SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव भोर कर्म-विचार । १६५ पहे तो भी बोधके परिणाम होते हैं। और उससे नार खान मादि कि ा भी करता यह प्रत्यारत कोध। प्रत्याख्यानमान-जिस उदयले बोवलकड़ी के समान मानक'यायको प्राप्त हो वह प्रत्याहयानमान रूपाय है। जिस प्रकार लकड़ी __ सहज प्रयत्न कनेपर नम हो जाय-मधिक समय तक नहीं ठहरे । जिस मान उदास जीव सर्व जीववधका प्रत्यागन नहीं कर सके। और आत्माले परिणामोंमें रेला अभिमान न हो कि निसले नोति मर्यादा, धर्म मर्यादा और संचमको मर्यादाक्षा सर्वथा लोपकर देवे। प्रत्यख्यान माया-जिसके उदयसे जीव गोमूत्रके समान सायामानानो प्राप्त हो । __ इस मायाचार भावले जीव मुनिव्रतके चारित्र धारण करने में अलाई होता है। परन्तु हस्थके योग्य देशव्रत पूर्णरूपसे धारण कर सका है। यपि मायापाय परिणामोंमें वक्रता उत्पन्न करता है और उसरे परिणामों की जुना प्राप्त नहीं है सरलता नहीं है। उतनी विचन्हों है जितले महात्र धारण करने योग्य अपनी आत्मा. -को बना सके। ___ मायाचार पायले डोंगरूर दारित्रको धारण होता हो। ऐसा मानेकी जपत नहीं है। मायाशल्य और मायाफपायमें यहुत ही भेद है। मायाक्षाय (प्रत्याख्यान माया कषाय)का उदय शल्यके समान व्रतोंमें ढोंगको प्राप्त नहीं करता है। किंतु
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy