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________________ जीव और कर्म विचार 1 १०८ ] 1 वृक्ष आदि एकेन्द्रिय प्राणियोंमें कितना मैदान हैं कि जिसका व्यंक्तीकरण होना ही दुर्घट है । कृमि कुंधादि क्षे इन्द्रि य प्राणियों में भी इसी प्रकार केमके विशेष आवरण द्वारा मंद-शान है। इस प्रकार इन्द्रियोंकी शक्ति परिपूर्ण होनेपर पशु आदि में कमौके विशेष आवरणसे यह ज्ञान होता है कोई कोई मनुष्यों में बिलकुल मंदज्ञान होता है और कोई मनुष्यमे अधिक ज्ञान होता है यह सब कर्मके आवरणका फल है । दो इन्द्रिय आदि जीवोंमें श्रुतज्ञानावरणकर्मका जितना क्षन्योपशम हैं उतने रूपमें वह अपना इन्द्रियोंके द्वारा हिताहित प्रवृत्ति F करता है । परन्तु सही पर्याप्त मनुष्य ( मन सहित ) को श्रुतज्ञाकर्मके क्षयोपशम से जो हिताहितक ग्रहण और निवृत्ति रूप विचारात्मक जो श्रुतज्ञान होता है वैसा श्रुनज्ञान असंज्ञो जीवको नहीं होसका है । श्रुतज्ञानका विषय मनका है । मनमें विचारात्मक शक्ति होती है। ध्यान, चितवन, पदर्थोंके स्वरूका मनन, पदार्थो को कार्यकार णताका ऊहापोहात्मक विचार-शब्दोंके द्वारा ग्रहीत पदाथ की पूर्व पर्याय व उत्तर पर्याय के फलका बिचार-इत्यादि अनेक प्रकारका श्रहण निवृत्ति रूप विचार यह सब श्रुतज्ञानका विषय है | श्रुतक्षानावरण कर्म उपर्युकज्ञान के कार्यों का आवरण करता है । श्रुतज्ञानावरण कर्मके आवरण से जीवोंको मोक्षमार्गका विचार नहीं होता है जैसे जैसे श्रुतज्ञानावरण कमका क्षयोपशम विशेषरूपैसे होता जायेगा वैसे वैसे आत्मामें मोक्षमार्गका प्रकाश अति उज्वलरूपसे प्रतिभासित हो जायगा ।'
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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