Book Title: Dhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो प्रथम और अंतिम सक्ति ध्यान-साधना के लिए साम-दामा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे मन में ओशो के लिए अगाध प्रेम है। बुद्ध के बाद वे ही एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने चेतना के अंतिम स्तर -महापरिनिर्वाणात्मक स्तरका स्पर्श किया है। उनके साथ जुड़कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। महाकवि नीरज मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण, दर्शन और धर्म के चौराहे पर ओशो सबसे महत्वपूर्ण और सबसे सफल शिक्षक हैं। डा. गाई एल. क्लेक्सटन, डी. फिल. (आक्सफर्ड) शिक्षा मनोविज्ञान के व्याख्याता यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन, यू. के. भगवान श्री रजनीश अब केवल 'ओशो' नाम से जाने जाते हैं। ओशो के अनुसार उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द 'ओशनिक' से लिया गया है, जिसका अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना। 'ओशनिक' से अनुभूति की व्याख्या तो होती हैं, लेकिन वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के संबंध में क्या? उसके लिए हम 'ओशो' शब्द का प्रयोग करते हैं। बाद में उन्हें पता चला कि ऐतिहासिक रूप से सुदूर पूर्व में भी 'ओशो' शब्द प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अभिप्राय है: भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति, जिस पर आकाश फूलों की वर्षा करता है। Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलनः स्वामी देव वदूद, बी एफ ए, एम एल ए (हार्वर्ड), डी फिल एम (आर आई एम यू) अनुवादः स्वामी संजय भारती, बी कॉम संपादन : स्वामी योग चिन्मय, एम एम, डी फिल एम (आर आई एम यू), आचार्य टाइपिंग: स्वामी अनुराग धर्मा, एम ए (यूनीवर्सिटी आफ हैमबर्ग) डिजाइन: मा प्रेम प्रार्थना, एम एस सी टाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे संयोजन : स्वामी योग अमित, बी एस सी प्रकाशक : रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे मुद्रण: टाटा डॉनली लिमिटेड, मुंबई Translation Copyright © 1990 Osho International Foundation All Rights Reserved Originally published under the title 'Meditation: The First And Last Freedom Copyright © 1988/1990 Osho International Foundation All Rights Reserved सर्वाधिकार सुरक्षित इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन की लिखित अनुमति अनिवार्य है। पांचवां विशेष राजसंस्करण : मार्च, 1998 ISBN 81-7261-029-7 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति ध्यान-साधना के लिए मार्ग-दर्शिका Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति xiv भूमिका पाठकों के लिए सुझाव पहला खंड ध्यान के विषय में 2. ध्यान क्या है? 2. साक्षी है ध्यान की आत्मा 6. ध्यान की खिलावट 6. गहन मौन 7. संवेदनशीलता का विकास 7. प्रेम-ध्यान की सुवास 8. करुणा 8. अकारण सतत आनंद 8. प्रतिभा प्रत्युत्तर की क्षमता 9. एकाकीपन तुम्हारा स्वभाव है 10. तुम्हारा सच्चा स्वरूप दूसरा खंड ध्यान का विज्ञान 12. विधियां और ध्यान 12. विधियां सहयोगी हैं 13. प्रयास से शुरू करो 13. ये विधियां सरल हैं 14. पहले विधि को समझ लो 15. सम्यक विधि का बोध 15. कब विधि को छोड़ना 16. कल्पना तुम्हारे लिए कार्य कर सकती है 18. साधकों के लिए प्रारंभिक सुझाव 18. ध्यान का समय 18. उपयुक्त स्थान 19. सुखपूर्वक होओ 19. रेचन से प्रारंभ करो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति ध्यान का विज्ञान 24. मुक्ति हेतु दिशा-निर्देश 24. तीन अनिवार्यताएं 24. खेलपूर्ण रहो 24. धैर्य रखो 25. परिणाम मत खोजो 25. बेहोशी का भी सम्मान करों 26. यंत्र मदद देते हैं परंतु ध्यान निर्मित नहीं करते 27. तुम अनुभव नहीं हो 29. द्रष्टा साक्षी नहीं है। 30. ध्यान एक गुर है, एक 'नैक' है तीसरा खंड ध्यान की विधियां 35. जागरण की दो शक्तिशाली विधियां 37. सक्रिय-ध्यान : रेचन और उत्सव 39. सक्रिय-ध्यान (डाइनैमिक मेडिटेशन) के लिए निर्देश * 40. स्वयं को नया जन्म देना 43. साक्षी बने रहो 45. कुंडलिनी ध्यान * 47. ओशो ध्यान चिकित्सा-समूह 49. “मिस्टिक रोज़" ध्यान * 51. हंसी के लिए निर्देश 52. रुदन एवं 'शिखर पर बैठे द्रष्टा' के लिए निर्देश 53. "नो-माइंड" ध्यान 1. नो-माइंड ध्यान के लिए निर्देश * 55. "बॉर्न अगेन" 56. बॉर्न अगेन के लिए निर्देश Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vii ध्यान की विधियां ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति 57. 57. 59. 60. व्हिरलिंग ध्यान * नृत्य : एक ध्यान नृत्य में खो जाओ नटराज ध्यान * भी ध्यान बन सकता है 63. कुछ 65. दौड़ना, जॉगिंग और तैरना 67. हंसना ध्यान 68. हंसते हुए बुद्ध 69. धूम्रपान ध्यान 71. श्वास: एक सेतु — ध्यान तक 73. विपस्सना * 75. चलते हुए विपस्सना: चंक्रमण 76. श्वासों के बीच के अंतराल को देखना 78. बाजार में अंतराल को देखना 80. स्वप्न पर स्वामित्व 82. मनोदशाओं को बाहर फेंकना 83. हृदय को खोलना 85. बुद्धि से हृदय की ओर 88. प्रार्थना ध्यान * 90. शांत हृदय 94. हृदय का केंद्रीकरण 96. अतीशा की हृदय विधि 97. स्वयं से शुरू करो 99. आंतरिक केंद्रीकरण 101. दुखी या सुखी होने का निर्णय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति ध्यान की विधियां 103. वास्तविक स्रोत की खोज 105. झंझावात का केंद्र 110. अनुभव करो–'मैं हूं' 112. मैं कौन हूँ? 113. स्व-सत्ता के केंद्र की ओर 115. भीतर देखना 117. अंतर्दर्शन ध्यान 119. समग्रता को देखना 121. ऊर्जा का अंतर्वृत्त 123. प्रकाश पर ध्यान 125. स्वर्णिम प्रकाश ध्यान 127. प्रकाश का हृदय 129. सूक्ष्म शरीर को देखना 131. आलोकमयी उपस्थिति 133. अंधकार पर ध्यान 135. आंतरिक अंधकार 139. आंतरिक अंधकार को बाहर लाओ 141. ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना 143. जीवन ऊर्जा का आरोहण-1 149. जीवन ऊर्जा का आरोहण-2 151. ध्वनिरहित नाद का श्रवण 153. नादब्रह्म ध्यान * 154. स्त्री-पुरुष जोड़ों के लिए नादब्रह्म 155. ओम् ॐ 158. देववाणी * Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति ध्यान की विधियां 159. देववाणी ध्यान के लिए निर्देश 160. संगीत ः एक ध्यान 162. ध्वनि का केंद्र 165. ध्वनि का आरंभ और अंत 167. अंतस आकाश को खोज लेना 169. रिक्त आकाश में प्रवेश करो 172. सब को समाविष्ट करो 174. जेट-सेट के लिए एक ध्यान 175. विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो 178. बांस की पोली पोंगरी 179. मृत्यु में प्रवेश 181. मुत्य में प्रवेश 184. मृत्यु का उत्सव मनाना 187. तृतीय नेत्र से देखना 189. गौरीशंकर ध्यान * 191. मंडल ध्यान * 192. साक्षी को खोजना 195. पंख की भांति छूना 198. नासाग्र को देखना 203. मात्र बैठना 205. झा-झेन 207. झेन की हंसी 211. प्रेम में ऊपर उठनाः ध्यान में एक साझेदारी 215. प्रेम का वर्तुल Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति 217. संभोग में कंपना 219. प्रेम का आत्म-वर्तुल चौथा खंड ध्यान में बाधाएं 223. दो कठिनाइयां 223. अहंकार 228. वाचाल मन 232. झूठी विधियां 232. ध्यान एकाग्रता नहीं है 234. ध्यान आत्मपरीक्षण नहीं है 236. मन की चालबाजियां 236. अनुभूतियों के द्वारा मत ठगे जाओ 236. मन पुनः प्रवेश कर सकता है 237. मन तुम्हें छल सकता है पांचवां खंड ओशो से प्रश्नोत्तर 242. केवल साक्षी ही वास्तव में नृत्य कर सकता है 246. स्वीकार और साक्षी से मन का अतिक्रमण 249. शिखर पर खड़ा द्रष्टा 252. मन को भटकने दो तुम बस देखो 256. द्वंद्वों का निर्द्वद्व साक्षी 258. सब मार्ग पर्वत शिखर पर मिल जाते हैं 260. रेचन के बाद सहज मौन और सृजन 265. संक्रमणकालीन अनिश्चितता और असुरक्षा 268. होश के क्षणों का संबल 272. द्रष्टा को स्थूल से सूक्ष्म की ओर गहराओ 275. साक्षित्व के बीज और अ-मन के फूल 279. साक्षित्व पर्याप्त है * इन ध्यान विधियों के लिए संगीत कैसेट साधना फाउंडेशन, 17 कोरेगांव पार्क, पुणे, महाराष्ट्र में उपलब्ध हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xi सं बुद्ध सद्गुरु ओशो ध्यान और मनुष्य की मुक्ति के लिए एक विश्वव्यापी क्रांति को जन्म दे रहे हैं। आप सोचेंगे : यह कैसा विषम चुनाव है ! कैसे ये दो विषय जुड़ते हैं? तथापि इन दो आयामों का जो सूक्ष्म अंतर्संबंध है वह मनुष्य के भविष्य की विकास- क्षमताओं को समझने के लिए एक निर्णायक बिन्दु है । प्रेम, आत्मीयता, सृजन और विस्तार की हमारी संभावनाओं के खुलने का द्वार " ध्यान और ओशो के अनुसार और कोई द्वार नहीं है, और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। पिछले पैंतीस वर्षों से ओशो विश्व के अनेक महान धर्मों और रहस्यदर्शी गुह्य परम्पराओं का रहस्योदघाटन करते रहे हैं। उनके प्रवचनों को आज तक ६५० पुस्तकों के रूप में संकलित किया गया है, जिनमें उन्होंने अनेकानेक प्राचीन और समकालीन रहस्यदर्शियों पर जीवंत चर्चा की है और उनकी शिक्षाओं की अंतर्दृष्टि को आज के हमारे जीवन के संदर्भ में उपयोगी और समझने योग्य बनाया है। प्रस्तुत पुस्तक ओशो द्वारा ध्यान पर दिये गये गहन प्रवचनांशों का संकलन है। इसमें ध्यान की अनेक विधियों का वर्णन है जो हमारी सहायता कर सकती हैं उस आयाम का अन्वेषण करने में जिसे उन्होंने भूमिका कहा है: “ध्यानयोग — प्रथम और अंतिम मुक्ति ।” ओशो ने कहा है: “ध्यान कोई नई घटना नहीं है; तुम उसके साथ ही इस जगत में जन्मे हो । मन एक नया घटक है; ध्यान तुम्हारा स्वभाव है, ध्यान तुम्हारी अंतस सत्ता है। यह कठिन कैसे हो सकता है?" 1 या तो हम ध्यान को कठिन बना लेते हैं ऐसी किसी बात से संघर्ष खड़ा करके जिसके बारे में हम सोचते हैं कि वह हमारी मुक्ति में बाधक है; या हम किसी ऐसी बात की खोज में लग जाते हैं, इस आशा के साथ कि वह हमें मुक्ति प्रदान करेगी। लेकिन वास्तव में ध्यान फलित होता है— हम जो हैं, उसमें विश्रामपूर्ण होने से—जीवन को क्षण-क्षण जीने से । भूमिका सारी दुनिया में लोग संघर्षरत हैं 'किसी से' मुक्त होने में। फिर चाहे वह संघर्ष हो परेशान करने वाली पत्नी से, या नियंत्रण की चाह वाले पति से, या कि आधिपत्य करने वाले मां-बाप से या उस बॉस से जो तुम्हारी सृजनात्मकता को कुचल रहा है। मेरा संघर्ष या तो था किसी दमनकारी राजनीतिक प्रणाली से या मेरा प्रयास था अनेक समूह मनोचिकित्सा (ग्रुप थैरेपी) में भाग लेकर अपने आपको बचपन में पड़े संस्कारों से मुक्त करना। इस संघर्ष ने मुझे मुक्त नहीं बनाया। यह केवल एक प्रतिक्रिया मात्र थी उसके विरुद्ध जिसे मैं अपनी मुक्ति के मार्ग का अवरोध समझता था । ध्यान - जनित - मुक्ति 'किसी लक्ष्य के Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका लिए' मुक्ति पाने का प्रयास भी नहीं है। ही बड़बड़ा रहा हो-दैनंदिन कार्यों में हम जाता है, परंतु ध्यान के अभाव में मन हममें ऐसे कितने लोग हैं जो अपने आपको संलग्न हैं तब भी? अपने शोरगुल से हमें गुलाम बनाए रखता दैनंदिन जीवन की आपाधापी और तनावों इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक है। लेकिन ध्यान की विधियों की बहुलता से मुक्त कर किसी ऐसी स्थिति या छोटा-सा प्रयोग करें। इस पुस्तक को कुछ तथा उनकी अस्पष्टता के कारण उनकी आदर्शलोक में होने की कामना करते हैं जो समय के लिए अलग रख दें और आंखें अप्रासंगिता हमें अक्सर भ्रांति में डाल देती विश्रामपूर्ण और स्वयं होने में सहायता कर बंद कर लें। देखें कि आप कितनी देर चारों है। ओशो ने इन विधियों की अशुद्धियों को सके ? मेरे अनुभवों ने यह स्पष्ट किया है ओर की आवाजों को सुनते हुए और अपने छांटकर अपने हाथों शुद्ध और सही कि जिस मुक्ति की हम खोज कर रहे हैं, शरीर के बोध का आनंद लेते हुए बस विधियां बनाई हैं; उनके अंतर्तम रहस्यों का वह किसी बाहरी बात पर आधारित नहीं सहज बैठे रह सकते हैं। संभावना है कि भेदन करके हमें उनकी सार-सूत्र-कुंजी है। तो वह मुक्ति क्या है, जिसकी हम यह समय ज्यादा लम्बा न होगा, शायद प्रदान की है, जो हमारी कल्पना के परे अभीप्सा कर रहे हैं? एक मिनट मात्र और आपका मन बातचीत अस्तित्व के रहस्य का द्वार खोल सकती मैंने सुना है कि ओशो ने इस स्थिति को शुरू कर देगा। यदि आप कुछ देर बैठे है। यह कुंजियों की कुंजी-महा कुंजी है: "सिर्फ मुक्ति" कहा है-अभी और यहां और ध्यान दें कि भीतर क्या चल रहा है तो साक्षीभाव देखने की एक सहज और जीना-क्षण-क्षण; न तो अतीत की आप चकित हो जायेंगेः आप पायेंगे कि प्रगाढ़ अवस्था जिसमें, जैसे हम हैं, स्मृतियों के बोझ में जीना, न भविष्य की अनेक असंगत अंतर्वार्ताओं को आप चला उसका पूरा स्वीकार है। कल्पनाओं में जीना। ओशो ने कहा हैः रहे हैं। यदि आप किसी दूसरे व्यक्ति को ओशो हमें समझाते हैं कि ः __“खाते समय बस खाओ; उसमें इन्हीं बातों को जोर से बोलते हुए सुनें तो “साक्षी का सीधा-सरल अर्थ होता तल्लीन रहो। चलते समय बस आप उसे विक्षिप्त समझेंगे। यह सतत चल है-आग्रहशून्य तटस्थ अवलोकन; यहीं चलो-उसी क्षण में बने रहो। उस क्षण के रही भीतर की बातचीत हमें जीवन से तोड़ है ध्यान का पूरा रहस्य।" 3 आगे मत जाओ; यहां-वहां मत उछलो। देती है और प्रतिपल जीवन से मिलने वाले वास्तव में यह इतना सरल है कि मैं इसे मन या तो हमेशा आगे-आगे चलता है या आनंद का भोग करने से हमें वंचित कर वर्षों तक चूकता रहा। हम सब निश्चय ही पीछे घसिटता रहता है। वर्तमान क्षण में देती है। ऐसा सोचते हैं कि हम जानते हैं कि टिके रहो।" 2 तो क्या किया जाये इस बड़बड़ाहट के देखना, साक्षीभाव क्या है, क्योंकि हम ओशो मन के बारे में जो कह रहे हैं, साथ जो हमारे वश में नहीं है, और जो हमें अपने चारों ओर घटित हो रही चीजों का उसका हममें से अनेकों को अनुभव है। जीवन के अमूल्य क्षणों से तोड़ती है, उनसे अवलोकन करते हैं। हम टेलीविजन देखते मन या तो हमेशा आगे-आगे कूदता रहता हमें वंचित रखती है? मैंने ओशो को हैं; हम अन्य लोगों को पास से गुजरते है या पीछे घसिटता रहता है, लेकिन यह बारंबार यह कहते हुए सुना है कि ध्यान में देखते हैं और नोट करते हैं कि वे कैसे कभी वर्तमान क्षण में नहीं होता। वह एक डूबो। मैंने सुना है उन्हें यह कहते हुए कि कपड़े पहने हुए हैं, वे कैसे लगते हैं, सतत बड़बड़ाहट है। जब यह बड़बड़ाहट हम इस बड़बड़ाते हुए मन को सीधे बंद लेकिन सामान्यतः हम स्वयं का चलती है, तब यह हमें वर्तमान में होने नहीं कर सकते, लेकिन ध्यान के द्वारा मन अवलोकन नहीं करते। यदि हम स्वयं को और जीवन को उसकी पूर्णता में जीने से का शोरगुल थोड़ा धीमा हो जाता है और देखते भी हैं, तो वह बहुधा मनोग्रस्त वंचित कर देती है। हम कैसे समग्रतापूर्वक अंततः विलीन हो जाता है। मूल्यांकन होता है। हम अपने बारे में कोई जी सकते हैं जब हमारा मन स्वयं के साथ ध्यान से मन एक उपयोगी उपकरण बन ऐसी बात सोच निकालते हैं, जो हमें पसंद Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है और फिर हम चिन्ता करने लगते हैं कि दूसरे लोग इस बाबत क्या सोचेंगे। बहुधा मन की यह भीतरी बड़बड़ाहट हमें ऐसा खयाल देती है कि हम दुखी व्यक्ति हैं। यह साक्षीभाव नहीं है। ओशो हमें याद दिलाते हैं : "कुछ भी करने की जरूरत नहीं है; बस साक्षी बने रहो — एक देखने वाले, एक निरीक्षक, मन की ट्रैफिक को देखने वाले - गुजरते हुए विचार, इच्छाएं स्मृतियां, सपने, कल्पनाएं – इन सब को देखने वाले । बस तटस्थ खड़े रहें - शांत, देखते हुए, जानते हुए; बिना किसी मूल्यांकन के, बिना किसी निंदा के–न कहें कि 'यह अच्छा है', न कहें कि 'यह बुरा है। " 4 ध्यान की इन विधियों द्वारा, जो इस पुस्तक में वर्णित हैं, आप आविष्कृत कर पायेंगे कि साक्षी क्या है। ओशो की उपस्थिति में बैठे-बैठे साक्षी सहज ही फलित होने लगता है। ऐसे क्षण आते हैं जब हम मात्र बैठे रहते हैं, जो भी हो रहा है उसे सुनते हुए, अनुभव करते हुए, देखते हुए - शांत, मौन | यह मौन है विराट शून्य आकाश की भांति - फिर भी जीवन से ओतप्रोत । ओशो का निवास है आकाश और उनकी सत्ता है मौन । उनके शब्द हृदय के xiii भूमिका अंतरतम को छूते हैं, उनके गीत शून्य सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण क्षण, आकाश के गीत हैं। जब निषेध करने को कुछ भी पीछे नहीं बचता।” “तुम्हारी अंतस सत्ता और कुछ नहीं वरन अंतस आकाश है। बादल आते हैं और चले जाते हैं; ग्रह-उपग्रह जन्मते हैं और विसर्जित होते हैं; तारे बनते और मिटते हैं, लेकिन अंतस आकाश पूर्ववत बना रहता है— अस्पर्शित, स्वच्छ, अखंड । इस अंतस आकाश को हम कहते हैं: साक्षी, द्रष्टा- और यही है ध्यान का सारा लक्ष्य। " “भीतर मुड़ो और अंतस आकाश का आनंद लो। ध्यान रहे, जो भी तुम देख पाते हो, वह तुम नहीं हो। तुम विचारों को देख सकते हो, तब तुम विचार नहीं हो । तुम अपने भावों को देख सकते हो, तो तुम अपने भाव नहीं हो । तुम अपने सपनों, इच्छाओं, स्मृतियों, कल्पनाओं, प्रक्षेपों को देख सकते हो, तो तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो । जो भी तुम देख पाते हो, उसको अलग करते जाओ। तब एक दिन एक दुर्लभ क्षण आता है, तुम्हारे जीवन का " समस्त दृश्य विलीन हो गये हैं और केवल द्रष्टा रह गया है। द्रष्टा है अंतस आकाश।" "इसे जान लेना अभय हो जाना है, और इसे जानना प्रेम से आपूरित हो जाना है। इसे जान लेना दिव्य हो जाना है, अमृत हो जाना है।" s इस पुस्तक के माध्यम से आप आमंत्रित हैं अपने अंतस आकाश का अनुभव करने के लिए। मेरा अहोभाव और प्रेम शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, केवल आंसू ही मेरे भावों को व्यक्त कर सकते हैं। प्यारे ओशो के मुक्ति के आह्वान को सुन कर जीवन द्वारा क्षण-क्षण बरसाये गये सौंदर्य और प्रसाद के प्रति मेरा जागना प्रारंभ हुआ है। अहोभाव, प्यारे सद्गुरु! स्वामी देव वदूद, पूना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकों के लिए सुझाव पुस्तक का उपयोग टस पुस्तक को ध्यान के लिए २मार्ग-दर्शक की भांति उपयोग करने के लिए आपको इसे प्रथम से अंतिम पृष्ठ तक पढ़ना जरूरी नहीं है। कोई विधि आजमाने के लिए इस पुस्तक का उपयोग अंतप्रेरणा से करें। पुस्तक पर नजर डालें और कोई अध्याय या ध्यान की विधि जो आपको रुचे उसे चुन लें। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि आप सीधे तीसरे खण्ड में संकलित किसी विधि में छलांग लगाना चाहें और उसमें डूबना चाहें, बिना “मेरे देखे ध्यान और संगीत एक घटना के प्रा.लि., 17 कोरेगांव पार्क, पूना में भूमिका और निर्देशिका अंश पढ़े। तो जो दो पहलू हैं। और बिना संगीत के ध्यान में उपलब्ध हैं। अच्छा लगे वैसा करें। कुछ कमी रह जाती है; बिना संगीत के तिरछे अक्षरों में छपी पंक्तियां एक विधि चुनने के बाद कम से कम ध्यान कुछ ढीला और निष्प्राण-सा होता है। तीन दिन तक उसका अभ्यास करें, फिर और बिना ध्यान के संगीत केवल एक खण्ड तीन में सम्मिलित ध्यान की यदि अच्छा अनुभव आये, तो उसका शोरगुल होता है-लयबद्ध, फिर भी एक विधियां विभिन्न बुद्धपुरुषों, जैसे भारत के अभ्यास जारी रखें-गहराई में जायें। कोलाहल। बिना ध्यान के संगीत मात्र एक बुद्ध, पतंजलि और शिव; तिब्बत के महत्वपूर्ण बात यह है कि विधि का प्रयोग मनोरंजन है; संगीत और ध्यान साथ-साथ अतीशा और तिलोपा तथा चीन के सद्गुरु आप गैर-गंभीर, खेल के भाव से करें गतिमान होने चाहिए। इससे दोनों ही विषयों लाओत्सु आदि की देशनाओं से ली गयी और अपने से पूछे कि क्या यह विधि मेरे में एक नया आयाम जुड़ जाता है। दोनों ही हैं। जब ओशो उनके वचनों और सूत्रों का आनंद और संवेदनशीलता को गहरा इससे अधिक सम्पन्न हो जाते हैं।" उद्धरण देते हैं, तब उन पंक्तियों को, उस करके मेरे विकास में सहायक है? इसलिए सक्रिय ध्यान को संचालित संत के नाम सहित तिरछे अक्षरों में छापा करने के लिए संगीत का कैसेट बनाया गया गया है। फिर कुछ निर्देशक पंक्तियां ध्यान में संगीत का उपयोग है। साथ ही अन्य सक्रिय ध्यान-विधियों, ध्यान-विधियों के साथ जोड़ी गई हैं, वे जैसे कुंडलिनी, मंडल, नटराज, देववाणी, ओशो की शिक्षाओं पर आधारित हैं संगीत और ध्यान बड़ी सरलता से प्रार्थना और गौरीशंकर आदि के लिए भी लेकिन ये पंक्तियां मूलतः ओशो के शब्दों साथ-साथ गति करते हैं। इस संबंध में संगीत के कैसेट तैयार हैं। ध्यान के ये में नहीं हैं। इस फर्क को दर्शाने के लिए ओशो ने एक जगह कहा है : विशेष संगीत कैसेट रेबल डिस्ट्रिब्यूशन उन्हें भी तिरछे अक्षरों में छापा गया है। XIV Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला खंड ध्यान के विषय में Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में ध्यान क्या साक्षी है ध्यान की आत्मा ध्यान अभियान है— सबसे बड़ा अभियान जिस पर मनुष्य का मन निकल सकता है। ध्यान है बस होना— कुछ भी न करते हुए — कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। तुम बस हो । और यह एक खालिस आनंद है। कहां से आता है यह आनंद जब तुम कुछ भी कर नहीं रहे हो ? यह आता है न-कहीं से या कि आता है सब कहीं से । यह अकारण है, क्योंकि यह अस्तित्व बना है उस तत्व से जिसे कहते हैं आनंद । । से—किसी भी तल पर नहीं— जब समस्त क्रियाएं शून्य हैं और तुम बस हो, स्व मात्र — यह है ध्यान । तुम उसे 'कर' नहीं सकते; उसका अभ्यास नहीं हो सकता; तुम उसे समझ भर सकते हो। जब कभी तुम्हें मौका मिले बस होने का, तब सब क्रियाएं गिरा देना। सोचना भी क्रिया है, एकाग्रता भी क्रिया है और "ब तुम कुछ भी नहीं कर रहे मनन भी । यदि एक क्षण के लिए भी तुम अक्रिया में हो, बस 'स्व' में हो - परिपूर्ण विश्राम में - यह है ध्यान। और एक बार तुम्हें इसका गुर मिल जाए, फिर तुम इसमें जितनी देर रहना चाहो, रह सकते हो । अंततः चौबीस घंटे ही इसमें रहा जा सकता है। एक बार तुम्हें अंतस के अकंपित रहने का बोध हो जाए, फिर तुम धीरे-धीरे कर्म करते हुए भी यह होश रख सकते हो कि है ? तुम्हारा अंतस निष्कंप बना रहता है। यह ध्यान का दूसरा आयाम है। पहले सीखो कि कैसे बस होना है; फिर छोटे-छोटे करते हुए, स्नान लेते हुए स्व से जुड़े रहो। ' कार्य करते हुए इसे साधोः फर्श साफ फिर तुम जटिल कामों के बीच भी इसे साध सकते हो। उदाहरण के लिए मैं तुमसे बोल रहा हूं, लेकिन मेरा ध्यान खंडित नहीं हो रहा है। मैं बोले चला जा सकता हूं, लेकिन मेरे अंतस केंद्र पर एक तरंग भी नहीं उठती, वहां बस मौन है, गहन मौन । इसलिए ध्यान कर्म के विपरीत नहीं है । ऐसा नहीं है कि तुम्हें जीवन को छोड़कर भाग जाना है। यह तो तुम्हें एक नये ढंग से जीवन को जीने की शिक्षा देता है। तुम झंझावात के शांत केंद्र बन जाते हो । तुम्हारा जीवन गतिमान रहता है— पहले से अधिक प्रगाढ़ता से अधिक आनंद से, अधिक स्पष्टता से, अधिक अंतर्दृष्टि और 2 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में अधिक सृजनात्मकता से-फिर भी तुम दिन-रात छाये हुए हो-दिन-प्रति-दिन। आनंदपूर्ण, आह्लादकारी परम धन्यता है सब में निर्लिप्त होते हो, पर्वत शिखर पर तुम्हारा काम-धंधा क्या है? तुम नदी पर कि यह स्वयं अपना पुरस्कार है। इसका खड़े निरीक्षणकर्ता की भांति, नीचे चारों क्यों जाते हो? अनेक बार मैं तुम्हारे पीछे एक क्षण-और सारे खजाने इसके सामने ओर जो हो रहा है उसे मात्र देखते हुए। गया हूं, लेकिन वहां कुछ भी नहीं फीके हैं।" तुम कर्ता नहीं, द्रष्टा होते हो। यह ध्यान होता-तुम बस बैठे रहते हो घंटों, फिर पहरेदार बोला, “यह अजीब बात है। मैं का पूरा रहस्य है कि तुम द्रष्टा हो जाते हो। आधी रात को तुम वापस आते हो!" अपने पूरे जीवन निरीक्षण करता रहा हूं कर्म अपने तल पर जारी रहते हैं, इसमें ___बाल शेम ने कहा, “मुझे पता है कि तुम लेकिन मैं ऐसे किसी सुंदर अनुभव से कोई समस्या नहीं बनती-चाहे लकड़ियां कई बार मेरे पीछे आये हो, क्योंकि रात का परिचित नहीं हुआ हूं। कल रात मैं आपके काटना हो या कुएं से पानी भरना हो। तुम सन्नाटा इतना है कि मैं तुम्हारे पदचाप की साथ आ रहा हूं। मुझे इसमें दीक्षित करें। कोई भी छोटा या बड़ा काम कर सकते हो; ध्वनि सुन सकता हूं। और मैं जानता हूं कि मुझे पता है कि कैसे निरीक्षण करना है केवल एक बात अवांछित है और वह है हर रात तुम बंगले के द्वार के पीछे छिपे लेकिन शायद देखने के किसी दूसरे ही कि तुम्हारा स्व-केंद्रस्प होना खोये नहीं। रहते हो। लेकिन केवल ऐसा ही नहीं है कि आयाम की जरूरत है। आप शायद किसी यह होश, यह द्रष्टा सर्वथा अनाच्छादित तुम मेरे बारे में उत्सुक हो, मैं भी तुम्हारे दूसरे ही आयाम के द्रष्टा हैं।" और अखंडित बना रहना चाहिए। 2 बारे में उत्सुक हूं। तुम्हारा काम क्या है?" केवल एक ही चरण है और वह चरण पहरेदार बोला, “मेरा काम? मैं एक है एक नया आयाम, एक नई दिशा। या तो हृदी धर्म में विद्रोही साधकों की एक साधारण पहरेदार हूं।" हम बाहर देखने में रत हो सकते हैं या हम सरहस्य-धारा है हसीद। इसके बाल शेम बोला, “हे परमात्मा, तुमने बाहर के प्रति आंखें बंद कर सकते हैं और स्थापक बाल शेम एक दुर्लभ व्यक्ति थे। तो मुझे कुंजी जैसा शब्द दे दिया! मेरा धंधा अपनी समग्र चेतना को भीतर केंद्रित कर मध्य रात्रि को वे नदी से वापस लौटते। यह भी तो यही है!" सकते हैं। फिर तुम जान सकोगे, क्योंकि उनकी रोज की चर्या थी, क्योंकि रात में पहरेदार बोला, "लेकिन मैं नहीं तुम 'जानने वाले' हो, तुम चैतन्य हो। तुमने नदी पर परिपूर्ण निस्तब्धता और शांति समझा! यदि तुम पहरेदार हो तो तुम्हें किसी इसे कभी खोया नहीं है। तुमने अपनी रहती थी। वे बस बैठते थे वहां-कुछ न बंगले या महल की देख-रेख करनी चेतना को हजार बातों में उलझा भर रखा करते-बस 'स्व' को देखते हुए, द्रष्टा को चाहिए। तुम वहां क्या देखते हो नदी की है। अपनी चेतना को सब तरफ से वापस देखते हुए। एक रात जब वे नदी से वापस रेत पर बैठे-बैठे?" लौटा लो और उसे स्वयं के भीतर आ रहे थे, तब वे एक धनी व्यक्ति के बाल शेम ने कहा, "हमारे बीच थोड़ा विश्रामपूर्ण होने दो और तुम घर वापस आ बंगले से गुजरे और पहरेदार प्रवेशद्वार पर फर्क है। तुम देख रहे हो कि बाहर का कोई गये हो। खड़ा था। व्यक्ति महल के भीतर न घुस पाये। मैं बस पहरेदार उलझन में पड़ा हुआ था कि हर इस देखनेवाले को देखता रहता हूं। कौन है यान का अंतरतम और सार तत्व रात, ठीक इसी समय यह व्यक्ति वापस यह द्रष्टा? -यह मेरे पूरे जीवन की सा है यह सीखना कि कैसे आ जाता था। पहरेदार आगे आया और साधना है कि मैं स्वयं को देखता हूं।" , साक्षी हों। बोला, "मुझे क्षमा करें आपको रोकने के पहरेदार बोला, "लेकिन यह एक एक कौआ आवाज दे रहा है...तुम सुन लिए, लेकिन मैं अपनी उत्सुकता को और अजीब काम है। कौन तुम्हें वेतन देगा?" रहे हो। यहां दो हैं-विषय-वस्तु ज्यादा रोक नहीं सकता। तुम मुझ पर बाल शेम बोला, “यह इतना (आब्जेक्ट) और विषयी (सब्जेक्ट)। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में लेकिन क्या तुम उस द्रष्टा को देख सकते सारी बात यह है कि तुम सोये-सोये मत उसे। सब कुछ प्रभावित होता है। और हो जो इन दोनों को देख रहा रहो। फिर जो भी हो, ध्यान होगा। इन सब का जोड़ ही तुम्हारा जीवन बनने है?—कौआ–सुनने वाला और फिर वाला है। इसलिए इस भीतर के पागल एक 'कोई और' जो इन दोनों को देख रहा टोश के लिए पहला चरण है अपने व्यक्ति को बदलना होगा। और होश का है। यह एक सीधी-सरल घटना है। शरीर के प्रति पूर्ण होश रखना। चमत्कार यह है कि तुम्हें और कुछ भी नहीं तुम एक वृक्ष को देखते हो-तुम हो धीरे-धीरे व्यक्ति प्रत्येक भाव-भंगिमाओं करना है सिवाय होशपूर्ण होने के। इसे और वृक्ष है, लेकिन क्या तुम एक और के प्रति, हर गति के प्रति होशपूर्ण हो जाता देखने की घटना मात्र ही इसका रूपांतरण तत्व को नहीं पाते? कि तुम वृक्ष को है। और जैसे ही तुम होशपूर्ण होने लगते है। धीरे-धीरे यह पागलपन विसर्जित हो देख रहे हो और फिर एक द्रष्टा है जो देख हो, एक चमत्कार घटित होने लगता है: जाता है। धीरे-धीरे विचार एक लयबद्धता रहा है कि तुम वृक्ष को देख रहे हो। 