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________________ २५४] जीव और कर्म-विवार । मनुध्यपध-मुनिहत्या. राजवच प्रजा पोडन और घोर अत्या. चार का फल तत्काल हो उदय रूपमें आता है जिससे लक्ष्मीका विनाश होजाता है पुत्र स्त्रो भाई कुटंब परिवारका वियोग होजाता है, समस्त वैरी बन जाते है, रोग शोक आधिव्याधि और . उपाधि आ धमकती है फिर चारो तरफसे दुःखहो दुख गोकर होता है। इसलिये पापकार्यों के फरते समय विचार करो परोपकार करनेके लिये भी जीव वध या अन्यान्य सेवन मत करो जैसे कि राष्ट्रोन्नतिको परोपकार यतलाकर क्रान्तिकारी दुर्नीतिक द्वारा घोर पाप करते हैं। और अपनेको नेता- ( सन्मार्ग प्रकाशक ] बनने की डीग मारकर जगतको ठगते हैं । दूसरोंके धन संपत्ति पर ताधिन्ना ताधिन्ना करते है मौज मजा करते हैं। सैल सपाटे उड़ाते हैं और चाहे जो खाते पीते हैं। मनुष्य भवप्राप्तकरनेका फल विचार करना चाहिये कुशिक्षाके दुर्शानमे मनुष्यभव प्राप्त करने का सौभाग्य व्यर्थ ही नहीं खो देना चाहिये कुछ पुण्यसंपादन कर अपना भला करना चाहिये। प्रदेश बंध मन वचन कायके व्यापारसे ५ क्रियाले) होता है इस लिये मन वचन कायक द्वारा ऐसे कार्य करना चाहिये जिससे विशेष पुण्य बंध हो, और पापकर्माका अनुमाग शुमरूप परिणमन हो । वे पुण्य कार्य में हैं। : । कायके पुण्यकार्य- , , , "हढ आसनसे सामायिक- करना, कायोत्सर्ग धारण करना निर्यिकार गुरुसेवा करना भगवानका प्रक्षाल करना तीर्थयात्रा
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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