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जीव और धर्म-विवार। [१६३ संचलन कयाय-जिस कपायके उदयसे जीव संयमके साथ मंतरंग परिणामोंमें प्रमादादि दोषकद्वारा आत्मपरिणामोंको जलाने (संयमेन सह ज्वलंति संज्वलति) उसको संज्वलन कपाय कहते हैं।
अथवा जिस पायके उदय होनेपर यथारयात चारित्रका ज्वलन हो ययात्यात चारित्र प्रक्ट न हो वह संज्वलन कपाय है।
यधारयात चारित्रको हात करनेवाला संचलनकपाय है। मदावनादि धारण करने में किसी प्रकारकी याधा नहीं होती है तो भी कोको दलन करने में समर्थ ऐमा यथाख्यातचारित्रको प्राप्त नहीं होता है।
संचलन क्रोध-जिसके उदयसे परिणामों में जलरेखाके समान फ्रोध हो वह संचलनकोध है ।
जलमें रेखा करनेपर तत्काल नट हो जाती है। समय मात्र. कीभी देगे नहीं लगती है। इसी प्रकार जो कोधका उदय होने. पर शीत्र ही नष्ट हो जावे-मोर परिणामोंमें क्रोधकी वासना विशेष रसोत्पादक न हो। क्रोधके वशीभूत होकर अनिष्ट चितवन तक नहीं करे। क्रोधके वशीभूत होफर व्रत चारित्रको नष्ट नहीं कर देवे। महाव्रतमें किसी प्रकारकी न्यूनता धारण नहीं करे एवं परिणाममि जोर हिंसाके भाव-मृपालाप कुशीलभाव परिग्रहकी तृष्णा यादि दुर्भावोंको नहीं धारण करे उसको संचलन क्रोध कहते है तोभी संचलनक्रोधके उदयसे चारित्रमें प्रमाद उत्पन्न हो तथा ययाख्यातवारित्र (कर्मों को नाश करनेवाला) प्राप्त न हो उसको संज्वलनक्रोध महते हैं।