4 अनेक बातें जो तुम पहले करते थे, सहज ग्रहण करने लगते हैं; उनकी अराजकता ही गिर जाती हैं। तुम्हारा शरीर ज्यादा हट जाती है और उनकी एक सुसंगतता साक्षी ध्यान है। तुम क्या देखते हो, विश्रामपूर्ण, ज्यादा लयबद्ध हो जाता है। प्रकट होने लगती है। और फिर एक ज्यादा या यह बात गौण है। तुम वृक्षों को शरीर तक में एक गहन शांति फैल जाती गहन शांति उतरती है। फिर जब तुम्हारा देख सकते हो, तुम नदी को देख सकते हो, है, एक सूक्ष्म संगीत फैल जाता है शरीर शरीर और मन शांतिपूर्ण हैं तब तुम देखोगे बादलों को देख सकते हो, तुम बच्चों को में। कि वे परस्पर भी लयबद्ध हैं, उनके बीच आसपास खेलता हुआ देख सकते हो। फिर अपने विचारों के प्रति होशपूर्ण एक सेतु है। अब वे विभिन्न दिशाओं साक्षी होना ध्यान है। तुम क्या देखते हो होना शुरू करो। जैसे शरीर के प्रति होश में नहीं दौड़ते; अब वे दो घोड़ों पर सवार यह बात नहीं है; विषय-वस्तु की बात नहीं को साधा, वैसे ही अब विचारों के प्रति नहीं होते। पहली बार भीतर एक सुख-चैन करो। विचार शरीर से ज्यादा सूक्ष्म हैं, और आया है और यह सुख-चैन बहुत सहायक देखने की गुणवत्ता, होशपूर्ण और सजग फलतः ज्यादा कठिन भी हैं। और जब तुम होता है-तीसरे तल पर ध्यान साधने में होने की गुणवत्ता—यह है ध्यान। विचारों के प्रति जागोगे, तब तुम और वह है-अपनी अनुभूतियों और एक बात ध्यान रखें ध्यान का अर्थ है आश्चर्यचकित होओगे कि भीतर भावदशाओं के प्रति होशपूर्ण होना। होश। तुम जो कुछ भी होशपूर्वक करते हो क्या-क्या चलता है। यदि तुम किसी यह सूक्ष्मतम तल है और सबसे वह ध्यान है। कर्म क्या है, यह प्रश्न नहीं, भी समय भीतर क्या चलता है उसे लिख कठिन भी। लेकिन यदि तुम विचारों किंतु गुणवत्ता जो तुम कर्म में ले आते हो, डालो, तो तुम चकित होओगे। तुम भरोसा के प्रति होशपूर्ण हुए हो, तब यह केवल उसकी बात है। चलना ध्यान हो सकता है, ही न कर पाओगे कि भीतर यह सब एक कदम आगे है। कुछ ज्यादा गहन होश यदि तुम होशपूर्वक चलो। बैठना ध्यान हो क्या चलता है। फिर दस मिनट के बाद और तुम अपने भावों और अनुभूतियों सकता है, यदि तुम होशपूर्वक बैठ सको। इसे पढ़ो-तुम पाओगे कि भीतर एक के प्रति सजग हो जाओगे। एक बार पक्षियों की चहचहाहट को सुनना ध्यान हो पागल मन बैठा हुआ है! चूंकि हम तुम इन तीन आयामों में होशपूर्ण हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक सुन सको। होशपूर्ण नहीं होते, इसलिए यह सब जाते हो, फिर ये तीनों जुड़कर एक ही या केवल अपने भीतर मन की आवाजों को पागलपन अंतर्धारा की तरह चलता रहता घटना बन जाते हैं। जब ये तीन एक साथ सुनना ध्यान बन सकता है, यदि तुम जाग्रत है। यह प्रभावित करता है-जो कुछ तुम हो जाते हैं—एक साथ क्रियाशील और साक्षी रह सको। करते हो उसे या जो कुछ तुम नहीं करते और निनादित हो उठते हैं, तब तुम Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका संगीत अनुभव कर सकते हो, वे तीनों एक सुरताल बन जाते हैं - तब चौथा चरण " तुरीय” घटता है— उसे तुम कर नहीं सकते। चौथा अपने से होता है। यह समग्र अस्तित्व से आया उपहार है; जो प्रथम तीन चरणों को साध चुके हैं, उनके लिए यह एक पुरस्कार है 5 चौथा चरण होश का चरम शिखर है, जो व्यक्ति को जाग्रत बना देता है। ध्यान के विषय में व्यक्ति होश के प्रति जागरूक हो जाता है—यह है चौथा । व्यक्ति बुद्ध हो जाता है, जाग जाता है। और इस जागरण में ही अनुभूति होती है कि परम आनंद क्या है । शरीर जानता है देह - सुख; मन जानता है प्रसन्नता; हृदय जानता है हर्षोल्लास और चौथा, तुरीय जानता है आनंद । आनंद लक्ष्य है संन्यास का, सत्य के खोजी का — और जागरूकता है उसके लिए मार्ग | 6 हो, कि तुम होशपूर्ण होना ' `हत्व की बात है कि तुम जागरूक नहीं हो, कि तुम साक्षी हो, द्रष्टा हो, सचेत हो । और जैसे-जैसे देखने वाला, द्रष्टा ज्यादा सघन, ज्यादा थिर, ज्यादा अकंप होने लगता है— एक रूपांतरण घटित होता है: दृश्य विसर्जित होने लगते हैं। पहली बार द्रष्टा स्वयं दृश्य बन जाता है, देखने वाला स्वयं दृष्ट हो जाता है। तुम 'घर' वापस आ गए। 7 म Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में ध्यान की खिलावट ध्यान कोई भारतीय पद्धति मात्र नहीं है; यह एक विधि मात्र नहीं है। तुम इसे एक वास्तविकता है, जो कि प्रत्येक व्यक्ति सीख नहीं सकते। यह तो एक विकास है-तम्हारे समग्र जीवन का विकास, के भीतर सदा से मौजूद ही है लेकिन हम तुम्हारे समग्र जीवन से उठा प्रादुर्भाव। ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तम्हारे कभी भीतर नहीं देखते हैं। साथ जोड़ा जा सके-जैसे अभी तुम हो। इसे तुम्हारे साथ जोड़ा नहीं जा सकता: तुम्हारे अंतर्जगत का अपना ही स्वाद है, एक अमूल रूपांतरण से, एक अंतस क्रांति से ही यह तुममें घट सकता है। यह अपनी ही सुवास है, अपना ही प्रकाश है। एक खिलावट है, एक विकास है। विकास हमेशा समग्र से आता है; यह कोई और वहां परम मौन है-परिपूर्ण, असीम जोड़ या संग्रह नहीं है। प्रेम की तरह ही यह बाहर से तुममें जोड़ा नहीं जा सकता। और शाश्वत। वहां कभी कोई शोरगुल न रहा है और न कभी होगा। कोई शब्द वहां यह तुम्हारे अंतस से, तुम्हारी समग्रता से उपजता है। तुम्हें ध्यान की ओर विकसित नहीं पहुंच सकता है, लेकिन तुम वहां होना है। 8 पहुंच सकते हो। वह शोरगुल का अभाव मात्र है। लेकिन तुम्हारी स्व-सत्ता का केंद्र ही झंझावात गहन मौन मौन एक सर्वथा भिन्न आयाम है। यह का शांत केंद्र है। उसके चारों ओर जो कुछ पूर्णतः विधायक है। यह अस्तित्वमय घटता है वह उस केंद्र को प्रभावित नहीं अकसर समझा जाता रहा है कि मौन है-कोई रिक्तता नहीं। यह एक संगीत करता। वहां शाश्वत मौन है: दिन आते एक नकारात्मक अवस्था का अतिरेक प्रवाह है, जिसे तुमने कभी हैं, चले जाते हैं; वर्ष आते हैं, चले जाते है-एक रिक्तता, आवाजों और शोरगुल सुना नहीं; एक सुवास जो तुम्हारे लिए हैं; सदियां आती हैं और बीत जाती हैं। का अभाव। यह गलतफहमी फैली हुई है अनजानी है; एक ऐसा आलोक जिसे जीवन आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन क्योंकि बहुत ही कम लोगों ने आजतक केवल अंतस चक्षुओं द्वारा ही देखा जा तुम्हारी स्व-सत्ता का शाश्वत मौन सदा मौन का अनुभव किया है। मौन के नाम सकता है। वैसा ही बना रहता है-वही स्वरहीन पर कुल जमा जो उन्होंने अनुभव किया है यह कोई काल्पनिक बात नहीं है, यह संगीत, वही भगवत्ता की सुवास, वही Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में मरणधर्मा और क्षणभंगुरता का तिनका अनूठा है, अद्वितीय है, उसकी ठीक दिशा में हो।। अतिक्रमण। अपनी निजता है। यह 'तुम्हारा' मौन नहीं है। तुम ही और यह संवेदनशीलता तुम्हारे लिए म्हें ऐसा प्रेम चाहिए जो ध्यान से मौन हो। नयी मित्रताएं पैदा कर देगी-मैत्री-भाव। | जनमा हो–मस्तिष्क से नहीं। इसी यह कुछ ऐसा नहीं है जिस पर तुम्हारी वृक्षों के साथ, पक्षियों के साथ, पशुओं के प्रेम की मैं निरंतर चर्चा करता मालकियत हो सके; वरन वही तुम्हें साथ-पहाड़ों, नदियों और सागरों के रहता हूं। आविष्ट किए हुए है और यही उसकी साथ। और जैसे-जैसे प्रेम फैलता है, मैत्री करोड़ों दंपति दुनिया में ऐसे जी रहे हैं महिमा है। वहां तुम भी नहीं होते, क्योंकि बढ़ती है, जीवन ज्यादा समृद्ध होता जाता जैसे कि उनके बीच प्रेम मौजूद हो। वे तुम्हारी मौजूदगी भी वहां बाधा बन है। 10 'जैसे कि' के जगत में जी रहे हैं। निःसंदेह जाएगी। मौन इतना गहन होता है कि वहां कैसे आनदित हो सकते हैं वे? उनकी सारी कोई भी मौजूद नहीं होता-तुम भी नहीं। ऊर्जा का ह्रास हो जाता है। वे एक झूठे प्रेम और यह मौन तुम्हारे लिए सत्य, प्रेम और से कुछ पाने का प्रयास कर रहे हैं; इससे हजारों आशीष ले आता है। बात नहीं बनती। इसीलिए इतनी निराशा, यदि तुम ध्यान करते हो तो देर-अबेर इतनी ऊब, सतत खींचातानी और तुममें प्रेम का आविर्भाव होने ही कलह-क्लेश प्रेमियों के बीच होता रहता का विकास वाला है। यदि तुम गहराई से ध्यान करते है। वे दोनों कुछ ऐसा करने का प्रयास कर हो, तो देर-अबेर तुम अनुभव करने लगोगे रहे हैं जो असंभव है। वे अपने प्रेम की OTTन तममें सवेदनशीलता कि एक प्रगाढ़ प्रेम तुम्हार भातर उठ रहा: घटना को शाश्वत बनाना चाह रहे हैं जो 1 लाएगा-इस जगत से जुड़े है, जो तुमने पहले कभी नहीं जाना हो नहीं सकता। यह प्रेम मन से पैदा हुआ होने का एक गहन भाव लाएगा। यह है—होने की एक नई गुणवत्ता, एक नये है और मन तुम्हें शाश्वत की कोई झलक जगत हमारा है-ये सितारे हमारे हैं और द्वार का खुलना। तुम एक नई लौ बन जाते ही सकता हम यहां अजनबी नहीं हैं। आंतरिक रूप हो और अब तुम बांटना चाहते हो। पहले ध्यान में उतरो, क्योंकि ध्यान से से हम इस जगत से जड़े हए हैं। हम इसके यदि तम गहनता से प्रेम करते हो तो प्रेम जन्मेगा-वह ध्यान की सुवास है। हिस्से हैं, हम इसका हृदय हैं। धीरे-धीरे तुम्हें पता चलने लगता है कि ध्यान फूल है-सहस्र पंखुड़ियों वाला तम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम्हारा प्रेम ज्यादा ध्यानस्थ होता जा कमल। उसे खिलने दो। उसे सहायता घास का एक छोटा-सा तिनका भी तम्हारे रहा है। मौन का एक सूक्ष्म गुण तुममें करने दो तुम्हें ऊर्ध्वगमन के आयाम में, लिए बहुत महत्व रखने लगता है। तुम्हारी प्रवेश कर रहा है। विचार विलीन हो। अमन में, समयशून्यता में उठने में और संवेदनशीलता तुम्हें स्पष्ट कर देती है कि रहे हैं, अंतराल प्रकट हो रहे हैं। अचानक तुम पाओगे कि सुवास का जन्म यह छोटा-सा घास का तिनका भी मान-मन-मनि! तुम स्वय की गहराई हआ। तब प्रेम शाश्वत होता है. बेशर्त अस्तित्व के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, को छू रहे हो। होता है। तब वह किसी व्यक्ति विशेष के जितना कि सबसे बड़ा सितारा। इस घास प्रेम तुम्हें ध्यानस्थ बना देता है यदि वह प्रति इंगित नहीं रह जाता है। वह कोई के तिनके के बिना अस्तित्व कुछ कम ठीक दिशा में हो। संबंध नहीं है, वरन वह एक गुण ज्यादा सम्पन्न हो जाएगा। घास का यह छोटा-सा ध्यान तुम्हें प्रेमपूर्ण बना देता है यदि वह है, जो तुम्हें चारों ओर से घेरे रहता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में उसका दूसरे से कोई संबंध नहीं है। तुम लेते हो जो सदा रहता है-परिस्थितियां प्रेमपूर्ण होते हो, तुम प्रेम होते हो। तब प्रेम अकारण सतत आनद बदल जाती हैं पर वह चिरस्थायी है तब शाश्वत होता है। प्रेम तुम्हारी सुवास होता तुम बुद्धत्व के करीब आ रहे हो। 14 है। ऐसा प्रेम बुद्ध के आसपास रहा है, ना किसी कारण के तुम अचानक जरथुस्त्र के, जीसस के आसपास रहा है। अपने आप को आनंदित पाते हो। प्रतिभाः प्रत्युत्तर की क्षमता यह बिलकुल दूसरी तरह का प्रेम होता है, सामान्य जीवन में, जब कोई कारण होता है, यह गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। 12 तभी तुम आनंदित होते हो। तुम्हारी किसी तिभा का अर्थ है प्रत्युत्तर देने की सुंदर स्त्री से मुलाकात हो जाती है और तुम क्षमता, क्योंकि जीवन एक प्रवाह आनंदित हो जाते हो; या तुम्हें धन मिल है। तुम्हें सजग रहना है और देखना है कि जाता है जिसकी तुमने सदैव आकांक्षा की तुमसे क्या मांगा जा रहा है, कि परिस्थिति थी और तुम आनंदित हो जाते हो; या तुम की क्या चुनौती है। प्रतिभावान व्यक्ति एक मकान खरीदते हो सुंदर बगीचे के साथ परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करता है और तुम आनंदित हो जाते हो, लेकिन यह और मूढ़ व्यक्ति बंधे-बंधाए उत्तरों के आनंद बहुत टिकता नहीं। ये सब क्षणिक अनुसार व्यवहार करता है। चाहे वे उत्तर हैं, ये अबाधित और सतत नहीं रह सकते। बुद्ध के हों, क्राइस्ट या कृष्ण के हों, इससे करुणा * यदि तुम्हारा आनंद किसी कारण से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपने ऊपर होता है, तो वह विलीन हो जाएगा, वह शास्त्रों को ढोता रहता है। स्वयं के ऊपर द्ध ने करुणा की परिभाषा की है। क्षणिक होगा। वह तुम्हें जल्दी ही गहरी भरोसा करने से भयभीत रहता है। "प्रेम और ध्यान का जोड़।" जब उदासी में ले जाएगा। सारे आनंद तुम्हें प्रतिभावान व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि पर तुम्हारा प्रेम मात्र दूसरे को पाने की गहरी उदासी में ले जाते हैं। लेकिन एक भरोसा करता है; वह अपने अंतस पर लालसा नहीं होता, जब तुम्हारा प्रेम मात्र दूसरी तरह का आनंद भी है, जो सांकेतिक भरोसा करता है। वह स्वयं से प्रेम करता है एक जरूरत नहीं होता, जब तुम्हारा प्रेम है: तुम आनंदित हो जाते हो बिना किसी और स्वयं का सम्मान करता है। नासमझ एक सहभागिता होता है, जब तुम्हारा प्रेम कारण के। तुम बता नहीं सकते क्यों? व्यक्ति दूसरों का सम्मान करता है। एक भिखारी का नहीं वरन सम्राट का प्रेम अगर कोई पूछे, “क्यों इतने प्रसन्न हो?" प्रतिभा को फिर से आविष्कृत किया जा होता है, जब तुम्हारा प्रेम बदले में कोई तो तुम कोई उत्तर नहीं दे पाते। सकता है। उसका एक मात्र उपाय है मांग नहीं करता, बस देने को तत्पर रहता मैं नहीं बता सकता कि क्यों मैं इतना ध्यान। ध्यान बस एक काम करता है। वह है, बस देने की खुशी के लिए देता है, तब आनंदित हूं। कोई कारण नहीं सूझता। बस उन सब बाधाओं को नष्ट कर देता है जो उसके साथ ध्यान जोड़ दो और शुद्ध सुवास ऐसा है। अब यह आनंद भंग नहीं किया समाज ने निर्मित की हैं ताकि तुम प्रकट होती है, अप्रकट महिमा प्रकट होती जा सकता। अब कुछ भी हो जाए, यह प्रतिभावान न हो सको। ध्यान बस है। वह है करुणा; करुणा उच्चतम घटना बना रहेगा। यह मौजूद है हमेशा। तुम चाहे अवरोधों को हटा देता है। उसका कार्य है। यौन पाशविक है, प्रेम मानवीय है, युवा हो, तुम चाहे वृद्ध हो, तुम चाहे नकारात्मक है: यह उन चट्टानों को हटा करुणा दिव्य है। यौन शारीरिक है, प्रेम जीवित हो, तुम चाहे मर रहे हो–यह देता है जो बाधाएं बन रही हैं तुम्हारे मानसिक है, करुणा आध्यात्मिक है। 13 सदैव मौजूद है। जब तुम ऐसे आनंद को पा जलप्रवाह में, तुम्हारे झरनों के Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 जीवंत होने में। सभी के पास महान संभावना है, पर समाज ने उसके प्रतिरोध में बड़ी-बड़ी चट्टानें खड़ी कर दी हैं। उसने तुम्हारे चारों ओर चीन की दीवाल खड़ी कर दी है; उसने तुम्हें बंदी बना दिया है। इन कारागृहों से बाहर निकल आना ही प्रतिभा है - और कभी दोबारा किसी और कारागृह में न घुसना। प्रतिभा का आविष्कार किया जा सकता है क्योंकि ये सारे कारागृह मौजूद हैं तुम्हारे मन में सौभाग्य से वे तुम्हारे अंतस केंद्र तक नहीं पहुंच सकते। तुम्हारे केंद्र को दूषित नहीं कर सकते, बस तुम्हारे मन को ही दूषित कर सकते हैं - तुम्हारे मन तक उनकी पहुंच है। यदि तुम अपने मन से बाहर निकल सको तो तुम ईसाइयत से, हिंदू, जैन, बौद्ध धर्म से बाहर निकल सकते हो और तब सब प्रकार के कूड़ा-कर्कट समाप्त हो जाएंगे। तुम एक पूर्ण विराम पर पहुंच जाओगे। और जब तुम मन के बाहर होते हो, उसे देखते हो, उसके प्रति जागरूक होते हो, बस एक साक्षी की भांति, तो तुम प्रतिभावान होते हो। तुम्हारी प्रतिभा खोज गई। तुमने उसे अनकिया कर दिया जो समाज ने तुम्हारे साथ किया था। तुमने उनकी सारी साजिशों का अंत कर दिया; तुमने पुरोहितों और राजनीतिज्ञों के षड्यंत्र का कर दिया - तुम उससे बाहर निकल आए, तुम एक स्वतंत्र व्यक्ति हो गए। असल में पहली बार ही तुम एक सच्चे व्यक्ति, एक प्रामाणिक व्यक्ति बने । ध्यान के विषय में अब सारा आकाश तुम्हारा है। प्रतिभा मुक्ति लाती है, प्रतिभा सहजता लाती है । 15 एकाकीपन तुम्हारा स्वभाव है काकीपन एक फूल है, तुम्हारे हृदय ● में विकसित हुआ एक कमल है। एकाकीपन विधायक है, एकाकीपन स्वास्थ्य है— तुम्हारी निजता में जीने का आनंद; तुम्हारे अपने अंतअकाश में जीने का आनंद । ध्यान का अर्थ है : अकेले होने का आनंद। तुम सच ही जीवंत होते हो जब तुम ध्यान में सक्षम हो जाते हो, जब किसी दूसरे पर, किसी परिस्थिति पर, किसी अवस्था पर कोई निर्भरता नहीं रहती। और चूंकि यह तुम्हारी अपनी स्थिति होती है, यह सदैव बनी रहती है – सुबह शाम, दिन में रात में, जवानी में या बुढ़ापे में, स्वास्थ्य में या बीमारी में। जीवन में और मृत्यु में भी यह मौजूद होता है क्योंकि यह ऐसी चीज नहीं है जो तुम्हें बाहर से घटती हो। इसका तुम्हारे भीतर से प्रादुर्भाव होता है। यह तुम्हारा अपना स्वभाव है, स्वरूप है। 16 भी नहीं । चीजों का ऐसा स्वभाव ही नहीं है; इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। जिस क्षण तुम भीतर जाते हो, बाहर के जगत के सारे संबध टूट जाते हैं, सब से टूट जाते हैं। वास्तव में, सारा जगत विलीन हो जाता है। इतना गहन इसी कारण से, रहस्यदर्शियों ने इस जगत को 'माया' कहा है। ऐसा नहीं कि संसार नहीं है, लेकिन ध्यानी के लिए, जो भीतर जाता है उसके लिए यह जगत करीब-करीब मिट जाता है। उसका मौन जाता है कि कोई शोरगुल उसे बेधता नहीं । एकाकीपन इतना गहरा होता है कि तुम्हें बड़े साहस की जरूरत पड़ती है। पर इसी एकाकीपन से आनंद का विस्फोट होता है। इसी एकाकीपन से परमात्मा की अनुभूति होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है; कभी नहीं रहा और कभी होने वाला नहीं है। 17 एकाकीपन का उत्सव मनाओ, अपने विशुद्ध अंतअकाश का उत्सव मनाओ और तुम्हारे हृदय में एक महान गीत फूटेगा । और यह जागरूकता का गीत होगा, यह ध्यान का गीत होगा, दूर से आता हुआ किसी एकाकी पक्षी का गीत होगा—किसी व्यक्ति-विशेष के लिए नहीं, पर गीत बस चल रहा अंतर्यात्रा परम एकाकीपन की ओर है। क्योंकि हृदय भरा है और गाना यात्रा है। तुम अपने साथ वहां किसी को नहीं ले जा सकते। तुम अपने केंद्र में किसी को भागीदार नहीं बना सकते - अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी को चाहता है, क्योंकि मेघ भरा है और बरसना चाहता है, क्योंकि फूल विकसित हो गया है और पंखुड़ियां खुल गई हैं और सुवास फैलती है— बिना किसी को संबोधित Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान के विषय में किए। अपने एकाकीपन को नृत्य बनने फिर भीड़ के मनोविज्ञान का हिस्सा नहीं दो | 18 रह जाता; वह फिर अंधविश्वासी नहीं रहेगा और उसका शोषण नहीं किया जा सकेगा और उसे भेड़ों की तरह खदेड़ा नहीं जा सकेगा; उस पर आदेश और हुक्म नहीं चलाया जा सकेगा। वह स्वयं के प्रकाश से जिएगा; वह स्वयं की अंतस प्रेरणा से जिएगा। उसके जीवन में अद्भुत सौंदर्य और एकजुटता होगी। यही भय है समाज को । तुम्हारा सच्चा स्वरूप ध्यान न कुछ और नहीं बस एक उपाय है तुम्हें अपने सच्चे स्वरूप के प्रति सजग करने का - वह तुम्हारा निर्माण नहीं है; तुम वह हो ही। उसके साथ ही तुम जन्मे हो। तुम वही हो ! बस उसका आविष्कार करना है। यदि यह संभव नहीं है या समाज इसे नहीं होने देता — और कोई समाज इसे होने की सुविधा नहीं देता, क्योंकि प्रामाणिक निजता खतरनाक है : खतरनाक है स्थापित चर्च के लिए, खतरनाक है सरकार के लिए, खतरनाक है भीड़ के लिए, खतरनाक है परंपरा के लिए, क्योंकि एक बार मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप को जान ले, फिर वह एक व्यक्ति बन जाता है; वह एकजुट हुआ व्यक्ति आत्मनिष्ठ हो जाता है और समाज तुम्हें आत्मनिष्ठ नहीं होने देना चाहता। निजता की बजाय समाज तुम्हें एक 'पर्सनेलिटी' (व्यक्तित्व) बनना सिखाता है। 'पर्सनेलिटी' शब्द समझने जैसा है। यह 'परसोना' मूल से आता है- 'परसोना' का अर्थ है एक मुखौटा । समाज तुम्हें एक झूठी धारणा दे देता है कि तुम कौन हो; वह तुम्हें एक खिलौना थमा देता है और तुम सारा जीवन उस खिलौने से चिपके रहते हो। 19 मे ^रे देखे, करीब-करीब सभी लोग गलत जगह पर हैं। जो व्यक्ति एक अतिशय आनंदित डॉक्टर हो सकता था — चित्रकार बना बैठा है। और जो व्यक्ति एक अतिशय आनंदित चित्रकार हो सकता था — डॉक्टर बन बैठा है। कोई भी अपनी सही जगह पर नहीं लगता; इसी कारण यह सारा समाज इतनी झंझट में है। व्यक्ति को दूसरे संचालित कर रहे हैं; वह अपने अंतर्बोध से नहीं चल रहा है। ध्यान तुम्हारी अंतर्बोध की क्षमता के विकास में मदद करता है। यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि क्या तुम्हें परितृप्त करेगा, क्या तुम्हें विकसित होने में सहायक होगा। और सच्चा स्वरूप जैसा भी होगा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा। यही निजता का अर्थ है कि सभी अनूठे हैं। और अपनी इस निजता की खोज और तलाश एक बड़ी पुलक, एक बड़ा साहसिक अभियान है | 20 10 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा खंड ध्यान का विज्ञान Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि सी सद्गुरु के साथ, वैज्ञानिक विधियों से तुम बहुत सा समय, अवसर और ऊर्जा बचा ले सकते हो। और कई बार तो कुछ ही क्षणों में तुम्हारा इतना विकास हो जाता है कि जन्मों-जन्मों तक भी इतना विकास संभव न हो पाता। यदि सम्यक विधि का उपयोग किया जाए तो विकास का विस्फोट हो जाता है— फिर इन विधियों का उपयोग हजारों वर्षों के प्रयोगों में हुआ है। किसी एक व्यक्ति ने इनकी रचना नहीं की थी; कई-कई साधकों ने इन्हें रचा था, और यहां केवल सार ही दिया गया है। ध्यान का विज्ञान तक आगे बढ़ती रहेगी जब तक वह ऐसे बिंदु पर न पहुंच जाए जहां से और आगे बढ़ना संभव नहीं होगा; वह उच्चतम शिखर की ओर बढ़ती चली जाएगी। यही कारण है कि व्यक्ति बार-बार जन्म लेता रहता है। तुम पर छोड़ दिया जाए तो तुम विधियां और ध्यान विधियां सहयोगी हैं विधियां सहयोगी हैं क्योंकि वे वैज्ञानिक होती हैं। तुम व्यर्थ ही भटकने से, व्यर्थ ही टटोलने से बच जाते हो; यदि तुम कोई विधि नहीं जानते, तो देर लगाओगे । पहुंच तो जाओगे, लेकिन तुम्हें बहुत लंबी यात्रा करनी पड़ेगी, और यात्रा बहुत क्ष्य तक तुम पहुंच जाओगे, क्योंकि दुस्साध्य और उबाने वाली होगी।। ल तुम्हारे भीतर की जीवन ऊर्जा त सभी विधियां सहयोगी हो सकती हैं लेकिन वे वास्तव में ध्यान नहीं हैं, वे तो अंधकार में टटोलने के समान हैं। किसी दिन अचानक, कुछ करते हुए, तुम साक्षी हो जाओगे। सक्रिय, या कुंडलिनी, या दरवेश जैसा कोई ध्यान करते हुए एक दिन अचानक ध्यान तो चलता रहेगा लेकिन तुम उससे जुड़े नहीं रह जाओगे। तुम पीछे मौन बैठ रहोगे, उसके द्रष्टा होकर उस दिन ध्यान घटा; उस दिन विधि न बाधा रही, न सहायक रही। तुम चाहो, तो एक व्यायाम की भांति उसका आनंद ले सकते हो; उससे तुम्हें एक शक्ति मिलती है, लेकिन अब उसकी कोई आवश्यकता न रही - वास्तविक ध्यान तो घट गया। ध्यान है साक्षित्व । ध्यान करने का अर्थ है साक्षी हो जाना। ध्यान बिलकुल भी कोई 12 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान विधि नहीं है। यह तुम्हें बड़ा विरोधाभासी लेकिन गहरे में वे कृत्य नहीं हैं, क्योंकि हैं। अंतर्रूपांतरण, अंतर्भानुभूति प्रयास के लगेगा क्योंकि मैं तो तुम्हें विधियां दिए ही यदि तुम उनमें सफल हो जाओ तो कृत्य द्वारा नहीं हो सकती, क्योंकि प्रयास एक चला जाता है। परम अर्थों में ध्यान कोई समाप्त हो जाता है। प्रकार का तनाव है। प्रयास में तुम विधि नहीं है; ध्यान एक समझ है, एक प्रारंभ में ही ऐसा लगता है कि प्रयास हो बिलकुल विश्रांत नहीं हो सकते; प्रयास ही होश है। लेकिन तुम्हें विधियों की जरूरत रहा है। लेकिन तुम उसमें सफल हो जाओ बाधा बन जाएगा। इस पृष्ठभूमि को बुद्धि है क्योंकि वह जो परम समझ है तुमसे। तो प्रयास विदा हो जाता है और सब कुछ में रखकर यदि तुम प्रयास करो, तो बहुत दूर है। तुम्हारे भीतर ही गहरे में है, स्वतःस्फूर्त और प्रयासरहित हो जाता है। धीरे-धीरे तुम प्रयास को छोड़ने में भी लेकिन फिर भी तुमसे बहुत दूर है। इसी यदि तुम उसमें सफल हो जाओ तो फिर सक्षम हो जाओगे। 3 क्षण तुम उसे उपलब्ध हो सकते हो, वह कृत्य नहीं रहता। फिर तुम्हारी ओर से लेकिन होओगे नहीं, क्योंकि तुम्हारा मन किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। वह चलता चला जाता है। इसी क्षण यह संभव तुम्हारी श्वास-प्रश्वास की भांति हो जाता ये विधियां सरल हैं होते हुए भी यह असंभव है। विधियां इस है। लेकिन प्रारंभ में तो प्रयास होगा ही, अंतराल को भर देंगी; वे अंतराल को भरने क्योंकि मन ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता के लिए ही हैं। जिसमें प्रयास न हो। तुम किसी चीज को • सब विधियां जिनकी हम चर्चा तो प्रारंभ में विधियां ही ध्यान होती हैं, प्रयासरहित बता दो तो पूरी बात ही व्यर्थ करेंगे, किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा ही अंत में तुम हंसोगे-कि विधियां ध्यान दिखने लगती है। झेन में, जहां बताई गई हैं जो उपलब्ध हो गया हो। इसे नहीं हैं। ध्यान तो अंतस सत्ता की एक प्रयासरहितता पर बहुत बल दिया जाता है, स्मरण रखना। वे बहुत सरल लगेंगी, और अलग ही गुणवत्ता है, उसका किसी चीज गुरु अपने शिष्यों को कहते हैं, “बैठ भर सरल वे हैं भी। हमारे मन को इतनी सरल से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन यह अंत रहो। कुछ करो मत।" और शिष्य प्रयास चीजें आकर्षित नहीं कर सकतीं। क्योंकि में ही होगा; ऐसा मत सोचना कि प्रारंभ में करता है। निश्चित ही प्रयास के अतिरिक्त यदि विधियां इतनी सरल हों और निवास ही यह हो गया, वरना अंतराल कभी भी और तुम कर भी क्या सकते हो? इतना निकट हो, यदि तुम पहले से ही भर नहीं पाएगा। 2 प्रारंभ में, प्रयास भी होगा, कृत्य भी उसमें हो, और घर इतना समीप हो तो तुम होगा लेकिन प्रारंभ में ही, अनिवार्य स्वयं को हास्यास्पद लगोगे—कि फिर बुराई की तरह। तुम्हें सतत स्मरण रखना तुम उसे चूक कैसे रहे थे? अपने ही प्रयास से शुरू करो होगा कि तुम्हें उसके पार जाना है। एक अहंकार की हास्यास्पदता को अनुभव क्षण ऐसा आना ही चाहिए जब तुम ध्यान करने की अपेक्षा तुम सोचोगे कि ऐसी के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हो, बस सरल विधियां सहयोग नहीं दे सकतीं। न की विधियां कृत्य हैं, क्योंकि विश्रामपूर्ण उपस्थित भर हो और ध्यान यह एक छलावा है। तुम्हारा मन तुमसे तुम्हें कुछ करने का परामर्श घटित हो जाता है। बस बैठो या खड़े होओ कहेगा कि ये सरल विधियां किसी काम दिया गया है-ध्यान करना भी कुछ करना और ध्यान हो जाता है। कुछ भी न करो, की नहीं हो सकतीं कि वे इतनी सरल है; मौन बैठना भी कुछ करना है, कुछ न बस जागे रहो, और ध्यान हो जाता है। हैं, उनसे कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। करना भी एक प्रकार का करना है। बाह्य ये सब ध्यान विधियां तुम्हें एक “भगवत्ता को उपलब्ध करने के लिए, पूर्ण रूप से तो सभी ध्यान विधियां कृत्य हैं, प्रयासरहित अवस्था तक ले आने के लिए और परम को पाने के लिए, इतनी सरल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान विधियों का उपयोग कैसे हो सकता है? वे यदि तुम मन के विषय में कुछ नहीं कैसे सहयोगी हो सकती हैं?" तुम्हारा पहले विधि को समझ लो जानते...और वास्तव में तुम उसके बारे में अहंकार कहेगा ः वे किसी काम की न कुछ भी नहीं जानते। मन तो मात्र एक होंगी। ने एक वृद्ध डॉक्टर के बारे में सुना शब्द है। तुम उसकी जटिलता को नहीं एक बात स्मरण रखो-अहंकार को । है। एक दिन उसके सहयोगी ने उसे जानते। मन अस्तित्व की सबसे जटिल सदा कठिन में ही रस होता है, क्योंकि जब फोन किया क्योंकि वह बड़ी कठिनाई में चीज है; उसके तुल्य और कुछ भी नहीं है। कुछ कठिन होता है तो उसमें एक चुनौती थाः उसके मरीज का दम घुटा जा रहा था; और मन सबसे कोमल भी है; तुम उसे होती है। यदि तुम कठिनाई के पार जा एक बिलियर्ड की गेंद उसके गले में फंस नष्ट कर ले सकते हो; तुम कुछ ऐसा कर सको तो तुम्हारा अहंकार तृप्त अनुभव गई थी, और सहयोगी को समझ नहीं आ सकते हो, जिसे फिर अनकिया न किया करेगा। अहंकार कभी भी सरल की ओर रहा था कि क्या करना है। तो उसने डॉक्टर जा सके! ये विधियां बहुत ही गहन आकर्षित नहीं होता कभी भी नहीं! यदि से पूछा, “अब मैं क्या करूं?" डॉक्टर ने अनुभवों पर, मनुष्य मन के एक अत्यंत तुम अपने अहंकार को चुनौती देना चाहो कहा, "मरीज को किसी पंख से गुदगुदी गहन साक्षात्कार पर आधारित हैं। हर तो तुम्हें कोई कठिन उपाय को खोजना करो।" विधि बहुत लंबे प्रयोग पर आधारित है। होगा। यदि कुछ सरल हो, तो उसमें कोई कुछ मिनट बाद सहयोगी ने बड़े प्रसन्न तो इसे याद रखना : अपने आप से कुछ आकर्षण नहीं होगा, क्योंकि तुम उसे जीत और प्रफुल्लित होकर फोन किया, भी मत करो, और दो विधियों को मिलाओ भी लो तो अहंकार की तृप्ति नहीं हो “आपका इलाज तो बहुत बढ़िया सिद्ध मत, क्योंकि उनकी कार्यशैलियां भिन्न हैं, सकती। पहली बात, जीतने के लिए कुछ हुआ! मरीज हंसने लगा और गेंद बाहर उनके मार्ग भिन्न हैं, उनके आधार भिन्न हैं। था ही नहीं : इतनी सरल बात थी। अहंकार निकल गई। लेकिन मुझे बताइए आपने यह वे एक ही लक्ष्य पर पहुंचाती हैं, परंतु कठिनाइयों की मांग करता है-कुछ अपूर्व विधि कहां से सीखी?" साधन की भांति वे भिन्न हैं। कई बार तो वे बाधाएं जिन्हें पार करना पड़े, कुछ शिखर डॉक्टर बोला, “यह तो मैंने ही बनाई बिल जिन्हें जीतना पड़े। और जितना दुर्गम है। मेरा सदा से यह उद्देश्य रहा है: जब विधियों को मिलाओ मत। वास्तव में, शिखर होगा, उतनी ही तुम्हारे अहंकार को तुम्हें पता न चले कि क्या करना है, तो कुछ भी मत मिलाओ; विधि जिस प्रकार तृप्ति होगी। कुछ भी करो।" दी गई है, वैसे ही उसका उपयोग करो। क्योंकि ये विधियां इतनी सरल हैं, लेकिन जहां तक ध्यान का संबंध है, उसमें परिवर्तन मत करो, सुधार मत उनमें तुम्हारे मन के लिए कोई आकर्षण यह नहीं चलेगा। जब तुम्हें नहीं पता कि करो-क्योंकि तुम उसमें सुधार कर नहीं नहीं होगा। स्मरण रखो, तुम्हारे अहंकार क्या करना है तो कुछ भी मत करो। मन सकते, और कोई भी परिवर्तन तम करोगे को जो आकर्षित करे, वह तुम्हारे बहुत दुर्बोध, जटिल और कोमल है। यदि वह घातक होगा। आध्यात्मिक विकास के लिए सहयोगी __तुम्हें नहीं पता कि क्या करना है, तो कुछ और इससे पहले कि तुम कोई विधि नहीं हो सकता। भी न करना बेहतर है, क्योंकि बिना जाने शुरू करो, यह भलि-भांति जान लो कि ये विधियां इतनी सरल हैं कि तुम निर्णय तुम जो भी करोगे वह सुलझाने की अपेक्षा तुम उसे समझ गए हो। यदि तुम्हें कुछ कर लो तो किसी भी क्षण वह सब ___ और जटिलताएं निर्मित करेगा। वह घातक संदेह हो और लगे कि अभी तुम ठीक से उपलब्ध कर ले सकते हो जो मनुष्य चेतना भी सिद्ध हो सकता है, आत्मघाती भी नहीं जानते कि विधि क्या है, तो उसे न के लिए संभव है। सिद्ध हो सकता है। करना बेहतर होगा, क्योंकि हर विधि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान तुममें एक क्रांति ले आने के लिए है। एक विधि ले लो उसके साथ कम से किनारे आने में मदद दी है। इसे हम कैसे पहले विधि को बिलकुल सम्यक ढंग से कम तीन दिन खेलो। यदि वह तुम्हें छोड़ सकते हैं? इसीके कारण तो हम यहां समझने का प्रयास करो। जब तुम उसे तारतम्यता का कोई भाव देती है, पहुंच पाए हैं। इसके बिना तो हम दूसरे समझ लो, तभी करो। और उस वृद्ध मंगलदायी होने का कोई भाव देती है, यदि किनारे पर ही मर गए होते। रात होने को डॉक्टर के आदर्श को मत अपनाना कि तुम्हें ऐसा लगे कि यह तुम्हारे लिए ही है, थी, और उस किनारे पर जंगली पशु थे; जब तुम्हें यह न पता हो कि क्या करना है तो उसके प्रति गंभीर होना। फिर बाकी यह बिलकुल निश्चित ही था कि सुबह तो कुछ भी करो। नहीं, कुछ भी मत करो। विधियों को भूल जाओ। दूसरी विधियों से तक हम मर गए होते। इस नाव को हम न-करना अधिक लाभदायी होगा। मत खेलो; कम से कम तीन महीने के लिए कभी न छोड़ेंगे। हम सदा-सदा के लिए उसीको जारी रखो। ऋणी हैं। हम तो अहोभाव के रूप में इसे चमत्कार घट सकते हैं। एक ही बात है अपने सिर पर ही ढोएंगे।" सम्यक विधि का बोध कि विधि तुम्हारे लिए ही हो। विधि तुम्हारे विधियां तभी खतरनाक होती हैं जब तुम लिए न हो तो कुछ भी नहीं होता। फिर अर्धमूछित होते हो; वरना उन्हें बड़े सुंदर जन्मों-जन्मों तुम उसे साधते रहो, कुछ भी ढंग से उपयोग में लाया जा सकता है। स्तव में, जब तुम सम्यक विधि में न होगा। विधि तुम्हारे लिए हो तो तीन क्या तुम सोचते हो कि नाव खतरनाक उतरोगे, तो उसका तत्क्षण पता मिनट भी पर्याप्त हैं। 