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શ્કર
जीव और कर्म विचार |
करना यह सब
शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित पदार्थ रूप को करना और अपनी अंतर्दुष्टवुद्धिसे शास्त्रोंकी मिश समालोचना मिथ्यात्व है, दोष नहीं है, दोपकी कोटि इससे विलक्षण होती हैं । शंकादोपवाले मनुष्यकों सम्यक्त मलिन नहीं होता है नष्ट नहीं
व
होता है । और इस प्रकारकी शंका कर समालोचना
करनेवाले
मनुष्यका हृदय मिथ्यात्वकी दुर्वासना के कारण अनर्गल रूपले दृढ मिथ्यात्वरूप होना है भले ही चाहे वह अपनेको जैन कहते ना रहे या जैनत्त्र बननेका मिथ्या ढिढोरा पीटता रहे अथवा जैनकु जानका नाद बजाता रहे परन्तु वह तीव्र मिध्यात्वी है ।
कित
हों
इसीप्रकार अनुपगूहन दोष के स्वरूपमें विचार करना होगा । अपगृहन अगका अर्थ यह है कि किसी असमर्थ या अज्ञानो मनुयसे धर्म या चारित्र में ऐसा दूषण लग गया हो जिससे जैनधर्म कलकित होता हो या धर्मकी हंसी हो तो उस मनुष्यके दोपको ढक देना यह उपगूहन अंग है । इससे विपरीत सा । भाईके या संयमी जनोके दोपोंको प्रकट करना यह दोष है मल है इस दोष या मलके स्वरूप में इतना हो वक्तव्य है कि संयमी या साम भाई यदि कोई दोष लग गया हो तो उसको एक चार समझाना चाहिये इस प्रकार तीन चार वारकं समझानेपर भो वह अपने दोषको न छोडे ऋजु परिणाम न करें और सरलासे धर्मकी विशुद्धि धारण न करे तो समाजको धर्म की रक्षा के लिये उसके दोषको प्रस्ट कर देना चाहिये उसको धर्म ठा समा जाति और धर्ममैंले निकाल देना चाहिये ।