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जीव और कर्म-विचार। कर्मवंधन रहित बना रहा हो । या रागद्वेष रूप न रहा हो। म. नादि कालसे हो आत्मामें रागद्वेष कर्मके संबंधसे है और उन रागद्वेपसे कर्मोंका संबंध भी अनादि रूप है ही।
यद्यपि प्रति समय आयु-क को छोड़कर अन्य सात फर्मोंका बंध और निर्जरा होती ही रहती है। नवीन कर्मों का वध सतत होता ही है और पूर्ववद्ध कर्मोकी निर्जरा भी सतत् होती रहती ही है। इस प्रकार आत्मा अनादिकालसे सतत् प्रवाह रूप कर्मवद्ध अवस्थामे अशुद्ध रूप ही है ।
समस्त कर्मों में से एक मोहनीय कर्म ऐसा है जिसके द्वारा आत्माकी परिणति किसी अवस्थामें हो ही नहीं सक्ती, अन्य ज्ञानावरण आदि कर्मों का फल (क्षमोपशम) अपने अपने अनुरूप होता है। परंतु एक मोहनीय कर्मका फल उन समस्त कर्म फलों में विपरोतता ला देता है। जिससे आत्माका ज्ञान विपरीत होता है, दर्शन विपरीत होता है । अघातिया कर्ममे मोहनीय कर्म विशेष कार्य नहीं करता है क्योंकि अघातिया कोसे आत्माके गुणोंका विशेष धात नहीं होता है। इसलिये उस पर विचार भी नहीं किया है।
मोहनीय कर्मके उदयसे जीवोंमें रोगषकी जागृति विशेष रूपसे बनी रहती है। जिससे पर-पदार्थ में अभिरुचि, विपरीत श्रद्धान, आत्मश्रद्धानका अभाव, असत्य पदार्थों में प्रमाणता और सत्य पदार्थमें अप्रामाणिकता होती है
इन्द्रिय जनित ज्ञानमें विपरीतता भी मोहनीय कर्मके उदयले