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________________ जीव और फर्म-विवार। विच्छिन्न होरही है। यदि स्वरूप विचार किया जाय तो जो आनंद भात्माके विवार करने में है वह आनंद और सुख संसारको चक्रवर्ती विभूति प्राप्त करने पर या इन्द्रको संपत्ति प्राप्त करने पर भी नहीं प्राप्त होती है। मात्माके ध्यान करनेमें नो सुख प्राप्त होता है वैसा सुख त्रिलोकमें अत्यत्र नहीं है । आत्माको दया, अत्माकी क्षमा, आत्मा का सत्य धर्म, आत्माका निरभिमान, आत्माको निस्पृहता, आत्मा को निरभिकाक्षा, आत्माको उदारता, मात्माका परोपकार, आत्मा. का संयम, आत्माकी सरलता, आत्माका स्याग इत्यादि यात्माके किली कायका विचार किया जाय ? तो वो आनन्द आत्माके इन गुणोके विचार करने में प्राप्त होता है वह तीन लोकके राज्य मोगने में नहीं है। साधारण लोग सहज दान करने में आनन्द मानते है, जरासे भोगोंकी प्राप्तिमें हपित होते हैं, परंतु जिन जीवों ने आत्माके त्याग-धर्मका विचार किया है वे आत्माके त्यागधर्म में संसारके लमस्त जीवोंको वधु समझते हैं। इसी प्रकार आत्माका ब्रह्मवर्य धर्म और आत्माके आकिंचन धर्मका विचार किया जाय तो इन दोनों धर्मके स्वरूप विचारमें जो अनुपम मानंद है वह आनंद अन्यत्र नहीं है। संसारकी समस्त वस्तुओंसे निर्मोह होकर खात्माके सतोन्द्रिय परमसुखमें जो सुख है वह सुख अन्यत्र नहीं है। इस प्रकार आत्माके पिवारमें आत्माके, गुणोंके स्मरण चितन, मनन और ध्यानमें जो सुख है वह अवर्णनीय है।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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