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जोव और कम-विवार।
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भावोंकी स्थिरता न हो, मनकी गंभीरता न हो। वह सब वीर्या. न्तराय कर्म हैं। अथवा शक्तिको जो उत्पन्न न होने दे वह वीर्यास्तराय धर्म है।
अन्तगयनर्मको न माना जाय तो व्यापारादिक में होनेवाली हानिका लोप होगा। जो प्रत्यक्ष सबको अनुभत्रित है। इसी प्रकार भोग उपभोग आदि सामग्रो सेवन करने में भी कभी ऐला विन दीखता है कि पदार्थ सामने हाथ पर आजाने पर भी उसका सेवन नहीं होता है। इच्छा होनेपर प्राप्त नही होता है।
दान देनेके परिणाम होने पर या दान देने पर भी उस वस्तुसे ममत्व भार नहीं जाना है सो सव अतराय कर्मका उदय ही समझना चाहिये।
इसोप्रकार वीर्यान्तरायका कार्य सबको प्रत्यक्ष प्रतिभा. सित है। कौन कौनसे कार्य करनेसे कौन कौनसे कर्मका
बंध होता है। 'नावर्ण कर्मके बंधके कारण नानके साधनोंमें विघ्न करना, जान साधनोंका लोप करना, सत्य और प्रमाणित ज्ञानको पित फरना, विद्वानोंसे जैन पंडितोंसे मत्सर भाव रखना, पडिनोंको मिथ्या अवर्णवाद लगाकर जानकी दृष्टिमें रोडा करना, सस्कृत पाठशालाके चंदामें विधन करना, शास्त्रोंकी मिथ्या समालोचना करना, ज्ञानी आचार्योंके वीतराग भावोंको दूषित बनाना, अपनी