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जीन और फर्म-विवार। [२०६ प्रत्येक प्रकृतियोंके संक्षिप्त आश्रवफा दिग्दर्शन ऊपर किया है कितने ही कार्य ऐसे होते है कि जिनसे शुभकर्म प्रकृतिका बंध होता है । और क्तिने ही कार्य ऐसे हैं कि जिनसे केवल ससारको बढ़ानेवाला वध होता हैं। कितने कार्योंसे सप्त परमस्थान प्राप्त होते हैं। इसलिये समस्त कार्यों का वध करनेवाले कारणोंशा स्वरूप संक्षिप्तमें यतला देना परमावश्यक होगा।
सबसे दीर्धतर बंध मिथ्यात्य सेवन करनेसे होता है। कुदेव कुशास्त्र-कुगुरुका संवा करना, सूर्य ग्रहणमें दान करना, गगाम स्नानकर धर्म मानना, सती होना (जल मरकर ) जैनधर्मको हंमी फरना, मुनीश्वरोंकी निन्दा करना, शास्त्रोंकी प्रमाणता और पवित्रतायो नष्ट करना कुशिक्षामें दान देना जिल शिक्षासे धर्मशास्त्रका बडन पिया जाय । और सदाचार पुण्य पाप तथा उनके फलोंका पेच करना, केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष पदार्थोंको मानना आदि नास्ति भावों का पैदा करनेवाली विद्याका कुशिक्षा कह. से हैं। अपात्रम दान देना, मिध्यामागेको बढ़ाना, धर्मशाल विरुद्ध कार्य करना, राजाके विरुद्ध पटयंत्र रचना, वन दाह करना, क्तले याम मचाना, मक्खियोंके छत्ताको तोडना कसाईखाना खोलना, मंदिर तोड़ना, शास्त्रोंपर सोना ,खाना पीना, मूर्तिको तोडना, मुनिहत्या करना मास खाना, झूठे दस्तावेज बनाना । मलिन मापाचारपूर्ण भाव रखना अति रौद्र परिणामसे ससा. रफो हानि पहुचाना धर्मात्मा भाइयोंको ठगना इत्यादि, सर्व दीर्थ ससारके कारण है।