________________
४४]
जीव और कर्म-विचार।
प्रसिद्ध प्रोफेसरोंसे निर्णीत न हो सके उसका निर्णय वह बालक फरता था। इस प्रकार विना शिक्षा प्राप्त किये गणितका चम. त्कार घतलाना और गणितके तत्वोंकोसांगोपांग जान लेना पूर्वभवके शुभ संस्कारोंका ही फल समझना चाहिये? इसीलिये कहना पड़ता है कि ऐसे संस्कार जीवको ही सिद्ध नहीं करते है किंतु कर्म और फर्म-फलका प्रमाण प्रत्यक्ष प्रकट करते हैं।
इस प्रकार जीय-पदार्थको नहीं माननेवालोंके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाणसे जीवकी सत्ता स्वयमेव सिद्ध होती है। मागम प्रमाणसे भी जीव सत्ता लिरावाध सिद्ध हैं। गुक्ति और तर्कफे द्वारा भी नीवकी सत्ता पूर्णरूपसे निर्धारित होती है।
अवधिज्ञानी और मनापर्ययक्षानी मुभि ( योगी ) आत्माका साक्षात् अनुभव फरते है, योगियोंके शाममे मात्माका ससाव प्रत्यक्ष रूपसे प्रतीत होता है। इतना ही नहीं किंतु निमित्त-ज्ञानी भी जीधफे सद्धावको अपने ज्ञानके द्वारा प्रकट करते हैं। कर्म और कर्मका फल भी ज्योतिपके द्वारा प्रकट होता है। जीवके विना फर्म और फर्मफल किसको प्रकट होगा?
शरीरमें जीव नहीं माना जाय तो स्वतंत्रता पूर्वक होनेवाल ज्ञान-क्रियाओंका अभाव हो जायगा। जिससे एक भी क्रिया ज्ञानपूर्वक नहीं होगी। यत्र आदिसे जो क्रिया होती है वह ज्ञान-पूर्वक स्वतंत्र रूपसे नहीं होती हैं। किसी न किसी रूपमें पराधीनताका आश्रय ग्रहण करना पड़ता है परंतु सचेतन पदार्थों में क्रिया निराधय होती हैं। इसलिये मालुम पड़ता हैं कि जीव-पदार्थ इस