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________________ १७६ ] जीव और कर्म- विचार | निर्माण कर्म -- जिस कर्मके उदयसे जीवों को अपने अपने शरीरमें योग्य स्थानोंपर वक्षु यदि इन्द्रियोंकी रचना हो वह निर्माण नाम है । यह दो प्रकार माना है। स्थान निर्माण, प्रमाण निर्माण । शरीरके जिस भागमें जिस अवयवमें जिस स्थानमें जो इन्द्रिय और कायकी रचना चाँहिये वह वपर ठीक ठीक हो वह स्थान निर्माण है । और वह रचना जिनने माप जैसी छोटी बड़ी सुन्दर होनी चाहिये वेसी हो उसको प्रमाण निर्माण कहते हैं । निर्माण कर्मके फलसे नासिकाकी नासिका के स्थान में रचना होती है, कानके स्थान में नासिका नहीं होती है । इसी प्रकार जो नासिकाका प्रमाण लम्बाई चौडाई रूप माप होना चाहिये वैसी रचना होती है। जो यह वर्म न होता तो जीवोंकी नासिकाके स्थान में कान और कानके स्थानमें नासिका हो जाती । तथा विषमरूप अवयव वन जाते । अवयवोंकी स्वजातीयता कायम नहीं रहती है । वधन नामर्क्स - इस वर्ग के उदयसे जीवने जो पुद्गल वर्गर्णायें ग्रहण की है जिससे जीवोंका शरीर बना है उस शरीरमे पुद्गल वर्गणाओं का परस्पर संश्लेष संबन्ध होकर शरीर रूप बंधन वरावर बंधरूपमें हो पुद्गल परमाणु भिन्न भिन्न रूपमें इतस्ततः ( इधर उधर ) छूटे छूटे बिखरे रूप न हों वह वधन नामकर्म हैं । जो यह बंधन नाम न हो तो शरीरके अवयव वालुकाके समान बिखरे रूप हो जाते हैं । यह बंधन कर्म पाच प्रकारके हैं। औदारिक बंधन नामकर्श, वैकियिक बंधन नामकर्म, आहारक वंधन नामकर्म, तैजस बंधन नामकर्म, कार्मण बंधन नामकर्म, www
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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