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जीवकर्म और कर्मफलकी प्राप्ति माने विना सदाचार के पवि
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जीव और कम विचार 1,
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न भाचरण सर्वथा नहीं हो सक्त, वास्तविक दयाका स्वरूप
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प्रकट नहीं होता । परिणामोंमें उतनी विशुद्धि ही नहीं है न अंतः करण में ऐसे दयाद्रभावोंके, विचार ही उत्पन्न होते हैं, न सन्नीति, और सदाचार, पालन करने के भाव होते हैं । नास्तिक भावोंकी, वासनासे विचार और भावोंमें तीव्रतर निष्ठुरता प्रत्यक्ष मूर्तिमान. स्वरूप धारण कर मा धमकती है । इसलिये बात-बात में अपने ' स्वार्थसिद्धि मोजमजा भोगविलालों की प्राप्ति के लिये द्र नगति से दौड लगाता है। इस प्रकारकी क्षैड धूपमें नीति और सदाचारका विचार नष्ट होजाता है। किसी भी प्रकारसे मुझे भोगविलास और मोजमजाकी प्राप्ति हो । चाहे उसकी प्राप्तिमें संसार का नाश होता
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हो, तो भले ही हो, अन्य असमर्थ और दीन प्राणियोंकी हिंसा,
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हो तो भले ही हो इसमें मेरी क्या हानि ? मुझे तो मेरे प्यारे भोगादि पदार्थों की प्राप्ति होना चाहिये ? मेरा जीवन भोगों की प्राप्ति में है और मेरा मरण भोगों की अप्राप्ति में है । मेरा सुख इन्मेंही है । यदि मुझे
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किसी भी प्रकार ( नीति अनीति पूर्वक) भोग्रोंकी प्राप्ति हो गई तो. स्वर्ग और मोक्षसुख प्राप्त हो गया । इसके सिवाय स्वर्ग और मोक्ष., सुख, नहीं हैं और भोगोपभोगसंपदा का नहीं मिलना, ही दुःख है, नरकका गम है । संसारमें ही स्वर्ग नरक है । इस प्रकार भोगविलासों की प्राप्तिमें ही मोक्षसुख माननेवाले नास्तिक लोग पापकरने में जरा भी नहीं डरते हैं, अनीति अत्याचार और जुल्म करने
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मैं भयभीत नहीं होते हैं। हिसा झु उ चोरी और नित्य कार्यों के
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