6 होती है? वह तभी खतरनाक हो सकती है लग जाएगा। मैं तो प्रतिदिन यहां विधियों जब तुम अहोभाव से भरकर उसे जीवन की चर्चा करता रहूंगा। तुम उन्हें करके भर अपने सिर पर ढोने की सोचो। वरना देखते रहो। बस उनसे खेलो भर : घर • तो वह बस उपयोग में लाकर और छोड़ जाओ और उन्हें करके देखो। जब भी - देने योग्य, उपयोग में लाकर और त्याग सम्यक विधि में तुम्हारा उतरना होगा, पभी सदगुरु कहते हैं, कि एक दिन देने योग्य एक साधन है, उपयोग कर लेने उसका पता चल जाएगा। कुछ तुममें तुम्हें विधि छोड़नी होगी। और के बाद फिर मुड़कर उसकी ओर देखने की प्रस्फुटित होता है और तुम जान जाते हो , जितनी जल्दी तुम उसे छोड़ दो, उतना ही जरूरत भी नहीं है। उसमें कोई सार भी कि “यही मेरे लिए सम्यक विधि है।" अच्छा। जिस क्षण तुम पहुंच जाओ, जिस नहीं है। लेकिन प्रयास चाहिए, और किसी दिन क्षण तुममें होश जग जाए, तत्क्षण विधि तुम औषधी को छोड़ दो तो स्वतः ही शायद अचानक तुम चकित रह जाओ कि को छोड़ दो। अपने स्वरूप में ठहरने लगोगे। मन विधि ने तुम्हें घेर लिया है। बुद्ध एक कहानी बार-बार कहते थे। आनाकानी करता है; वह तुम्हें अपने __मैंने पाया है कि जब तुम खेलपूर्ण होते पांच मूढ़ एक गांव से गुजरे। उन्हें देख स्वरूप में ठहरने नहीं देता, वह तुम्हें ऐसी हो, तो तुम्हारा मन अधिक खुला होता है। सभी चकित थे, क्योंकि वे अपने सिर पर चीजों में आकर्षित रखता है जो तुम नहीं जब तुम गंभीर होते हो तो तुम्हारा मन इतना एक नाव ढो रहे थे। नाव वास्तव में बड़ी हो जैसे नाव। खुला नहीं होता; बंद होता है। तो बस थी; उसके बोझ के नीचे वे मरे जा रहे थे। जब तुम कुछ भी नहीं पकड़ते तो कहीं खेलो। बहुत गंभीर मत होओ, बस खेलो। लोगों ने पूछा, “तुम कर क्या रहे हो"? जाने को नहीं रहता; सभी नावें छूट गईं, और ये विधियां सरल हैं। तुम इनके साथ वे बोले, "इस नाव को हम नहीं छोड़ तुम कहीं नहीं जा सकते; सभी मार्ग छूट खेल सकते हो। सकते। इसी नाव ने हमें उस किनारे से इस गए और तुम कहीं जा नहीं सकते; सभी 15 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान स्वप्न और कामनाएं मिट गईं, अब आगे एक ही क्षण के लिए। और फिर दोबारा है; हम कुछ वास्तविक चाहते हैं, जाने का उपाय न रहा। फिर विश्राम स्वतः अंधकार घिर आता है और मन अपने सभी काल्पनिक नहीं। लेकिन कल्पना तुम्हारे ही घटता है। स्वप्न लिए, सभी कामनाएं और मूढ़ताएं भीतर की एक वास्तविकता है, एक क्षमता जरा 'विश्राम' शब्द पर विचार करो। लिए फिर से लौट आता है। है, एक संभावना है। तुम कल्पना कर बस होओ...ठहर जाओ...तुम घर आ एक क्षण के लिए मेघ छंटे और तुम्हें सकते हो। इससे पता चलता है तुम्हारे गए। सूर्य के दर्शन हुए। अब मेघ फिर से घिर प्राण कल्पना करने में सक्षम हैं। यह क्षमता एक क्षण को सब ओर सुवास उठी, आए; अंधकार छा गया और सूर्य छिप एक वास्तविकता है। इस कल्पना के द्वारा और अगले क्षण तुम उसे खोज रहे हो और गया। अब तो यह विश्वास कर पाना तुम स्वयं को नष्ट भी कर सकते हो और खोज नहीं पा रहे कि कहां गई। कठिन होगा कि सूर्य है भी। अब तो यह निर्मित भी कर सकते हो। यह तुम पर प्रारंभ में केवल झलकें मिलेंगी। विश्वास भी कर पाना कठिन होगा कि क्षण निर्भर है। कल्पना बहुत शक्तिशाली है। धीरे-धीरे वे ठोस होती जाएंगी, अधिक भर पहले जो अनुभव हुआ, वह सत्य था। वह संभाव्य शक्ति है। स्थिर होती जाएंगी। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, हो सकता है वह भ्रम रहा हो। शायद मन कल्पना क्या है? कल्पना है किसी बहुत धीरे वे सदा के लिए ठहर जाएंगी। कहे, वह एक कल्पना ही रही हो। धारणा में इतने गहरे चले जाना कि वह उससे पहले, तुम उसे 'मिला ही हुआ' नहीं वह अनुभव इतना अविश्वसनीय है, धारणा ही वास्तविकता बन जाए। जैसे समझ सकते; वह एक भूल होगी। कि तुम्हें घटा हो यह असंभव ही लगता है। तिब्बत में उपयोग होने वाली एक विधि जब तुम ध्यान में, साधना-काल में बैठे मन की इन सारी मूढ़ताओं, इन सब मेघों के विषय में तुमने सुना होगा। वे उसे होओगे तो ऐसा होगा। लेकिन फिर यह और अंधकार के बावजूद भी यह घटना उष्मा-योग कहते हैं। सर्द रात है, बर्फ चला भी जाएगा। तो ध्यान की दो घटनाओं तुम पर घटीः एक क्षण को तुम्हें सूर्य के गिर रही है और तिब्बती लामा खुले' के बीच तुम्हें क्या करना है? विधि को दर्शन हुए। यह संभव नहीं लगता; लगता आकाश के नीचे नग्न खड़ा हो जाएगा। जारी रखो। जब तुम गहन ध्यान में पहुंच है जरूर तुमने उसकी कल्पना की होगी; तापमान शून्य से नीचे है। तुम तो मरने जाओ तो विधि को छोड़ दो। जैसे-जैसे शायद तुमने उसका सपना देखा हो। ही लगोगे, जम जाओगे। लेकिन लामा जागरूकता शुद्ध होती जाती है, एक क्षण दो झलकों के बीच में फिर से शुरू एक विधि का अभ्यास कर रहा है-वह आता है जब अचानक वह बिलकुल शुद्ध करो; नाव में उतरो, नाव का फिर से कल्पना कर रहा है कि उसका शरीर हो जाती है : तब विधि को छोड़ दो, विधि उपयोग करो। एक ज्वलंत अग्नि है और उससे पसीना को त्याग दो, औषधी के विषय में सब भूल निकल रहा है—इतनी गरमी है कि उसका जाओ; बस ठहरो और हो रहो। पसीना निकल रहा है। और सच ही पसीना _लेकिन प्रारंभ में ऐसा कुछ क्षण के लिए कल्पना तुम्हारे लिए बहने लगता है जबकि तापमान शून्य ही होगा। कई बार यहां मुझे सुनते हुए भी से नीचे है और खून तक जम जाना ऐसा हो जाता है। चाहिए। उसका पसीना बहने लगता है। एक क्षण के लिए, हवा के एक झोंके पहले तुम्हें यह समझ लेना है कि क्या हो रहा है? यह पसीना वास्तविक है, की तरह तुम दूसरे ही लोक में, अमनी कल्पना है क्या। आजकल यह उसका शरीर वास्तव में गरम है लेकिन लोक में पहुंच जाते हो। एक क्षण के लिए काफी निंदित शब्द है। जैसे ही 'कल्पना' यह वास्तविकता कल्पना से पैदा की गई तुम जानते हो कि तुम 'जानते' हो, लेकिन शब्द सुनते हो, तुम कहते होः यह तो व्यर्थ है।' Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान एक बार तुम अपनी कल्पना से कि तुम बीमार पड़ोगे-और वह रोग कि तुम कल्पना से कुछ निर्मित कर रहे लयबद्ध हो जाओ, तो शरीर भी साथ वास्तविक होगा। लेकिन वह कल्पना से हो; तंत्र का मानना है कि तुम उसे निर्मित सक्रिय हो जाता है। इसी तरह तुम कितने निर्मित हुआ है। कल्पना एक शक्ति है, नहीं कर रहे-कल्पना द्वारा तुम बस ही काम कर रहे हो जो तुम्हें पता नहीं कि एक ऊर्जा है, और मन उससे चलता है। उससे लयबद्ध हो रहे हो जो पहले से ही तुम्हारी कल्पना करवा रही है। कई बार तुम और जब मन उससे चलता है तो शरीर भी है। कल्पना द्वारा तुम जो भी निर्मित करोगे, कल्पना से ही बहुत से रोग पैदा कर लेते अनुसरण करता है। 8 वह स्थायी नहीं हो सकता। यदि वह हो। तुम कल्पना करते हो कि फलां रोग, वास्तविकता नहीं है तो मिथ्या है, जो संक्रामक है, सब ओर फैला है। तुम तत्र परंपरा और पाश्चात्य सम्मोहन में अवास्तविक है, और तुम एक भ्रम निर्मित ग्रहणशील हो गए, अब हर संभावना है यही भेद है : सम्मोहनविद मानता है कर रहे हो। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान ध्यान का समय साधकों के लिए प्रारंभिक सुझाव जब तुम ध्यान में डूबने का प्रयोग कर रहे हो, तो फोन को उतार कर रख दो, स्वयं को मुक्त कर लो। द्वार पर एक सूचना लटका दो कि एक घंटे तक कोई दस्तक न दे, कि तुम ध्यान कर रहे हो। और जब ध्यान कक्ष में प्रवेश करो, तो जूते उतार कर अलग रख दो, क्योंकि पवित्र भूमि पर तुम्हारे पैर पड़ रहे हैं। न उपयुक्त स्थान केवल अपने जूते ही उतार कर अलग करो, वरन वह सब भी छोड़ दो जिसमें तुम कोई ऐसा स्थान तुम्हें खोज लेना हरे-भरे हैं, वृक्ष जैसे ही रसपूर्ण हैं, वृक्ष उलझे हुए हो। होशपूर्वक, जूतों के मग चाहिए जो ध्यान में अभिवृद्धि जैसे ही उत्सवमय हैं—निश्चित ही एक साथ-साथ सब छोड़ दो। अव्यस्त होकर करे। जैसे किसी वृक्ष के नीचे बैठना भेद उनमें है। वे जागे हैं, वृक्ष सोया है। भीतर प्रवेश करो। सहयोगी होगा। सिनेमा घर के सामने वृक्ष अचेत रूप से ताओ में है, बुद्ध सचेत चौबीस घंटों में से एक घंटा निकाला जा जाकर बैठने या रेलवे स्टेशन पर जाकर रूप से ताओ में हैं। और यह बड़ा भेद है, सकता है। तेईस घंटे अपने व्यवसाय को, प्लेटफार्म पर बैठने की अपेक्षा प्रकृति में, धरती और आकाश का भेद है। कामनाओं, विचारों, महत्वाकांक्षाओं, पर्वतों पर, वृक्षों के, नदियों के पास जाओ लेकिन यदि तुम किसी वृक्ष के निकट प्रक्षेपणों को दो। इस सब में से एक घंटा जहां ताओ अभी भी चारों ओर स्पंदित, बैठ रहो जिस पर सुंदर पक्षी गाते हों, या निकाल लो, और अंततः तुम पाओगे कि आलोड़ित, प्रवाहित हो रहा है। वृक्ष सतत कोई मोर नाचता हो; या किसी बहती नदी वह एक घंटा ही तुम्हारे जीवन का ध्यानमग्न है। वह ध्यान मौन और अचेत के पास, जहां बहते जल का नाद हो, या वास्तविक समय था; वे तेईस घंटे तो व्यर्थ है। मैं वृक्ष बनने को नहीं कह रहा हूं; तुम्हें किसी जलप्रपात के निकट उसके ही रहे। बस एक घंटा ही बचा लिया गया, बुद्ध होना है! लेकिन बुद्ध में वृक्ष जैसी महासंगीत में...। बाकी सब तो व्यर्थ गया। 10 एक बात तो है: वे भी वृक्ष जैसे ही ऐसा कोई स्थान खोज लो जहां प्रकृति Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान अभी भी अस्त-व्यस्त और प्रदूषित न हुई मजबूती मिलती है। लेकिन जब वृक्ष छोटा शुरू ऐसी जगह से करो जहां से शुरू हो। ऐसा कोई स्थान न खोज पाओ तो द्वार होता है, कोमल होता है, तो एक छोटा करना सरल हो। वरना तो व्यर्थ ही तुम्हें बंद करके अपने ही कमरे में बैठ जाओ। बच्चा भी काफी खतरनाक होगा, या पास बहुत ही कुछ लगने लगेगा-जो वास्तव संभव हो तो ध्यान के लिए अपने घर में से गुजरती एक गाय भी उसे नष्ट करने के में है नहीं। एक विशेष कक्ष बना लो। एक छोटा-सा लिए पर्याप्त होगी। ।। ____ यदि तुम सीधे बैठने से शुरू करते हो, कोना भी काम देगा, लेकिन वह विशेषतः तो भीतर बड़ी बेचैनी अनुभव करोगे। ध्यान के लिए ही हो। विशेषतः ध्यान के जितना तुम बैठने का प्रयास करोगे, उतनी लिए ही क्यों? क्योंकि हर प्रकार का सुखपूर्वक होओ ही अशांति अनुभव होगी। तुम्हें बस अपने कृत्य अपनी तरंगें पैदा करता है। यदि उस विक्षिप्त मन का ही पता चलेगा किसी और स्थान पर तुम केवल ध्यान ही करो, तो वह रीर की मुद्रा ऐसी हो कि तुम अपने चीज का नहीं। इससे विषाद पैदा होगा; स्थान ध्यानमय हो जाता है। हर रोज तुम । शरीर को भूल सको। आरामपूर्ण तम हताश हो जाओगे, आनंदित अनुभव ध्यान करते हो-जब भी तुम ध्यान में होते होना क्या है? जब तुम अपने शरीर को नहीं करोगे। बल्कि, तुम्हें लगने लगेगा कि हो तो वह स्थान तुम्हारी तरंगों को पी लेता भूल जाते हो, तब तुम आराम में होते हो। तुम विक्षिप्त हो गए। और कई बार तुम है। अगले दिन जब तुम आते हो, तो वे जब तुम्हें शरीर का सतत स्मरण बना रहता वास्तव में विक्षिप्त भी हो सकते हो। तरंगें तुम्हीं पर वापस लौटने लगती हैं। वे है, तो तुम कष्ट में होते हो। तो चाहे कुर्सी यदि तुम ईमानदारी से 'मात्र बैठने का सहयोग देती हैं, प्रत्युत्तर देती हैं, पर बैठो कि भूमि पर बैठो, यह प्रश्न नहीं प्रयास करो तो विक्षिप्त भी हो सकते हो। प्रतिसंवेदित होती हैं। जब कोई व्यक्ति है। सुखपूर्वक हो रहो, क्योंकि तुम्हारा लोग क्योंकि ईमानदरी से प्रयास नहीं वास्तव में ध्यानी हो जाता है, तो वह शरीर ही यदि सुखपूर्वक नहीं होगा तो तुम , करते, इसीलिए अधिक विक्षिप्तता नहीं सिनेमाघर के सामने बैठ कर भी ध्यान कर उन आशीषों की अभीप्सा नहीं कर सकते घटती। थिर बैठने की मुद्रा में तुम्हें भीतर सकता है. रेलवे प्लेटफार्म पर बैठकर भी जिनका संबंध गहरे तलों से है: पहले तल की इतनी विक्षिप्तता का पता लगना शरू ध्यान कर सकता है। पर ही चूक जाओ, तो बाकी सब तल बंद हो जाता है कि यदि तुम इसे निष्ठापूर्वक पंद्रह वर्ष तक लगातार मैं देशभर में हो जाते हैं। यदि तुम वास्तव में सुखी, जारी रखो तो सच में विक्षिप्त हो सकते घमता ही रहा, घमता ही रहा–दिन आए आनंदित होना चाहते हो तो आरंभ से ही हो। ऐसा पहले बहन ना और गए, वर्ष आए और गए लगातार आनंदित होना शुरू करो। जो लोग भी कभी भी किसी ऐसी चीज की सलाह नहीं कभी रेलगाड़ी में, कभी हवाई जहाज में, आंतरिक आनंद तक पहुंचने का प्रयास कर देता जो निराशा, विषाद या उदासी पैदा कभी कार में। इससे कोई अंतर नहीं रहे हैं, शरीर की सुविधा उनके लिए कर सके. जो तम्हें अपनी विक्षिप्तता के पड़ता। एक बार तुम वास्तव ही अपने स्व अनिवार्य आवश्यकता है। 12 प्रति बहुत ज्यादा सचेत कर दे। हो सकता में स्थिर हो जाओ, तो फिर कोई अंतर नहीं है कि अपने भीतर की पूरी विक्षिप्तता के पड़ता। लेकिन नये साधक के लिए ऐसा प्रति जाग पाने की तुम्हारी तैयारी न हो।। नहीं है। रेचन से प्रारंभ करो कुछ बातें तुम्हें धीरे-धीरे पता लगने जब वृक्ष अपनी जड़ें जमा लेता है, तो देनी चाहिए। ज्ञान सदा शुभ नहीं होता। भले ही हवाएं आएं और वर्षा आए और लोगों को कभी भी सीधे बैठने भर जैसे-जैसे उसे पचाने की तुम्हारी क्षमता बादल गरजें, सब ठीक है। इससे वृक्ष को से ही शरू करने को नहीं कहता। बढ़ती जाए, उसे वैसे ही धीरे-धीरे खलना Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान चाहिए। से शुरू होती है, वह तुम्हें अन्य रूपों में भी वह स्थायी हो जाती है। अब वह क्रोध मैं तुम्हारी विक्षिप्तता से ही शुरू करता सहयोगी होती है। वह एक रेचन बन जाती करेगा तो नहीं, लेकिन क्रोधित रहेगा। हूं, बैठने की मुद्रा से नहीं। मैं तुम्हारे है। जब तुम बस बैठ जाते हो, तो व्यथित क्षणिक घटनाओं से हमने बहुत क्रोध जमा पागलपन को चलने देता हूं। यदि तुम होते हो तुम्हारा मन तो चलना चाहता है कर लिया है। यदि क्रोध को दबाया न जाए पागल की तरह नाचो, तो उसका विपरीत और तुम बस बैठे हुए हो। हर मांसपेशी तो कोई हर समय क्रोधित नहीं रह सकता। तुम्हारे भीतर घटित होगा। तेज नृत्य में तुम्हें तन जाती है, हर स्नायु तन जाता है। तुम क्रोध तो क्षणिक है, जो आता है और चला अपने भीतर एक शांत बिंदु का पता लगना स्वयं पर ऐसा कुछ आरोपित करने का जाता है; यदि उसे अभिव्यक्त कर दिया शुरू होता है; शांत बैठने से तुम्हें प्रयास कर रहे हो जो तुम्हारे लिए जाए, तो फिर तुम क्रोधित नहीं रहते। तो विक्षिप्तता का पता लगने लगता है। सदा स्वाभाविक नहीं है। फिर तुमने स्वयं को अपने साथ, मैं बच्चों को अधिक विपरीत का ही पता चलता है। आरोपित करने वाले और जिस पर प्रामाणिक रूप से क्रोधित होने दूंगा। पागलों की तरह, अव्यवस्थित रूप से आरोपित किया जा रहा है उसमें विभाजित क्रोधित होओ, लेकिन उसमें गहरे जाओ। नाचने में, रोने में, अराजक श्वास प्रक्रिया कर लिया। और वास्तव में जिस भाग पर उसे दबाओ मत। में मैं तुम्हें पागल होने देता हूं। फिर सतह आरोपित किया जा रहा है और जिसे निश्चित ही, समस्याएं तो आएंगी। जब के पागलपन के विपरीत तुम्हें एक ऐसे दबाया जा रहा है, वह अधिक मौलिक है। हम कहते हैं, “क्रोधित होओ," तो तुम सूक्ष्म बिंदु, अपने भीतर के एक ऐसे गहन वह दमन करने वाले भाग से अधिक किसी व्यक्ति पर क्रोधित होओगे। बिंदु का पता लगने लगता है जो शांत और प्रमुख है, और प्रमुख भाग की निश्चित ही लेकिन बच्चे को दिशा दी जा सकती स्थिर है। तुम बहुत आनंदित अनुभव जीत होगी। है। उसे तकिया देकर कहा जा सकता है करोगे; तुम्हारे केंद्र पर एक आंतरिक मौन जिसका तुम दमन कर रहे हो, उसे तो कि “तकिये पर क्रोध कर लो। तकिये पर, होगा। लेकिन यदि तुम सीधे थिर बैठते हो वास्तव में बाहर फेंकना है, दबाना नहीं है। हिंसा कर लो।" आरंभ से ही बच्चे को तो भीतर विक्षिप्तता ही होगी। बाहर से तुम क्योंकि तुम लगातार उसे दबाते रहे हो क्रोध का दिशा-परिवर्तन सिखाया जा शांत हो, पर भीतर से विक्षिप्त हो। इसलिए वह तुम्हारे भीतर जमा हो गया है। सकता है। उसे कोई वस्तु दे सकते हैं : जब यदि तुम किसी सक्रिय विधि से शुरू तुम्हारे सारे संस्कार, सारी सभ्यता और तक क्रोध चला न जाए वह उस वस्तु को करो-जो विधायक हो, जीवंत हो, शिक्षा दमनकारी है। तुम इतना कुछ दबाते पटकता रह सकता है। कुछ ही मिनटों में, गतिमय हो-तो बेहतर होगा। फिर तुम रहे हो जिसे सरलता से निकाला जा सकता क्षणों में उसका क्रोध समाप्त हो जाएगा, भीतर एक स्थिरता को विकसित होता हुआ था यदि तुम्हें एक भिन्न शिक्षा मिलती, एक क्रोध का कोई संचय नहीं होगा। अनुभव करोगे। जितनी वह स्थिरता अधिक जागरूक शिक्षा मिलती, अधिक तुमने क्रोध, काम, हिंसा, लोभ-सब विकसित होगी उतना ही तुम्हारे लिए किसी जाग्रत माता-पिता मिलते। यदि मन की कुछ संचयित कर लिया है। अब यह बैठने अथवा लेटने की मुद्रा का उपयोग आंतरिक व्यवस्था के प्रति अधिक संचय ही तुम्हारे भीतर विक्षिप्तता बन गया कर पाना संभव होगा-कोई अधिक शांत सजगता होती तो संस्कृति तुम्हें बहुत कुछ है। वह तुम्हारे भीतर ही है। यदि तुम किसी ध्यान विधि संभव हो सकेगी। लेकिन तब निकाल लेने देती। जैसे, कोई बच्चा निरोधक विधि से आरंभ करते हो (जैसे तक बात भिन्न हो जाएगी, बिलकुल भिन्न क्रोधित होता है तो हम उसे कहते हैं, बैठना) तो तुम इस सब का दमन कर रहे हो जाएगी। __क्रोध मत करो।" वह क्रोध को दबाने हो, उसे निर्मुक्त नहीं होने दे रहे हो। तो मैं जो ध्यान विधि सक्रियता से, गतिमयता लगता है। धीरे-धीरे, जो क्षणिक घटना थी रेचन से आरंभ करता हूं। पहले जितने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान दमन हैं उन्हें हवा में निकलने दो। और जब से, बल्कि जन्मों-जन्मों के बोझ से निर्भार नब मैं स्वयं ध्यान शिविर लेता था, तुम अपने क्रोध को हवा में निकाल सको हो सकते हो। यदि तुम सबकुछ निकाल तो हर रोज दोपहर को एक विधि तो तुम परिपक्व हुए। फेंकने को तैयार हो जाओ, यदि तुम अपनी होती थी जिसमें सभी शिविरार्थी एक साथ __ यदि मैं अकेला प्रेमपूर्ण न हो सकू, यदि विक्षिप्तता को बाहर आने दे सको तो कुछ बैठ जाते थे, और हर किसी को छूट थी मैं उसी एक व्यक्ति के साथ प्रेमपूर्ण हो ही क्षणों में सब स्वच्छ हो जाए। अब तुम कि वह जो करना चाहे कर सकता सर्व जिसे प्रेम करता हूं, तो मैं अभी स्वच्छ हुए : ताजे, निर्दोष। तुम पुनः है-कोई प्रतिबंध नहीं था, बस किसी परिपक्व नहीं हुआ। तब प्रेमपूर्ण होने के शिशुवत हो गए। अब तुम्हारी इस और की प्रक्रिया में हस्तक्षेप भर नहीं करना लिए भी मैं किसी पर आश्रित हूं। कोई निर्दोषता में, बैठकर ध्यान हो सकता था। वह जो कहना चाहे, कह सकता है; व्यक्ति होना चाहिए, तभी मैं प्रेमपूर्ण हो है-बस बैठकर, या लेटकर या कैसे यदि रोना चाहे तो रो सकता है; हंसना सकता हूं! वह प्रेमपूर्ण होना तो बहुत भी-क्योंकि अब भीतर कोई विक्षिप्तता चाहे तो हंस सकता है और एक हजार उथली बात होगी। वह मेरा स्वभाव नहीं नहीं है जो बैठने में बाधा डाले। लोग! कैसा मजेदार दृश्य होता था! ऐसे है। यदि कमरे में अकेला होने पर मैं सबसे पहले सफाई होनी लोग जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर प्रेमपूर्ण नहीं हूं तो प्रेम का वह गुण बहुत चाहिए-रेचन होना चाहिए। वरना, सकते थे-गंभीर लोग-ऐसी-ऐसी गहरा नहीं गया; वह मेरे प्राणों का अंग प्राणायाम से, बस बैठने से, आसन, मूर्खताएं करने लगते थे! कोई मुंह बना रहा नहीं बना। योगासन साधने से तो तुम कुछ दबा रहे है, जीभ जितनी बाहर निकाल सकता है जितने तुम कम आश्रित होते जाते हो, हो। और एक बड़ी अद्भुत घटना घटती निकाल रहा है, और तुम जानते हो कि यह उतने ही तुम अधिक परिपक्व हो जाते हो। है: जब तुम सबकुछ बाहर निकल जाने व्यक्ति पुलिस कमिश्नर है! यदि तुम अकेले क्रोधित हो सको, तो तुम देते हो, तो बैठना ऐसे ही घट जाएगा, , एक व्यक्ति को तो मैं भूल ही नहीं अधिक परिपक्व हो गए। तुम्हें क्रोधित होने आसन ऐसे ही घट जाएंगे। यह सहज सकता, क्योंकि वह हर रोज मेरे सामने के लिए किसी विषय की जरूरत न रही। घटना होगी। बैठता था। वह अहमदाबाद का एक बड़ा तो प्रारंभ में मैं रेचन को एक अनिवार्यता रेचन से आरंभ करो, और फिर तुम्हारे धनी व्यक्ति था, और क्योंकि उसका पूरा बना देता हूं। बिना किसी विषय का खयाल, भीतर कुछ शुभ उपज सकता है। उसका व्यवसाय ही शेयर बाजार का था, तो वह किए तुम्हें सब कुछ आकाश में खुले एक भिन्न गुणधर्म होगा, एक भिन्न सौंदर्य हमेशा फोन करने में ही लगा रहता। जब अंतरिक्ष में फेंक देना चाहिए। होगा-बिलकुल भिन्न। वह प्रामाणिक भी यह एक घंटे का ध्यान शुरू होता, दो जिस व्यक्ति के साथ तुम क्रोध करना होगा। या तीन मिनट में ही वह फोन उठा लेता। चाहते थे, उसके बिना क्रोधित होओ। जब मौन आता है, जब मौन तुम पर वह नंबर घुमाने लगताः “हलो!" उसके रोओ, बिना किसी कारण को खोजे। हंसो, उतरता है, तो वह झूठा नहीं होता। तुम चेहरे से ऐसा लगता जैसे उसे दूसरी ओर अकारण ही हंसो। फिर तुम सारा संचय उसका सप्रयास निर्माण नहीं करते रहे हो। से उत्तर मिल रहा हो, और वह तिरोहित कर सकते हो। तुम उसे बस फेंक वह तुम पर आता है; तुममें घटित होता है। कहता-"खरीद लो।" सकते हो। और एक बार तुम्हें ढंग आ तुम उसे अपने भीतर ऐसे ही विकसित एक घंटे तक यह चलता रहता, और जाए, तो तुम पूरे अतीत से निर्भार हो जाते होता अनुभव करने लगते हो जैसे एक मां वह बार-बार कभी इधर फोन करता, कभी हो। बच्चे को भीतर विकसित होता अनुभव उधर फोन करता, और कभी-कभार मेरी कुछ ही मिनटों में तुम जन्म भर के बोझ करती है। 13 ओर देख कर मुस्करा देताः “मैं भी क्या 21 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान मूर्खता कर रहा हूं!" लेकिन मुझे बिलकुल से इस कार से घृणा करता हूं।" क्योंकि रात वह मुझे मिलने आया और बोला, गंभीर रहना पड़ता। मैं कभी उसकी ओर उसके पास कार नहीं थी, और यह एक “यह तो बड़ा खतरनाक ध्यान था! मैंने तो देखकर नहीं मुस्कराया। तो वह दोबारा विदेशी कार थी जो जयंतीभाई ने मेरे लिए स्वयं को या किसी और को मार ही डाला फोन करना शुरू कर देता : “कोई नहीं देख रखी हुई थी। मैं वर्ष में तीन या चार बार होता। मैंने कार को तोड़-फोड़ डाला होता, रहा है, सभी अपने-अपने काम में लगे माउंट आबू आता था, तो वह कार उन्होंने और जयंतीभाई का मैं अच्छा मित्र हूं, और मेरे लिए ही रखी हुई थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था.. लेकिन एक हजार लोग इतना कुछ करने उनके मित्र के भीतर जरूर ईर्ष्या रही निश्चित ही यह भाव मेरे भीतर रहा होगा। लगें...और यह सब लगातार उनके मन में होगी कि उसके पास कोई विदेशी कार नहीं "मुझे यह बात बुरी लगती थी कि आप चल रहा था। वह सबकुछ बाहर निकालने है। और फिर परिस्थिति को देखकर कुछ हमेशा उन्हीं की कार में आते थे, और मुझे का उनके लिए यह सुअवसर था। ऐसा लोग मदद के लिए दौड़े आए। जब उसने यह बात भी बुरी लगती थी कि उनके पास खेल चलता था। देखा कि इतने लोग उसे रोक रहे हैं, तो विदेशी कार है, लेकिन यह बात मेरे चेतन जयंतीभाई माउंट आबू के शिविर के विरोध-प्रदर्शन में वह मेरे सामने एक वृक्ष में बिलकुल भी नहीं थी। और मैं वृक्ष पर संचालक थे, और उनके एक घनिष्ठ मित्र पर चढ़ गया। नग्न वह वृक्ष की चोटी पर क्या कर रहा था? जरूर मुझमें इतनी हिंसा ने अपने सभी कपड़े उतार दिए। यह बैठ गया, और वृक्ष को हिलाने लगा। रही होगी, जो मैं लोगों को मार डालना आश्चर्य की बात थी! जयंतीभाई मेरे पास खतरा था कि वृक्ष के समेत वह हजार चाहता था।" ही खड़े थे; वे तो इस पर विश्वास ही न लोगों के ऊपर गिर जाएगा। जयंतीभाई ने वह ध्यान बड़ा सहयोगी था। एक घंटे कर पाए। वह व्यक्ति बहुत गंभीर, और मुझसे पूछा, “अब क्या किया जाए?” में ही लोग इससे इतने विश्रांत हो जाते कि बहुत समृद्ध था; एक हजार लोगों के मैंने कहा, "वह तुम्हारा मित्र है। वह जो वे मुझसे कहते, "ऐसा लगता है कि सिर' सामने वह यह क्या करने लगा? और फिर करता है उसे करने दो, उसकी चिंता मत से कोई भारी बोझ उतर गया। हमें तो पता वह कार को धक्का देने लगा, जिसमें करो। बस लोगों को इधर-उधर हटा दो, भी नहीं था कि हम अचेतन मन में बैठकर मैं आया था-वह जयंतीभाई की और वह जो करता है उसे करने दो। अब क्या-क्या दबाये हुए हैं।" लेकिन उसके कार थी। हम पहाड़ों पर थे, और ठीक वह कार को तो नुकसान नहीं पहुंचा रहा बोध के लिए उसे बेशर्त और अबाधित सामने एक हजार फीट गहरा खड्ड था, और है। ज्यादा से ज्यादा उसकी कुछ हड्डियां ही अभिव्यक्ति देने की अपेक्षा और कोई नंगा वह कार को धकेले जा रहा था। टूटेंगी।" उपाय नहीं था। जयंतीभाई मुझसे बोले, "क्या करूं? जैसे ही लोग हटे, वह भी रुक गया। यह एक छोटा-सा प्रयोग था; मैंने वह तो कार को नष्ट कर देगा, और मैंने वृक्ष पर शांत होकर बैठ गया। ध्यान लोगों से कहा कि वे इसे जारी रखें: जल्दी कभी सोचा भी नहीं था कि यह आदमी मेरी समाप्त हो जाने पर भी वह वृक्ष पर ही बैठा ही तुम्हारे सामने बहुत-सी चीजें आएंगी, कार के खिलाफ है। हम घनिष्ठ मित्र हैं।" रहा। तब जयंतीभाई बोले, “अब नीचे और एक दिन तुम उस स्थिति पर पहुंच तो मैंने उन्हें कहा, “तुम दूसरी ओर से उतर आओ। ध्यान समाप्त हुआ।" जाओगे जहां सब समाप्त हो जाता है। बस धक्का देने लगो; वरना वह तो...।" जैसे नींद से जागा हो, उसने चारों ओर इतना स्मरण रखो कि किसी दूसरे व्यक्ति जयंतीभाई कार को रोकने लगे और देखा और देखा कि वह नग्न था! वह वृक्ष को हस्तक्षेप नहीं करना है और उनका मित्र उछल-उछल कर चिल्लाने से कूदा, और अपने वस्त्रों की ओर भागा। विध्वंसात्मक नहीं होना है। जो भी तुम लगा, "मेरे रास्ते से हट जाओ! मैं हमेशा वह बोला, "मुझे हो क्या गया था?" कहना चाहते हो कहो; गालियां दो; जो भी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान 1 चाहो — और जो कुछ भी तुम जमा करते मैं माउंट आबू में शिविर नहीं ले सकता, रहे हो उसे समाप्त करों । लेकिन यह संसार भी विचित्र है। राजस्थान की सरकार ने अपनी विधानसभा में यह प्रस्ताव पारित किया कि क्योंकि उनके सुनने में आ रहा था कि यह सब वहां हो रहा है—अच्छे-भले लोग पागल हो जाते हैं, कुछ भी करने लगते हैं। अब विधानसभा में बैठे राजनीतिज्ञों को 23 मनुष्य के मन का, उनकी ग्रंथियों का, और उन्हें कैसे समाप्त करना, कैसे जलाना, इसका कुछ पता नहीं है। मुझे वह ध्यान बंद करना पड़ा क्योंकि वरना वे मुझे माउंट आबू में शिविर न लेने देते । 14 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान तीन अनिवार्यताएं मुक्ति हेतु दिशा-निर्देश यान में कुछ अनिवार्य तत्व हैं, नाविधि कोई भी हो, वे अनिवार्य तत्व हर विधि के लिए। आवश्यक हैं। पहली है एक विश्रामपूर्ण अवस्थाः मन के साथ कोई संघर्ष नहीं, मन पर कोई नियंत्रण नहीं; कोई एकाग्रता नहीं। दूसरा, जो भी चल रहा है उसे बिना जीवन उसके लिए मस्ती है, जीवन एक किसी हस्तक्षेप के, बस शांत सजगता से लीला, एक खेल है। वह जीवन का परम देखो भर-शांत होकर, बिना किसी आनंद लेता है। वह गंभीर नहीं होता, निर्णय और मूल्यांकन के, बस मन को लाखों लोग ध्यान से चूक जाते हैं विश्रामपूर्ण होता है। 16 देखते रहो। क्योंकि ध्यान ने गलत अर्थ ले ये तीन बातें हैं: विश्राम, साक्षित्व, लिए हैं। ध्यान बहुत गंभीर लगता है, अ-निर्णय-और धीरे-धीरे एक गहन उदास लगता है, उसमें कुछ चर्च वाली धैर्य रखो मौन तुम पर उतर आता है। तुम्हारे भीतर बात आ गई है; लगता है यह उन्हीं लोगों। की सारी हलचल समाप्त हो जाती है। तुम के लिए है जो या तो मर गए हैं या जल्दबाजी मत करो। बहुत बार हो, लेकिन 'मैं हूं' का भाव नहीं है-बस करीब-करीब मर गए हैं जो उदास हैं, जल्दबाजी से ही देर लग जाती है। एक शुद्ध आकाश है। ध्यान की एक सौ गंभीर हैं, जिनके चेहरे लंबे हो गए हैं; जब तुम्हारी प्यास जगे, तो धैर्य से प्रतीक्षा बारह विधियां हैं; मैं उन सभी विधियों पर जिन्होंने उत्साह, मस्ती, प्रफुल्लता, उत्सव करो—जितनी गहन प्रतीक्षा होगी, उतने बोला हूं। उनकी संरचना में भेद है, परंतु सब खो दिया है।। जल्दी ही वह आएगा। उनके आधार वही हैं: विश्राम, साक्षित्व यही तो ध्यान के गुणधर्म हैं : जो व्यक्ति तुमने बीज बो दिए, अब छाया में बैठ और एक निर्विवेचनापूर्ण दृष्टिकोण। 15 वास्तव में ध्यानी है वह खेलपूर्ण होगा; रहो और देखो क्या होता है। बीज टूटेगा, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान खिलेगा,लेकिन तुम प्रक्रिया को तेज नहीं यही कारण है कि शिक्षित लोग चालाक सजग होने में मदद करता है। ऊर्जाएं कर सकते। क्या हर चीज के लिए समय हो जाते हैं, क्योंकि वे छोटे मार्ग खोजने में विश्राम की एक अवधि से गुजर जाती हैं नहीं चाहिए? तुम कार्य तो करो, लेकिन सक्षम होते हैं। यदि तुम न्यायोचित ढंग से और सुबह ज्यादा जीवंत हो जाती हैं। परिणाम परमात्मा पर छोड़ दो। जीवन में धन कमाओ तो तुम्हारा पूरा जीवन भी ध्यान में भी ऐसा ही होगा: कुछ क्षण कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता—विशेषतः सत्य इसमें लग सकता है। लेकिन यदि तुम के लिए तुम बिलकुल होश में होते हो, की ओर उठाए गए कदम। तस्करी से, जुए से, या किसी और ढंग शिखर पर होते हो और फिर कुछ क्षण के परंतु कई बार अधैर्य उठता है; प्यास के से-राजनेता, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन लिए घाटी में पहुंच जाते हो, विश्राम करते साथ ही आता है अधैर्य, पर वह बाधा है। कर-धन कमा सको तो सभी छोटे मार्ग हो। होश बिदा हो गया, तुम भूल गए। प्यास को बचा लो और अधैर्य को तुम्हें उपलब्ध होगें। शिक्षित व्यक्ति लेकिन इसमें क्या गलत है? यह तो सीधी जाने दो। चालाक हो जाता है। वह बुद्धिमान नहीं बात है। बेहोशी से फिर होश उठेगा, ताजा _अधैर्य को प्यास के साथ मिलाओ मत। बनता, बस, चालाक हो जाता है। वह होकर, युवा होकर और यह चलता रहेगा। प्यास में उत्कंठा तो होती है परंतु कोई इतना चालाक हो जाता है कि बिना कुछ यदि तुम दोनों का आनंद ले सको तो तुम संघर्ष नहीं होता; अधैर्य में संघर्ष होता है किए सब कुछ पा लेना चाहता है। तीसरे' हो जाते हो, और यह सूत्र समझने और कोई उत्कंठा नहीं होती। अभीप्सा में ___ध्यान उन्हीं लोगों को घटता है जो जैसा है: यदि तुम दोनों का आनंद ले प्रतीक्षा तो होती है परंतु कोई मांग नहीं परिणामोन्मुख नहीं होते। ध्यान सको, इसका अर्थ हुआ कि तुम दोनों ही होती; अधैर्य में मांग होती है और कोई परिणामोन्मुख न होने की दशा है। 