेसे जीव तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान करता है। .५ देशविरत गुणस्थान-अप्रत्याख्यान' कषायके उपशमसे गृहस्थोंके योग्य चारित्र धारणकर. परिणामोंकी विशेष विशुद्धि होना सो देशविरतगुणस्थान है। • ६ प्रमत्तगुणस्थान-प्रत्याख्यान कषायक उपशमसे मुनिव्रतके वारित्रको (अठाईस मूलगुणोंको) धारण कर परिणामोंकी अत्यंत विशुद्धता होना सो प्रेमत्त गुणस्थान है। । ७ अप्रमत्तगुणस्थान-संचलनकषायके अतिशय मंदोदयसे चारित्र समिति और लामायिकादि कर्मोमें प्रमाद नहीं लगाना और उससे परिणामोंकी बिशुद्धि करना सो अप्रमत्तगुणस्थान है। । ८ अपूर्वफरण-यहांसे सम्यक्त और चारित्रके भेदसे ग्यारहवं गुणस्थानपर्यंत दो 'विभाग होते हैं क्षपकश्रेणी-उपशमश्रेणी २॥ जिस जीवको क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त है। जिसके परिणामति शय विशुद्धताको वृद्धिात होरहे हैं।जिसको उत्तमसिंहनन प्राप्त है जो शुक्लध्यानके प्रथम भेदको लेकर अपने परिणामोंमें विशुद्धताकी प्रकर्षता समय समय बढ़ा रहा है। जो सर्वधाती कर्म मोहनीकर्म की सत्ताको क्षीणकरनेकी शक्ति और अप्रमितवीर्य प्रकट करने की योग्यता जिसमें प्रकट होगई हो ऐसे परिणामोंकी विशुद्धि को क्षयकश्रेणि वाला अपूर्वकरण गुणस्धान कहते हैं, और चाहे
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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