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________________ २] । जीव मौर कर्म-विचार । , परंतु मात्माके समस्त गुण प्रायः कर्मोंसे आच्छादित होरो हैं, विपरीत परिणमन हो रहे हैं। विभावरूप हो रहे हैं। अपने संभावसे विपरीत हो रहे हैं। अप्रत्यक्ष भोर अचिंतनीय हो रहे है। इसलिये अज्ञानी जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है। अज्ञानी जीवों में आत्मस्वरूप की अनभिज्ञता। शुद्ध जीय भौर अशुद्ध जीवका स्वरूप जब तक पृथक् पृथक सम्यक् प्रकारसे न जान लिया जाय तय तफ यह जीव अज्ञानी बना रहता है। न तो पुण्य-पापको ही मानता है और न परलोक को मानता है। न सदाचार और सच्चरित्रको श्रेष्ठ समझता है। इसीलिये असानी जीच शुद्ध-स्वरूपकी प्राप्तिमें अप्रयत्नशील रहता है, वस्तुजानसे रहित होता है या भ्रमात्मक होता है या विपरीत भावोको धारण करता है। इसलिये ही कर्म और कर्मफल का जान लेना परमावश्यक है। कर्म और कर्मफल इन दोनोंका सस्प जाने बिना किसी प्रकार मात्माका जानना नहीं हो सका। जिसने फर्म और कर्मफलको नहीं जाना है उसने मात्माको भी सर्वथा नहीं जाना है। यसलमें कर्म और कर्मफल आने दिना कोई भी सत्त्व किसी प्रकार भी फैसे भी ज्ञात नहीं हो सका ? जीव द्रब्यका स्वरूप तो खासकर कर्म और कर्मफल जाने चिता सर्वथा भी जाना जा नही सत्ता ?
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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