________________
२५०] जीव और कर्म-विचार। । बंधके दशभेद है-------
वध १ उत्कर्पण २ संमाम ३ अपकर्षण ४. उदीरणा ५ सत्व ६ उदय ७ उपशम ८ निर्धात्त ह नि:काचना १०। "
कर्म और आत्म प्रदेशोंके साथ परस्पर दूध पानीके एकमेक (क्षेत्रागाही ) संश्लेष रूप संबंध होना सोबंध है । '
जिन कर्मोकेबंध सम में जितनी स्थिति हुई है उससे अधिक होना सो उत्कर्षण है। स्म्यक्त व मिथ्यात्वके प्रभावसे मायुका उत्कर्षण होता है। सम्म्दृष्टो जीव अपने भावोंकी विशुद्रनासे पुण्य प्रकृति तथा सायुधमकी स्थितिका उत्कर्पण करना है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टी जीव अपने भावोंकी मलिनतासे अशुभ प्रकृति तथा आयुमको स्थितिको बढ़ाता है। इस प्रकार स्थितिका चढ़ाना लो उत्कर्षण बंध है।
मायुषा बढ़ना वध्यमान मायुमें ही नियमसे होता है भुज्य. मानमें नहीं।
संक्रमणवंध-साविशय पुण्यके योगले जिस समय पाप प्रा. तियोंका उद्घ पलटकर पुन्य रूप अनुभागमे भाता है उसको संक्र. मण कहते है। इसी प्रकार पापके तीव्र योगसे पुण्य प्रकृतियोंका उदय पाप रूप पलट कर होता है उसको संक्रमण कहते हैं । पर प्रकृति रूप परिणमनको संक्रमण कहते हैं। . , अपकर्षण-सातिशय पुण्य पापके योगले (सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके प्रभावसे ) जिस समय आयुकर्मादि, प्रकृतियोंको स्थितिमें ह्रास होता है उसको अपकर्षण कहते है।