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जीव और फर्म-पिचार । और इंद्रियां शरीरमय है । शरीरको छोडकर इंद्रियां अन्य नहीं हैं और इद्रियको छोड़फर शरीर कोई दूसरी चीज नहीं है। इसलिये शरीरको आत्मा मानना सर्वथा असंगत है, प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणसे बाधित है। नब शरीर मात्मा नहीं है तब इंद्रियोंको जीव मानना भी प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणसे बाधित मानना पड़ेगा।
इंद्रियोंमें जीव नहीं माने और मनको जीव माने तो फिर या हानि ? मनके दो भेद है-द्रव्य मन और भाव मन । द्रव्यमन-अष्ट कमलके आकार का जो पुद्गलकमौकी रचना रूप शरीरमें आकार है वह द्रव्यमन है। यदि द्रव्यमनको जीव मान लिया जाय तो शरीरको ही जीव मानना पडेगा। वह प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से सर्वथा वाधित है। __ भाव-मन जीवके ज्ञानादिक परिणाम हैं । मनका कार्य विचाररूप है, हेयोपादेय वस्तुका विचार करना है, हिता-हित मार्गका जान लेना है । उस ज्ञानमें विचारात्मक शक्ति, मननरूप शक्ति, निदध्यासनरूप शक्ति मनले हो होती है। यह ज्ञानका कार्य है। मनको झानसे भिन्न मामा जावे या अभिन्न माना जावे ? जो मनको ज्ञानसे भिन्न माना जाय तो मनको शानसे पृथक् घस्तु मानना पड़ेगा। इसलिये मनको जीव नहीं मान सक और न मनमें चैतन्यशक्ति मान सके हैं। कदाचित् मनको ज्ञानसे अभिन्न माना जावे तो मन कोई पदार्थ नहीं ठहरेगा ! क्योंकि ज्ञानको ही मन माननेसे ज्ञानसे भिन्न मन अन्य कोई वस्तु नहीं है। ऐसा सुतरां सिद्ध हो जाता है।