________________
-
-
जीव और कर्म-विचार। [१५१ पिलमें गये। ___ इसलिये यह मान आत्माके संयम और सम्यग्दर्शनका नाशकर
आत्माके गुणोंका घातकर आत्माको अनंत संसारी बनाता है। - मानके आठ भेद है। कुल १ जाति २ ज्ञान प्रतिष्ठा ४ वल ५ मृद्धि तप ७ और शरीर ८ की सुदरता इन आठ कारणोंसे आत्मा अभिमान धारण कर अपनेको श्रेष्ट मानता है। पर-पदा.
श्रित होनेवाली पर्यायोंमें मात्मवुद्धिको धारणाकर उस पर पदार्थकी पर्यायको श्रेष्ठ मानना यह मिथ्यारुचि है, मिथ्याज्ञानका परिणमन है। इस प्रकारक मिथ्यापरिणमनसे जीवोंको सद्विचार विवेक नीति और धर्ममर्यादाका ज्ञान नहीं रहता है, हताहित मार्गका ज्ञान नष्ट हो जाता है, धर्म अधर्मकी पहिचान नहीं होती है, भलाई बुराईका विवेक नही रहता है।
अनंतानुबंधी माया-इस मायाकर्मके उदयसे जीव वंशके मूल समान (जिस प्रकार वास (वेणु) की वक्रता बहुत ही जटिल होती है, परिणामोंकी वक्रता कुटिलता विश्वासघातहाको नहीं छोडता है। परिणामों में सरलताको प्राप्त नहीं होता है वह अनंतानुबंधी माया कषाय है।
. चंशकी वक्रता संसारमें प्रसिद्ध है। भूलभुलैयाके वकको मनुख्य समझ सक्ता है और प्रयत्न करने पर उस वक्रताको दूर कर • सका है। परंतु वंशके मूलकी स्वाभाविक वकता किसीप्रकार नष्ट नहीं होती है। ऐसे ही जो मायाचारी जन्मांतरमें भी अपनी चक्रताको नहीं छोड़-परिणामोंकी कुटिलता-पाप प्रवृत्ति और