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जीव और कर्म-विवार । ऐसा सकोच विस्तार करना ही पड़ता है परन्तु शुद्ध जीवोंमें ऐसा संकोच विस्तार नहीं है।
शुद्ध जीवके प्रदेशों में ऐसी विलक्षण शक्ति है कि एक शुद्धजीव की आकृतिमें अनंत-जीव सव्यावाध रूपमे रह सक्ने है ऐसा अवगाहन और अव्यावाधित गुण शुद्ध जीवमें है। परंतु शरीरी जीवोंके शरीरकी रुकावट होती है मनुप्यके शरीरको पर्वत, भित्ति आदि रोक सके हैं। परंतु शुद्ध जीवमें ऐसी बात नहीं है।
शुद्ध जीव अपनी पर्यायसे नित्य, हे कल्पातकाल व्यतीत होने पर शुद्ध जीवकी पर्यायमें विकृति नहीं होती है। चाहे त्रिलोफमें उथल-पथल हो जाय । चाहे समस्त संसार (लोक) का परिवर्तन हो जाय । चाहे समस्त संसार प्रलयको दुर्धर्ष अनिले भस्मीभूत हो जाय । चाहे संसारको उडा लेने वाला प्रलयकालका झावात समस्त संसारको उडा देवे। परन्तु शुद्ध जीबमे किसी प्रकार भी विकार नहीं होगा जो पर्याय प्राप्त की है वह उसी प्रकार वैसी ही शाश्वत रूपमें अधिनश्वर (नित्य ) बनी रहेगी। परंतु अशुद्ध जीव अपने कामोंकी पराधीनताले निरतर अगणित पर्यायोको धारण करता है। कभो मृग होता है, कभी गदहा होता है, कभी माजार होता है, कभी वृक्ष होता है, कभी ऊंट होता है, कमीत्री होताह कभी पुष होता है, कभी नपुंसक होता है, कभी पुत्र होता है, कभी पिता होता है, कभी देव होना हैं, कभी शूभर होता है, कभी काना होता है, कभी एक टागफा होता है, कभी तीन टागका होता है, इस प्रकार अगणित रूप अशुद्ध जीवके हो रहे हैं। इन