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________________ १२] जीव और कर्म- विचार | सतत पर-पदार्थो की चाहना इच्छा और आशा में उदुभ्रमिन है । परंतु शुद्ध जीव लव शांत, परम आनंदमें निमग्न, परम संतोपसे परिपूर्ण, पराधीनताले रहित स्वतंत्र है । अशुद्ध जीवको परिग्रह तज्ञासे वात वातमें पराधीनता है । कर्मो की प्रवल सत्तासे पराधीनताका द्वंद्व इतना सुदृढ रूपसे लगा है कि एक क्षणमात्र भी अशुद्ध जीवोंको स्वाधीनता प्राप्त नहीं होती है । समरुन यद्यपि शुद्ध जीवके इन्द्रिय और मनका सर्वथा अभाव है तथापि शुद्ध जीव खाधोन पूर्णरूपले स्वतंत्र होनेसे अपने अनंव आनंदमें निमग्न है, समहन लेगोले सर्वया रहित है । भयोंसे रहित हैं। समस्त प्रकारकी चिनासे रहित है । प्रकारकी इच्छाओंसे रहित है । समस्त प्रकारके कृत्योंसे रहित कृनकृत्य है । परंतु अशुद्ध जीवको अवस्था ठीक इससे विप रीत है। शोक, भय, चिंता, क्लेश, सना रहा है । समस्त अशुद्ध जीव बालक वृद्ध होता है, क्षुवातुर होता है, विवासातुर होना है, रोगी होता है परंतु ये सब बातें शुद्दजीव में सर्वधा नहीं होती हैं । शुद्ध जीव और अशुद्ध जीवका भेद संक्षेपसे ऊपर दिग्दर्शन कराया है । यद्यपि द्रव्यकी अपेक्षा विचार किया जाय तो जो शक्ति शुद्ध जीव हैं, वही जीव और अशुद्ध जीव शुद्ध • शक्ति अशुद्ध जीव में है । मात्र भी भेद नहीं है। ही शुद्ध होना हैं । परन्तु फिर भी जो जो अवस्था भेद है वह सब फर्मोंके संयोग से है । जीव द्रव्यकी अपेक्षा भेद नहीं है । अशुद्ध
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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