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६२. जीव और कर्म विचार। सपाष्ट्रस्थान रूप अवश्य होती ही रहेगी। एक परमाणु जो अत्यन्त सक्षम हैं नेत्र इन्द्रियके गोचर नहीं है। इससे सूक्ष्म घस्तुकाः रूप नहीं है। परंतु , उस परमाणुके गुणोंमें, अगुरुलघुगुण द्वारा परिणमन होगा ही। परमाणुके (एक तप या गंध आदि किसी गुणको ले लीजिये) रूपगुणमें जो असंख्यात अविभागी प्रतिच्छेद हैं उन अविभागी प्रतिच्छेदोंमें अनंतमाग वृद्धि या हानि पट रूप होगी ही। जो द्रव्यके मूलरूप परमाणुमें और परमाणुके गुणों, में इसप्रकार परिणमन माना जाय तो परमाणुओंके बंध रूप, स्कंधमें अर्थक्रियाका अभाव होगा। शुद्ध जीव द्रव्य (सिद्ध, परमात्मा) के द्वारा निरंतर परिणमन होता है।
' द्रव्यमै उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका विचार किया जाय तो. उसका मल कारण सत्तागुण और सहकारी कारण द्रव्यत्व आदि गुण हैं। आभ्यंतर कारण द्रव्यको सत्ता शक्ति है और उस शक्तिमें सहायक द्रव्यत्व और अगुरु लघु गुण है । जो द्रव्यमें उ. त्पाद होने की शक्ति ही नहीं हो तो द्रव्यमें परिणमन हो नहीं' सका। इसलिये समस्त द्रव्योंमें स्वभावतया परिणमन होनेकी - शक्ति है। तय ही तो द्रव्यमें परिणमन होता है उत्पाद व्यय और ध्रौव्यपना होता है । परिणमन होते हुये भी द्रव्य अपने २ गुणको' अपने अपने स्वरूपको सर्वथा नहीं छोडती है गुणोंका नाश नहीं होता है । और गुणोंका नाश नहीं होनेसे द्रव्यंका नाश नहीं होता है। इसीलिये उत्पाद और-व्यय होतेपर भी द्रव्यमें नौव्यता नियमित रूपसे, बनी रहती है।