18 नहीं हो-न होश, न बेहोशी-तुम तो प्रतीक्षा नहीं होती। प्यास में तो मौन आंसू वह हो जो दोनों का आनंद लेता है। तब होते हैं; अधैर्य में बेचैन संघर्ष होता है। -: पार का कुछ प्रवेश कर जाता है। सत्य पर आक्रमण नहीं किया जा बेहोशी का भी सम्मान करो वास्तव में, यही वास्तविक साक्षी है। सकता; वह तो समर्पण से पाया जाता है, तुम.सुख का आनंद लेते हो, उसमें क्या संघर्ष से नहीं। उसे समग्र समर्पण से जीता जब होश में हो तो होश का आनंद गलत है? जब सुख गया और तुम दुखी हो जाता है। 17 गलो. और जब बेहोश हो तो बेहोशी गए तो दुख में क्या गलत है? उसका का आनंद लो। कुछ भी गलत नहीं है, आनंद लो। एक बार तुम दुख का आनंद क्योंकि बेहोशी एक विश्राम की भांति है। लेने में सक्षम हो जाओ तो तुम दोनों ही परिणाम मत खोजो वरना होश एक तनाव हो जाता। यदि तम नहीं रहते। चौबीस घंटे जागे रहो तो तुम कितने दिन, और यह मैं तुम्हें कहता हूं: यदि तुम हंकार परिणामोन्मुख है, मन सदा सोचते हो कि, जीवित रहोगे? दुख का आनंद ले सको, तो उसका अपना जपरिणाम के लिए लालायित रहता भोजन के बिना मनुष्य तीन महीने जी सौंदर्य है। सुख थोड़ा उथला है; दुख बहुत है। मन का कर्म में कोई रस नहीं होता, सकता है; नींद के बिना तीन सप्ताह में ही गहरा है, उसमें एक गहराई है। जो मनुष्य परिणाम में ही रस होता है- "इससे मुझे वह विक्षिप्त हो जाएगा और वह आत्मघात कभी दुखी नहीं हुआ वह उथला रहेगा, क्या मिलेगा?" यदि कृत्य से गुजरे बिना का प्रयास करेगा। दिन में तुम सजग रहते सतह पर ही रहेगा। दुख अंधेरी रात की ही मन परिणाम पा सके, तो वह छोटे मार्ग हो; रात तुम विश्राम करते हो, और वह तरह बहुत गहरा है। अंधकार में एक मौन का ही चुनाव करेगा। विश्राम तुम्हें दिन में, ताजे होकर, और है, और एक उदासी भी। सुख तो छलकता 15 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान है; उसमें एक आवाज होती है। वह तो मनाते हो, और मृत्यु का भी उत्सव जब तुम्हारे भीतर सभी कुछ शांत हो जाता पर्वतों की सरिता जैसा है; आवाज पैदा मनाते हो। 19 है। वही क्षण है जब वे तरंगें गहन निद्रा होती है। लेकिन पर्वतों में कोई भी नदी वाली तरंगें होती हैं। तुम्हें इस गहन निद्रा बहुत गहरी नहीं हो सकती; सदा उथली का बोध नहीं होगा, परंतु दस मिनट के होती है। जब नदी मैदानों में पहुंचती है तो बाद जब तुम्हें यंत्र से हटाया जाएगा तो गहरी हो जाती है, लेकिन फिर आवाज तुम उसके प्रभाव देखोगेः कि तुम स्थिर, नहीं होती। नदी बहती चलती है जैसे बह निश्चल और शांत हो गए हो; कोई चिंता ही न रही हो। दुख में एक गहराई है। TIसार भर में बहुत से यंत्र विकसित नहीं रही, कोई तनाव नहीं रहा; जीवन ___ झंझट क्यों खड़ी करनी? जब सुखी हो, तकिए जा रहे हैं, जो दावा करते हैं अधिक प्रफुल्ल और आनंदमय लगने तो सुखी होओ, उसका आनंद लो। उससे कि वे तुम्हें ध्यान दे सकते हैं; तुम्हें बस लगा है। व्यक्ति को ऐसा लगता है जैसे तादात्म्य मत बनाओ। जब मैं कहता हूं: इयरफोन लगाकर विश्राम करना है, और उसने कोई अंतस्नान कर लिया हो। सुखी होओ, तो मेरा अर्थ है: उसका दस मिनट के भीतर तुम ध्यान की अवस्था तुम्हारा सारा अंतस शांत और शीतल हो आनंद लो। उसे एक जलवायु बन जाने में पहुंच जाओगे। जाता है। यंत्रों के साथ चीजें बहुत दो, जो बदल जाएगी। सुबह दोपहर में यह नितांत मूढ़ता है, परंतु तकनीकी सुनिश्चित हो जाती हैं क्योंकि वे तुम्हारे बदल जाती है, दोपहर शाम में, और फिर लोगों के मन में यह विचार क्यों आया, किसी कृत्य पर निर्भर नहीं करतीं। यह ऐसे रात आ जाती है। सुख को अपने चारों इसके पीछे भी एक कारण है। जाग्रत ही है जैसे संगीत सुननाः तुम शांत और ओर एक वातावरण बन जाने दो। उसका अवस्था में मन एक विशेष आवृत्ति की लयबद्ध अनुभव करते हो। वे यंत्र तुम्हें आनंद लो, और जब उदासी आए तो तरंग में कार्य करता है। जब वह स्वप्न में तीसरी अवस्था-गहन निद्रा, स्वप्नरहित उसका भी आनंद लो। कुछ भी हो, मैं तुम्हें होता है तो एक भिन्न तरंग-लंबान में कार्य निद्रा तक ले जाएंगे। उसका आनंद लेना सिखाता हूं। शांत बैठो करता है। लेकिन इनमें से कोई भी ध्यान लेकिन यदि तुम सोचो कि यही ध्यान और उदासी का आनंद लो, और अचानक नहीं है। है, तो तुम गलत हो। मैं कहूंगा, यह एक उदासी उदासी नहीं रहती; वह स्वयं में हजारों वर्षों से हमने ध्यान को तुरीय अच्छा अनुभव है, और जब तुम गहन एक सुंदर, शांत और मौन क्षण बन जाती कहा है- "चौथा"। जब तुम गहनतम निद्रा के क्षण में पहुंचो, और जब मन है। उसमें कोई गलती नहीं है। निद्रा के पार चले जाते हो और फिर भी अपनी तरंगें बदलना शुरू करे, तो यदि और फिर परम कीमिया घटित होती है, जाग्रत होते हो, तो वह जागरण ध्यान है। शुरू से ही तुम जाग्रत रह सको...तुम्हें वह बिंदु आता है जहां तुम अचानक __वह कोई अनुभव नहीं है; वह तो तुम्हीं अधिक सचेत, जागरूक और सजग होना अनुभव करते हो कि तुम दोनों ही नहीं हो, तुम्हारा होना है। होगा कि क्या हो रहा है, और तुम पाओगे हो-न सुख, न दुख। तुम द्रष्टा होः तुम लेकिन सही हाथों में ये उच्च तकनीक कि मन धीरे-धीरे सोता जा रहा है। और शिखरों को भी देखते हो और घाटियों को से बने यंत्र उपयोगी हो सकते हैं। वे तुम्हारे यदि तुम मन को सोते हुए देख सको...जो भी; परंतु तुम दोनों ही नहीं हो। मस्तिष्क में ऐसी तरंगें पैदा करने में मदद दे मन को सोते हुए देख रहा है वह तुम्हारी एक बार यह दशा उपलब्ध हो जाए, तो सकते हैं कि तुम विश्रांत अनुभव करने स्व-सत्ता है, और वही हर प्रामाणिक तुम हर बात का उत्सव मनाते चले जा लगो, जैसे कि आधे सोए हो... विचार ध्यान का लक्ष्य है। सकते हो। फिर तुम जीवन का उत्सव बिदा होने लगते हैं और एक क्षण आता है ये यंत्र उस सजगता को पैदा नहीं कर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान सकते। वह सजगता तो तुम्हीं को निर्मित से सीख सकते हैं कि वे किस प्रकार की की संभावना के पार है। लेकिन करनी होगी, परंतु ये यंत्र दस मिनट के तरंगें लोगों में पैदा करते हैं, और उन तरंगों टेक्नालॉजी जो तुम्हें दे सकती उसे निश्चित भीतर एक ऐसी संभावना निश्चित ही को वे अपने वाद्यों से निर्मित करना शुरू रूप से उपयोग किया जा सकता है। ध्यान निर्मित कर सकते हैं जो तुम वर्षों के प्रयास कर सकते हैं। उन यंत्रों की जरूरत नहीं है, में छलांग लेने के एक सुंदर माध्यम की में भी निर्मित न कर पाते। संगीतज्ञ तुम्हारे लिए उन तरंगों को पैदा कर भांति उसका उपयोग हो सकता है। तो मैं इन तकनीकी यंत्रों के विरुद्ध नहीं सकते हैं, और तुम निद्रा में उतरने लगोगे! और एक बार तुम्हें होश का स्वाद लग हूं, मैं उनके पक्ष में हूं। मैं तो बस इतना ही परंतु यदि तुम गहनतम निद्रा में भी जाग्रत जाए, शायद कुछ बार और यंत्र सहयोगी चाहता हूं कि जो लोग संसार भर में उन रह सको, जब तुम देखो कि बस एक और हो सकता है ताकि तुम्हारा होश यंत्रों का प्रसार कर रहे हैं, वे यह जान लें कदम और तुम अचेतन हो जाओगे, तो अधिकाधिक स्पष्ट हो जाए, कि तुम्हारा कि वे शुभ कार्य कर रहे हैं, परंतु वह तुमने एक रहस्य जान लिया। उस यंत्र का होश यंत्र-निर्मित मौन से अधिकाधिक अधूरा है। वह तभी पूरा होगा जब गहन बड़ा सुंदर उपयोग हो सकता है। विच्छिन्न हो जाए। और फिर तुम्हें यह मौन में उतरा हुआ वह व्यक्ति सजग भी और यही बात संसार के सब यंत्रों के प्रयोग यंत्र के बिना शुरू करना चाहिए। हो, जैसे होश का छोटा-सा दीया जलता विषय में सत्य है: सही हाथों में उन्हें एक बार तुमने यंत्र के बिना करना सीख चला जाए। सब कुछ विलीन हो जाता है, मनुष्यता के अपार कल्याण के लिए लिया, तो यंत्र तुम्हारे लिए परम सहयोगी सब ओर अंधकार, मौन और शांति उपयोग में लाया जा सकता है। गलत हुआ। 20 है लेकिन होश की एक अचल ज्योति हाथों में वे अवरोध बन जाते हैं। और जल रही है। दुर्भाग्य से, बहुत से गलत हाथ हैं...। तो यदि वह यंत्र सही हाथों में हो और लेकिन यह ध्यान नहीं है, यह तो मात्र लोगों को सिखाया जा सके कि वास्तविक उन तरंगों का परिवर्तन है जो तुम्हारे चारों चीज यंत्र से नहीं आएगी, तो यंत्र वह ओर वातावरण में सतत प्रवाहित हो रही तम्हारे द्वारा ही नहीं सबके द्वारा स्मरण अनिवार्य भूमि निर्मित कर सकते हैं जिस हैं। एक अनुभव की तरह यह निश्चित ही। रखने योग्य एक अत्यंत मूलभूत सूत्र पर वह ज्योति विकसित हो सकती है। , उपयोगी होगा; वरना बहुत से लोगों के यह है कि तुम्हारी अंतर्यात्रा में जो लेकिन ज्योति तुम पर निर्भर करती है, यंत्र लिए तो ध्यान केवल एक शब्द ही रहता कुछ भी मार्ग में आए, वह तुम नहीं हो। पर नहीं। है। वे सोचते हैं कि कभी ध्यान करेंगे। तुम तो वह हो जो इन सबका साक्षी तो, एक ओर तो मैं उन यंत्रों के पक्ष में और यह संदेह भी बना रहता है कि कोई है-चाहे वह शून्य हो, कि आनंद हो, कि हूं और दूसरी ओर मैं उनके बहुत विरोध में ध्यान करता भी है या नहीं? मौन हो। लेकिन एक बात स्मरण रखने की भी हूं, क्योंकि बहुत से लोग सोचेंगे, लेकिन पश्चिम का मन यांत्रिक है, है कि कैसे भी सुंदर और विस्मयकारी “यही ध्यान है," और वे भ्रम में पड़ उनका दृष्टिकोण यांत्रिक है; वे हर चीज अनुभव से तुम गुजरो, तुम वह नहीं हो। जाएंगे। ये यंत्र बहुत नुकसान पहुंचाएंगे, को यंत्र तक ले आना चाहते हैं और तुम तो वह हो जो उनका अनुभव कर पर शीघ्र ही वे पूरे विश्व में फैल जाएंगे। इसमें वे सक्षम भी हैं। लेकिन कुछ ऐसी रहा है, और यदि तुम बढ़ते चले जाओ, और वे बहुत सरल हैं उनमें बहुत कुछ चीजें हैं जो यंत्रों की क्षमता के पार हैं। होश बढ़ते ही चले जाओ तो यात्रा का परम नहीं है। बस एक विशेष प्रकार की तरंगें किसी भी यंत्र से पैदा नहीं किया जा बिंदु वह है जहां कोई अनुभव नहीं पैदा करने का प्रश्न है। संगीतज्ञ उन यंत्रों सकता: वह किसी भी आधुनिक तकनीक बचता-न तो मौन, न आनंद, न शून्य। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान तुम्हारे लिए विषय जैसा कुछ भी नहीं हो सकता है, व्यक्ति इसकी कल्पना भी है, जब ज्ञाता ही ज्ञात हो जाता है, जब बचता, बस तुम ही अपने चैतन्य में बच नहीं कर सकता। और संसार के बहुत से देखने वाला ही देखा गया बन जाता है, तो रहते हो। संत आनंद पर रुक गए हैं। भले ही वह घर आ पहुंचा। दर्पण रिक्त हो गया। वह कुछ भी दशा सुन्दर हो, मनोरम हो, परंतु वे अभी यही घर वह वास्तविक मंदिर है जिसकी प्रतिबिंबित नहीं कर रहा। यह तुम हो। घर नहीं पहुंचे। हम जन्मों से खोज करते रहे हैं, पर हम अंतर्जगत के बड़े-बड़े साधक भी सुंदर जब तुम ऐसे बिंदु पर पहुंचते हो जब भटक जाते हैं। हम सुंदर अनुभवों से अनुभवों में अटक गए हैं। वे यह सोचकर सारे अनुभव बिदा हो जाते हैं, कोई विषय संतुष्ट हो जाते हैं। उन अनुभवों से तादात्मय बना लिए हैं, नहीं रहता, तब चेतना निर्बाध हुई एक साहसी साधक को वे सभी सुंदर "कि मैंने स्वयं को पा लिया।" वे उस वर्तुल में गति करती है-अस्तित्व में हर अनुभव पीछे छोड़ देने होंगे, और बढ़ते अंतिम अवस्था पर पहुंचने से पहले ही चीज, यदि निर्बाध हो तो, वर्तल में ही गति चले जाना होगा। जब सभी अनुभव रुक गए जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते करती है-वह तुम्हारी स्व-सत्ता के स्रोत समाप्त हो जाते हैं और वह अपने ही से आती है, और चारों ओर फैल जाती है। एकाकीपन में बच रहता है...तो संबोधि कोई अनुभव नहीं है। यह तो कोई बाधा न पाकर न कोई अनुभव, न कोई आनंद इससे बड़ा नहीं है, कोई वह अवस्था है जहां तुम नितांत अकेले रह विषय-वह वापस लौट आती है। और आह्लाद इससे अधिक आह्लादमय नहीं जाते हो, कुछ भी जानने को नहीं रहता। चेतना स्वयं विषय हो जाती है। यही तो है, कोई सत्य इससे अधिक सत्यतर नहीं कोई भी विषय-कैसा ही सुंदर क्यों न जे.कृष्णमूर्ति अपने जीवन भर कहते रहे: है। तुम उसमें प्रवेश कर गए जिसे मैं हो-नहीं बचता। उसी क्षण में तुम्हारी जब द्रष्टा ही दृश्य बन जाए तो जानना कि भगवत्ता कहता हूं, तुम एक भगवान चेतना, किसी भी विषय से निर्बाध होकर, तुम पहुंच गए। उससे पहले मार्ग में हजारों हो गए। मुड़ती है और स्रोत की ओर लौट जाती है। चीजें आती हैं। शरीर अपने अनुभव देता वह आत्मानुभूति बन जाती है। वह बुद्धत्व है, जो कुंडलिनी के चक्रों के अनुभव की एक वृद्ध व्यक्ति अपने डॉक्टर के पास बन जाती है। भांति जाने जाते हैं; सात केंद्र सात कमल गया और बोला, "मुझे मल-मूत्र संबंधी ___ मैं तुम्हें 'विषय'-आब्जेक्ट-शब्द के बन जाते हैं। हर कमल पहले से विशाल तकलीफ है।" बारे में बताऊं। हर विषय का अर्थ है और उच्चतर होता है, और उसकी सुरभि “अच्छा, चलो देखते हैं। तुम्हारे अवरोध। इस शब्द ही का अर्थ मादक होती है। मन तुम्हें गहन आयाम मूत्र-त्याग की कैसी स्थिति है?" है-अवरोध, बाधा। देता है-असीम और अनंत। लेकिन यह "हर सुबह ठीक सात बजे आ जाता है, तो विषय तुमसे बाहर, पदार्थ जगत में मूलभूत सूत्र याद रखना कि 'घर' अभी भी जैसे बच्चों को आना चाहिए।" भी हो सकता है, और तुम्हारे भीतर तुम्हारे नहीं आया है। __"बहुत अच्छा। और मल-त्याग मानसिक जगत में भी हो सकता है; विषय यात्रा का आनंद लो और मार्ग में वृक्षों, कैसा है?" तुम्हारे हृदय में, भावनाओं में, भावावेगों पर्वतों, पुष्पों, सरिताओं, सूर्य, चांद और हर सुबह ठीक आठ बजे, बिलकुल में, भावुकताओं में, भावदशाओं में भी हो तारों के जो दृश्य आएं उनका भी आनंद जैसे घड़ी चलती है।" सकता है। और विषय तुम्हारे आध्यात्मिक लो-लेकिन जब तक तुम्हारी चेतना ही "तो फिर तकलीफ क्या है?" डॉक्टर संसार में भी हो सकते हैं। और वे इतने अपना विषय न बन जाए, तब तक कहीं ने पूछा। आनंददायी होते हैं कि इससे अधिक कुछ भी रुको मत। जब द्रष्टा ही दृश्य बन जाता “मैं नौ बजे से पहले नहीं उठता!" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान तुम सोए हो और समय है कि जाग साध पाओगे, और द्रष्टा साक्षी नहीं है। एक प्रकार की एकाग्रता है, द्रष्टा तुम्हें जाओ। फिर क्या करना है? पिघलना है, अलग रखे रहता है। द्रष्टा तो तुम्हारे ये सभी अनुभव प्रसुप्त मन के विलीन होना है। जब एक गुलाब के फूल अहंकार में अभिवृद्धि करेगा, उसे सशक्त अनुभव हैं। को देखो, तो बिलकुल भूल जाओ कि एक करेगा। जितने तुम द्रष्टा होते जाओगे जाग्रत मन का कोई अनुभव नहीं होता। 21 विषय है जो देखा गया और एक चेतना है उतना तुम्हें लगेगा जैसे एक द्वीप हो जो देखने वाली है। उस क्षण के सौंदर्य गए—विभाजित, एकाकी, सुदूर। को, उस क्षण की धन्यता को तुम दोनों को युगों से, संसार भर के साधक द्रष्टा को द्रष्टा साक्षी नहीं है अभिभूत कर लेने दो, ताकि तुम और साधते रहे हैं। वे भले ही इसे साक्षी कहते गुलाब भिन्न न रहो, बल्कि एक लय, एक रहे हों, पर यह साक्षी नहीं है। साक्षी तो टष्टा और दृश्य साक्षी के दो पहलू हैं। गीत, एक मस्ती बन जाओ। बिलकुल भिन्न है, गुणात्मक रूप से भिन्न जब वे एक-दूसरे में तिरोहित हो जाते प्रेम करते हुए, संगीत सुनते हुए, है। द्रष्टा को साधा जा सकता है, हैं, जब वे एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं, सूर्यास्त को देखते हुए, इसे बार-बार होने प्रयासपूर्वक विकसित किया जा सकता है; जब वे एक हो जाते हैं, तो पहली बार दो। यह जितना हो उतना ही अच्छा, उसे साधकर तुम बेहतर द्रष्टा बन सकते साक्षी का उसकी समग्रता में प्रादुर्भाव होता क्योंकि यह कोई कला नहीं बल्कि एक हो। कौशल है, एक गुर है। तुम्हें इसका वैज्ञानिक अवलोकन करता है, संत परंतु एक प्रश्न कई लोगों को उठता है। सूत्र-संकेत ग्रहण कर लेना है; एक बार साक्षी रहता है। विज्ञान की पूरी प्रक्रिया ही इसका कारण है कि वे साक्षी को ही द्रष्टा तुम इसे पा लो तो इसे कहीं भी, कभी भी अवलोकन की है : इतने तत्पर, सूक्ष्म और समझते हैं। उनके मन में द्रष्टा और साक्षी शुरू कर सकते हो। तीक्ष्ण ढंग से देखना होता है कि कुछ भी पर्याय हैं। यह भ्रांतिपूर्ण है; द्रष्टा साक्षी जब साक्षी का प्रादुर्भाव होता है, तो न चूक न जाए। लेकिन वैज्ञानिक परमात्मा नहीं है, बल्कि उसका केवल एक अंश है। तो कोई देखने वाला बचता है, न देखा को नहीं जान पाता। यद्यपि उसका और जब भी अंश स्वयं को पूर्ण मानता है, जाने वाला। साक्षी एक निर्मल दर्पण है, अवलोकन बहुत ही कुशल होता है, फिर गलती शुरू हो जाती है। जो कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं करता। यह भी वह परमात्मा से अनभिज्ञ रहता है। द्रष्टा का अर्थ है चेतनागत, और दृश्य कहना भी उचित नहीं है कि वह एक दर्पण उसका कभी परमात्मा से मिलना नहीं का अर्थ है पदार्थगत, विषयगत। द्रष्टा का है; यह कहना बेहतर होगा कि वह एक होता; बल्कि वह परमात्मा के होने से अर्थ है: जो दृश्य के बाहर हो, और द्रष्टा दर्पणत्व है। वह तो पिघलने और विलीन इनकार करता है, क्योंकि जितना वह का अर्थ है जो भीतर है। भीतर और बाहर होने की एक गत्यात्मक प्रक्रिया है; वह अवलोकन करता है और यह पूरी को विभाजित नहीं किया जा सकता; वे कोई जड़ घटना नहीं, एक प्रवाह है! तुम प्रक्रिया अवलोकन की ही है-उतना ही युगपत हैं, और युगपत ही हो सकते हैं। गुलाब तक पहुंच रहे हो, गुलाब तुममें वह अस्तित्व से अलग हो जाता है। सेतु जब इस युगपत्य का, या कहा जाए अद्वैत पहुंच रहा है: यह अंतरात्मा का एक टूट जाते हैं और दीवारें खड़ी हो जाती हैं; का अनुभव हो जाता है तो साक्षी का आदान-प्रदान है। वह अपने ही अहंकार में कैद हो जाता है। प्रादुर्भाव होता है। यह धारणा भूल जाओ कि साक्षी द्रष्टा संब साक्षी रहता है। लेकिन स्मरण साक्षी को तुम साध नहीं सकते। यदि है; वह द्रष्टा नहीं है। द्रष्टा को साधा जा रखना, साक्षित्व एक घटना है, एक तुम साक्षी को साधो, तो बस द्रष्टा को ही सकता है, साक्षी सहज घटता है। द्रष्टा तो उप-उत्पत्ति है-क्षण में, परिस्थिति में, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव में समग्र होने का परिणाम है। समग्रता ही कुंजी हैः समग्रता से ही साक्षी की धन्यता का जन्म होता है। अवलोकन के विषय में सब भूल जाओ; उससे तुम्हें अवलोकित विषय के संबंध में तो अधिक परिमार्जित सूचना मिल जाएगी, लेकिन तुम अपनी ही चेतना से बिलकुल अनभिज्ञ रह जाओगे। 22 ध्यान एक गुर है, एक 'नैक' है ध्यान न एक ऐसा रहस्य है जिसे बिना किसी विरोधाभास के एक विज्ञान, एक कला, एक गुर कहा जा सकता है। ब 'चपन में मुझे एक पारंगत तैराक के पास भेजा गया। वह नगर का सर्वश्रेष्ठ तैराक था, और मुझे कभी कोई दूसरा व्यक्ति नहीं मिला जो पानी से ऐसे अपूर्व प्रेम में हो। पानी उसके लिए परमात्मा था, वह उसकी पूजा करता था, और नदी उसका घर थी। बिलकुल सुबह - सुबह तीन बजे तुम उसे नदी पर पाते। शाम तुम उसे नदी पर पाते और रात नदी के किनारे उसे ध्यान करता पाते । उसका सारा जीवन ही नदी के आस-पास सीमित था । जब मुझे उसके पास ले जाया गया- मैं तैरना सीखना चाहता था - उसने मेरी ओर देखा, कुछ महसूस किया। वह बोला, “लेकिन तैरना सीखने का कोई उपाय नहीं है; मैं तो बस तुम्हें पानी में फेंक सकता हूं और फिर तैरना अपने आप से आ जाता है । उसे सीखने का कोई उपाय नहीं, न ही उसे सिखाया जा सकता है। वह तो एक गुर है, कोई जानकारी नहीं।” और यही उसने किया— मुझे पानी में फेंक दिया और स्वयं किनारे पर खड़ा रहा। दो-तीन बार मैंने गोता खाया और लेकिन ध्यान इतना बड़ा रहस्य है कि मुझे लगा कि मैं बस डूब रहा हूं। वह वहीं एक ओर से यह एक विज्ञान है क्योंकि एक सुस्पष्ट विधि को करना होता है। उसमें कोई अपवाद नहीं होते, यह लगभग एक वैज्ञानिक नियम की भांति है। ध्यान का विज्ञान परंतु एक भिन्न दृष्टिकोण से इसे एक कला भी कहा जा सकता है। विज्ञान मन का एक विस्तार है— वह गणित है, तर्कयुक्त है, तर्कसंगत है। ध्यान का संबंध हृदय से है, मन से नहीं - वह तर्क नहीं है, वह तो प्रेम के अधिक करीब है । वह अन्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं जैसा नहीं, बल्कि संगीत, काव्य, चित्रकारी, नृत्य जैसा है; अतः, उसे एक कला कहा जा सकता है। उसे 'विज्ञान' और 'कला' कहने से उसका समापन नहीं होता। वह तो एक गुर है— या तुम उसे पा लेते हो, या नहीं पाते। गुर कोई विज्ञान नहीं है, वह सिखाया नहीं सकता। कोई कला भी नहीं है। गुर मानवीय समझ की एक सर्वाधिक रहस्यपूर्ण घटना है 123 खड़ा रहा, मुझे बचाने का कोई प्रयास ही नहीं किया ! स्वभावतः जब तुम्हारा जीवन दांव पर लगा होता है, तब तुम जो कर सकते हो करते हो। तो मैंने अपने हाथ-पांव मारने शुरू कर दिए – ऊलजलूल, उलटे-सीधे — पर गुर हाथ लग गया। जब जीवन ही दांव पर लग जाए तो तुम जो कर सकते हो करते हो... और जब भी तुम जो कर सकते हो उसे समग्रता से करते हो, तो चीजें घटित होती हैं। मैं तैर सका ! मैं रोमांचित था । " दूसरी बार”, मैंने कहा, “आपको मुझे धक्का देने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं खुद ही कूद पडूंगा। अब मैं जानता हूं कि शरीर की अपनी एक उत्प्लावकता है। यह तैरने का प्रश्न नहीं है, यह प्रश्न है जल तत्व के साथ सामंजस्य बैठ जाने का। एक बार तुम्हारा जल तत्व के साथ सामंजस्य बैठ तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा।” और तब से मैं कितने ही लोगों को इस जीवन की नदी में धकेलता रहा हूं! और मैं बस मौजूद रहता हूं... यदि व्यक्ति छलांग ले ले तो अधिकांशतः कभी कोई असफल नहीं होता। वह सीख ही जाएगा। 24 हो सकता है गुर पाने में तुम्हें कुछ दिन लग जाएं। ध्यान एक गुर है, कोई कला नहीं! यदि ध्यान कोई कला होती, तो उसे सिखाना सरल होता । चूंकि वह एक गुर है, इसलिए तुम्हें प्रयास करना पड़ता है; धीरे-धीरे तुम उसे पा लेते हो। मनोविज्ञान का एक जापानी प्रोफेसर 30 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 छोटे, छः महीने के बच्चों को तैरना सिखाने का प्रयास कर रहा है, और वह सफल हुआ है। फिर उसने तीन महीने के बच्चों के साथ प्रयास किया—और वह सफल हुआ है। और वह बिलकुल नवजात शिशुओं के साथ प्रयोग कर रहा है, और मैं आशा करता हूं कि वह सफल ध्यान का विज्ञान होगा। हर संभावना है— क्योंकि यह एक गुर है। इसके लिए किसी और प्रकार का अनुभव नहीं चाहिए जैसे आयु, शिक्षा... यह तो बस एक गुर है । और यदि छः या तीन महीने का कोई बच्चा तैर सकता है तो इसका अर्थ हुआ " कैसे तैरना है", यह खयाल हमें स्वाभाविक रूप से उपहार में मिला है... हमें बस उसका आविष्कार करना है। जरा-सा प्रयास और तुम उसे खोज लोगे । ध्यान के संबंध में भी यही सत्य है— तैरने के संबंध से भी अधिक सत्य है। तुम्हें बस थोड़ा-सा प्रयास करना है । 25 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का विज्ञान Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा खंड ध्यान की विधियां - 33 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 जागरण की दो शक्तिशाली विधियां जागरण की दो शक्तिशाली विधियां ये वास्तव में ध्यान नहीं हैं। तुम बस लय बिठा रहे हो। यह ऐसे ही है... यदि तुमने भारत के शास्त्रीय संगीतज्ञों को वाद्य छेड़ते देखा हो... आधे घंटे तक, और कई बार तो उससे भी अधिक, वे अपने वाद्य बिठाने में लगे रहते हैं। कभी वे कुछ जोड़ों को बदलेंगे, कभी तारों को कसेंगे या ढीला करेंगे, और तबला वादक अपने तबले को जांचता रहेगा — कि वह बिलकुल ठीक है या नहीं। आधे घंटे तक वे यही सब करते रहते हैं। यह संगीत नहीं है, बस तैयारी है। कुंडलिनी विधि वास्तव में ध्यान नहीं है। यह तो तैयारी मात्र है। तुम अपना वाद्य बिठा रहे हो। जब वह तैयार हो जाए, तो फिर तुम मौन में थिर हो जाओ, फिर ध्यान शुरू होता है। फिर तुम पूर्णतया वहीं होते हो। उछल-कूद कर, नाचकर, श्वास-प्रश्वास से, चिल्लाने से तुमने स्वयं को जगा लिया – ये सब युक्तियां हैं कि जितने तुम साधारणतया सजग, हो उससे थोड़े और ज्यादा सजग हो जाओ। एक बार तुम सजग हो जाओ, तो फिर प्रतीक्षा शुरू होती है। प्रतीक्षा करना ही ध्यान है— पूरे होश के साथ प्रतीक्षा करना। और फिर वह आता है, तुम पर अवतरित होता है, तुम्हें घेर लेता है, तुम्हारे चारों ओर उसकी क्रीड़ा चलती, उसका नृत्य चलता; वह तुम्हें स्वच्छ कर देता है, परिशुद्ध कर देता है, रूपांतरित कर देता है। । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 36 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरण की दो शक्तिशाली विधियां न एक ऊर्जा की घटना है। ।।सभी प्रकार की ऊर्जाओं के संबंध में एक आधारभूत बात समझ लेनी है, और यह समझने के लिए मूलभूत नियम है कि ऊर्जा दो विपरीत ध्रुवों में बहती है। केवल यही एक ढंग है उसके बहने का; और कोई दूसरा ढंग नहीं है उसके बहने का। वह द्वन्द्वात्मक ध्रुवों में बहती है। किसी भी ऊर्जा को गतिमान होने के लिए विपरीत ध्रुव की जरूरत होती है। यह विद्युत की भांति है जो निगेटिव और सक्रिय-ध्यान : रेचन और उत्सव पॉजिटिव ध्रुवों के बीच बहती है। यदि स्त्री जीवन-ऊर्जा का निगेटिव ध्रुव है और जहां कहीं तुम देखोगे, तुम पाओगे कि केवल निगेटव ध्रुव हो तो विद्युत का प्रवाह पुरुष पाजिटिव ध्रुव है। वे विद्युत ऊर्जा यही ऊर्जा ध्रुवों में गतिमान है, अपने को नहीं होगा; या यदि केवल पॉजिटिव ध्रुव हैं—इसीलिए उनके बीच इतना आकर्षण संतुलित करती हुई। हो तो भी विद्युत का प्रवाह नहीं होगा। है। पुरुष अकेला हो तो जीवन विलीन हो ध्यान के लिए यह ध्रुवीयता बहुत दोनों ही ध्रुव जरूरी हैं। और जब दोनों जाएगा; अकेली स्त्री के साथ कोई जीवन महत्वपूर्ण है क्योंकि मन तर्कसंगत है और ध्रुव जुड़ते हैं, तब वे विद्युत धारा को बनाते घटित न हो सकेगा, केवल मृत्यु होगी। जीवन द्वन्द्वात्मक है। जब मैं कहता हूं कि हैं; तब विद्युत की ऊर्जा जन्मती है। स्त्री और पुरुष के बीच एक संतुलन होता जीवन द्वन्द्वात्मक है तो उसका अर्थ है __ और ऐसा ही नियम है अन्य सभी ऊर्जा है। स्त्री और पुरुष के बीच-इन दो ध्रुवों कि जीवन विपरीत ध्रुवों के बीच गति घटनाओं के लिए। जीवन सतत प्रवाहमान के दो किनारों के बीच जीवन की नदी करता है-एक सीधी रेखा में नहीं। ऊर्जा है-पुरुष और स्त्री के बीच, दो ध्रुवों में। बहती है। चक्कर लगाती है: निगेटिव से Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां पॉजिटिव,पॉजिटिव से निगेटिव। इस तरह मृत मौन है, कब्रिस्तान का मौन। मृत चलकर यह संतुलन उपलब्ध नहीं किया ऊर्जा सर्किट में घूमती है–विपरीत ध्रुव व्यक्ति मौन है, लेकिन तुम मृत होना नहीं जा सकता। का उपयोग करती हुई। चाहोगे। मृत व्यक्ति परम मौन में है! कोई यही है अर्थ झेन के प्रयासरहित प्रयास __ मन एक सीधी रेखा में, एक सीधी उसे अशांत नहीं कर सकता, उसकी का। वह विरोधाभासी शब्दों का उपयोग सरल रेखा में गति करता है। वह कभी एकाग्रता परिपूर्ण है। उसके मन को करता है जैसे—प्रयासरहित प्रयास, एक साथ विपरीत में गति नहीं करता; यह विचलित करने के लिए तुम कुछ भी नहीं द्वारहीनद्वार या मार्गशून्य मार्ग। विपरीत का इनकार करता है। मन एक में कर सकते। उसका मन पूर्णतः निष्क्रिय है। झेन हमेशा विरोधाभासी शब्द का तुरंत विश्वास करता है और जीवन का भरोसा यहां तक कि यदि पूरी दुनिया उसके चारों उपयोग करता है, तुम्हें एक संकेत देने के दो में है। ओर विक्षिप्त हो जाए तो भी वह अपनी लिए कि ध्यान की प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक होने मन जो भी निर्मित करता है, वह हमेशा एकाग्रता में थिर रहेगा। फिर भी तुम एक वाली है, एकाकी सीधी रेखा की भांति एक का चुनाव करता है। मन जब मौन का मृत व्यक्ति न बनना चाहोगे। मौन, नहीं। विपरीत का इनकार नहीं वरन उसे चुनाव करता है-मन जब जीवन द्वारा एकाग्रता...या जो भी इसे कहा अवशोषित कर लेना है। विपरीत को निर्मित सारे शोरगुलों से ऊब चुका है और जाए-तुम मृत होना नहीं चाहोगे क्योंकि अलग नहीं हटा रखना है वरन उसका मौन होना चाहता है तब वह हिमालय में यदि मौन हो और मृत भी हो, तो यह मौन उपयोग कर लेना है। अलग हटा रखने पर चला जाता है। तब वह मौन होना चाहता निरर्थक होगा। वह हमेशा तुम पर एक बोझ बना रहेगा। है; वह किसी प्रकार के शोरगुल से कुछ मौन तो तब घटना चाहिए जब तुम अलग कर देने पर वह तुम्हारे आसपास भी लेन-देन नहीं रखना चाहता। यहां तक पूर्णरूपेण जीवंत हो, प्राणवान हो, जीवन लटका रहेगा। उसका उपयोग न करके तुम कि पक्षियों के गीत भी उसे परेशान करेंगे; और ऊर्जा से आपूरित हो। तब मौन बहुत कुछ चूक जाओगे। वृक्षों से गुजरती हुई हवा की आवाज भी अर्थपूर्ण है। तब मौन की अलग ही ऊर्जा रूपांतरित करके उपयोग की जा उसे बाधा जान पड़ेगी। मन शांति चाहता गुणवत्ता, सर्वथा अलग ही गुणवत्ता होगी। सकती है। और तब, उसका उपयोग करके है; उसने एक रेखा, एक ध्रुव को चुन मौन बुझा-बुझा न होगा। वह जीवंत होगा। तुम अधिक ऊर्जावान और अधिक जीवंत लिया है। अब विपरीत का पूर्णतः नकार वह दो विपरीत ध्रुवों के बीच एक सूक्ष्म बन जाओगे। विपरीत को आत्मसात कर कर देना होगा। संतुलन होगा। लेना है, तब प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक हो जाती ___ अब यह व्यक्ति जो हिमालय में रहता वह व्यक्ति जो एक जीवंत संतुलन, है। है-शांति की खोज में, दूसरों से बचता एक जीवंत मौन खोज रहा है, वह प्रयासशून्यता का अर्थ है: कुछ न हुआ, विपरीत से भागता हुआ—यह हिमालय और बाजार दोनों के बीच गति करते, अक्रिया-अकर्म। प्रयास का अर्थ व्यक्ति मृतवत हो जाएगा; यह निश्चित ही करना चाहेगा। वह बाजार जाना है: बहुत करना, क्रियाएं, कर्म। ध्यान में मंद हो जाएगा। जितना वह मौन का चुनाव चाहेगा-वहां की आवाजों का मजा लेने दोनों का होना जरूरी है। बहुत प्रयास करेगा उतना ही वह जड़ होता जाएगा के लिए; और वह हिमालय जाना करो, लेकिन कर्ता मन बनो-तब तुम क्योंकि जीवन के लिए विपरीत चाहिए, चाहेगा-वहां के सन्नाटे का आनंद लेने दोनों को उपलब्ध हुए। संसार से गुजरो विपरीत की चुनौती चाहिए। के लिए। वह इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच लेकिन संसार के हिस्से मत बनो। संसार एक भिन्न ही प्रकार का मौन है जो दो संतुलन बनाएगा और वह उस संतुलन में में जीओ, लेकिन संसार को अपने भीतर विरोधों के बीच होता है। पहला, उपरोक्त थिर रहेगा। एक सीधी एकांगी रेखा में मत सक्रिय होने दो। