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________________ ३६ ] जीव और कर्म विचार । सच्चा न मानी जाय तो कृतकर्मों का फल भोगनेवालेका अभाव सिद्ध होगा, सो वन नहीं सका है । हिंसादि पंन्त्र भयंकर पापोंको गुप्तरूपसे करनेवाले जीवको उन पापका फल मिलना चाहिये या नहीं ? जो मिलना चाहिये ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाय तो उसका फल इस लोकमें प्राप्त होता है या परलोकमं ? जो पापका फल इस ही लोकमें प्राप्त हो जाता है ऐसा मानलिया जाय ? तो गुप्तरूप कार्यको राजा प्रजाआदि किसीको भी उन पापका परिज्ञान नहीं होनेसे दंड कौन प्रदान करेगा ? राजा प्रकट पापोंका दंड देता है । परंतु अप्रन्ट पापका दंड किस प्रकार दिया जा सकता है ? मानसीक दुष्कमोंका दंड कौन देगा ? क्योंकि मानसीक दुष्कर्म सर्वथा ही अप्रकट होते हैं । इसी प्रकार मानसीक कार्यके द्वारा जय करना, भले कार्यो का चितवन करना, मनसे देवके गुणोंका स्मरण करना, मनसे जगतके दुखी प्राणियोंके उद्धार होनेके विचार प्रकट करना, मनसे प्रभुका ध्यान रखना आदि मानसिक व्यापारके द्वारा होने वाले पुण्य कर्मों का फल आत्माके बिना कौन भोग सक्ता है ? शरीरादि इस पुण्य फलको भोगने में असमर्थ है । यदि शुभाशुभ कर्मो का फल अवश्य ही प्राप्त होता है ? तो वह जीवके माने विना किसको प्राप्त होगा ? जिन कसका फल इस लोक में प्राप्त नहीं हुआ है और कर्म अतिशय तीव्र किये हैं तो उसका फल प्राप्त होगा या नहीं ? यदि कृत कर्मों
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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