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जोव और फर्म- विचार ।
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को सुग्ररूप नहीं मानना चाहिये (क्योंकि सुख एक आत्माकाही धर्म है ) किसी भी पदार्थ की प्राप्तिको इच्छा गर्दी करनी चाहिये या ससारके पार्थाकी प्राप्ति के लिये लालसा नहीं रखना चाहिये ममत्व भी परिणामोंसे किसी पदार्थ सेवनका न करना चाहिए किसी भी पदार्थको प्राप्ति के लिए आरि णाम नहीं करना चाहिये । अमुक पदार्थ की प्राप्ति नहीं होगी तो मेरा अनिष्ट दोगा मरण होगा इस प्रकारको भावना नहीं करना चाहिए ।
कोई भी किसीका दुश्मन नहीं है कोई भी किसीको छानि नहीं पहुचाता है न कोई किसीको मार सक्ता है न किसीको कोई जन्म देवका छैन कोई किसीका पालन पोषण कर शरणभून रख सता है इसलिए किसी के साथ द्वेष नहीं करना चाहिए। किसी भी पदार्थ की प्राप्तिसे शोकातुर नहीं होना चाहिए ।
पदार्थोंके स्वरूपये जाननेवाला भव्यजीव समस्त पदार्थोंसे अपने मित्र समझे समस्त पदार्थो का कर्ता या भोक्ता नहीं माने मैं इस पदार्थका भोगनेवाला है ऐसा भी विचार अपने भावों में नहीं रखे । अपनेको सर्व पदाधसे सर्वथा अलिप्त माने । धन पुत्र मित्र गृह स्त्री ये तो प्रत्यक्ष भिन्न है ही परन्तु अपने शरीरको भी अपने से सर्वथा भिन्न माने-इतना ही नहीं द्रव्यकर्म और भाव कर्म अथवा मतिज्ञान आदिके भावोंको भी अपना स्वरूप नहीं माने । इन्द्रिय और मनके कार्य भी अपने नहि है ऐसा सर्वथा जाने | इसलिए इन्द्रिय और मनके संतोषार्थ हिंसा झूठ चोरी