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरण की दो शक्तिशाली विधियां तब विरोधाभास को आत्मसात कर आधारित हो। एक बार तुम्हारी ऊर्जा अपने दोनों हाथ पूरी तरह से तान कर लिया गया।... प्रवाहमान हो जाए फिर वह शरीर को भी ऊपर उठाएं, कोहनियां लचीली बनी और यही है जो मैं कह रहा हूं। एक गति देने लगेगी। इन शारीरिक रहें। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए 'सक्रिय-ध्यान' एक विरोधाभास है। गतियों को होने दें; इन्हें और अधिक हू!...हू!...हू! मंत्र का जोरों से उच्चार 'सक्रिय' का अर्थ है : प्रयास, बहुत प्रयास, ऊर्जा निर्मित करने में सहायक होने दें। करते हुए बारबार ऊपर उछलें, नीचे पूर्ण प्रयास। और ध्यान का अर्थ है : मौन, अपने हाथों और शरीर को प्राकृतिक रूप आएं। 'हू का उच्चार अधिकतम गहरा हो प्रयासशून्यता, अक्रिया। तुम इस से गति करने दें ताकि वे ऊर्जा के उठने में और वह आपके नाभि से उठना चाहिए। ध्यान-विधि को द्वन्द्वात्मक-विधि कह सहयोगी बन सकें। ऊर्जा को बढ़ता हुआ हर बार जब आप नीचे आते हैं तब पैर के सकते हो। अनुभव करें। पहले चरण में अपने को तलवे और एड़ी को धीमे से जमीन को ढीला मत छोड़ें और अभ्यास को जरा भी छुने दें और उसी समय 'ह' की तीव्र ध्वनि धीमा मत होने दें। को काम-केंद्र पर गहराई से चोट करने सक्रिय-ध्यान दें। इस चरण में अपनी पूरी शक्ति (डाइनैमिक मेडिटेशन) दूसरा चरण: दस मिनट लगाएं; कोई शक्ति पीछे शेष न बचने के लिए निर्देश अपने शरीर का अनुगमन करें। अपने प्रथम चरण: दस मिनट शरीर को स्वतंत्रता दें ताकि वह जो कुछ चाहे अभिव्यक्त कर सके...विस्फोट हो चौथा चरण पंद्रह मिनट नाक से तेजी से श्वास भीतर लें जाए...अपने शरीर को आविष्ट हो जाने " और बाहर छोड़ें। श्वास भीतर दें। जो कुछ भी भीतर से बाहर फेंकना हो रुक जाएं। जहां भी हैं, जैसे भी हैं लेने और बाहर छोड़ने-दोनों पर जोर उसके प्रति शिथिल हो जाएं। पूरी तरह से बिलकुल जम जाएं। शरीर को जरा भी लगाएं और उन्हें अराजक बना रहने दें। पागल हो जाएं...गाएं, चीखें, हंसें, व्यवस्थित न करें। जग-सी खांसी ma श्वास फेफड़ों में गहराई से जानी चाहिए। चिल्लाएं, रोएं, कूदें, कंपें, नाचें, भी गति, कोई भी हलन-चलन ऊर्जा को श्वास लेने और छोड़ने में तेजी लाएं, हाथ-पैर चलाएं और शरीर को सब क्षीण करेगी और अब तक की मेहनत को लेकिन निश्चित रहे कि श्वास गहरी बनी दिशाओं में गति करने दें। शुरू में खराब करेगी। तुम्हें जो भी घटित हो रहा रहे। इसे यथाशक्ति अपनी अधिकतम थोड़ा-सा अभिनय प्रक्रियाओं को प्रवाह है उसके साक्षी बनो। समग्रता से करें बिना अपने शरीर को देने में सहायक होता है। जो घटित हो औप नि रहा है उसमें अपने मन को दखल डालने तम्हारे कंधे और तम्हारा गला शिथिल न दे। स्मरण रखे कि आप अपने शरीर पांचवां चरण:पंदर मिनट अवस्था में हैं। श्वास जारी रखें जब तक के साथ समग्रता से गतिमय हैं। आप श्वास ही श्वास न हो जाएं; श्वास उत्सव मनाएं। संगीत और नृत्य के को अराजक और अस्तव्यस्त बना रहने तीसरा चरण: दस मिनट साथ अपने अंतस के अहोभाव को बाहर दें। अर्थात् श्वास न लयबद्ध हो और न अभिव्यक्त करें। फलित हई जीवंतता को ही किसी पूर्वनिर्धारित नियम पर कंधे और गले को ढीला रखते हुए दिन भर की अपनी चर्या में फैलने दें। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां बदल जाएगी। भावावेगों को विसर्जित नहीं कर सकते। स्वयं को नया जन्म देना _इसलिए मैं श्वास से शुरू करता हूं और और वे भावावेग अब तो शरीर तक में इस ध्यान विधि के पहले चरण में दस फैल गए हैं। सहायक संकेत मिनट के अराजक श्वास-प्रश्वास के तुम शरीर और मन-ऐसे दो नहीं हो; लिए कहता हूं। अराजक श्वास से मेरा तुम देह-मन, मनो-शारीरिक हो। तुम एक पक्रिय ध्यान की मेरी पद्धति श्वास मतलब है-गहरी, तेज और प्रबल साथ दोनों हो। इसलिए जो भी तुम्हारे शरीर सके प्रयोग से शुरू होती है. क्योंकि श्वास-प्रश्वास–बिना किसी लयबद्धता के साथ किया जाता है वह तुम्हारे मन तक श्वास की गहरी जड़ें तुम्हारे अंतस केंद्र में के–बस श्वास भीतर खींचना और पहुंच जाता है और मन के साथ जो कुछ हैं। शायद तुमने इस बात पर ध्यान न दिया बाहर फेंकना, भीतर खींचना और बाहर किया जाता है वह शरीर तक पहुंच जाता हो, लेकिन यदि तुम अपनी श्वास को फेंकना-अधिक से अधिक गहरी, है। शरीर और मन एक ही सत्ता के दो छोर बदलते हो, तो तुम कई चीजें भीतर बदल प्रबल और सप्राण। भीतर खींचें-बाहर हैं। सकते हो। यदि तुम सावधानी से अपनी फेंकें। दस मिनट के लिए किया गया अराजक श्वास का निरीक्षण करो तो तुम पाओगे कि यह अस्तव्यस्त श्वास-प्रश्वास तुम्हारे श्वसन विस्मयकारी है। लेकिन उसे जब तुम क्रोधित हो तब तुम्हारे श्वास की भीतर की दमन की व्यवस्था में अराजक होना चाहिए। यह कोई प्राणायाम, एक खास लय है। जब तुम प्रेम में होते हो . उथल-पुथल पैदा करने के लिए है। जो भी योग की कोई श्वसन प्रक्रिया नहीं है। यह तब एक बिलकुल ही भिन्न लय तुम्हारे तुम हो वह तुम एक खास प्रकार के श्वसन श्वास-प्रश्वास के माध्यम से मात्र एक श्वास की होती है। जब तुम विश्राम में होते के ढांचे के कारण हो। एक बच्चा खास अराजकता पैदा करना है। और अनेक हो तब भिन्न ढंग से श्वास लेते हो; जब ढंग से श्वास लेता है। यदि तुम कारणों से यह श्वसन अराजकता पैदा तुम तनाव में होते हो तब भिन्न ढंग से काम-वासना से भयभीत हो तो तुम एक करती है। श्वास लेते हो। विश्राम की अवस्था में खास ढंग से श्वास लोगे। तब तुम गहराई गहरी और तेज श्वास तुम्हें और अधिक चलने वाली श्वास की लय के साथ-साथ से श्वास नहीं ले सकते क्योंकि प्रत्येक ऑक्सीजन देती है। शरीर में अधिक तुम क्रोधित नहीं हो सकते। यह गहरी श्वास तुम्हारे काम-केंद्र पर चोट ऑक्सीजन आने से तुम अधिक जीवंत असंभव है। करती है। यदि तुम भयभीत हो तो तुम और आदिम, पशुवत सरल हो जाते हो। - जब तुम कामोन्माद से भर उठते हो तब गहरी श्वास नहीं ले सकते। भय में श्वास पशु जीवंत होते हैं और मनुष्य आधा-मृत तुम्हारी श्वास बदल जाती है। यदि तुम उथली हो जाती है। आधा-जीवित है। तुम्हें पुनः पशुवत श्वास को बदलने न दो तो तुम्हारी यह अराजक श्वास-प्रश्वास तुम्हारे जीवंत और सरल बना देना होगा। केवल कामोत्तेजना स्वतः ही शांत हो जाएगी। अतीत के समस्त ढांचों को तोड़ने के लिए तभी कोई उच्चतर आयाम तुममें इसका अर्थ है कि तुम्हारे मन की अवस्था है। तुमने अपने आप को जैसा निर्मित विकसित हो सकता है। के साथ श्वास की लय का गहरा संबंध किया है, उसे यह अराजक श्वास नष्ट यदि तुम केवल आधे जिंदा हो, तब है। यदि तुम अपनी श्वास बदल लो तो कर देने वाली है। यह अस्तव्यस्त तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं किया जा • तुम अपने मन की अवस्था को भी बदल श्वास-प्रश्वास तुम्हारे भीतर अराजकता सकता। तो यह अराजक श्वास-प्रश्वास सकते हो। या यदि तुम अपने मन की पैदा करती है क्योंकि बिना अराजकता पैदा तुम्हें पुनः पशुवत बना देगी: जीवंत, अवस्था को बदल लो तो श्वास अपने से हुए तुम अपने दमित मनोवेगों और स्पंदित, प्राणवान-खून में ज्यादा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 जागरण की दो शक्तिशाली विधियां जो भी तुम्हारे मन में आता है - जो कुछ भी— उसे स्वयं अभिव्यक्त होने दो, इसमें सहयोग करो । कोई प्रतिरोध नहीं- आवेगों का एक सहज प्रवाह । यदि तुम चीखना चाहो तो चीखो। उसके साथ सहयोग करो। एक गहरी चीख, एक परिपूर्ण चीख जिसमें तुम्हारा पूरा अस्तित्व आबद्ध हो जाता है - यह बहुत स्वास्थ्यप्रद है, यह गहनरूप से थेराप्यूटिक है। अनेक बातें, अनेक बीमारियां मात्र इस समग्र चीख के साथ विसर्जित हो जाएंगी। यदि चीख परिपूर्ण है तो तुम्हारा समग्र अस्तित्व उसमें संलग्न हो जाएगा। ऑक्सीजन, जीव कोशाणुओं में ज्यादा ऊर्जा । तुम्हारे देहं कोशाणु ज्यादा जीवंत हो उठेंगे। यह अधिक ऑक्सीजनेशन देह - विद्युत के निर्माण में सहायक है— या तुम इसे जैविक ऊर्जा कह सकते हो। जब शरीर में अधिक देह - विद्युत है तब तुम भीतर गहराई में उतर सकते हो, स्वयं के पार जा सकते हो। यह ऊर्जा तुम्हारे भीतर कार्य करेगी। शरीर के अपने विद्युत स्रोत हैं । यदि तुम उन पर अधिक श्वास-प्रश्वास और अधिक ऑक्सीजन से चोट करो तो ये ऊर्जा स्रोत बहने लगते हैं। और यदि तुम सच में ही जीवंत हो उठते हो तब तुम एक शरीर न रहे। तुम ज्यादा जीवंत होते हो तो तुम्हारे भीतर ज्यादा ऊर्जा बहती है उतना ही तुम स्वयं को कम शरीरिक अनुभव करते हो। तुम स्वयं को ज्यादा ऊर्जा और कम पदार्थ की तरह अनुभव करते हो । और जब कभी यह घटता है कि तुम ज्यादा जीवंत होते हो, तो उन क्षणों में तुम कम देहाभिमुख होते हो। काम-क्रीड़ा . इतना आकर्षण है, उसका एक कारण यह भी है कि यदि तुम काम-क्रीड़ा में समग्ररूप से सक्रिय हो, गतिमान हो, समग्ररूप से प्राणवान हो तब तुम एक देह नहीं रह जाते – ऊर्जा मात्र हो जाते हो । इस ऊर्जा को अनुभव करना, इसके साथ जीना बहुत जरूरी है यदि तुम शरीर और मन के पार जाना चाहते हो। मेरे सक्रिय - ध्यान की इस विधि में दूसरा चरण है रेचन का। मैं तुम्हें सचेतन रूप से पागल हो जाने के लिए कहता हूं। तो दस मिनट तक चीखकर चिल्लाकर रोकर, हंसकर, नाचकर उछल-कूद कर — सब प्रकार की सनकों से अपने आपको अभिव्यक्त करें। कुछ दिनों में आपको अनुभव में आ जाएगा यह क्या होता है। शुरू-शुरू में यह बलपूर्वक, सप्रयास या अभिनय तक भी हो सकता है। हम इतने नकली हो गए हैं कि हम से कुछ भी प्रामाणिक या वास्तविक होना संभव नहीं है । हम हंसे नहीं हैं, हम रोए नहीं हैं, हम प्रामाणिकता से चीखे भी नहीं हैं। हमारा सब कुछ एक दिखावा, एक मुखौटा मात्र है। इसलिए जब तुम इस विधि का अभ्यास शुरू करते हो - तो पहले यह बलपूर्वक ही होगा। प्रयास की जरूरत पड़ सकती है; अभिनय भी हो सकता है। इसकी चिंता न करें। प्रयोग जारी रखें। शीघ्र ही तुम उन स्रोतों का स्पर्श करोगे, जहां तुमने बहुत-सी बातें दमन करके रखी हुई हैं। तुम उन स्रोतों से सम्पर्क करोगे, और एक बार वे बाहर निकल जाएं तो तुम निर्भार अनुभव करोगे। एक नया जीवन तुममें आएगा; एक नया जन्म घटित होगा। यह निर्भर होना आधारभूत है और इसके बिना, आदमी जैसा है, उसे ध्यान नहीं हो सकता। मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं। वे असंगत हैं। इस दूसरे चरण के साथ, जब दमित आवेग बाहर फेंक दिए जाते हैं, तुम खाली हो जाते हो। और यही अर्थ होता है खाली होने का : समस्त दमनों से खाली हो जाना। इस खालीपन में कुछ किया जा सकता है। रूपांतरण घटित हो सकता है; ध्यान घटित हो सकता है। फिर तीसरे चरण में मैं 'हू' के उच्चार का उपयोग करता हूं। अतीत में कई प्रकार की ध्वनियों का उपयोग किया गया है। प्रत्येक ध्वनि का एक विशेष प्रभाव है। उदाहरण के लिए हिंदू लोग 'ओम्' की ध्वनि का उपयोग करते रहे हैं। यह तुम्हारे लिए परिचित हो सकता है। लेकिन मैं 'ओम्' का सुझाव नहीं दूंगा। ओम् हृदय केंद्र पर चोट करता है, लेकिन अब मनुष्य हृदय में केंद्रित नहीं रह गया है। अब ओम् की चोट उस द्वार पर चोट होगी जिस घर के भीतर कोई नहीं रहता। सूफियों ने 'हू' का उपयोग किया है, और यदि तुम जोर से 'हू' कहो, तो यह गहरे में तुम्हारे काम-केंद्र तक जाता है। इसलिए इस ध्वनि का उपयोग किया गया है तुम्हारे भीतर चोट करने के लिए। जब Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां तुम रिक्त और खाली हो गए हो, तब यह आकर्षित होते हो, तब काम-केंद्र पर बाहर बिलकुल विपरीत आयाम में प्रवाहित होने ध्वनि तुम्हारे भीतर गति कर सकती है। से चोट पड़ती है। और वह चोट भी एक लगती है। अभी तो वह बाहर की ओर इस ध्वनि का भीतर प्रवाहित होना तभी सूक्ष्म तरंग है। एक पुरुष किसी स्त्री के प्रवाहित हो रही है, तब वह भीतर प्रवाहित संभव है जब तुम खाली हो गए हो। यदि प्रति आकर्षित होता है, या कि एक स्त्री होने लगती है। अभी तो वह नीचे की ओर तुम दमित आवेगों से भरे हो, तो कुछ भी किसी पुरुष के प्रति आकर्षित होती है। बह रही है, लेकिन तब वह ऊपर की ओर घटित न होगा। और कभी-कभी तो किसी क्यों? क्या है पुरुष के भीतर या क्या है बहने लगती है। यह ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन मंत्र या ध्वनि का उच्चार हानिप्रद भी हो स्त्री के भीतर जिससे कि यह आकर्षण ही कुंडलिनी के नाम से जाना जाता है। तुम सकता है, यदि तुम दमित आवेगों से भरे घटित होता है? एक पॉजिटिव या एक इसे अपने मेरुदंड में वास्तव में बहता हुआ हुए हो। दमित आवेगों की प्रत्येक तह इस निगेटिव विद्युत उन्हें चोट करती है, उसकी अनुभव करोगे, और जितने ज्यादा ऊंचे ध्वनि के मार्ग को बदल देगी और अंतिम सूक्ष्म तरंगें। वास्तव में यह सूक्ष्म ध्वनि यह भीतर बहती है, उतने ही ज्यादा ऊंचे परिणाम कुछ ऐसा हो सकता है जिसकी तरंग ही है। उदाहरण के लिए, तुमने तुम भी साथ-साथ गति करते हो। जब यह तुमने कल्पना भी न की हो, कभी अपेक्षा शायद अवलोकन किया हो कि पक्षी ऊर्जा ब्रह्मरंध्र पर पहुंचती है तुम्हारे भी न की हो, कभी चाहा भी न हो। एक काम-आमंत्रण के लिए कुछ ध्वनि का अंतिम केंद्र पर: सिर के ऊपर स्थित खाली मन चाहिए, तभी तुम एक मंत्र का उपयोग करते हैं। उनके अनेक गीत सातवें केंद्र पर-तब तुम मनुष्य के उपयोग कर सकते हो। यौनगत होते हैं। वे बारंबार एक दूसरे को संभावित परम शिखर पर हो। इसलिए व्यक्ति जैसा है, उसे मैं कभी कुछ विशिष्ट ध्वनियों द्वारा चोट कर रहे तीसरे चरण में तुम्हारी ऊर्जा को किसी मंत्र का सुझाव नहीं देता। पहले हैं। ये ध्वनियां विपरीत यौन के पक्षियों के ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए मैं 'हू' का एक रेचन की प्रक्रिया होनी चाहिए। पहले दो काम-केंद्र पर चोट करती हैं। वाहन की तरह उपयोग करता हूं। चरणों को पूरा किए बिना इस 'हू' मंत्र का विद्युत की सूक्ष्म तरंगें बाहर से तुम पर ये प्रथम तीन चरण रेचनकारी हैं। वे अभ्यास कभी नहीं करना चाहिए। प्रथम चोट कर रही हैं। जब बाहर से तुम्हारे ध्यान नहीं हैं, लेकिन ध्यान के लिए तैयारी दो के बिना इसे कभी नहीं करना चाहिए। काम-केंद्र पर चोट पड़ती है, तब तुम्हारी हैं। वे छलांग के लिए तैयार होना' हैं, वे केवल तीसरे चरण में (दस मिनट के ऊर्जा बाहर की ओर बहना शुरू कर देती स्वयं छलांग नहीं हैं। लिए) इस 'हू' का उपयोग करना है-दूसरे व्यक्ति की ओर, तब फलित चौथा चरण छलांग है। चौथे चरण में चाहिए-जितना संभव हो सके उतने होगा प्रजनन, दूसरे का जन्म; कोई दूसरा मैं तुम्हें बिलकुल रुक जाने के लिए ज्यादा जोर से, अपनी पूरी शक्ति को इसमें व्यक्ति तुमसे जन्म पाएगा। कहूंगा। जब मैं कहूं, “रुक जाओ", तब लगाते हुए। इस ध्वनि से अपनी ऊर्जा पर 'ह' उसी काम-ऊर्जा के केंद्र पर चोट बिलकुल थिर हो जाओ। बिलकुल ही चोट करें। और जब तुम दूसरे चरण के इस करता है, लेकिन भीतर से। और जब कुछ भी मत करना क्योंकि यदि तुम रेचन द्वारा खाली हुए हो, तब यह 'हू' का काम-केंद्र पर भीतर से चोट पड़ती है, तब कुछ भी करते हो तो वह एक विक्षेप हो उच्चार तुम्हारी गहराई में जाता है और ऊर्जा भीतर ही प्रवाहित होने लगती है। यह जायेगा और तुम असली बात ही चूक तुम्हारे काम-केंद्र पर चोट करता है। ऊर्जा का भीतरी प्रवाह तुम्हें पूरी तरह से जाओगे। कुछ भी–एक जरा-सी खांसी काम-केंद्र पर दो तरह से चोट की जा बदल देता है। तुम रूपांतरित हो जाते होः या छींक-और तुम सारी बात चूक सकती है। पहला तरीका प्राकृतिक है। जब तुम स्वयं को नया जन्म देते हो। तुम केवल जाओगे क्योंकि मन विक्षेपित हो कभी तुम विपरीत यौन के किसी व्यक्ति से तभी रूपांतरित होते हो, जब तुम्हारी ऊर्जा गया होगा। तब ऊर्ध्वगामी प्रवाह रुक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरण की दो शक्तिशाली विधियां सका जाएगा क्योंकि तुम्हारा ध्यान अन्यत्र हो गया है। बिखर गया। तुम्हारे मौन में मैं तुम्हें एक साक्षी मात्र । कुछ भी मत करो। तुम मर न जाओगे। हो जाने के लिए कहूंगा-एक सतत यदि छींक भी आ रही है और तुम दस जागरूकता : कुछ न करते हुए बस एक यह एक ऐसा ध्यान है जिसमें तुम्हें मिनट के लिए न छींको, तो तुम मरोगे साक्षी बने रहना, बस अपने साथ बने 1सतत सचेत, जागरूक और नहीं। यदि तुम खांसने जैसा अनुभव करते रहना; कुछ भी न करते हुए-कोई गति बोधपूर्ण रहना है। चाहे जो भी तुम करो, हो, यदि तुम गले में कोई खरास अनुभव नहीं, कोई कामना नहीं, कोई यात्रा साक्षी बने रहो। मूर्छा में खो मत जाओ। करते हो और तुम कुछ भी नहीं करते, तो नहीं-केवल अभी और यहां बने रहना, सरल है मूर्छा में खो जाना। श्वास लेते तुम मर जाने वाले नहीं हो। अपने शरीर शांत और मौन, देखते हुए कि क्या हो हुए तुम साक्षी को भूल सकते हो। तुम को मृतवत बना रहने दो ताकि ऊर्जा रहा है। श्वास लेने से इतना तादात्म्य कर लो कि ऊर्ध्वगमन कर सके। यह केंद्र पर होना, स्व में होना संभव तुम साक्षी को भूल ही जाओ। लेकिन तब ऊर्जा जब ऊर्ध्वगमन करती है, तब है—पहले तीन चरणों के कारण। जब तक तुम सार बात चूक ही जाओगे। अधिक से तुम ज्यादा और ज्यादा शांत और मौन ये प्रथम तीन चरण पूरे न हों, तुम स्व में अधिक तेज और गहरी श्वास लो; अपनी होने लगते हो। मौन है ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन थिर नहीं रह सकते। तुम इसके बारे में भले पूरी ऊर्जा इसमें लगा दो, लेकिन फिर भी की उप-उत्पत्ति और तनाव है ऊर्जा ही बातें किए चले जाओ, इसके बारे में भीतर एक साक्षी बने रहो। के अधोगमन की उप-उत्पत्ति। अब तुम्हारा सोचे चले जाओ, सपने देखते चले जाओ, जो हो रहा है उसका अवलोकन करो पूरा शरीर इतना शांत और मौन हो परन्तु यह घटित न होगा क्योंकि तुम तैयार जैसे कि तुम एक दर्शक मात्र हो-मानो जाएगा, मानो कि वह विलीन ही हो नहीं हो। कि सब कुछ किसी दूसरे व्यक्ति को घटित गया हो। तुम उसे अनुभव भी न कर वर्तमान क्षण में थिर रहने के लिए ये पहले हो रहा हो, जैसे कि सारी घटनाएं शरीर को पाओगे। तुम देहरहित हो गए हो। और तीन चरण तुम्हें तैयार करेंगे। वे तुम्हें हो रही हैं और चैतन्य स्वयं में केंद्रित जब तुम शांत और मौन होते हो, तब पूरा जागरूक बनाएंगे। यह ध्यान है। इस ध्यान है-बस देखता हुआ। अस्तित्व मौन है क्योंकि अस्तित्व और में कुछ घटता है जो कि शब्दों के पार है। यह साक्षी प्रथम तीन चरणों में सतत कुछ नहीं वरन एक दर्पण है। वह तुम्हें और एक बार यह घट जाए फिर तुम कभी बना रहना चाहिए। और जब सब कुछ रुक प्रतिफलित करता है। हजारों हजार दर्पणों भी पहले जैसा न हो पाओगे; यह असंभव जाता है और चौथे चरण में जब तुम पूर्णतः में वह तुम्हें प्रतिफलित करता है। जब है। यह एक अंतर्विकास है; यह एक निष्क्रिय हो गए हो-जम गए-तब यह तुम मौन हो तब सारा अस्तित्व मौन अनुभव मात्र नहीं है। यह एक विकास है। जागरूकता अपने चरम शिखर पर होगी। 5 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरण की दो शक्तिशाली विधियां गह सक्रिय-ध्यान का अति प्रिय प सहयोगी · ध्यान है। इसमें पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं। प्रथम चरणः पंद्रह मिनट शरीर को ढीला छोड़ दें और पूरे शरीर को कंपने दें। अनुभव करें कि ऊर्जा पांव से उठकर ऊपर की ओर बढ़ रही है। सब ओर से नियंत्रण छोड़ दें और कंपना ही हो जाएं। आपकी आंखें खुली भी रह सकती हैं और बंद भी। कुंडलिनी ध्यान दूसरा चरण: पंद्रह मिनट जब तुम कुंडलिनी ध्यान करो, तो कंपन भांति, चट्टान की भांति ठोस बने रहोगे: को होने दो, उसे करो मत। शांत खड़े हो नियंत्रक और कर्ता तो तुम ही रहोगे, शरीर नाचे-जैसा आपको भाये, और जाओ, कंपन को उठता महसूस करो और बस अनुसरण करेगा। प्रश्न शरीर का नहीं शरीर को, जैसा वह चाहे, गति करने दें। जब तुम्हारा शरीर थोड़ा कंपने लगे, तो है-प्रश्न हो तुम। उसको सहयोग करो, परंतु उसे स्वयं से जब मैं कहता हूं, कंपो, तो मेरा अर्थ है तीसरा चरण: पंद्रह मिनट मत करो। उसका आनंद लो, उससे तुम्हारे ठोसपन और तुम्हारे पाषाणवत आंखें बंद कर लें और निश्चल बैठ । आह्लादित होओ, उसे आने दो, उसे ग्रहण प्राणों को जड़ों तक कंप जाना चाहिए ताकि जाएं या खड़े रहें...भीतर या बाहर जो करो, उसका स्वागत करो, परंतु उसकी वे जलवत, तरल होकर पिघल सकें, भी हो, उसके साक्षी बने रहें। इच्छा मत करो। प्रवाहित हो सकें। और जब पाषाणवत यदि तुम इसे आरोपित करोगे तो यह प्राण तरल होगें तो तुम्हारा शरीर अनुसरण चौथा चरण: पंद्रह मिनट एक व्यायाम बन जाएगा, एक शारीरिक करेगा। फिर कंपाना नहीं पड़ता, बस आंखें बंद रखे हुए ही, लेट जाएं और व्यायाम बन जाएगा। फिर कंपन तो होगा कंपन रह जाता है। फिर कोई उसे करने निश्चल हो रहें। लेकिन बस ऊपर-ऊपर, वह तुम्हारे भीतर वाला नहीं है, वह बस हो रहा है। फिर प्रवेश नहीं करेगा। भीतर तुम पाषाण की कर्ता नहीं रहा। 6 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो ध्यान चिकित्सा-समूह ओशो ध्यान चिकित्सा-समूह श्या न की पुरानी सभी विधियां पूर्व में विकसित की गई थीं। । उनमें पाश्चात्य मनुष्य को ध्यान में नहीं रखा गया है...। मैं ऐसी विधियां निर्मित कर रहा हूं जो केवल पूर्वी मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि हर मनुष्य के लिए हैं—वह चाहे पूर्वी हो और चाहे पाश्चात्य। अपना शरीर छोड़ने से पहले, अंतिम 18 महीनों में ओशो ने “ध्यान चिकित्सा-समूहों" की एक नई श्रृंखला निर्मित की। अपूर्व रूप से सरल और प्रभावकारी इन चिकित्सा-समूहों में भाग लेने वाले साधकों का परस्पर संबंध तो न्यूनतम ही रहता है, लेकिन समूह की ऊर्जा हर साधक को अपनी-अपनी प्रक्रिया में गहरे जाने में सहयोग करती है। - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिस्टिक रोज़ ध्यान स्टिक रोज़ का प्रतीक एक इंगित है कि यदि व्यक्ति उस बीज को संभाल कर रखे जिसे लेकर वह पैदा हुआ है, उसे सही भूमि और सही वातावरण दे, उसे सही ऊर्जा दे, और उस सही दिशा में चले जहां बीज अंकुरित हो सके तो उसके परम विकास को "मिस्टिक रोज़" के, रहस्यदर्शी गुलाब के प्रतीक में अभिव्यक्त किया गया है-जब तुम्हारे प्राण अपनी सारी पंखुड़ियों को खोलकर खिल जाते हैं और अपनी सुवास बिखेर देते हैं। "मिस्टिक रोज़" ध्यान जो लोग गहरे जाना चाहते हैं, उनके काट डालेगी। सात दिन तक लगातार, ले आता है। लेकिन अपने अंतस के लिए मैंने एक नई ध्यान विधि निर्मित की तीन घंटे रोज...तुम कल्पना भी नहीं कर मंदिर तक पहुंचने के लिए तुम्हें अभी भी है। पहला चरण होगा हंसना–तीन घंटे सकते कि तुम्हारे भीतर कितना रूपांतरण कुछ कदम चलने होंगे, क्योंकि तुमने तक लोग बिना किसी कारण के हंसें। होगा। इतनी उदासी, इतनी निराशा, इतनी और जब भी हंसी चुकने लगे वे फिर जोर और फिर दूसरा चरण आंसुओं का है। चिंताओं और इतने आंसुओं को दबाया से कहें “या-हू"! और हंसी लौट पहला चरण वह सब कुछ साफ कर है-वे सब मौजूद हैं, और तुम्हें घेरकर आएगी। तीन घंटे तक गहरे जाने के बाद डालता है जो तुम्हारी हंसी में बाधा देता तुम्हारे सौंदर्य, तुम्हारे प्रसाद, तुम्हारे तुम हैरान होओगे कि तुम्हारे प्राणों पर है-पुरानी मनुष्यता के सब निषेध, सब आनंद को नष्ट कर रहे हैं। धूल की कितनी परतें जमी हुई हैं। यह दमन; पहला चरण इन सबको काट प्राचीन मंगोलिया में एक पुरानी धारणा हंसी तलवार की तरह उन्हें एक वार में डालता है। तुम्हारे भीतर एक नई अवस्था थी कि हर जन्म में जिस भी पीड़ा को हम Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां दबाते हैं...और पीड़ा दबाई जाती है, तुम उन्हें रोके हुए हो; बस उन्हें रोको बार तुम्हारी हंसी पूरी हो जाए तो अचानक क्योंकि पीड़ा कोई नहीं चाहता। तुम मत। और जब भी तुम्हें लगे कि वे नहीं तुम स्वयं को आंसुओं और पीड़ा से भरा पीड़ित होना नहीं चाहते, इसलिए उसको निकल रहे, तो कहो, “या-बू"! हुआ पाओगे। लेकिन वह भी एक बड़ी दबा लेते हो, तुम बच जाते हो, तुम कहीं ये शुद्ध ध्वनियां हैं, जिनका तुम्हारी निर्भार करने वाली घटना होगी। और देखने लगते हो। लेकिन पीड़ा बनी सारी हंसी और तुम्हारे सारे आंसुओं को जन्मों-जन्मों के पीड़ा और संताप मिट रहती है। और मंगोलियन धारणा थी—मैं निकालकर और तुम्हें पूरी तरह स्वच्छ जाएंगे। यदि तुम इन दो परतों से मुक्ति पा भी उससे सहमत हूं-कि जन्मों-जन्मों करने के लिए एक विधि की तरह उपयोग सको तो तुमने स्वयं को खोज लिया। की पीड़ा तुममें इकट्ठी होती जाती है; और किया जाता है, ताकि तुम फिर से एक 'या-हू' या 'या-बू' शब्दों में कोई अर्थ यह पीड़ा का लगभग एक कठोर कवच निर्दोष बच्चे बन सको। नहीं है। ये बस विधियां हैं, ध्वनियां जो बन जाती है। अंततः, तीसरा चरण है साक्षित्व- अपनी अंतस-सत्ता में प्रवेश करने के एक यदि तुम भीतर जाओ तो तुम्हें दोनों शिखर पर बैठा द्रष्टा। अंततः, हंसी और विशेष उद्देश्य के लिए प्रयोग की जा चीजें मिलेंगी, हंसी और आंसू। इसीलिए आंसुओं के बाद केवल एक साक्षी मौन सकती हैं। कई बार ऐसा होता है कि हंसने से, बचता है। साक्षी स्वतः अपने आप में मैंने कई ध्यान विधियां खोजी हैं, अचानक तुम्हारे आंसू भी साथ-साथ निरोधक गुणवाला है। जब तुम रोने के लेकिन शायद यह सबसे सारभूत और आने लगते हैं-अजीब बात है, क्योंकि : साक्षी होते हो तो वह रुक जाता है, प्रसुप्त बुनियादी होगी। यह पूरे संसार को साधारणतः हम सोचते हैं कि वे विपरीत हो जाता है। यह ध्यान हंसी और आंसुओं आच्छादित कर सकती है...। हैं। जब तुम आंसुओं से भरे होते हो तो से पहले ही मुक्ति दिलवा देता है, ताकि हर समाज ने तुम्हारे सुखों और तुम्हारे वह हंसने का समय नहीं है, या जब तुम तुम्हारे साक्षित्व में निरोध के लिए कुछ आंसुओं को रोककर बहुत नुकसान हंस रहे हो तो वह आंसुओं के लिए ठीक शेष न रहे। फिर साक्षित्व एक शुद्ध पहुंचाया है। यदि कोई वृद्ध व्यक्ति रोने मौसम नहीं है। लेकिन अस्तित्व धारणाओं आकाश को खोल देता है। तो सात दिनों लगे तो तुम कहोगे, “क्या करते हो? तुम्हें और विचारधाराओं में विश्वास नहीं तक बस एक स्पष्टता का अनुभव करो। शरम आनी चाहिए; तुम कोई छोटे बच्चे करता; अस्तित्व तुम्हारी सब धारणाओं यह बिलकुल मेरा ध्यान है। नहीं हो कि किसी ने तुम्हारा केला छीन का अतिक्रमण करता है, जो द्वैतवादी हैं, तुम हैरान होओगे कि कोई ध्यान तुम्हें लिया और तुम रोने लगे। दूसरा केला ले जो द्वैत पर आधारित हैं। दिन और रात, इतना कुछ नहीं दे सकता जितना कि यह लो, लेकिन रोओ मत।" हंसी और आंसू, पीड़ा और आनंद सब छोटी-सी विधि। कई ध्यान विधियों में जरा करके देखो-सड़क पर खड़े एक साथ आते हैं। मेरा यह अनुभव रहा है कि जो करना है होकर और रोना शुरू कर दो और तुम्हें - जब कोई व्यक्ति अपनी अंतर्तम सत्ता वह यह कि तुम्हारे भीतर से दो परतें सांत्वना देने के लिए एक भीड़ इकट्ठी हो में पहुंचता है तो वह पाएगा कि पहली तह तोड़नी हैं। तुम्हारी हंसी को दबाया गया जाएगी: “रोओ मत! जो भी हुआ हो, हंसी की है और दूसरी तह पीड़ा की, है; तुम्हें कहा गया है, "हंसो मत, यह भूल जाओ कि वह हुआ।" कोई नहीं आंसुओं की है। बड़ी गंभीर बात है।" किसी चर्च में या जानता क्या हुआ है, कोई तुम्हारी मदद तो सात दिन के लिए तुम्हें स्वयं को किसी यूनिवर्सिटी की क्लास में तुम्हें नहीं कर सकता, लेकिन सभी कोशिश अकारण ही रोने और चीखने देना हंसने की अनुमति नहीं है...। करेंगे- “रोओ मत!" और इसका कारण है-आंसू निकलने को तैयार ही बैठे हैं। तो पहली परत हंसी की है, लेकिन एक यह है कि यदि तुम रोते चले जाओ तो वे Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिस्टिक रोज़ ध्यान भी रोने लगेंगे, क्योंकि वे भी आंसुओं से और उत्सवपूर्ण हो गया है। न इसका कोई कारण होता है, न कोई भरे हुए हैं। वे आंसू आंखों के बहुत करीब इस संसार को बड़ी जरूरत है कि तार्किक व्याख्या। यह रहस्यमय है, अतीत के सारे निषेधों से हृदय की अच्छी मिस्टीरियस है; इसीलिए “मिस्टिक रोज़" __ और चीखना, रोना, हंसना स्वास्थ्यप्रद तरह सफाई हो जाए। और हंसी व आंसू का प्रतीक लिया गया है। है। अब वैज्ञानिक भी यह पता लगा रहे हैं दोनों काम कर सकते हैं। आंसू तुम्हारे कि चीखना, रोना और हंसना केवल भीतर छिपी सारी पीड़ा को बाहर निकाल सात दिन तक “या-ह!" के उदघोष शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से देंगे और हंसी उस सब को ले जाएगी से प्रारंभ कर बिना किसी कारण के भी स्वास्थ्यप्रद हैं। ये चीजें तुम्हें जिसने तुम्हारे आनंद को रोका हुआ है। पैंतालीस मिनट तक हंसते रहें। आप स्वस्थ-चित्त रखने में बहुत सक्षम हैं। पूरी एक बार तुम्हें कला आ जाए तो तुम बहुत बैठ सकते हैं या लेट सकते हैं। कुछ की पूरी मनुष्यता मानसिक रूप से थोड़ी हैरान होओगेः अभी तक यह बात क्यों लोग पाते हैं कि पीठ के बल लेटना पेट असंतुलित हो गई है क्योंकि कोई भी पूरी नहीं बताई गई? इसका एक कारण है की मांस-पेशियों को ढीला छोड़ने में तरह से नहीं हंसता, क्योंकि चारों ओर के किसी ने कभी चाहा ही नहीं कि मनुष्यता सहायक होता है और ऊर्जा के बहाव को लोग कहेंगे, “क्या कर रहे हो? क्या तुम को गुलाब के फूल जैसी ताजगी और आसान करता है। कुछ लोग पाते हैं कि कोई बच्चे हो? इस उम्र में? तुम्हारे बच्चे सुवास और सौंदर्य मिले। एक चादर ओढ़ लेने से, या पैरों को क्या सोचेंगे? शांति रखो!" इस प्रवचनमाला को मैंने “मिस्टिक ऊपर हवा में उठा लेने से उनमें छिपा - यदि तुम बिना किसी कारण के, बस रोज़" कहा है-रहस्यदर्शी गुलाब। हंसता, खिलखिलाता बच्चा बाहर आ एक व्यायाम की तरह, एक ध्यान की तरह “या-हू" मंत्र है तुम्हारे केंद्र में मिस्टिक जाता है। जोर है अपने अंदर के हास्य रोओ और चीखो...