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२१०] जीव और कर्म-विचार । । संस्कारोका पालन करना जैनधर्मको पवित्र भावोंसे सेवन करना, देव शास्त्र गुरुको श्रद्धा करना, जिनपूजन करना, व्रतः धारण करना, सम्यकदर्शनके आठ अंगोंका पालन करना, प्राणोंकी. नोछावर कर जिनधर्म और जिनायतनोंकी रक्षा करना, धर्मायतनो में दान देना, सप्तक्षेत्रको पुष्ट करना, जैन धार्मिक विद्यालय और धर्मात्मा पंडितों की तन मन धनसे प्रेमपूर्वक सहायता करना सो सब संसारको त करने के कारण है। पुण्यकाय है।
पुण्यप्रकृतियोंके उदयसे जीवों को सुख प्राप्त होता है । और पाप प्रकृतियों के उदयस जीवोंको दुःप प्राप्त होता है। धन भोग संपदा स्त्री पुन मित्र महल हाथी घोडा रत्न, नोकर चाकर भादि साधन पुण्यकमेके फल हैं। दुख दरिद्रता पुत्र वियोग, स्त्री वियोग-रोग अल्पायु-चिता शोक संताप-अनिष्ट संयोग आदि पापक मोका फल है। इसलिये पुण्यकार्यको सदैव परते रहना
चाहिये । भावोंकी संभाल रखबर पुण्यकार्य करना चाहिये । परि__णामोकी निर्मलताके साथ पुण्यकार्य किये जाय तो अचित्य फल प्रदान करते हैं। पुण्यकार्यों में गृहस्थोंके लिये दो मुख्य कार्य है पूजा और दान । पटआवश्यक कार्य ये सब पूजा और दानके ही भेद हैं व्यापार और पंचसूना पापोंसे जो परिणामोंमें मलिनता प्राप्त होती है, वह जिनपूजन और दानसे नष्ट हो जाती है परिणामोंमें निर्मलता आती है यहापर दान शब्दका अर्थ सुपात्र. दान या सप्तक्षेत्र दान ही समझना चाहिये, कुपात्र और कुशिक्षामें प्रदान किया हुभा दान मिथ्यात्वका कारण होनेसे उलटे परिणा..