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________________ ५२. ] ! पश्चिम, देश के, बातावरण शिक्षाके द्वारा धार्मिक और अस्ति : कत्ता से परिपूर्ण भारतवर्ष में भी द्रनगति व्यामोहके जालमें बढ़ते चले आ रहे हैं इस प्रकार धीरे धीरे भारतवर्षका पवित्र गौरव - पूर्व लदाचार, नीति और दयापूर्ण धर्म नष्ट होता चला जा रहा है और . उसके स्थान में, दुराचार, दुर्व्यसन, कपटपटुता, विश्वासघाय 1 आन्याय, अधर्म और मलिनाचार घेढता चला मारहा है । वर्तमानकी शिक्षा धर्म-कर्म पुण्य और पापको नहीं मानती है इसीलिये पापाचार में अधर्म नही मानती है, दुर्नीतिको दुर्नीति नहीं : समझती । - न्यायालय में, सत्यको मिथ्या और मिथ्याको सत्य.. सावित करने में अधर्म नहीं मानती है, यह सब पाप और पुण्य एवं जीव नहीं मानने का ही दुष्परिणाम है। ¥ I 'जीव मात्रका हित जीव, पुण्य और पापके मानने से ही होगा । जीव माने बिना, या कर्म कर्मफल माने बिना कोई भी. मनुष्य और उत्तम सदाचार सका है । - उत्तम सदाचारको पालन नहीं कर सका ! पाले बिना आत्माका हित सर्वथा नहीं हो 4 .. जिन लोगों को संसारके विपम दारुण, दुःखोंसे भय है जन्म मरणकी, दुस्सह, पीडाको नाश करनेके जिनके भात्र हो, गये हैं । जो, क्षुधा तृषा- कामः क्रोध-मान: साया-लोभः मत्सर- द्वेष- रोग, और, समस्त प्रकारकी प्रपंचना भगाना चाहते हैं । जो आत्मीय अक्षय अनंत सुखको प्राप्त करना चाहते हैं । जो, समस्त जीवों पर : दया पालन - चाहते हैं । जो पापोंसे बचना चाहते हैं उनको 'सबसे, प्रथम जीवकर्म और कर्मफल, पर श्रद्धा रखनी चाहिये । - • 4 · F जीव और फर्म- विचार । f ? १
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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