तो कोई विश्वास ही रोज़ को ले आने के लिए, तुम्हारे केंद्र को को खोजने पर, ऐसा हास्य जो अकारण नहीं करेगा। आंसुओं को कभी भी ध्यान खोलने और तुम्हारी सुवास को मुक्त है, इसलिए सामान्यतः आपकी आंखें की तरह स्वीकार नहीं किया गया है। और करने के लिए। और मिस्टिक रोज़ तुम्हारी बंद रहती हैं। फिर भी, और हंसी को मैं तुमसे कहता हूं कि वे न केवल ध्यान अंतस-सत्ता की परितृप्ति है।। जन्म देने के लिए अपने मित्रों को एक हैं, वरन औषधि भी हैं। तुम्हारी आंखों की नजर देख लेना भी ठीक है। क्षमता भी बेहतर हो जाएगी और तुम्हें अपने शरीर को हल्के-फुल्के ढंग से, बेहतर अंतर्दृष्टि भी मिलेगी। निर्देश अपने अंदर छिपे बच्चे की निर्दोषता ___ मैं तुम्हें एक बहुत बुनियादी विधि दे और सहजता में लोटने दें, लुड़कने दें। रहा हूं, जो ताजी है और पहले कभी तीन चरणों में यह इक्कीस दिवसीय और अपनी पूरी समग्रता से हंसें। उसका उपयोग नहीं हुआ। और निस्संदेह, ध्यान अकेले भी किया जा सकता है। । कभी-कभी आप शायद कोई अवरोध यह विश्वव्यापी होने वाली है क्योंकि महसूस कर सकते हैं, जोकि सदियों से इसके प्रभावों को कोई भी देख लेगा कि 1. हंसी के लिए निर्देश वहां हैं, आपके हास्य को अवरुद्ध किए व्यक्ति अधिक युवा हो गया है, अधिक हुए हैं। जब ऐसा हो तो “या-हू!" का प्रेमपूर्ण हो गया है, अधिक प्रसादपूर्ण हो प्रामाणिक हास्य किसी विषय-वस्तु के उदघोष करें या जिबरिश (अनर्गल गया है; वह अधिक लोचपूर्ण और कम प्रति नहीं होता। यह तुममें वैसे ही उठता है ध्वनियां) करना शुरू कर दें जब तक दुराग्रही हो गया है; वह अधिक आनंदित जैसे किसी वृक्ष में कोई फूल खिलता है। कि हास्य पुनः प्रारंभ न हो जाए। 51 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "लेट- गो" : हास्य चरण के अंत में कुछ मिनट के लिए आंखें बंद कर लें और स्थिर बैठ जाएं। शरीर स्थिर रखें जैसे कि कोई मूर्ति; सारी ऊर्जा को अंदर इकट्ठा होने दें। फिर अपने शरीर को पूरी तरह शिथिल छोड़ दें और बिना किसी नियंत्रण या प्रयास के इसे पीछे गिर जाने दें। थोड़ी देर बाद पुनः बैठ जायें और पंद्रह मिनट शांत, सजग बैठे रहें। 2. रुदन के लिए निर्देश हास्य के चुक जाने के बाद तुम स्वयं आंसू और संताप की बाढ़ से आपूरित होता हुआ पाओगे। लेकिन वह भी बहुत निर्धार करने वाली घटना होगी। जन्मों-जन्मों के दुख और दर्द विदा हो जायेंगे। यदि तुम इन दो परतों से छुटकारा पालो तो तुमने स्वयं को पा लिया। दूसरे सप्ताह, धीमे-धीमे “या-बू" कहने से शुरू करके 45 मिनट के लिए रोना प्रारंभ कर दें। आप चाहें तो अपने दुख में उतरने के लिए कमरे को थोड़ा अंधेरा कर ले सकते हैं। आप बैठ सकते हैं या ले सकते हैं। अपनी आंखें बंद कर लें और उन भावों में गहनता से डूब जायें जो आपके रोने में सहायक अपनी पूरी गहराई और समग्रता से एं जिससे हृदय निर्मल और निर्भर हो जाए। अनुभव करें कि आपके छिपे हुए ध्यान की विधियां घावों और पीड़ाओं का बांध अचानक टूट गया है— आंसुओं की बाढ़ आ जाने दें। यदि आपको कोई अवरोध महसूस हो या थोड़ी देर रोने के बाद नींद आने लगे तो जिबरिश शुरू कर दें, थोड़ा शरीर को आगे-पीछे हिलाएं-डुलाएं, या कुछ बार “या - बू” कहें। आंसू तो मौजूद ही हैं, बस उन्हें रोकें मत । "लेट- गो" : प्रतिदिन सदन के चरण के अंत में कुछ मिनट पूर्णतया स्थिर होकर बैठें और फिर विश्रांति में धीरे से पीछे गिर जाएं। रुदन के इस सप्ताह के दौरान उस हर परिस्थिति के लिए खुले रहें जिससे आंसू आते हों। अपने को पूरी तरह खुला और ग्रहणशील बनाए रखें। # 3. 'शिखर पर बैठे द्रष्टा' के लिए निर्देश तीसरे सप्ताह आपके लिए जितना समय सुविधाजनक हो शांत और मौन बैठें और फिर धीमे, मधुर संगीत के साथ नृत्य करें। आप फर्श पर बैठ सकते हैं या कुर्सी का उपयोग कर सकते हैं। अपना सिर एवं रीढ़ सीधी रखें, आखें बंद रखें और श्वास सामान्य रहने दें। तनावरहित और सजग, पर्वत शिखर पर खड़े साक्षी हो जाएं, जो भी गुजरे उसके प्रति साक्षी हो जाएं। देखने की यह विधि है, जो कि ध्यान है, आप क्या देख रहे हैं वह महत्वपूर्ण नहीं है। स्मरण रखें कि विचार, भाव, शारीरिक संवेग, निर्णय आदि जो भी आएं उसमें खो नहीं जाना है या उनके साथ तादात्म्य नहीं जोड़ लेना है। कुछ देर शांत, मौन बैठने के बाद अपनी पसंद का कोई हल्का संगीत बजायें और नृत्य करें। शरीर को स्वतः गति करने दें और अपना साक्षीभाव कायम रखें, संगीत में खो न जाएं। 2 4. कुछ सहायक संकेत- बिंदु पूरे इक्कीस दिनों की अवधि के दौरान अन्य रेचक ध्यान जैसे सक्रिय ध्यान या कुंडलिनी ध्यान आदि न करना बेहतर है। यदि आप यह ध्यान अन्य मित्रों के साथ कर रहे हैं तो ध्यान के दौरान आपस में बातचीत न करें। • हास्य या रुदन के चरणों के दौरान बहुत से लोग क्रोध की पर्त से गुजरते हैं। लेकिन वहां रुक जाने की जरूरत नहीं है। इसे जिबरिश या शारीरिक हलन चलन द्वारा निकाल दें और फिर हास्य या रुदन पर लौट आएं। • अपनी हंसी का उत्सव मनाएं, अपने आंसुओं का उत्सव मनाएं, अपने मौन साक्षी का उत्सव मनाएं। 52 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो-माइंड ध्यान 27-मन का अर्थ है-निर्विचार चैतन्य। और मन का अर्थ है-निर्विचार चैतन्य नहीं, वरन जिबरिश (अनर्गल प्रलाप)। और जब मैं तुमसे जिबरिश करने को कहता हूं, तो मैं इतना ही कह रहा हूं कि मन और उसके सब उपद्रवों को बाहर निकाल फेंको, ताकि पीछे तुम बच रहो—विशुद्ध, निर्मल, पारदर्शी, द्रष्टा। नो-माइंड मेडिटेशन मेरे प्रिय आत्मन, मैं तुम्हें एक है-जिबरिश! इसे हटाकर एक तरफ रख कचरा उलीच डालो, और वह अंतआकाश नया ध्यान दे रहा हूं। इसमें तीन दो, तो तुम्हें अपनी आत्मा का स्वाद मिल निर्मित करो, जिसमें बुद्ध प्रगट होते हैं। चरण हैं। जाए। । दूसरे चरण में: तूफान जा चुका, जिबरिश का प्रयोग करो, होशपूर्वक चक्रवात गया, और तुम्हें भी अपने साथ पहला चरण है: जिबरिश। 'जिबरिश' पागल हो जाओ। परिपूर्ण सजगता के बहा ले गया। उसका स्थान, नितांत मौन शब्द, एक सूफी संत जब्बार के नाम से साथ, पूरी तरह विक्षिप्त हो जाओ, ताकि और थिरता में, बुद्ध ने ले लिया। अब तुम आता है। जब्बार कभी किसी भाषा का यह जो तूफान खड़ा हो गया है, तुम इस केवल साक्षी हो-शरीर के, मन के, और उपयोग नहीं करता था। वह सिर्फ अनर्गल बवंडर के, इस चक्रवात के केंद्र बन जाओ। जो भी घट रहा है उस सबके द्रष्टा मात्र हो। और अंट-शंट ही बोलता था। फिर भी जो भी आता है, उसे आने दो; बिना यह तीसरे चरण में: मैं कहूंगा-“लेट उसके हजारों शिष्य थे। वह कहता था कि फिक्र किए कि वह तर्कसंगत है या गो"। तब तुम अपनी देह को शिथिल छोड़ तुम्हारा मन कुछ और नहीं, बस ऐसा ही असंगत, सार्थक है या व्यर्थ। मन का सारा देना, और उसे बिना किसी प्रयास के गिर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने देना । तुम्हारा मन उसमें हस्तक्षेप न करे, नियंत्रक न बने। जैसे एक अनाज से भरी थैली लुड़क जाती है, ठीक वैसे ही लुड़क जाओ। प्रत्येक चरण ढोल की थाप के साथ प्रारंभ होगा । 3 निर्देश इस विधि को पहले सात दिन के लिए करें, इतना समय इसके प्रभावों को महसूस करने के लिए पर्याप्त होगा । लगभग चालीस मिनट जिबरिश को दें, फिर चालीस मिनट बस देखें और फिर लेट-गो, लेकिन आप चाहें तो दोनों चरणों को बीस-बीस मिनट के लिए और बढ़ा सकते हैं। पहला चरण: जिबरिश अथवा सजग विक्षिप्तता बैठ जाएं या खड़े हो जाएं, अपनी आंखें बंद कर लें और अनर्गल शब्दोच्चार – जिबरिश करना शुरू कर दें | जैसी चाहें ध्वनियां निकालें, लेकिन उस भाषा का और उन शब्दों का उपयोग न करें जो आप जानते हैं। आपके भीतर, जिस चीज को भी अभिव्यक्ति की जरूरत हो उसे अभिव्यक्त हो जाने दें। हर चीज बाहर निकाल दें, पूरी तरह पागल हो जाएं। होशपूर्वक पागल हो जाएं। मन ध्यान की विधियां शब्दों की भाषा में सोचता है । जिबरिश इस सतत शब्दप्रवाह के ढांचे को तोड़ने में मदद करती है। बिना अपने विचारों का दमन किए, जिबरिश के माध्यम से आप उन्हें बाहर फेंक सकते हैं। प्रत्येक चीज की अनुमति है : गाएं, रोएं, चीखें, चिल्लाएं, गुनगुनाएं, बड़बड़ाएं। आपका शरीर जो करना चाहे उसे करने दें: उछलें, कूदें, उठे-बैठें, हाथ-पैर फेंकें, कुछ भी करें। बीच में अंतराल न आने दें। यदि आपको बोलने के लिए ध्वनियां न मिलें, तो सिर्फ ला- ला- ला- ला कहें, लेकिन चुप न रहें। यदि आप यह ध्यान अन्य लोगों के साथ कर रहे हैं, तो न उनसे किसी प्रकार का संबंध रखें, न ही उन्हें बाधा दें। जो आपको हो रहा है उसी को जीएं, और दूसरे क्या कर रहे हैं, इसकी फिक्र न करें। दूसरा चरण: साक्षी (विटनेसिंग) जिबरिश के बाद, पूरी तरह शांत और मौन और शिथिल बैठ जाएं, अपनी ऊर्जा को अंदर इकट्ठी करें, विचारों को दूर और दूर होते जाने दें, स्वयं को अपने केंद्र पर गहन मौन और शांति में उतर जाने दें। आप जमीन पर बैठ सकते हैं या चाहें तो कुर्सी पर भी, परंतु सिर और रीढ़ सीधी होनी चाहिए, शरीर शिथिल हो, आंखें बंद हों और श्वास सहज व सामान्य हो । सजग रहें, और समग्ररूपेण वर्तमान क्षण में जीएं। शिखर पर बैठे द्रष्टा की भांति हो रहें; जो भी गुजरे उसके द्रष्टा मात्र रहें। विचार तो भविष्य या अतीत में जाने की कोशिश करेंगे। बस उन्हें थोड़ी दूरी से देखते रहें- कोई निर्णय न लें; विचारों में उलझना नहीं है। बस वर्तमान में स्थिर होना है, साक्षी बने हुए । 'साक्षी की प्रक्रिया ही ध्यान है, आप किसका अवलोकन कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है। स्मरण रहे कि जो भी विचार, भावनाएं, स्मृतियां, शारीरिक संवेग या निर्णय आएं उनमें खोना नहीं है, उनसे तादात्म्य नहीं बनाना है। तीसरा चरण : लेट गो जिबरिश है : सक्रिय-मन से मुक्ति के लिए; मौन है: निष्क्रिय मन से मुक्ति के लिए; और लेट-गो: समयातीत में प्रवेश के लिए है । साक्षी के बाद, अपनी देह को बिना किसी प्रयत्न अथवा नियंत्रण के जमीन पर गिर जाने दें। लेटे हुए साक्षीभाव जारी रखें; सजग हों कि आप न तो देह हैं और नमन, कि आप दोनों से भिन्न कुछ और हैं। जैसे-जैसे आप गहरे और गहरे भीतर उतरते जाएंगे, धीरे-धीरे आप अपने केंद्र पर पहुंच जाएंगे। 2 54 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बॉर्न अगेन - ह स्मरण रहे: अपना बचपन फिर से प्राप्त करो। बचपन को लौटा लाने की अभीप्सा सभी करते हैं, लेकिन उसे पाने के लिए करता कोई कुछ भी नहीं। अभीप्सा सभी करते हैं। लोग कहे चले जाते हैं कि बचपन तो स्वर्ग था, और कवि बचपन के सौंदर्य पर कविताएं लिखे चले जाते हैं। तो तुम्हें रोक कौन रहा है? पा लो फिर से! बचपन को फिर से प्राप्त करने का यह अवसर मैं तुम्हें देता हूं। बॉर्न अगेन आनंदपूर्ण हो रहो। आनंदित होना सकते हो। कोई कारण हो, तभी तुम रो है। मैं तुम्हें वापस उस बिंदु पर फेंक देना कठिन तो होगा, क्योंकि बहुत ज्यादा तुम सकते हो। चाहता हूं जहां से तुमने विकसित होना बंद ढांचे में ढले हुए हो। तुमने चारों ओर एक ज्ञान को एक ओर रख दो, गंभीरता को कर दिया था। तुम्हारे बचपन में एक ऐसा कवच ओढ़ा हुआ है, जिसे छोड़ना या परे कर दो। इन दिनों के लिए बिलकुल बिंदु आया था जब तुम्हारा विकास रुक उतार कर रखना मुश्किल है। न तुम नाच हलके-फुलके हो जाओ। खोने को तो गया और तुम नकली होना शुरू हो गए। हो सकते हो, न गा सकते हो, न कूद सकते तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है! अगर कुछ न सकता है तुम क्रोधित हुए होओ-छोटा हो, न यूं ही चीख सकते हो, न हंस और भी मिले तो भी खोओगे तो कुछ भी नहीं। सा बच्चा हठ कर रहा है, क्रोध कर रहा मुस्कुरा सकते हो। अगर तुम हंसना भी आनंदित होने में तुम क्या खो सकते हो? है-और तुम्हारे पिता या तुम्हारी मां ने चाहो, तो पहले तुम चाहते हो कि कोई चीज लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: तुम फिर वही तुमसे कहा, “क्रोध मत करो! यह अच्छा हो जिस पर हंस सको। तुम यूं ही नहीं हंस नहीं रहोगे जो हो। नहीं है।" तुम स्वाभाविक थे, लेकिन एक सकते। कोई कारण हो, तभी तुम हंस इसी कारण आनंदपूर्ण होने पर मेरा जोर विभाजन निर्मित कर दिया गया और तुम्हारे 55 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां - सामने यह चुनाव आ गयाः यदि तुम पीड़ा के नहीं होता। यदि सच में ही तुम और को मत छुओ, कोई नुकसान न स्वाभाविक होना चाहते हो तो फिर तुम्हें पुनरुज्जीवित होना चाहते हो तो यह पहुंचाओ। तुम्हारे माता-पिता का प्रेम नहीं मिलेगा। जोखिम उठा लो। इन आठ दिनों में मैं तुम्हें वापस उस बिंदु दूसरा चरणः पर फेंक देना चाहता हूं जहां तुम स्वाभाविक होने के विपरीत “अच्छे" होने दूसरे एक घंटे के लिए बस मौन बैठ शुरू हो गए। आनंदपूर्ण हो जाओ ताकि बॉर्न अगेन के लिए ओशो का जाओ। तुम अधिक ताजे व अधिक सरल अपना बचपन फिर से पा सको। यह कठिन मार्गदर्शन इस प्रकार है: हो जाओगे, और ध्यान तुम्हारे लिए आसान तो होगा, क्योंकि तुम्हें अपने मुखौटे, अपने हो जाएगा। चेहरे सब उतार कर रखने होंगे, तुम्हें अपने पहला चरण: व्यक्तित्व को एक किनारे पर छोड़ना होगा। सात दिन के लिए दो घंटे प्रतिदिन: लेकिन याद रखो, मूल तत्व तभी स्वयं को, पहले एक घंटे के लिए बच्चे जैसा प्रकट कर सकता है जब तुम्हारा व्यक्तित्व व्यवहार करो, अपने बचपन में प्रवेश कर यह निर्णय कर लो कि इन दिनों तुम उतने वहां न हो, क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व एक जाओ। जो भी तुम करना चाहते थे, ही अबोध रहोगे जितने तुम पैदा होते समय कारागृह बन गया है। उसे एक ओर हटा करो-नाचना, गाना, उछलना, चीखना, थे-बिलकुल नवजात शिशु जैसे, जो न दो! यह पीड़ादायी होगा, लेकिन यह पीड़ा रोना-कुछ भी, किसी भी मुद्रा में। दूसरे कुछ जानता है, न कुछ पूछता है, न कुछ झेलने जैसी है क्योंकि उससे तुम्हारा लोगों को स्पर्श करने को छोड़कर और चर्चा करता है न तर्क। यदि तुम छोटे बच्चे पुनर्जन्म होगा। और कोई भी जन्म बिना कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है। ग्रुप में किसी हो सको, तो बहुत कुछ संभव है। जो असंभव लगता है वह भी संभव है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 नृत्य : एक ध्यान नृत्यः एक ध्यान नृत्य में खो जाओ जाओ, ही ह को, अहंकार के केंद्र को ध्यान है। इतनी गहनता से नाचो कि तुम यह बिलकुल भूल जाओ कि 'तुम' नाच रहे हो और यह महसूस होने लगे कि तुम नृत्य ही हो । यह दो का भेद मिट जाना जाना चाहिए; फिर वह ध्यान बन जाता है। यदि भेद बना रहे, तो फिर वह एक व्यायाम ही है: अच्छा है, स्वास्थ्यकर है, लेकिन उसे आध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता। वह बस एक साधारण नृत्य ही हुआ । नृत्य स्वयं में अच्छा है— जहां तक चला है, अच्छा ही है। उसके बाद तुम ताजे और युवा महसूस करोगे । परंतु वह अभी ध्यान नहीं बना। नर्तक को बिदा देते रहना होगा, जब तक कि केवल नृत्य ही न बचे। तो क्या करना है ? नृत्य में समग्र होओ, क्योंकि नर्तक नृत्य भेद तभी तक रह सकता है जब तक तुम उसमें समग्र नहीं हो। यदि तुम एक ओर खड़े रहकर अपने नृत्य को देखते रहते हो, तो भेद बना रहेगा : तुम नर्तक हो और तुम नृत्य कर रहे हो। फिर नृत्य एक कृत्य मात्र होता है, जो तुम कर रहे हो; वह तुम्हारा प्राण नहीं है। तो पूर्णतया उसमें संलग्न हो जाओ, लीन हो जाओ। एक ओर न खड़े रहो, एक दर्शक मत बने रहो । सम्मिलित होओ! । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्यः एक ध्यान त्य को अपने ढंग से बहने दो; उसे आरोपित मत करो। बल्कि उसका Cअनुसरण करो; उसे घटने दो। वह कोई कृत्य नहीं, एक घटना है। उत्सवपूर्ण भाव में रहो। तुम कोई बड़ा गंभीर काम नहीं कर रहे हो; बस खेल रहे हो: अपनी जीवन ऊर्जा से खेल रहे हो, अपनी जैविक-ऊर्जा से खेल रहे हो, उसे अपने ढंग से बहने दे रहे हो। बस ऐसे जैसे हवा बहती है और नदी प्रवाहित होती है-तुम भी प्रवाहित हो रहे हो, बह रहे हो। इसे नटराज ध्यान नटराज-नृत्य एक संपूर्ण ध्यान है। यह पैंसठ मिनट का है और इसके तीन चरण हैं। दूसरा चरण: बीस मिनट आंखें बंद रखे हुए ही, तत्क्षण लेट जाएं। शांत और निश्चल रहें। अनुभव करो। पहला चरण: चालीस मिनट और खेल के भाव में रहो। इस शब्द 'खेलपूर्ण भाव' का ध्यान रखो-मेरे साथ आंखें बंद कर इस प्रकार नाचें जैसे यह शब्द बहुत प्राथमिक है। इस देश में आविष्ट हो गए हों। अपने पूरे चेतन को हम सृष्टि को परमात्मा की लीला, उभरकर नृत्य में प्रवेश करने दें। न तो परमात्मा का खेल कहते हैं। परमात्मा ने नृत्य को नियंत्रित करें, और न ही जो हो संसार का सजन नहीं किया है, यह उसका रहा है उसके साक्षी बनें। बस नृत्य में पूरी खेल है।। तरह डूब जाएं। तीसरा चरणः पांच मिनट उत्सव भाव से नाचें; आनंदित हों और अहोभाव व्यक्त करें। 2 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां फी दरवेश नृत्य प्राचीनतम और सबसे शक्तिशाली विधियों में से है। यह विधि इतनी गहन है कि एक अकेला अनुभव भी तुम्हें बिलकुल भिन्न कर दे सकता है। दोनों आखें खुली रखकर एक स्थान पर गोल घूमो, जैसे छोटे बच्चे गोल घूमते हैं, जैसे कि तुम्हारे अंतर्माण एक केंद्र बन गए हों और तुम्हारा पूरा शरीर एक पहिया बन कर घूम रहा है, कुम्हार का चाक बन कर घूम रहा है। तुम केंद्र में हो, परंतु सारा शरीर घूम रहा है। व्हिरलिंग ध्यान (सूफी दरवेश नृत्य) यह उपयोगी होगा कि दरवेश नृत्य है लेकिन कम से कम एक घंटे तक रखना है, और बाएं हाथ को नीचे (व्हिरलिंग) शुरू करने से तीन घंटे पूर्व घूमने का परामर्श दिया जाता है ताकि झुकाकर उसकी हथेली को धरती की तक कोई आहार अथवा पेय नहीं लेना आप ऊर्जा के भंवर में पूरी तरह डूबने को ओर उन्मुख रखना है। जिन लोगों को चाहिए। जूते-चप्पल न पहने हों और अनुभव कर सकें। एन्टिक्लॉकवाइज़ घूमने में असुविधा हो वस्त्र ढीले हों तो अच्छा है। ___व्हिरलिंग, गोल घूमने को एक ही वे घड़ी की चाल की दिशा में, __ यह ध्यान दो चरणों में विभाजित स्थान पर घड़ी की चाल के विपरीत, क्लॉकवाइज़-बाएं से दाएं घूम सकते है-गोल घूमना और विश्राम। घूमने के एन्टिक्लॉकवाइज़ दिशा में दाएं से हैं। अपने शरीर को ढीला और आंखों लिए कोई समय अवधि निश्चित नहीं है, बाएं किया जाता है, दाहिने हाथ को को खुला रहने दें, आंखें कहीं केंद्रित न वह घंटों तक भी चल सकता ऊपर उठाकर हथेली को आकाशोन्मुख हों ताकि आकृतियां अस्पष्ट और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्यः एक ध्यान प्रवाहमान होती जाएं। मौन रहें। स्वयं निर्णय लें, न पहले से गिरने की और डूबने दें जैसे एक छोटा बच्चा मां के पहले पन्द्रह मिनट के लिए मद्धिम व्यवस्था करें; यदि आपका शरीर ढीला वक्ष से चिपका रहता है। आंखें बंद कर गति से गोल घूमते रहें। फिर अगले तीस होगा तो जमीन पर गिरना भी हलके से लें और निष्क्रिय तथा शांत होकर इस मिनट में गति को धीरे-धीरे तब तक तेज हो जाएगा और पृथ्वी आपकी ऊर्जा को स्थिति में कम से कम पंद्रह मिनट पड़े करते रहें जब तक कि गति आपको पी लेगी। वशीभूत न कर ले, और आप ऊर्जा के एक बार आप गिर जाएं तो ध्यान का ध्यान के बाद जितना हो सके शांत व एक भंवर न बन जाएं–परिधि पर गति दूसरा चरण शुरू होता है। गिरते ही पेट निष्क्रिय रहें। का एक तूफान और केंद्र पर शांत व के बल लेट जाएं ताकि आपकी खुली हुई कुछ लोगों को दरवेश ध्यान के समय स्थिर साक्षी। नाभि का स्पर्श पृथ्वी से हो सके। यदि मितली का जी हो सकता है, परंतु ऐसा जब आप इतनी तेज गोल घूमने लगें किसी को इस प्रकार लेटने में बहुत दो-तीन दिन में ही समाप्त हो जाना कि खड़े न रह सकें, तो आपका शरीर असुविधा हो तो वह अपनी पीठ के बल चाहिए। उसके बाद भी ऐसा ही हो, तो स्वयं ही गिर जाएगा। न तो गिरने का लेटे। अपने शरीर को पृथ्वी में पिघलने यह ध्यान न करें। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ भी ध्यान बन सकता है कुछ भी ध्यान बन सकता है याही राज है: अ-यंत्रवत होना। यदि हम अपने कृत्यों को अ-यंत्रवत कर सकें, तो पूरा जीवन एक ध्यान बन जाता है। फिर कोई भी छोटा-मोटा काम-नहाना, भोजन करना, मित्र से बात करना-ध्यान बन जाता है। ध्यान एक गुण है; उसे किसी भी चीज में लाया जा सकता है। वह कोई विशेष कृत्य नहीं है। लोग इसी प्रकार सोचते हैं, वे सोचते हैं ध्यान कोई विशेष कृत्य है कि जब तुम पूर्व की ओर मुंह करके बैठो, कुछ मंत्र दोहराओ, थोड़ी धूपबत्ती जलाओ, कि किसी निश्चित समय पर, निश्चित तरह से, निश्चित मुद्रा में कुछ करो। ध्यान का उस सब से कुछ लेना-देना नहीं है। वे सब तुम्हें यंत्रवत करने के उपाय हैं और ध्यान यंत्रवत होने के विपरीत है। तो यदि तुम सजग रह सको, तो कोई भी कृत्य ध्यान है; कोई भी कृत्य तुम्हें अपूर्व रूप से सहयोगी होगा।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ भी ध्यान बन सकता है अब तुम गति में होते हो तो सजग गरह पाना स्वाभाविक और सरल होता है। जब तुम शांत बैठे होते हो तो स्वाभाविक है कि सो जाओ। जब तुम अपने बिस्तर पर लेटे होते हो तो सजग रह पाना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि पूरी परिस्थिति तुम्हें सोने में मदद करती है। लेकिन सक्रियता में स्वभावतः तुम सो नहीं सकते, तुम अधिक सजग होकर कार्य करते हो। समस्या एक यही है कि कृत्य यांत्रिक बन सकता है। अपने शरीर, मन और आत्मा को पिघला कर एक करना सीखो। ऐसे उपाय खोजो कि तुम एक इकाई की भांति कार्य कर सको। दौड़ने वालों के साथ कई बार दौड़ना, जॉगिंग और तैरना ऐसा होता है। शायद तुमने सोचा भी न हो अधिकाधिक एक नए प्रकार का ध्यान सुंदर रूप से गति कर रहा हो; ताजी हवा, कि दौड़ना भी ध्यान हो सकता है, लेकिन बनता जा रहा है। जब दौड़ रहे हों तो ऐसा रात के अंधकार से गुजर कर जन्मा नया दौड़ने वालों को कई बार ध्यान के अपर्व हो सकता है। संसार-जैसे हर चीज गीत गाती अनुभव हुए हैं। और वे चकित हए, यदि तुम कभी एक दौड़ाक रहे होओ, हो-तुम बहुत जीवंत अनुभव करते क्योंकि इसकी तो वे खोज भी नहीं कर रहे यदि तुमने सुबह-सुबह दौड़ने का आनंद हो...एक क्षण आता है जब दौड़ने वाला थे-कौन सोचता है कि कोई दौड़ने वाला लिया हो जब हवा ताजी और युवा हो और विलीन हो जाता है, और बस दौड़ना ही परमात्मा का अनुभव कर लेगा? परंतु सारा विश्व नींद से लौटता हो, जागता बचता है। शरीर, मन और आत्मा ऐसा हुआ है। और अब तो दौड़ना हो-तुम दौड़ रहे होओ और तुम्हारा शरीर एक-साथ कार्य करने लगते हैं; अचानक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आंतरिक आनंदोन्माद का आविर्भाव होता है। दौड़ाक कई बार संयोग से चौथे के, तुरी के अनुभव से गुजर जाते हैं, यद्यपि वे उसे चूक जाएंगे - वे सोचेंगे कि शायद दौड़ने के कारण ही उन्होंने इस क्षण का आनंद लिया कि प्यारा दिन था, शरीर स्वस्थ था और संसार सुंदर, और यह अनुभव एक भावदशा मात्र थी। वे उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते - परंतु वे ध्यान दें, तो मेरी अपनी समझ है कि एक दौड़ाक किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सरलता से ध्यान के करीब आ सकता है। 'जॉगिंग' ( लयबद्ध धीरे-धीरे दौड़ना) अपूर्व रूप से सहयोगी हो सकती है, तैरना बहुत सहयोगी हो सकता है। इन सब चीजों को ध्यान में रूपांतरित कर लेना है। ध्यान की पुरानी धारणाओं को छोड़ दो— कि किसी वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में बैठना ही ध्यान है। वह तो बहुत से उपायों में से एक उपाय है, और हो सकता है वह कुछ लोगों के लिए उपयुक्त हो, लेकिन ध्यान की विधियां सबके लिए उपयुक्त नहीं है। एक छोटे बच्चे के लिए यह ध्यान नहीं, उत्पीड़न है। एक युवा व्यक्ति जो जीवंत और स्पंदित है, उसके लिए यह दमन होगा, ध्यान नहीं । सुबह सड़क पर दौड़ना शुरू करो। आधा मील से शुरू करो और फिर एक मील करो और अंततः कम से कम तीन मील तक आ जाओ। दौड़ते समय पूरे शरीर का उपयोग करो; ऐसे मत दौड़ो जैसे कसे कपड़े पहने हुए हों। छोटे बच्चे की तरह दौड़ो, पूरे शरीर का — हाथों और पैरों का — उपयोग करो और दौड़ो पेट से गहरी श्वास लो। फिर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, विश्राम करो, पसीना बहने दो और शीतल हवा लगने दो; शांत अनुभव करो । यह बहुत गहन रूप से सहयोगी होगा । कभी-कभी बिना जूते-चप्पल पहने नंगे पांव जमीन पर खड़े हो जाओ और शीतलता को, कोमलता को, उष्मा को महसूस करो। उस क्षण में पृथ्वी जो कुछ भी देने को तैयार है, उसे अनुभव करो और अपने में बहने दो। और अपनी ऊर्जा को पृथ्वी में बहने दो। पृथ्वी के साथ जुड़ जाओ । यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गए, तो जीवन से जुड़ गए। यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गए, अपने शरीर से जुड़ गए। यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गए, तो बहुत संवेदनशील और केंद्रस्थ हो जाओगे और यही तो चाहिए। दौड़ने में कभी भी विशेषज्ञ मत बनना; नौसिखिए ही बने रहना ताकि सजगता रखी जा सके। जब कभी तुम्हें लगे कि दौड़ना यंत्रवत हो गया है, तो उसे छोड़ दो; फिर तैर कर देखो । यदि वह भी यंत्रवत हो जाए, तो नृत्य को लो। यह बात याद रखने की है कि कृत्य मात्र एक परिस्थिति है कि जागरण पैदा हो सके। जब तक वह जागरण निर्मित करे तब तक ठीक है। जब वह जागरण पैदा करना बंद कर दे तो किसी काम का न रहा; किसी और कृत्य को पकड़ो जहां तुम्हें फिर से सजग होना पड़े। किसी भी कृत्य को यंत्रवत मत होने दो। 2 66 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हं सना कुछ ऊर्जा तुम्हारे अंतकेंद्र से परिधि पर ले आती है। ऊर्जा हंसने के पीछे छाया की भांति बहने लगती है। तुमने कभी इस पर ध्यान दिया ? जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो उन थोड़े से क्षणों के लिए तुम एक गहन ध्यानपूर्ण अवस्था में होते हो । विचार प्रक्रिया रुक जाती है। हंसने के साथ-साथ विचार करना असंभव है। वे दोनों बातें बिलकुल विपरीत हैं : या तो तुम हंस सकते हो, या विचार ही कर सकते हो। यदि तुम वास्तव में हंसो तो हंसना विचार रुक जाता है। यदि तुम अभी भी विचार कर रहे हो तो तुम्हारा हंसना थोथा और कमज़ोर होगा। वह हंसी अपंग होगी। 67 कुछ भी ध्यान बन सकता है ध्यान जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो अचानक मन विलीन हो जाता है। जहां तक मैं जानता हूं, नाचना और हंसना सर्वोत्तम, स्वाभाविक व सुगम द्वार हैं। यदि सच में ही तुम नाचो, तो सोच-विचार रुक जाता है। तुम नाचते जाते हो, घूमते जाते हो, और एक भंवर बन जाते हो - सब सीमाएं, सब विभाजन समाप्त हो जाते हैं । तुम्हें इतना भी पता नहीं रहता कि कहां तुम्हारा शरीर समाप्त होता है और कहां अस्तित्व शुरू होता है। तुम अस्तित्व में पिघल जाते हो और अस्तित्व तुममें पिघल आता है; सीमाएं एक-दूसरे में प्रवाहित हो जाती हैं। और यदि तुम सच ही नाच रहे हो — उसे नियंत्रित नहीं कर रहे बल्कि उसे स्वयं को नियंत्रित कर लेने दे रहे हो, स्वयं को वशीभूत कर लेने दे रहे हो– यदि तुम नृत्य से वशीभूत हो जाओ, तो सोच-विचार रुक जाता है। हंसने के साथ भी ऐसा ही होता है। यदि तुम हंसी से आविष्ट और आच्छादित हो जाओ तो सोच-विचार रुक जाता है। निर्विचार की दशा के लिए हंसना एक सुंदर भूमिका बन सकती है। 3 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसी ध्यान के लिए निर्देश ह र सुबह जब जागें, तो अपनी आखें खोलने से पहले, शरीर को बिल्ली की तरह तानें । तीन या चार मिनट बाद, आंखें बंद रखे हुए ही, हंसना शुरू करें। पांच मिनट के लिए बस हंसें ही । पहले-पहले तो आप इसे सप्रयास करेंगे, लेकिन शीघ्र ही आपके प्रयास से पैदा की गई ध्वनि प्रामाणिक हंसी को जगा देगी। स्वयं को हंसी में खो दें। शायद इस घटना को वास्तव में घटने में कई दिन लग जाएं, क्योंकि हम इससे बहुत अपरिचित हैं । परंतु शीघ्र ही यह सहज हो जाएगा और आपके पूरे दिन का गुण ही बदल जाएगा। + ध्यान की विधियां हंसते हुए बुद्ध जा पान में हंसते हुए बुद्ध, होतेई की एक कहानी है। उसकी पूरी देशना ही बस हंसना थी। वह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक बाजार से दूसरे बाजार घूमता रहता। वह बाजार के बीचों-बीच खड़ा हो जाता और हंसने लगता — यही उसका प्रवचन था । उसकी हंसी सम्मोहक थी, संक्रामक थी — एक वास्तविक हंसी, जिससे पूरा पेट स्पंदित हो जाता, तरंगायित हो जाता। वह हंसते-हंसते जमीन पर लोटने लगता । जो लोग जमा होते, वे भी हंसने लगते, और फिर तो हंसी फैल जाती, हंसी की तूफानी लहरें उठतीं, और पूरा गांव हंसी से आप्लावित हो जाता। लोग राह देखते कि कब होतेई उनके गांव में आए, क्योंकि वह अद्भुत आनंद और आशीष लेकर आता था । उसने कभी भी एक शब्द नहीं बोला – कभी भी नहीं । तुम बुद्ध के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम बुद्धत्व के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम सत्य के बारे में पूछते कि वह हंसने लगता । हंसना ही उसका एकमात्र संदेश था। 