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२५६] जीव और कर्म-विचार । बाद होरहे हैं उनका मैं किसप्रकार नाश फर ऐसा विचार करना, मुनिजनोंके पवित्र उद्योगमें जो मनुष्य रोडा लगाफर मुनिजनोंकी निदार अथवा अवर्णमाद लगाफर जो पवित्र मार्गका घात कर रहा है उसको मैं किसप्रकार निवारणफर सच्ची प्रभावना कर ऐसा विचार करना स्त्रियों का पवित्र शील अज्ञानी लोग कुशिक्षा के प्रभावसे भ्रष्ट करते हैं मैं उनके शोलकी रक्षा फिसप्रकार करू ऐसा विचार करना सो सब मनके द्वारा पुण्यकर्म है।
पापकर्म-शरीरके द्वारा जीवोंका वध फरना, भावानकी मतिका तोडना, शास्त्रोंका अर्थ विपरीत लिखना, मिथ्या लेख लिखना, स्वच्छद होपर अनर्गल चलना, मद्य मांस भक्षण करना, अन्यायके कार्य करना, व्यभिचार सेवन करना, आदि शरीरके पापकर्म है।
झूठ बोलना, आगमके विरुद्ध बोलना, मिथ्या शास्त्रों का उपदेश देना, जीववध युद्ध लडाई और कलहका उपदेश देना, विधवाविवादका उपदेश देना, जातिपांतिके लोपका भाषण करना, मुक्यिोंकी निदा करना, जिनधर्म में अपर्णवाद लगाना, धर्मात्मा भाइयोंकी निंदा करना और उनको कष्ट देनेकी संभाषणा देना।
जिनागममें पलक प्राप्त हो जिनागमकी पवित्रता नष्ट हो जावे ऐसा उपदेश देना, राष्ट्रकथा करना, स्त्री कथा करना, अन्यमत प्रशंसन करना, जि.गिमको असत्य ठहरानेका मिथ्या वचन बोलना अशानी छमस्थ लोगोंकी तत्व रवनाको सत्य मादि समस्त पाप कार्य पवन द्वारा होते हैं।