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___ जीव और कर्म विचार । [५१६ सेवन करनेमें ग्लानि नहीं करते है। वरिक हिंसादि: पाप. फर्गेमें धर्म मानते हैं। स्वार्थसिद्धि होना ही धर्म है। अपने स्वार्य के लिये गोवध धर्म मानते हैं; मांस मदिरा सेवनकरनेमें धर्म मानते हैं। स्वस्त्री, परस्त्री, सधवा, विधवा, बहिन, कन्या आदि सब प्रकार की स्त्रियोंके साथ खुले रूपम व्यभिचार करते हैं। यदि सर्कारी कानून न हो तो मनुष्य। मनु. प्यफा भक्षण करने लग जाय तो इसमें कुछ भी आधर्य नहीं है। यों तो धनसंपनोंकी नीति है कि गरीवोंके हम । सत्ताधिकारी है। मालिक है चाहें उनका जीवन अपने स्वार्यके लिये रहने दे। चाहे अपने स्वार्थ के लिये उनका जीवन नाश करें।
पश्चिम देशमें नास्तिकता व्याप्त है, परिपूर्ण रूपसे नास्तिकता का वहां पर साम्राज्य है, तो वहाकी परिस्थिति केसी चारित्र विहीन, नीति रहित, दया रहित, स्वार्थसे भरी हुई- अतिशय निकृष्ट मलिनावरण परिपूर्ण है। पाप, और पुण्य न मानने वाले पश्चिमदेशका सदाचार कितना पतित है इसकी तुलना अधम, दशाको प्राप्त हुये इस भारतसे की जाय तो पश्चिम देशको दुराचार और दुर्व्यसनोंकी राजधानी कहने में जरा भी अतिश' योक्ति नहीं है। वहांकी समर्थ प्रजा अपने आधीनस्थ प्रजाको चाटने में जरा भी कोर कसर नहीं रखती है। - हिंसाके व्यापारमें धर्म मानती है। मायाचार , और विश्वासघातको नीति मानती है। इसी प्रकारकी शिक्षा भी सबको दी जाती है। यह सब जीवकर्म और कर्मफल नहीं माननेका ही दुष्परिणम है।