5 68 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ भी ध्यान बन सकता है कि व्यक्ति मेरे पास आया। तीस ए वर्ष से वह सतत धूम्रपान की लत से पीड़ित था। वह बीमार था, और डॉक्टर उसे कहते, “जब तक तुम धूम्रपान करना छोड़ोगे नहीं, कभी स्वस्थ नहीं हो पाओगे।" लेकिन वह तो बहुत समय से धूम्रपान से पूर्णतः ग्रसित था; वह उसकी बाबत कुछ कर नहीं सकता था। उसने प्रयास भी किया था—ऐसा नहीं कि उसने प्रयास नहीं किया था—उसने कठोर धम्रपान ध्यान प्रयास किया था, और इस प्रयास करने में लगा था। उसे अपने लिए कोई सम्मान मस्तिष्क के निर्णय लेने का ही प्रश्न नहीं उसने बहुत कुछ झेला भी था, लेकिन एक नहीं रह गया था। वह मेरे पास आया। रह गया है; तुम्हारा मस्तिष्क कुछ भी नहीं या दो दिन ही बीतते कि फिर से ऐसी जोर उसने पूछा, “मैं क्या कर सकता हूं? मैं कर सकता। मस्तिष्क नपुंसक है; वह की तलब उठती, कि उसे बहका ले जाती। धूम्रपान कैसे छोड़ सकता हूं?" मैंने कहा, चीजों को शुरू कर सकता है, लेकिन वह फिर से उसी ढर्रे में लौट जाता। “धूम्रपान कोई भी नहीं छोड़ सकता। यह इतनी सरलता से उन्हें रोक नहीं सकता। इस धूम्रपान की वजह से ही उसका तुम्हें समझ लेना है। धूम्रपान करना अब एक बार तुम शुरू हो गए और एक बार सारा आत्मविश्वास जाता रहा था उसे कोई तुम्हारे निर्णय का ही प्रश्न नहीं है। तुमने इतना लंबा अभ्यास कर लिया, तुम पता था कि वह एक छोटा-सा काम भी वह तुम्हारे व्यसनों के जगत में प्रवेश कर तो बड़े योगी हो गए-तीस वर्ष से नहीं कर सकता था; सिगरेट पीना नहीं गया है। उसने जड़ें जमा ली हैं। तीस वर्ष धूम्रपान का अभ्यास चलता है। अब तो छोड़ सकता था। वह अपनी ही दृष्टि में एक लंबा समय है। उसने तुम्हारे शरीर में, यह स्वचलित ही हो गया है; तुम्हें उसे बिलकुल अयोग्य हो गया था; वह स्वयं तुम्हारे रसायन में जड़ें पकड़ ली हैं; वह अ-यंत्रवत करना होगा।" वह बोला, को संसार का सबसे बेकार व्यक्ति मानने सारे शरीर में फैल गया है। यह तुम्हारे “अ-यंत्रवत करने से आपका क्या 09 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य है?" और यही तो ध्यान का सारा उद्देश्य है— अ-यंत्रवत होना । मैंने कहा, “तुम एक काम करो: छोड़ने की बात भूल जाओ। उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है । तीस वर्ष तक तुमने धूम्रपान किया और तुम उसे जी लिए; निश्चित ही तुम्हें उसमें कष्ट तो हुआ परंतु तुम उसके भी आदी हो गए हो। और इससे क्या फर्क पड़ता है यदि तुम उससे कुछ घंटे पहले मर जाओ जब तुम धूम्रपान न करने पर मरते ? यहां तुम करोगे क्या ? तुमने क्या कर लिया है? तो सार ही क्या है— तुम सोमवार को मरो या मंगल को मरो या रविवार को, इस वर्ष मरो कि उस वर्ष – इससे फर्क ही क्या पड़ता है ?" उसने कहा, “हां, यह सच है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।” तो मैंने कहा, “भूल जाओ इस बारे में। हम छोड़ने वाले नहीं हैं; बल्कि हम तो इसे समझेंगे। तो अगली बार, तुम इसे एक ध्यान बना लो। " वह बोला, “ धूम्रपान का ध्यान ?” मैंने कहा, “हां। जब झेन साधक चाय पीने को ध्यान बना सकते हैं और उसका उत्सव मना सकते हैं, तो क्यों नहीं धूम्रपान भी उतना ही सुंदर ध्यान हो सकता है।" वह तो रोमांचित नजर आने लगा। वह बोला, “आप क्या कह रहे हैं ?" वह तो जैसे जी उठा । बोला, “ध्यान ? मुझे बताएं- मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता! " मैंने उसे ध्यान बताया। मैंने कहा, “एक काम करो। जब तुम सिगरेट का पैकेट ध्यान की विधियां अपनी जेब से निकालो, तो धीरे-धीरे निकालो । उसका आनंद लो, कोई जल्दी नहीं है। सचेत, सजग, जागरूक रहो। उसे पूरे होश के साथ धीरे-धीरे निकालो। फिर पैकेट में से सिगरेट निकालो तो पूरे होश के साथ धीरे-धीरे— पहले की तरह जल्दबाजी से, बेहोशी में, यंत्रवत होकर नहीं। फिर सिगरेट को पैकेट पर ठोंको— लेकिन बड़े होश के साथ। उसकी आवाज को सुनो, जैसे झेन साधक सुनते हैं जब समोवार गीत गाने लगता है और चाय उबलने लगती है... और उसकी सुवास ! फिर सिगरेट को सूंघो और उसके सौंदर्य को...।” वह बोला, “आप क्या कह रहे हैं? सौंदर्य ?" “हां, उसमें सौंदर्य है। तंबाकू भी उतना ही दिव्य है जितनी कोई अन्य चीज। उसे सूंघो; वह परमात्मा की सुगंध है।" वह थोड़ा हैरान हुआ। वह बोला, "क्या ! आप मजाक कर रहे हैं?" "नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा । जब मैं मजाक भी करता हूं तो मजाक नहीं करता। मैं गंभीर हूं। " फिर पूरे होश के साथ उसे अपने मुंह में रखो, पूरे होश के साथ उसे जलाओ। हर कृत्य का, हर छोटे-छोटे कृत्य का आनंद लो, और उसे जितने छोटे खंडों में हो सके बांट लो, ताकि तुम और-और सको । सजग " फिर पहला कश लोः जैसे धुएं के रूप में परमात्मा हो । हिंदू कहते हैं, 'अन्नं ब्रह्म' - 'अन्न ब्रह्म है'। तो फिर धुआं क्यों नहीं ? सभी कुछ परमात्मा है। अपने फेफड़ों को पूरी तरह से भर लो - यह एक प्राणायाम है। मैं तुम्हें नए युग के लिए नया योग दे रहा हूं ! फिर धुएं को छोड़ो, विश्राम करो, फिर दूसरा कश — और बहुत धीरे-धीरे पीओ । यदि तुम ऐसा कर पाओ तो तुम चकित होओगे; शीघ्र ही तुम्हें इसकी सारी मूढ़ता नजर आ जाएगी— इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे मूढ़तापूर्ण कहा है, इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे बुरा कहा है। तुम्हें इसका दर्शन होगा। और यह दर्शन मात्र बौद्धिक ही नहीं होगा। यह तुम्हारे पूरे प्राणों से आएगा, यह तुम्हारी समग्रता का बोध होगा । और फिर किसी दिन धूम्रपान छूट जाए, तो छूट जाए; और चलता रहे, तो चलता रहे। तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। " तीन महीने बाद वह आया और बोला, “लेकिन मेरी सिगरेट तो छूट गई।" “अब,” मैंने कहा, "इसे दूसरी चीजों के साथ करके भी देखो। " यही राज है : अयंत्रवत हो जाना। चलते हुए, धीरे-धीरे, होशपूर्वक चलो। देखते हुए, होशपूर्वक देखो, और तुम पाओगे कि वृक्ष इतने ज्यादा हरे हो गए जितने हरे वे कभी न थे। और गुलाब इतने ज्यादा गुलाबी हो गए, जितने कि वे कभी न थे। सुनो! कोई बात कर रहा है, गपशप कर रहा है: सुनो, सजग होकर सुनो। जब तुम बोल रहे हो, तो सजग होकर बोलो। जाग्रत अवस्था के अपने सभी कृत्यों को अयंत्रवत हो जाने दो। 6 70 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास: एक सेतु-ध्यान तक श्वासः एक सेतु-ध्यान तक यदि तुम श्वास के साथ कुछ प्रयोग कर सको तो अचानक वर्तमान में आ जाओगे। यदि श्वास के साथ कुछ प्रयोग कर सको, तो तम जीवन के स्रोत को उपलब्ध कर लोगे। यदि श्वास के साथ कुछ कर सको तो तुम समय और स्थान के पार जा सकते हो। यदि श्वास के साथ कुछ कर सको, तो तुम संसार में रहकर भी इसके पार रहोगे।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 72 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास: एक सेतु-ध्यान तक - - 'पस्सना वह ध्यान है जिसने संसार में किसी भी अन्य ध्यान की अपेक्षा सबसे अधिक लोगों को संबुद्ध किया है, क्योंकि यह सार मात्र ही है। अन्य ध्यान विधियों में भी वही सार है, परंतु भिन्न रूपों में; उनमें कुछ असार भी जुड़ गया है। लेकिन विपस्सना शुद्ध सार है। न तुम उसमें से कुछ निकाल सकते हो, न सुधार के लिए उसमें कुछ जोड़ सकते हो। . विपस्सना इतनी सरल है कि एक छोटा बच्चा भी कर सकता है। वास्तव में छोटा विपस्सना बच्चा तुमसे भी बेहतर कर सकता है, सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो। के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूरी क्योंकि वह अभी मन के कचरे से नहीं भरा हाथ हिलाओ, तो होश से हिलाओ, यह होती हैं। नहाते समय जो शीतलता तुम्हें है; वह अभी निर्मल और निर्दोष है। जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम मिल रही है, जो पानी तुम पर गिर रहा है विपस्सना तीन प्रकार से की जा सकती उसे बिना होश के, यंत्र की भांति भी हिला और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है है-तुम्हें कौन-सी विधि सबसे ठीक सकते हो...तुम सुबह सैर पर निकले हो; उस सब के प्रति सजग रहो-बस सजग बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी हो रहो। यह अजागरूकता की दशा में नहीं हो। चल सकते हो। होना चाहिए। पहली विधि है: अपने कृत्यों, अपने अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति और तुम्हारे मन के विषय में भी ऐसा ही शरीर, अपने मन, अपने हृदय के प्रति सजग रहो। खाते समय, उन गतिविधियों है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां गुजरे बस उसके द्रष्टा बने रहो। तुम्हारे और तीसरी विधि है, जब श्वास भीतर जाओ; तो जो खिलाड़ी और हृदय के परदे पर से जो भी भाव गुजरे, प्रवेश करने लगे, जब श्वास तुम्हारे व्यायामशास्त्री हैं, और जो लोग शरीर पर बस साक्षी बने रहो-उसमें उलझो मत, नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके कार्य करते रहे हैं, उनके लिए यह उससे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत प्रति सजग हो जाना। नियम-सा ही बन गया है। करो कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है; वह उस दूसरी अति पर उसे अनुभव जापान ही एकमात्र अपवाद है जहां वे तुम्हारे ध्यान का अंग नहीं है। करो-पेट से दूसरी अति पर-नासापुट इस बात की फिक्र नहीं लेते कि छाती चौड़ी । दूसरी विधि है श्वास की; अपनी श्वास पर श्वास का स्पर्श अनुभव करो। भीतर होनी चाहिए और पेट भीतर खिंचा होना के प्रति सजग होना। जैसे ही श्वास भीतर जाती हुई श्वास तुम्हारे नासापुटों को एक चाहिए। पेट को भीतर खिचे रखने के लिए जाती है, तुम्हारा पेट ऊपर उठने लगता है, प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्वास एक विशेष अनुशासन की जरूरत होती और जब श्वास बाहर जाती है, तो पेट बाहर जाती है...श्वास भीतर आई, श्वास है; यह स्वाभाविक नहीं है। जापान ने फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी बाहर गई। स्वाभाविक मार्ग का चुनाव किया है, विधि है पेट के प्रति उसके उठने और यह भी संभव है। यह स्त्रियों की अपेक्षा इसीलिए जब तुम बुद्ध की कोई जापानी गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के पुरुषों के लिए अधिक सरल है। स्त्री पेट मूर्ति देखोगे तो चकित होओगे। तुम तत्क्षण उठने और गिरने का बोध हो...और पेट के प्रति अधिक सजग है। अधिकांश पुरुष भेद कर सकते हो कि मूर्ति भारतीय है जीवन स्रोत के सबसे निकट है क्योंकि तो इतनी गहरी श्वास भी नहीं लेते कि वह अथवा जापानी है। गौतम बुद्ध की भारतीय बच्चा नाभि के द्वारा मां के जीवन से जुड़ा पेट तक पहुंच जाए। उनकी छाती ही ऊपर प्रतिमाओं की देह बड़ी सुडौल होती है। पेट होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन का और नीचे होती है, क्योंकि संसार भर में बहुत छोटा और छाती चौड़ी होती है। स्रोत है। तो जब तुम्हारा पेट उठता है, तो सुडौलता की एक गलत ढंग की धारणा लेकिन जापानी बुद्ध बिलकुल भिन्न होते यह वास्तव में जीवन ऊर्जा है, जीवन की प्रचलित है। जब तुम्हारी छाती ऊंची होती हैं; उनकी छाती तो लगभग शांत ही होती धारा है जो हर श्वास के साथ ऊपर उठ है और पेट लगभग न के बराबर होता है है, क्योंकि वे पेट से श्वास लेते हैं, लेकिन रही है और नीचे गिर रही है। यह विधि तो शरीर को निश्चित ही एक सुंदर आकृति उनका पेट बड़ा होता है। यह बहुत अच्छा कठिन नहीं है, शायद ज्यादा सरल है, मिलती है। तो नहीं लगता क्योंकि संसार में क्योंकि यह एक सीधी विधि है। पुरुष ने छाती तक ही श्वास ले जाने का प्रचलित धारणा बहुत पुरानी है। लेकिन __पहली विधि में तुम्हें अपने शरीर के प्रति चुनाव किया है, इससे छाती तो बड़ी होती पेट से श्वास लेना अधिक स्वाभाविक है, सजग होना है, अपने मन के प्रति सजग जाती है और पेट सिकुड़ जाता है। ऐसा अधिक विश्रामपूर्ण है। होना है, अपने भावों, भावदशाओं के प्रति शरीर उसे अधिक सुडौल लगता है। रात जब तुम सोते हो तो ऐसा होता है; सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हैं। जापान को छोड़कर, संसार भर में तुम छाती से श्वास नहीं लेते, पेट से दूसरी विधि में एक ही चरण है: बस पेट खिलाड़ी और खिलाड़ियों के शिक्षक श्वास लेते हो। इसीलिए तो रात ऐसा ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम फेफड़ों को भरके, छाती को फुलाकर, विश्रामपूर्ण अनुभव बन जाती है। सोने के एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति और पेट को भीतर खींच कर श्वास लेने बाद सुबह तुम इतने ताजा, इतने युवा सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, पर जोर देते हैं। उनका आदर्श सिंह है महसूस करते हो, क्योंकि रात भर तुमने हृदय शांत हो जाता है, भावदशाएं मिट जिसकी छाती बड़ी होती है और पेट बहुत स्वाभाविक रूप से श्वास ली...तुम जाती हैं। छोटा होता है। तो सिंह की भांति हो जापान में थे! Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास: एक सेतु-ध्यान तक ये दो सूत्र हैं: यदि तुम्हें भय हो कि पेट वह क्षण आता है...निश्चित ही आता इत्यादि हो सकते हैं। से श्वास लेने और इसके उठने व गिरने के है। वह कभी एक क्षण भी देर से नहीं देखने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है, आप प्रति सजग होने से तुम्हारे शरीर की आया है। एक बार तुम ठीक लय में आ क्या देख रहे हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं सुडौलता नष्ट होती है...पुरुषों का जाओ, तो अचानक वह तुममें विस्फोटित है, तो स्मरण रखिए कि जो कुछ भी सुडौलता में अधिक रस हो सकता है। होता है और तुम्हें रूपांतरित कर जाता है। उठता हो उससे तादात्म्य नहीं बनाना है; फिर उनके लिए यह सरल है कि वे पुराना मनुष्य बिदा हुआ और नये मनुष्य प्रश्नों और समस्याओं को इस प्रकार नासापटों के पास होश को ले जाएं जहां का आगमन हुआ। 2 देखा जा सकता है जैसे वे रहस्य हों से श्वास भीतर प्रवेश करती है। भीतर जिनका आनंद लिया जा सके। जाती श्वास को देखो और जब श्वास बैठना बाहर जाए तो उसको देखो। विपस्सना चंक्रमण ये तीन ढंग हैं। कोई भी एक काम देगा। चालीस से साठ मिनट तक बैठने के और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना लिए पर्याप्त रूप से विश्रामपूर्ण और पैरों द्वारा धरती को छूने के बोध पर चाहो, तो दो विधियां एक साथ कर सजग स्थिति खोज लें। पीठ और सिर आधारित यह एक मद्धिम व सामान्य सकते हो; फिर प्रयास और सघन हो सीधे, आंखें बंद तथा श्वास सामान्य पदगति है। जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक होनी चाहिए। जितने स्थिर रह सकें रहें, आप चाहें तो एक वर्तुल में चल साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों स्थिति तभी बदलें जब वह बहुत जरूरी सकते हैं अथवा दस से पंद्रह कदम को एक साथ कर सकते हो। फिर हो। आगे-पीछे सीधे चलते रह सकते संभावनाएं तीव्रतर होंगी। लेकिन यह सब ___ बैठे हुए प्रमुख लक्ष्य है आती-जाती हैं-कमरे के भीतर या कमरे के बाहर। तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें श्वास के कारण नाभि से थोड़ा ऊपर पेट आंखें इस प्रकार झुकी हों कि जमीन पर सरल लगे। के उठने व गिरने को देखना। यह कोई कुछ ही कदम आगे तक दिखाई दे। स्मरण रखो: जो सरल है वही सही है। एकाग्रता की विधि नहीं है, अतः श्वास चलते समय पूरा ध्यान उस संपर्क पर जैसे-जैसे ध्यान थिर और मन शांत को देखते समय बहुत-सी अन्य बातें रहना चाहिए जब दोनों पैर धरती को छूते होगा, अहंकार विलीन हो जाएगा। तुम तो आपके होश को बहका ले जाएंगी। हैं। यदि और चीजें उठती हैं, तो पैरों पर रहोगे, परंतु कोई मैं-भाव नहीं रहेगा। विपस्सना में कुछ भी अवरोध नहीं है, ध्यान देना बंद करें, उस चीज को देखें फिर द्वार खुले हैं। इसलिए जब कुछ और उठे, तो श्वास । जिसने आपका ध्यान अवरुद्ध किया है ___ एक प्रेमपूर्ण अभीप्सा से भर कर, हृदय को देखना रोक दें, और जो भी हो रहा है और फिर पैरों पर लौट आएं। में स्वागत का भाव लिए बस प्रतीक्षा । उस पर तब तक ध्यान दें जब तक कि यह विधि भी बैठने की विधि के करो-उस महान क्षण की किसी भी । श्वास पर वापस लौटना संभव न हो। समान ही है-परंतु देखने का विषय व्यक्ति के जीवन के महानतम क्षण इसमें विचार, भावनाएं, निर्णय, शारीरिक इसमें भिन्न है। आप बीस से तीस मिनट की-बुद्धत्व की। संवेदनाएं और बाह्य जगत के प्रभाव तक चल सकते हैं। 3 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: हे देवी, यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। श्वास के भीतर आने के पश्चात और बाहर लौटने के पूर्व का अंतराल है— मंगल क्षण । जब तुम्हारी श्वास भीतर आए, तो अवलोकन करो। फिर उसके ऊपर उठने के पहले, बाहर की ओर मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए, या क्षण के ध्यान की विधियां श्वासों के बीच के अंतराल को देखना हजारवें अंश के लिए श्वास प्रक्रिया ठहर जाती है। एक श्वास भीतर आती है; फिर एक बिंदु है जहां श्वास ठहर जाती है। फिर श्वास बाहर जाती है। जब श्वास बाहर जा चुकती है तो फिर वहां एक क्षण के लिए, या क्षणांश के लिए ठहर जाती है। फिर श्वास भीतर आती है। श्वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब तुम श्वास नहीं लेते। उसी क्षण में ध्यान की घटना संभव है, क्योंकि जब तुम श्वास नहीं लेते तो संसार में नहीं होते। इसे समझो : जब तुम श्वास नहीं ले रहे तो मृत हो; तुम हो तो, लेकिन मृत। लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि तुम उसे कभी देख नहीं पाते। भीतर आती श्वास एक नया जन्म है; बाहर जाती श्वास मृत्यु है। बाहर जाती श्वास मृत्यु की पर्याय है; भीतर आती श्वास जीवन की । तो हर श्वास के साथ तुम मरते हो और पुनरुज्जीवित होते हो । दोनों के बीच का अंतराल बहुत छोटा है, परंतु तीक्ष्ण तथा निष्ठापूर्ण अवलोकन और सजगता से तुम उस अंतराल को अनुभव कर पाओगे। फिर कुछ और नहीं 76 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास : एक सेतु-ध्यान तक चाहिए। तुम धन्य हुए। तुमने जान लिया; को–उसके मार्ग को देखो। जब श्वास की आत्मोपलब्धि इस विधि पर, इसी घटना घट गई। तुम्हारे नासापुटों को छुए, उसे वहां महसूस विधि पर ही आधारित थी। तुम्हें श्वास को प्रशिक्षित नहीं करना करो। फिर श्वास को भीतर जाने दो। पूरी यदि तुम श्वास के प्रति सजगता, श्वास है। उसे जैसी है वैसी छोड़ दो। इतनी सरल सजगता से उसके साथ बढ़ो। जब श्वास के प्रति बोध का अभ्यास करते रहो, तो विधि क्यों? यह इतनी सरल लगती है। के साथ गहरे और नीचे उतरो, तो श्वास एक दिन गुप-चुप ही तुम अंतराल पर सत्य को जानने के लिए इतनी सरल का साथ मत छोड़ो। न तो उससे आगे पहुंच जाओगे। जैसे-जैसे तुम्हारा बोध विधि? सत्य को जानने का अर्थ है: निकलो, न उससे पीछे पड़ो। उसके तीव्र, गहरा और सघन होगा, जैसे-जैसे उसको जान लेना जो न जन्मता है न मरता बिलकुल साथ-साथ चलो। यह स्मरण तुम्हारा बोध स्पष्ट आकार लेगा-पूरा है, उस शाश्वत तत्व को जान लेना जो रखोः न तो आगे निकलो; न छाया की संसार बाहर छूट जाएगा; भीतर आती या सदा है। तुम्हें बाहर जाती श्वास का बोध भांति उसके पीछे चलो। उसके साथ बाहर जाती श्वास ही तुम्हारा संसार रह हो सकता है, तुम्हें भीतर आती श्वास का युगपत होकर चलो। जाती है, तुम्हारी चेतना का इतना ही बोध हो सकता है, परंतु दोनों के बीच के श्वास और चेतना एक हो जाएं। श्वास कार्यक्षेत्र रह जाता है—अचानक तुम उस अंतराल को तुम कभी नहीं जान पाते। भीतर जाती है, तुम भी भीतर जाओ। तभी अंतराल को अनुभव कर ही लोगे जिसमें यह प्रयोग करो। अचानक सूत्र तुम्हारे उस बिंदु को पकड़ पाना संभव होगा जो कोई श्वास नहीं होती। हाथ लग जाएगा और तुम उसे पा दो श्वासों के मध्य में है। यह सरल नहीं जब तुम सूक्ष्मता से श्वास के साथ गति सकते होः वह पहले से ही मौजूद है। होगा। कर रहे हो, जब कोई श्वास न बचे, तो तुममें या तुम्हारी संरचना में कुछ भी श्वास के साथ भीतर जाओ, फिर तुम बोधरहित कैसे रह सकते हो? जोड़ना नहीं है : वह तो पहले से ही मौजूद श्वास के साथ बाहर आओः अचानक तुम सजग हो जाते हो कि श्वास है। बस एक होश को छोड़कर और भीतर-बाहर, भीतर-बाहर। बुद्ध ने नहीं है, और वह क्षण आएगा जब तुम सबकुछ है। तो कैसे इसे करें? पहले, विशेषकर इस विधि का उपयोग किया, महसूस करोगे कि न तो श्वास बाहर जा भीतर आती श्वास के प्रति सजग हो इसीलिए यह विधि एक बौद्ध विधि बन रही है न भीतर आ रही है। श्वास पूरी तरह जाओ। उसको देखो। बाकी सब भूल गई है। बुद्ध की भाषा में इसे 'अनापानसति ठहर गई है। उस ठहरने में ही मंगल-क्षण जाओः बस भीतर आती श्वास योग' के नाम से जाना जाता है। और बुद्ध घटता है। 4 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां व ने कहाः सांसारिक । कामों में लगे हुए, होश को दो श्वासों के बीच टिकाओ। इस अभ्यास से कुछ ही दिनों में नया जन्म हो जाएगा। तुम जो भी करो, अपने होश को दो श्वासों के बीच के अंतराल पर रखो। लेकिन काम-काज में लगे हुए ही इसे साधना है। हमने ऐसी ही एक अन्य विधि पर चर्चा की है। अब इसमें यह भेद है कि इसे सांसारिक काम-काज में लगे हुए ही साधना है। इसे एकांत में मत साधो। यह बाजार में अंतराल को देखना अभ्यास तभी करना है जब तुम कुछ कार्य मन को भटकाना चाहती है। सक्रियता केंद्र। सतह पर, परिधि पर कार्य करते कर रहे होओ। तुम खा रहे हो ः खाते रहो, फिर-फिर तुम्हारा ध्यान चाहती है। भटको रहो; उसे रोको मत। लेकिन केंद्र पर भी और अंतराल के प्रति सजग रहो। तुम चल मत। अंतराल पर स्थिर रहो, और कृत्य सजगतापूर्वक कार्य करते रहो। उससे रहे हो: चलते रहो, और अंतराल के प्रति को मत रोको; कृत्य को चलने दो। तुम्हारे क्या होगा? तुम्हारा कृत्य एक अभिनय सजग रहो। तुम सोने लगे होः लेट जाओ, अस्तित्व के दो तल हो जाएंगे—करना हो जाएगा जैसे कि तुम किसी नाटक नींद को आने दो। लेकिन अंतराल के प्रति और होना। के पात्र हो। सजग बने रहो। हमारे अस्तित्व के दो तल हैं करने का यदि इस विधि का अभ्यास किया जाए सक्रियता में ही क्यों? क्योंकि सक्रियता जगत और होने का जगत, परिधि और तो तुम्हारा पूरा जीवन एक लंबा नाटक बन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास : एक सेतु-ध्यान तक जाएगा। तुम अभिनय के एक पात्र बन कर ने तुम्हें करने को दिया है। तुम्हें एक होगा; वहां होश का एक अंश मात्र होगा। अभिनय करते रहोगे, परंतु अंतराल में भी अभिनय दिया गया है, तुम उसे खेल रहे संसार तुम्हारे होश के समीप ही कहीं सतत केंद्रित रहोगे। यदि तुम अंतराल को हो; तुमने उससे तादात्म्य बना लिया है। घटता है। तुम उसे महसूस कर सकते हो, भूल जाओ, तो तुम अभिनय नहीं कर रहे; उस तादात्म्य को तोड़ने के लिए, इस विधि तुम्हें उसका बोध हो सकता है, लेकिन तब तुम कर्ता हो गए। फिर यह एक नाटक का उपयोग करो। अब परिधि की घटना महत्वपूर्ण न रही। न रहा। तुमने इसे गलती से जीवन समझ यह विधि इसीलिए है कि तुम स्वयं को वह तो ऐसा है जैसे तुम्हारे साथ घटित ही लिया। हमने यही किया है। हर व्यक्ति एक मनोनाट्य बना लो-मात्र एक खेल न हो रहा। मैं इसे दोहराता हूं: यदि तुम यही समझता है कि वह जीवन जी रहा है। बना लो। तुम दो श्वासों के बीच अंतराल इस विधि को साधते हो तो तुम्हारा पूरा यह जीवन नहीं है। यह तो बस एक पर केंद्रित रहो, और परिधि पर जीवन जीवन ऐसे हो जाएगा जैसे तुम्हारे साथ अभिनय है जो समाज ने, घटनाओं ने, चलता रहे। यदि तुम्हारा पूरा होश केंद्र पर नहीं घट रहा हो-जैसे किसी और के संस्कृति ने, परंपरा ने, देश ने, परिस्थिति है तो फिर मुख्य होश परिधि पर नहीं साथ घट रहा हो। 5 79 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां व ने कहाः ललाट के - मध्य में अस्पृश्य श्वास को, प्राण को टिकाओ। जब निद्रा के क्षण में वह हृदय तक पहुंच जाएगा तब स्वप्न पर और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा। इस विधि को तीन हिस्सों में लो। पहले, तुम श्वास में प्राण को, उसके अस्पृश्य अंश को, अदृश्य अंश को, अभौतिक ऊर्जा को अनुभव करने में स्वप्न पर स्वामित्व सक्षम होओ। यह अनुभूति होती है जब जाती है, तब भी अनुभूति होगी, परंतु कम श्वास तो एक से ही वाहन हैं, परंतु भीतर तुम्हारा होश दोनों भौहों के मध्य स्थित सरलता से। श्वास के अदृश्य अंश को आती श्वास प्राण से भरी होती है और होता है। फिर वह अनुभूति सरलता से हो जान लेने की सरलतम अवस्था है तृतीय बाहर जाती श्वास रिक्त होती है: तुमने जाती है। यदि तुम अंतराल के प्रति सजग नेत्र पर केंद्रित हो जाना। लेकिन तम कहीं प्राणों को पी लिया, और श्वास रिक्त होओ, तब भी वह अनुभूति होती है, भी केंद्रित हो जाओ, तो वह अनुभूति होती हो गई। लेकिन थोड़ी कम सरलता से। यदि तुम है। तुम प्राण को भीतर की ओर बहता यह सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है : “ललाट नाभिकेंद्र के प्रति सजग हो जाओ जहां महसूस करने लगते हो। के मध्य में अस्पृश्य श्वास को, प्राण को आकर श्वास छूती है और बाहर लौट भीतर आती श्वास और बाहर जाती टिकाओ। जब निद्रा के क्षण में वह हृदय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास : एक सेतु-ध्यान तक तक पहुंच जाएगा तब स्वप्न पर और स्वयं तृतीय नेत्र पर केंद्रित होने के कारण ही उसे रोक सकते हो, न ही निर्मित कर मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।" जब तुम्हें तुम स्वप्नों को यथार्थ मानने लगते हो; तुम सकते हो। नींद आने लगे तो उस विधि का अभ्यास यह महसूस ही नहीं कर सकते कि वे परंतु यदि तुम इस स्मरण के साथ करना है-केवल तभी करना है, किसी स्वप्न हैं। वे यथार्थ हो जाते हैं। सुबह जब सोओ कि हृदय प्राण से भर रहा है, हर अन्य समय पर नहीं। जब तुम्हें नींद आने तुम जागोगो तभी तुम्हें पता चलेगा कि “मैं श्वास के साथ प्राण उसे छू जाते हैं, तो तुम लगे, तभी। वही क्षण इस विधि के स्वप्न देख रहा था।" लेकिन यह अनुभूति अपने स्वप्नों के स्वामी हो जाओगे-और अभ्यास के लिए उचित है। तुम नींद में और निष्पत्ति बाद की है। स्वप्न में तुम नहीं यह स्वामित्व अपूर्व है। फिर तुम जो स्वप्न उतर रहे हो। धीरे-धीरे नींद तुम पर जान सकते कि तुम स्वप्न देख रहे हो। चाहो देख सकते हो। बस सोते समय आविष्ट हो रही है। कुछ ही क्षणों में, यदि तुम यह जान लो, तो दो तल हो गए। इतना खयाल रखो कि "मुझे यह स्वप्न तुम्हारी चेतना विलीन हो जाएगी; तुम स्वप्न तो चल रहा है, परंतु तुम जागे हुए देखना है," और तुम्हें वही स्वप्न आएगा। जाग्रत न रह जाओगे। इससे पहले कि वह हो, सजग हो। जो व्यक्ति स्वप्न में भी सोते समय बस इतना ही कहो कि, "मुझे क्षण आए, सजग हो जाओ-श्वास और जाग जाता है उसके लिए यह सूत्र अदभुत फलां स्वप्न नहीं देखना है," और वह उसके अदृश्य अंश, प्राण, के प्रति सजग है। यह कहता है, “तब स्वप्न पर और स्वप्न तुम्हारे मन में प्रवेश नहीं कर हो जाओ, और उसे हृदय तक आता हुआ स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।" सकता। महसूस करो। यदि तुम स्वप्नों के प्रति सजग हो सको, लेकिन स्वप्न-प्रक्रिया के स्वामी हो - यदि यह हो जाए–कि तुम अदृश्य तो तुम स्वप्न निर्मित भी कर सकते हो। जाने का क्या उपयोग है? क्या यह व्यर्थ श्वास को हृदय में आता महसूस कर रहे साधारणतया तुम स्वप्न निर्मित नहीं कर नहीं है ? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है। एक बार हो और नींद तुम पर आविष्ट हो सकते। मनुष्य कितना नपुंसक है! तुम तुम अपने स्वप्नों के स्वामी हो जाओ तो जाए–तो तुम स्वप्न में भी सजग रहोगे। स्वप्न तक निर्मित नहीं कर सकते। तुम फिर तुम्हें कभी कोई स्वप्न नहीं आएगा। तुम्हें इसका बोध होगा कि तुम स्वप्न देख स्वप्न निर्मित ही नहीं कर सकते! यदि तुम वह व्यर्थ हो जाता है। जब तुम अपने रहे हो। साधारणतया हम नहीं जानते कि किसी विशेष चीज का स्वप्न देखना चाहो, स्वप्नों के स्वामी हो जाते हो तो हम स्वप्न देख रहे हैं। जब तुम स्वप्न तो नहीं देख सकते; यह तुम्हारे हाथों में स्वप्न-प्रक्रिया रुक जाती है। अब उसका देखते हो तब तुम सोचते हो कि यह यथार्थ नहीं है। मनुष्य कितना शक्तिविहीन है! कोई उपयोग न रहा। और जब है। वह भी तृतीय नेत्र के कारण ही होता स्वप्न तक निर्मित नहीं किए जा सकते। स्वप्न-प्रक्रिया रुक जाती है तब तुम्हारी है। तुमने किसी सोए हुए व्यक्ति को तुम तो बस स्वप्नों के एक शिकार हो, नींद का एक बिलकुल ही अलग गुणधर्म देखा? उसकी आंखें ऊपर चढ़ जाती हैं उनके निर्माता नहीं। स्वप्न तुम पर घटता होता है, और उसका गुणधर्म वही हो जाता और तृतीय नेत्र पर केंद्रित हो जाती हैं। है; तुम कुछ भी नहीं कर सकते। न ही तुम है जो मृत्यु का है। 6 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां तंजलि कहते हैं: बारी-बारी से श्वास बाहर निकालने और रोकने द्वारा भी मन शांत होता है। जब कभी तुम अनुभव करते हो कि मन शांत नहीं, वह तनावपूर्ण है, चिंतित है, शोर से भरा है, निरंतर सपने देख रहा है, तो एक काम करना-पहले गहरी श्वास छोड़ना। सदा प्रारंभ करना श्वास छोड़ने द्वारा ही। जितना हो सके उतनी गहराई से मनोदशाओं को बाहर फेंकना कुछ है। श्वास छोड़ना; वायु बाहर फेंक देना। वायु जितना तुमसे हो सके। फिर दोबारा ठहर तक। लेकिन श्वास पूर्णतया बाहर फेंक बाहर फेंकने के साथ ही मनोदशा भी बाहर जाना कुछ सैकेंड के लिए। यह अंतराल देना होता है। समग्रता से श्वास छोड़ो और फेंक दी जाएगी, क्योंकि श्वसन ही सब उतना ही होना चाहिए जितना श्वास छोड़ने समग्रता से श्वास लो, और एक लय बना के बाद तुम बनाए रखते हो। यदि तुम लो। श्वास खींचने के बाद रुके रहना; जितना संभव हो श्वास को बाहर श्वास छोड़ने के बाद तीन सैकेंड के लिए श्वास छोड़ने के बाद रुके रहना। तुरंत तुम निकाल देना। पेट को भीतर खींचना और रुकते हो, तो श्वास को भीतर लेकर भी अनुभव करोगे कि एक परिवर्तन तुम्हारे उसी तरह बने रहना कुछ सैकेंड के लिए, तीन सैकेंड के लिए रुको। श्वास बाहर सम्पूर्ण अस्तित्व में उतर रहा है। वह श्वास मत लेना। फिर शरीर को श्वास फेंको और रुके रहो तीन सैकेंड तक; मनोदशा जा चुकी होगी। एक नई लेने देना। गहराई से श्वास भीतर लेना, श्वास भीतर लो और रुके रहो तीन सैकेंड आबोहवा तुममें प्रवेश कर चुकी होगी।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना हृदय को खोलना हुए हैं। दय सत्य का द्वाररहित द्वार है। बुद्धि से हृदय पर लौट आओ । हृ हमारी समस्या है, एकमात्र यही समस्या है। और इसका एक ही समाधान है : बुद्धि से हृदय पर उतर आओ, और सभी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। वे बुद्धि से ही निर्मित होती हैं। और अचानक सब कुछ इतना स्पष्ट और इतना पारदर्शी हो उठता है कि व्यक्ति चकित रह जाता है कि कैसे वह लगातार समस्याएं आविष्कृत करता जा रहा था । रहस्य तो बने रहते हैं परंतु समस्याएं विलीन हो जाती हैं। रहस्य तो भरपूर रहते हैं, परंतु समस्याएं वाष्पीभूत हो जाती हैं। और रहस्य सुंदर हैं। उन्हें सुलझाना नहीं है। उन्हें जीना है ।। . