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जीव और कर्म विचार ।
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"एकमेव परंब्रह्म नेह नानास्ति किंचन" इसप्रकारका सिद्धांत किसी प्रकार भी युक्ति और प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता है । भागमकी विरोधता प्रत्यक्ष है। तथा कर्म और कर्मका सिद्धांत किसी प्रकार नहीं बनेगा तथा परमात्माको रागी द्वेषी सदोष मानना पडेगा ।
कितने ही मतवादी जीवात्मा और परमात्माको पृथक् पृथक् मानते हैं । परन्तु परमात्माको जीवात्माका कर्ता सुख दुःख प्रदान करनेवाला ( सृष्टि कर्ता ) मानते हैं । परमात्माको वे दित्य निरंजन व्यापक निराकार और सर्वशक्तिमान मानते हैं । और जीवात्माको परमात्माके आधीन अकिंचकर मानते हैं ।
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इस प्रकार माननेमें वस्तुका स्वरूप सत्य और प्रमाणित रूपसे किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सका है। न जीवात्माका ही स्वरूप सिद्ध हो सका है और न परमात्माका ही रूप सिद्ध होता है दोनों के लक्षणमें मनंत दूषण प्राप्त होते हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से विरोध होता है । इसका विवेचन एक स्वतंत्र रूपसे स्पष्ट किया जा सका है । परन्तु ऐसा करने में सप्रसगता होती है इसलिये संक्षेपमें यहां पर दिग्दर्शन कराते हैं ।
ईश्वर व्यापक होकर समस्त सृष्टिको बनाता है ऐसा माना जाय तो व्यापक वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रिया नहीं हो सक्ती है क्योंकि एक देशसे देशांतर होना ही क्रियाका अर्थ है । व्यापक वस्तु देशले देशांतर होनेकी शक्ति नहीं है । जो व्यापक वस्तु में
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देशसे देशांतर होने की शक्ति मानी जाय ? तो वह व्यापक नहीं