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________________ जाव मोर कम-विचार [ १०० हेयोपादेयके प्रण और त्यागका दिवादित प्रवृत्तिका विचार नहीं होता है। अथवा सात्मदिन और आत्माका अहितके मदण त्यागका शिवारात्मक धारणा नहीं होती है । अक्षरात्मक श्रुत द्वारा शब्दोंका वाच्यठासे पदार्थोके गुणधर्म कार्य परिणति मादिके विषयमें दिवारात्मक शकिका भावरण नमानावरण कर्म करना है। भावात्मक श्रुनानका भावरण मी तानावरण करता है । नानका स्वरूप ग्यारह अंग और चौदद पूर्व तक बतलाया है । अथवा जिनने शब्द और अक्षरोंका संकलन द्वारा जो पदार्थोंकी मान्यताले जो विचारात्मक उहापोहरूप प्रवृति होती है पढ़ समस्त मानका विषय होता है। इसलिये नज्ञानका विषय अनं है और विषय भेदने श्रुतज्ञानके भेद प्रभेद ही अनंतानंत है।' श्रुतावरण उन समस्त भेद-प्रभेदोंके श्रुतज्ञानको जावरण करता है। मनिज्ञान और शान होता है । समय संभाजी केन्द्रियन्पितिक जीव भी धूनशान होना है। सबसे अंतिम आवरण पैसे निगोदिया जीनोंमें जो पर्याप्तक जन्य अवगाहना और सबने जघन्य ज्ञानकी शक्तिको धारण कर रहे है दोना है। वापर अक्षरके अनंतवे भाग ज्ञान है इससे अधिक आवरण माना जाय तो आत्माका हो समाव होगा इसलिये ज्ञानका आवरण आत्मापर कितना होसंकाहै इसका विचार सबको प्रत्येक समय रखना चाहिये ।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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