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना "हला सूत्रः सिरविहीन होने का प्रयास करो। स्वयं के सिरविहीन होने की कल्पना करो; सिरविहीन होकर ही चलो। सुनने में यह अजीब लगता है, परंतु यह बहुत ही महत्वपूर्ण साधनाओं में से एक है। इसका प्रयोग करो, तब तुम जानोगे। चलो, और यह अनुभव करो जैसे कि तुम्हारा कोई सिर नहीं है। प्रारंभ में तो यह 'जैसे कि' ही होगा। यह बहुत अटपटा लगेगा। जब तुम्हें यह महसूस बुद्धि से हृदय की ओर होगा कि तुम्हारा सिर ही नहीं है, तो बड़ा एक भिन्न मार्ग चुन लेती है-वह कानों से बहती है। अंधा व्यक्ति आंखों वाले किसी अटपटा और अजीब लगेगा। लेकिन बहने लगती है। __ भी व्यक्ति से अधिक संवेदनशील होता धीरे-धीरे तुम हृदय में स्थित हो जाओगे। अंधे लोगों में स्पर्श के प्रति ज्यादा गहरी है। कभी-कभी हो सकता है कि ऐसा न एक नियम है। शायद तुमने देखा हो, संवेदनशीलता होती है। यदि कोई अंधा भी हो, परंतु सामान्य रूप से ऐसा ही होता जो व्यक्ति अंधा है उसके कान अधिक व्यक्ति तुम्हें छुए, तो तुम्हें अंतर पता है। यदि एक केंद्र न हो तो ऊर्जा दूसरे केंद्र तत्पर, अधिक संगीतमय होते हैं। अंधे चलेगा, क्योंकि सामान्यतः छूने का से बहने लगती है। व्यक्ति अधिक संगीतमय होते हैं; संगीत बहुत-सा कार्य हम आंखों से ही कर लेते तो इस प्रयोग को-सिरविहीन होने के के लिए उनकी अनुभूति गहनतर होती है। हैं: हम एक-दूसरे को आंखों से छू रहे हैं। प्रयोग को-करके देखो जो मैं बता रहा क्यों? जो ऊर्जा सामान्यतः आंखों से बहती एक अंधा व्यक्ति आंखों से नहीं छू हूं, और अचानक तुम एक अदभुत बात है, अब उनसे तो बह नहीं सकती, तो वह सकता, तो ऊर्जा उसके हाथों से होकर अनुभव करोगेः ऐसा होगा जैसे पहली Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां बार तुम हृदय पर आए। सिरविहीन होकर द्वीपों की तरह कहीं-कहीं मिल जाते हैं। अंतरंग प्रसंग बन जाता है। जब वह घर से चलो। ध्यान के लिए बैठो, अपनी आंखें भौगोलिक रूप से पूरब समाप्त हो गया बाहर निकलता है, तो अपने हृदय से भी बंद करो और बस यही अनुभव करो कि है। अब तो पूरा विश्व ही पाश्चात्य है। बाहर निकल जाता है। संसार में वह बुद्धि सिर नहीं है। महसूस करो, “मेरा सिर सिरविहीन होने का प्रयास करो। अपने से जीता है और हृदय पर तभी उतरता है विलीन हो गया है।" प्रारंभ में तो यह 'जैसे स्नानगृह में दर्पण के सामने खड़े होकर जब प्रेम कर रहा होता है। लेकिन यह कि' ही होगा, परंतु धीरे-धीरे तुम्हें लगेगा ___ ध्यान करो। अपनी आंखों में गहरे झांको बहुत कठिन है। यह बहुत ही कंठिन है, कि सिर सच में ही विलीन हो गया है। और महसूस करो कि तुम हृदय से देख रहे और साधारणतः ऐसा होता ही नहीं। और जब तुम्हें लगेगा कि सिर विलीन हो हो। धीरे-धीरे हृदय-केंद्र सक्रिय हो कलकत्ता में मैं एक मित्र के घर ठहरा गया है, तो तुम्हारा केंद्र हृदय पर आ जाएगा। और जब हृदय सक्रिय हो जाता हुआ था, और वह मित्र हाइकोर्ट के एक जाएगा-तत्क्षण! तुम संसार को हृदय से है, तो तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व, पूरी संरचना, जज थे। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा, "बस देखोगे, बुद्धि से नहीं। पूरे तौर-तरीके को बदल डालता है, एक ही समस्या मैं आपको कहना चाहती - जब पहली बार पश्चिम के लोग जापान क्योंकि हृदय का अपना अलग मार्ग है। हूं। क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?" पहुंचे, तो वे विश्वास नहीं कर पाए कि तो पहली बातः सिरविहीन होने का तो मैंने पूछा, “समस्या क्या है?" जापानी लोग पारंपरिक रूप में सदियों से प्रयास करो। दूसरे, अधिक प्रेमपूर्ण होओ, वह बोली, “मेरे पति आपके मित्र हैं। वे यह सोचते रहे हैं कि वे पेट से सोचते हैं। क्योंकि प्रेम बुद्धि से नहीं हो सकता। आपको प्रेम करते हैं, और आपका आदर यदि तुम किसी जापानी बच्चे से अधिक प्रेमपूर्ण हो जाओ! यही कारण है, करते हैं, यदि आप उनसे कुछ कहें तो पूछो-यदि वह पाश्चात्य ढंग से शिक्षित जब कोई प्रेम में होता है, उसकी बुद्धि छूट शायद कुछ लाभ हो।" नहीं हुआ है कि "तुम्हारा सोच-विचार जाती है। लोग कहते हैं कि वह पागल हो तो मैंने पूछा, “क्या कहना है? मुझे कहां होता है?" तो वह अपने पेट की ओर गया है। यदि तुम प्रेम में पड़ो और पागल बताओ।" । इशारा करेगा। न हो जाओ, तो तुम वास्तव में प्रेम में नहीं वह बोली, “वे बिस्तर में भी हाइकोर्ट के सदियां और सदियां बीत गई हैं, और हो। बुद्धि तो खोनी ही होगी। यदि बुद्धि जज बने रहते हैं। मुझे तो किसी प्रेमी, जापान सिर के बिना जीता रहा है। यह अप्रभावित रहे, और यथावत कार्य करती किसी मित्र, किसी पति का कभी अनुभव मात्र एक धारणा है। यदि मैं तुमसे पूछं, रहे, तो प्रेम संभव नहीं है, क्योंकि प्रेम के ही नहीं हुआ। वे दिन में चौबीस घंटे "तुम्हारा सोच-विचार कहां चल रहा है?" लिए तो हृदय के सक्रिय होने की जरूरत हाइकोर्ट के जज बने रहते हैं। तो तुम सिर की ओर इशारा करोगे, लेकिन है-बुद्धि की नहीं। वह हृदय का कार्य यह कठिन हैः अपने ऊंचे स्थान से जापानी व्यक्ति पेट की ओर इशारा करेगा, है। नीचे उतर आना कठिन है। वह एक जड़ सिर की ओर नहीं-यह भी एक कारण है ऐसा होता है, जब कोई बहुत बौद्धिक दृष्टिकोण बन जाता है। यदि तुम एक कि जापानी मन इतना स्थिर, शांत और व्यक्ति प्रेम में पड़ता है, तब वह बुद्ध हो व्यापारी हो, तो बिस्तर में भी व्यापारी ही निश्चल है। जाता है। उसे स्वयं ही लगता है कि वह बने रहोगे। भीतर दो व्यक्तियों को एक अब वह भी भंग हो गया है क्योंकि क्या बेवकूफी, क्या मूढ़ता कर रहा है। वह साथ रख पाना कठिन है, और यह सरल पश्चिम हर चीज पर फैल गया है। अब कर क्या रहा है! फिर वह अपने जीवन के नहीं है कि अपने तौर-तरीके तुम जब पूरब कहीं है ही नहीं। पूरब तो अब कुछ दो हिस्से बना लेता है; वह एक विभाजन चाहो, तत्क्षण पूरी तरह बदल डालो। यह ही इक्का-दुक्का लोगों में बच रहा है जो खड़ा कर लेता है। हृदय एक मौन और कठिन है, लेकिन यदि तुम प्रेम में हो तो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना बुद्धि से नीचे उतरना ही पड़ेगा। दृष्टिकोण निर्मित कर रहे हैं। जितने ही ऐक्य नहीं: बस अणु और अणु और तो इस ध्यान के लिए अधिकाधिक तुम्हारे संबंध प्रेम पर आधारित होंगे, उतना अणु। हृदय एकता का अनुभव देता है। प्रेमपूर्ण होने का प्रयास करो। और जब ही तुम्हारा हृदय केंद्र सक्रिय होगा। वह जोड़ता जाता है और परम संश्लेषण मैं कहता हूं अधिक प्रेमपूर्ण हो जाओ, तो वह कार्य करने लगेगा, तुम संसार को होता है परमात्मा। यदि तुम हृदय से देख मेरा अर्थ है-अपने संबंध की गुणवत्ता भिन्न आंखों से देखोगेः क्योंकि हृदय के सको, तो पूरा ब्रह्मांड एक ही नजर आता बदल डालोः उसे प्रेम पर आधारित होने पास संसार को देखने का अपना अलग है। वह एकता ही परमात्मा है। दो। न केवल अपनी पत्नी के या बच्चे ढंग है। मन उस प्रकार कभी भी नहीं देख यही कारण है कि विज्ञान कभी भी के या मित्र के प्रति वरन जीवन मात्र के सकता : मन के लिए यह असंभव ही है। परमात्मा को नहीं खोज सकता। यह प्रति प्रेमपूर्ण हो जाओ। इसीलिए तो बुद्ध मन तो केवल विश्लेषण कर सकता है। असंभव है, क्योंकि विज्ञान जिस विधि का और महावीर अहिंसा पर बोलेः जीवन हृदय संश्लेषण करता है; मन केवल उपयोग करता है वह परम ऐक्य तक नहीं के प्रति एक प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण पैदा विभक्त और विभाजित कर सकता है। पहुंच सकता। विज्ञान की विधि है तर्क, करने के लिए। मन एक विभाजक है। केवल हृदय ही विश्लेषण, विभाजन। तो विज्ञान अणुओं, जब महावीर चलते हैं, कदम रखते हैं, संयुक्त करता है। परमाणुओं और इलेक्ट्रॉन तक पहुंच जाता तो इतने सजग रहते हैं कि एक चींटी भी न जब तुम हृदय से देखते हो तो पूरा है, और वे भी विभाजित होते चले जाएंगे। मर जाए। क्यों? वास्तव में, चींटी का ब्रह्मांड एक संयुक्त इकाई की भांति दिखाई वे कभी भी समग्रता की जीवंत इकाई तक प्रश्न नहीं है। महावीर बुद्धि से हृदय पर पड़ता है। जब तुम मन से देखते हो तो नहीं पहुंच पाएंगे। समग्र को बुद्धि से देख उतर रहे हैं, जीवन मात्र के प्रति प्रेमपूर्ण सारा संसार आणविक हो जाता है। कोई पाना असंभव है। 2 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 27च्छा हो कि यह प्रार्थना रात में जकरो। कमरे में अंधेरा कर लो और उसके तुरंत बाद सो जाओ। या सुबह भी इसे किया जा सकता है, परंतु उसके बाद पंद्रह मिनट का विश्राम जरूर करना चाहिए। वह विश्राम अनिवार्य है, अन्यथा तुम्हें लगेगा कि तुम नशे में हो, तंद्रा में हो। ऊर्जा में यह निमज्जन ही प्रार्थना है। यह प्रार्थना तुम्हें बदल डालती है। और जब तुम बदलते हो, तो पूरा अस्तित्व भी बदल जाता है। प्रार्थना ध्यान दोनों हाथ ऊपर की ओर उठा लो, अब पृथ्वी के साथ प्रवाहित होने का की ऊर्जा से मिलन हो सके। हथेलियां खुली हुई हों और सिर सीधा उठा अनुभव करो। पृथ्वी और स्वर्ग, ऊपर और इन दोनों चरणों को छह बार और हुआ रहे। अनुभव करो कि अस्तित्व तुममें नीचे, यिन और यांग, पुरुष और दोहराओ ताकि सभी चक्र खुल सकें। इन्हें प्रवाहित हो रहा है। स्त्री-तुम बहो, तुम घुलो, तुम स्वयं को अधिक बार किया जा सकता है, लेकिन जैसे ही ऊर्जा तुम्हारी बाहों से होकर पूरी तरह छोड़ दो। तुम नहीं हो। तुम एक कम करोगे तो बेचैन अनुभव करोगे और नीचे बहेगी, तुम्हें हलके-हलके कंपन का हो जाओ, निमज्जित हो जाओ। सो नहीं पाओगे। अनुभव होगा-तुम हवा में कंपते हुए पत्ते दो या तीन मिनट बाद, या जब भी तुम प्रार्थना की उस भावदशा में ही सोओ। की भांति हो जाओ। उस कंपन को होने पूरी तरह भरे हुए अनुभव करो, तब तुम बस सो जाओ और ऊर्जा बनी रहेगी। नींद दो, उसका सहयोग करो। फिर पूरे शरीर धरती की ओर झुक जाओ और हथेलियों में उतरते-उतरते भी तुम उस ऊर्जा के साथ को ऊर्जा से स्पंदित हो जाने दो, और जो और माथे से उसे स्पर्श करो। तुम तो बस बहते रहोगे। यह गहन रूप से सहयोगी होता हो उसे होने दो। वाहन बन जाओ कि दिव्य ऊर्जा का पृथ्वी होगा क्योंकि फिर ऊर्जा तुम्हें सारी रात घेरे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना रहेगी और भीतर कार्य करती रहेगी। सुबह तुमने पहले कभी भी अनुभव नहीं किया होते-होते तुम इतने ज्यादा ताजे, इतने था। एक नई सजीवता, एक नया जीवन ज्यादा प्राणवान अनुभव करोगे, जितना तुममें प्रवेश करने लगेगा, और पूरे दिन तुम एक नई ऊर्जा से भरे अनुभव करोगे; एक नई तरंग होगी, हृदय में एक नया गीत और पैरों में एक नया नृत्य होगा। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां गव ने कहाः किसी । आरामदेह मुद्रा में दोनों कांखों के मध्यक्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे परिव्याप्त हो जाओ-और फिर गहन शांति। यह एक अत्यंत सरल विधि है परंतु चमत्कारिक ढंग से कार्य करती है-इसे करके देखो। और कोई भी इसे कर सकता। है, इसमें कोई खतरा नहीं है। किसी आरामदेह स्थिति में पहली बात यह है शांत हृदय कि किसी विश्रामपूर्ण मुद्रा में आ किसी भी ऐसी शारीरिक स्थिति से शुरू है तो एक काम करो उसे और तनावयुक्त जाओ-सहज, जो भी तुम्हारे लिए सहज कर दो जो तुम्हारे लिए सरल हो। उसके कर दो। यदि तुम्हें लगे कि पैर में, दाएं पैर हो। तो किसी विशेष मुद्रा या आसन में लिए संघर्ष मत करो। तुम किसी में तनाव है तो तनाव को जितना हो सके बैठने का प्रयास मत करो। बुद्ध एक आरामकुर्सी पर बैठकर विश्राम कर सकते ज्यादा सघन कर लो। उसे शिखर पर ले निश्चित मुद्रा में बैठते हैं। वह उनके लिए हो। बस इतना ही हो कि तुम्हारा शरीर जाओ और फिर अचानक ढीला छोड़ दो सहज है। वह तुम्हारे लिए भी सरल हो विश्रांत अवस्था में रहे। ताकि तुम महसूस कर सको कि कैसे वहां सकती है यदि कुछ समय तुम उसका अब अपनी आंखें बंद कर लो और पूरे विश्राम उतरता है। फिर पूरे शरीर में खोजो अभ्यास कर लो, लेकिन शुरू में वह शरीर को अनुभव करो। पैरों से शुरू करो। कि कहीं तनाव तो नहीं है। जहां भी तुम्हें तुम्हारे लिए सरल न होगी। और उसका महसूस करो कि कहीं उनमें कोई तनाव तो लगे कि तनाव है, वहां और ज्यादा तनाव अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है: नहीं है। यदि तुम्हें लगे कि कहीं कोई तनाव डालो, क्योंकि जब तनाव सघन होता है, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना तब उसे शिथिल करना सरल होता है। उस पर बहुत तूल मत दो। बस अनुभव रही है। हृदय शांति को विकीर्ण करता है। बीच की अवस्था में विश्रांत होना बहुत करो कि शरीर शिथिल हो गया है, फिर तभी तो संसार भर में सभी लोगों कठिन होता है क्योंकि तुम उसे महसूस ही शरीर को भूल जाओ। क्योंकि वास्तव में ने-चाहे वे किसी वंश, धर्म, देश के हों, नहीं कर पाते। शरीर को स्मरण रखना भी एक प्रकार का सुसंस्कृत हों कि असंस्कृत हों, किसी एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत तनाव है। इसीलिए मैं कहता हूं कि उसको जाति के हों-यही अनुभव किया है कि सरल होता है क्योंकि एक अति ही दूसरी बहुत तूल मत दो। शरीर को शिथिल करो प्रेम कहीं हृदय के पास से उठता है। अति पर जाने के लिए परिस्थिति पैदा और उसको भूल जाओ। उसको भूल जाना विज्ञान की ओर से इसका कोई स्पष्टीकरण करती है। तो यदि तुम्हें चेहरे में कोई तनाव ही विश्राम है, क्योंकि जब भी तुम किसी नहीं है। महसूस हो तो चेहरे की मांसपेशियों को अंग का बहुत स्मरण करते हो, तो वह तो जब भी तुम प्रेम के विषय में सोचते जितना खींच सको खींचो, तनाव पैदा करो स्मरण मात्र ही शरीर में तनाव ले आता है। हो, तुम्हें हृदय का खयाल आता है। और उसे एक शिखर पर ले आओ। उसे फिर अपनी आंखें बंद कर लो और वास्तव में, जब भी तुम प्रेम में होते हो तो ऐसे बिंदु पर ले आओ जहां तुम्हें लगे कि दोनों कांखों के मध्य में, हृदय क्षेत्र को, तुम विश्रामपूर्ण होते हो, और क्योंकि तुम अब और तनाव संभव ही नहीं है—फिर वक्षस्थल को अनुभव करो। पहले उसे विश्रामपूर्ण होते हो इसलिए एक निश्चित अचानक ढीला छोड़ दो। तो देख लो कि अनुभव करोः ठीक दोनों कांखों के मध्य शांति से भर जाते हो। और वह शांति हृदय शरीर के सभी हिस्से, सभी अंग विश्रांत हो में अपना पूरा होश, अपनी पूरी सजगता से उठती है। इसीलिए शांति और प्रेम गए हैं। ले आओ। पूरे शरीर को भूल जाओ, बस आपस में जुड़ गए हैं, संबद्ध हो गए हैं। चेहरे की मांसपेशियों पर विशेष ध्यान दो कांखों के बीच हृदय क्षेत्र को अनुभव जब भी तुम प्रेम में होते हो तो शांत होते दो, क्योंकि वे तुम्हारे नब्बे प्रतिशत तनावों करो, और उसे अपार शांति से भरा हुआ हो; और जब प्रेम में नहीं होते तो अशांत को ढोती हैं-बाकी शरीर में दस प्रतिशत महसूस करो। होते हो। शांति के कारण हृदय प्रेम से तनाव ही हैं, क्योंकि सब तनाव तुम्हारे जिस क्षण शरीर शिथिल होता है, शांति संबद्ध हो गया है। मस्तिष्क में ही हैं इसलिए तुम्हारा चेहरा स्वतः ही तुम्हारे हृदय में घटित हो जाती है। तो तुम दो काम कर सकते होः या तो उनका भंडारघर बन जाता है। तो अपने हृदय शांत, शिथिल, लयबद्ध हो जाता है। प्रेम की खोज करो, तब तुम कभी-कभी चेहरे को जितना हो सके खींचो, इसमें और जब तुम पूरे शरीर को भूल कर अपना शांति का अनुभव करोगे। लेकिन मार्ग शरमाओ मत। उसे पूरी तरह संतापयुक्त, पूरा होश बस वक्षस्थल पर ही ले आते हो खतरनाक है, क्योंकि वह दूसरा व्यक्ति विषादग्रस्त कर लो और फिर अचानक और उसे शांति से भरा हुआ महसूस करते जिसे तुम प्रेम करते हो वह तुमसे अधिक ढीला छोड़ दो। पांच मिनट यह करो ताकि हो तो तत्क्षण अपार शांति घटित होगी। महत्वपूर्ण हो गया। दूसरा तो दूसरा ही है, तुम महसूस कर सको कि अब पूरा शरीर, शरीर में दो क्षेत्र हैं, दो ऐसे निश्चित और अब तुम एक प्रकार से आश्रित हो रहे प्रत्येक अंग विश्रांत हो गया है। केंद्र हैं जहां सजग रूप से निश्चित हो। तो प्रेम तुम्हें कभी-कभी तो शांति तुम इसे बिस्तर पर लेटे-लेटे भी कर भावदशाएं निर्मित की जा सकती हैं। दो देगा, परंतु हमेशा नहीं। बहुत से उपद्रव सकते हो, और बैठ कर भी-जैसा भी कांखों के बीच में हृदय का केंद्र है, और होंगे, दुख और विषाद के बहुत से क्षण तुम्हें लगे कि तुम्हारे लिए सरल है। हृदय का केंद्र उस सारी शांति का स्रोत है होंगे, क्योंकि दूसरा प्रवेश कर गया और दूसरी बातः जब तुम्हें लगे कि शरीर जो तुम्हें घटती है-जब भी घटे। जब भी जहां भी दूसरा प्रवेश कर जाता है वहां कुछ किसी सहज मुद्रा में आ गया है, तो फिर तुम शांत होते हो, वह शांति हृदय से आ उपद्रव तो होंगे ही क्योंकि दूसरे से तुम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिधि पर ही मिल सकते हो, और परिधि अशांत ही होगी। कभी-कभार ही — बिना संघर्ष के जब तुम दोनों गहन प्रेम में होओगे - तो कभी-कभार ही तुम विश्रांत होओगे और हृदय शांति से दीप्तिमान होगा। तो प्रेम तुम्हें शांति की कुछ झलकें ही दे सकता है लेकिन शांति में स्थापित नहीं कर सकता, जड़ें नहीं दे सकता। उससे कोई शाश्वत शांति संभव नहीं है, झलकें ही संभव हैं। और शांति की दो झलकों के बीच संघर्ष, हिंसा, घृणा और क्रोध की गहरी खाइयां होंगी। दूसरा उपाय है प्रेम के माध्यम से शांति को खोजने की अपेक्षा शांति को सीधे ही खोजना। यदि तुम शांति को सीधे ही खोज सको — और उसी के लिए यह विधि है - तो तुम्हारा जीवन प्रेम से भर जाएगा। लेकिन अब प्रेम की गुणवत्ता भिन्न होगी। वह कब्जा नहीं जमाएगा; वह किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होगा । वह किसी पर आश्रित नहीं होगा, और न ही किसी को स्वयं पर आश्रित करेगा। तुम्हारा प्रेम बस एक प्रेमभाव, एक करुणा, एक गहन समानुभूति बन जाएगा। और अब कोई भी, कोई प्रेमी भी तुम्हें अशांत नहीं कर सकता, क्योंकि तुम्हारी शांति जड़ें ले चुकी है और तुम्हारा प्रेम तुम्हारी अंतस शांति की छाया की भांति आएगा। पूरी बात उलट गई : बुद्ध भी प्रेम करते हैं लेकिन उनका प्रेम कोई व्यथा नहीं है। तुम यदि प्रेम करो तो दुख झेलोगे, प्रेम न करो तो दुख झेलोगे। तुम प्रेम न करो तो ध्यान की विधियां उसकी अनुपस्थिति से पीड़ित होओगे; और प्रेम करो तो प्रेम की उपस्थिति से पीड़ित होओगे। तुम परिधि पर जी रहे हो और जो भी करोगे वह तुम्हें क्षणिक संतुष्टि ही दे सकता है, फिर अंधेरी खाइयां आ जाएंगी। हृदय स्वाभाविक रूप से शांति का स्रोत है, तो वहां तुम कुछ निर्मित नहीं कर रहे हो। तुम तो ऐसे स्रोत पर पहुंच रहे हो जो सदा से ही मौजूद है। और यह कल्पना तुम्हारा यह बोध जगाने में ही सहायक होगी कि हृदय शांति से भरा हुआ है, ऐसा नहीं कि यह कल्पना ही शांति पैदा करेगी। तंत्र और पाश्चात्य सम्मोहन के दृष्टिकोण में यही भेद है : सम्मोहनविद सोचता है कि कल्पना से तुम कुछ पैदा कर रहे हो; तंत्र का मानना है कि तुम कुछ पैदा नहीं कर रहे हो— कल्पना के द्वारा तुम बस उससे जुड़ रहे हो जो पहले से ही मौजूद है। कल्पना से तुम जो भी पैदा कर सको वह स्थायी नहीं हो सकता। यदि वह वास्तविकता नहीं है तो झूठा हुआ, अवास्तविक हुआ— और तुम एक भ्रम पैदा कर रहे हो । इसे करके देखो: जब भी तुम दोनों कांखों के बीच अपने हृदय केंद्र में शांति को परिव्याप्त होता महसूस कर पाओगे, तो संसार तुम्हें माया लगेगा। जब संसार माया लगे, तो यह संकेत है कि तुम ध्यान में प्रवेश कर गए। ऐसा सोचो मत कि जगत माया है; सोचने की कोई जरूरत नहीं है— तुम अनुभव करोगे। अचानक तुम्हारे मन में यह भाव उठेगा कि “संसार को हो क्या गया है?" संसार अचानक स्वप्निल, स्वप्नवत हो गया। संसार है तो अभी भी, परंतु, बिना किसी सारतत्व के—जैसे परदे पर फिल्म चलती है। वह कितना वास्तविक लगता है! वह त्रि-आयामी भी हो सकता है— परंतु दिखता ऐसे है जैसे प्रक्षेपित हो । ऐसा नहीं कि जगत कोई प्रक्षेपित वस्तु है, ऐसा नहीं कि संसार अवास्तविक है— नहीं । संसार वास्तविक है परंतु तुम दूरी कर लेते हो, और दूरी बड़ी से बड़ी होती जाती है। और दूरी बढ़ रही है या नहीं, यह तुम इससे जान सकते हो कि जगत के प्रति अब तुम कैसा अनुभव करते हो। यही कसौटी है । यह सत्य नहीं है कि संसार अवास्तविक है- यह तो ध्यान की कसौटी है । यदि संसार अवास्तविक हो गया, तो तुम स्वसत्ता में केंद्रित हो गए हो। अब परिधि और तुम इतनी दूर-दूर हो गए हो कि तुम परिधि की ओर इस प्रकार देख सकते हो जैसे वह कोई भिन्न विषय हो, तुमसे अन्यथा हो। तुम उससे एकरूप नहीं हो। यह विधि बहुत सरल है और तुम इसका अभ्यास करो तो बहुत समय नहीं लेगी। इस विधि के साथ तो कई बार ऐसा भी होता है कि पहले ही प्रयास में तुम्हें इसके सौंदर्य और चमत्कार की अनुभूति होगी । तो इसे करके देखो। लेकिन पहले ही प्रयास में यदि तुम कुछ अनुभव नहीं कर पा रहे तो हताश मत होओ। प्रतीक्षा करो, और प्रयोग जारी रखो। और यह उतना सरल है कि तुम किसी भी समय कर सकते हो। रात बिस्तर में लेटे-लेटे ही तुम 92 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना इसे कर सकते हो; सुबह जैसे ही तुम्हें लगे स्वयं ही उसमें गहरे चले जाओगे। और हर संबंध में तुम कुछ योगदान देते हो। कि तुम जाग गए तो भी इसे कर सकते हो। सुबह अत्यंत सुंदर अनुभव होता है क्योंकि यदि तुम्हारा योगदान न हो, तो लोग पहले यह प्रयोग करो और फिर उठो, दस तुम ताजे और युवा हो गए और केंद्र से अलग ढंग से व्यवहार करते हैं क्योंकि मिनट भी पर्याप्त होंगे-या रात सोने से परिधि पर लौटती हुई पूरी ऊर्जा स्पंदित हो उन्हें लगता है कि तुम एक भिन्न व्यक्ति पहले दस मिनट कर लो। संसार को रही है। हो। शायद उन्हें इसका बोध भी न हो। अवास्तविक कर लो, और तुम्हारी नींद जिस क्षण तुम्हें बोध हो कि नींद समाप्त लेकिन जब तुम शांति से भर जाते हो तो इतनी गहरी हो जाएगी-शायद इस प्रकार हो गई, पहले अपनी आंखें मत खोलो। सभी तुमसे अलग ढंग से व्यवहार करते तुम पहले कभी सोए ही न होओ। यदि पहले यह प्रयोग करो; पूरी रात सोने के हैं। वे अधिक प्रेमपूर्ण और सहृदय हो सोने से पहले संसार अवास्तविक हो जाए बाद शरीर विश्रामपूर्ण हो गया है, ताजा जाएंगे, कम प्रतिरोधी होंगे, अधिक खुल तो स्वप्न कम होंगे क्योंकि यदि संसार ही और जीवंत अनुभव कर रहा है, तो दस जाएंगे, करीब आ जाएंगे। तुममें चुंबक स्वप्न हो जाए, तो स्वप्न जारी नहीं रह मिनट के लिए यह प्रयोग करो, तभी अपनी आ गया। शांति चुंबक है। जब तुम शांत सकते। और यदि संसार अवास्तविक हो, आंखें खोलो। शिथिल हो जाओ। तुम होते हो तो लोग तुम्हारे करीब आ जाते हैं; तो तुम बिलकुल विश्रांत हो जाते हो, . पहले से ही शिथिल हो; इसमें बहुत समय जब तुम अशांत होते हो तो सभी विकर्षित अन्यथा संसार की वास्तविकता तुम पर नहीं लगेगा। बस शिथिल हो जाओ। होते हैं। यह घटना इतनी ठोस है कि तुम आक्रमण करती रहती है, चोट करती रहती अपनी चेतना को दोनों कांखों के बीच हृदय सरलता से इसे देख सकते हो। जब भी पर ले आओः उसे गहन शांति से भरा तुम शांत होते हो तो तुम्हें लगता है कि सब जहां तक मैं जानता हूं—यह विधि मैंने अनुभव करो। दस मिनट के लिए उसी तुम्हारे समीप आना चाहते हैं क्योंकि वह ऐसे कई लोगों को सुझाई है जो अनिद्रा से शांति में रहो, फिर अपनी आंखें खोलो। शांति विकिरणित होती है, वह तुम्हारे पीड़ित हैं और यह गहन रूप से कारगर और संसार बिलकुल भिन्न नजर आएगा इर्द-गिर्द की तरंग बन जाती है। शांति के है। यदि संसार अवास्तविक हो, तो तनाव क्योंकि वह शांति तुम्हारी आंखों से भी वर्तुल तुम्हारे चारों ओर घूमते हैं और जो तिरोहित हो जाते हैं। और यदि तुम परिधि विकिरणित होगी। और सारे दिन तुम भिन्न भी पास आता है वह तुम्हारे और करीब से केंद्र की ओर बढ़ सको, तो तुम निद्रा ही अनुभव करोगे न केवल भिन्न होना चाहता है-जैसे वृक्ष की छाया • की गहन अवस्था में प्रवेश कर अनुभव करोगे, बल्कि तुम्हें लगेगा कि देखकर तुम्हें लगता है उसके नीचे जाकर जाओगे-इससे पहले कि नींद आए तुम लोग भी अलग ढंग से व्यवहार कर रहे हैं। विश्राम करें। 4 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि a ने कहा: हे भगवती, जब इंद्रियां हृदय में विलय हो जाएं तब कमल के केंद्र पर पहुंचो । ध्यान की विधियां तो इस विधि में करना क्या है? “जब इंद्रियां हृदय में विलय हो जाएं...” प्रयोग करके देखो! कई उपाय संभव हैं। तुम किसी व्यक्ति को स्पर्श करोः यदि तुम हृदय का केंद्रीकरण हृदयोन्मुख व्यक्ति हो तो स्पर्श तत्क्षण तुम्हारे हृदय पर पहुंच जाता है, और तुम उसकी गुणवत्ता महसूस कर सकते हो। यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति का हाथ अपने हाथ लो जो बुद्धि की ओर उन्मुख हो, तो उसका हाथ ठंडा होगा - शारीरिक रूप से ही नहीं, उसका आंतरिक गुण भी ठंडा होगा। उसके हाथ में एक तरह का मुरदापन होगा। यदि व्यक्ति हृदयोन्मुख हो, तो उसके हाथ में एक उष्मा होती है। तब उसका हाथ तुम्हारे साथ पिघलने लगेगा। तुम्हें लगेगा उसके हाथ में से तुम्हारी ओर कुछ बह रहा है, और एक मिलन होगा, उष्मा का एक संवाद होगा। यह उष्मा हृदय से आती है। वह कभी मस्तिष्क से नहीं उठ सकती क्योंकि मस्तिष्क सदा ठंडा और हिसाबी होता है। हृदय उष्म होता है, गैर- हिसाबी होता है। मस्तिष्क सदा यही सोचता है कि कैसे और ज्यादा लिया जाए, और हृदय को लगता है कि कैसे और ज्यादा दें। वह उष्मा तो बस एक दान है—ऊर्जा का दान, अंतर्तरंगों का दान, जीवन का दान । इसीलिए तुम उसमें एक भिन्न गुणवत्ता का अनुभव करते हो। यदि वह व्यक्ति तुम्हें सच ही आलिंगन में ले तो तुम्हें उसके साथ पिघलने का गहन अनुभव होगा । स्पर्श करो! अपनी आंखें बंद कर लो; कुछ भी छुओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका को छुओ, अपने बच्चे को या अपनी मां को 94 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छुओ, या किसी मित्र को, या किसी वृक्ष, किसी फूल को छुओ, या धरती को ही छुओ। अपनी आंखें बंद कर लो और अपने हृदय और धरती के बीच, या प्रेमिका के बीच एक आदान-प्रदान अनुभव करो। बस यह अनुभव करो कि तुम्हारा हाथ पृथ्वी को छूने के लिए आगे बढ़ा हुआ तुम्हारा हृदय है। स्पर्श की अनुभूति को हृदय से संबद्ध हो जाने दो। जब संगीत को सुनो, तो उसे सिर से मत सुनो। अपने सिर को भूल जाओ और महसूस करो कि तुम सिरविहीन हो । सिर है ही नहीं। यह अच्छा होगा कि तुम अपने शयनकक्ष में बिना सिर की अपनी कोई तस्वीर लगा लो। उसे एकाग्र होकर देखो: तुम बिना सिर के हो; सिर को वापस प्रवेश ही मत करने दो। संगीत सुनो, तो हृदय से सुनो। अनुभव करो कि संगीत तुम्हारे हृदय पर पहुंच रहा है; अपने हृदय को उससे स्पंदित होने दो। अपनी इंद्रियों को हृदय से जुड़ जाने दो, बुद्धि से नहीं । हर इंद्रिय के साथ यह प्रयोग करो, और यह अनुभव करो कि हर इंद्रिय हृदय पर पहुंच रही है और उसमें विलीन हो रही है। “हे भगवती, जब इंद्रियां हृदय में 95 हृदय को खोलना विलीन हो जाएं तब कमल के केंद्र पर पहुंचो।” हृदय ही कमल है। हर इंद्रिय कमल की पांखुरी मात्र है। पहले हर इंद्रिय को हृदय से जोड़ने का प्रयास करो। दूसरे, सदा यह सोचो कि हर इंद्रिय गहरे में जाकर हृदय में पहुंच जाती है और उसमें विलीन हो जाती है। जब ये दो बातें हो जाएं, केवल तभी तुम्हारी इंद्रियां तुम्हें सहयोग देना शुरू करेंगी : वे तुम्हें हृदय तक ले जाएंगी, और तुम्हारा हृदय एक कमल बन जाएगा। यह हृदय - कमल तुम्हें एक केंद्रीकरण देगा। एक बार तुम हृदय के केंद्र को जान जाओ तो नाभि-केंद्र पर उतर आना बहुत सरल हो जाता है । फिर यह बहुत ही सरल है ! वास्तव में, यह सूत्र इसका उल्लेख नहीं करता; उसकी जरूरत भी नहीं है। यदि तुम वास्तव में ही पूरी तरह हृदय में लीन हो जाओ, और बुद्धि कार्य करना बंद कर दे, तो तुम नीचे उतर आओगे। हृदय से नाभि की ओर जाने का द्वार खुल जाता है । बुद्धि से नाभि की ओर जा पाना ही कठिन है । या, यदि तुम बुद्धि और हृदय दोनों के बीच में हो, तो भी नाभि की ओर जाना कठिन है। एक बार तुम नाभि में लीन हो जाओ तो अचानक तुम हृदय के पार चले जाते हो – तुम नाभि केंद्र पर उतर आए जो कि मूलभूत है— मौलिक है। यदि तुम्हें लगे कि तुम हृदयोन्मुख व्यक्ति हो, तो यह विधि तुम्हारे लिए अत्यंत सहायक होगी। परंतु भली-भांति जान लो कि हर व्यक्ति अपने आपको यही धोखा देने का प्रयास कर रहा है कि वह हृदयोन्मुख है। हर कोई यही महसूस करना चाहता है कि वह बड़ा प्रेमपूर्ण और भावात्मक व्यक्ति है, क्योंकि प्रेम ऐसी बुनियादी जरूरत है कि जब किसी को लगे कि उसमें प्रेम नहीं है, उसका हृदय प्रेमपूर्ण नहीं है तो वह चैन से नहीं बैठ सकता। तो हर व्यक्ति सोचता और मानता चला जाता है, परंतु मान्यता काम नहीं देगी। बिलकुल निरपेक्ष होकर देखो, जैसे किसी और को देख रहे हो, और तभी निर्णय लो— क्योंकि स्वयं को धोखा देने की कोई जरूरत नहीं है और उससे कोई लाभ भी न होगा। यदि तुम स्वयं को धोखा दे भी लो, तो विधि को धोखा नहीं दे सकते। तो जब तुम इस विधि को करोगे, तब महसूस करोगे कि कुछ भी नहीं हो रहा है। 5 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 27तीशा ने कहा : एक ही समय अ में जुड़ने, देने और ग्रहण करने में प्रशिक्षित होओ। श्वास पर आरूढ़ होकर ऐसा करो। अतीशा कहते हैं: करुणावान होना शुरू करो। और उसकी विधि है, जब तुम श्वास लो-ध्यान से सुनो, यह महानतम विधियों में से है-जब श्वास लो तो सोचो कि तुम संसार के सभी लोगों के सभी दुख पी रहे हो, तो जितना भी अतीशा की हृदय विधि अंधकार है, जितने भी नकार हैं, जितने भी भीतर लो।" और इसे करो तो तुम चकित होओगे। नर्क हैं, तुम उन सब को पी रहे हो। और अतीशा की विधि बिलकुल विपरीत है। जिस क्षण तुम संसार के सभी दुख भीतर इसे अपने हृदय में लीन हो जाने दो। जब तुम श्वास लो तो संसार के अतीत, ले लेते हो, वे दुख नहीं रहते। हृदय तत्क्षण तुमने पश्चिम के विधायक चिंतकों के वर्तमान और भविष्य के सभी प्राणियों के ऊर्जा को रूपांतरित कर देता है। हृदय विषय में पढ़ा या सुना होगा। वे इससे दुख और पीड़ाएं पी लो। रूपांतरण की शक्ति है: दुख को पियो, बिलकुल विपरीत बात कहते हैं वे नहीं और जब श्वास छोड़ो, तो अपने सारे और वह आनंद में रूपांतरित हो जाता जानते वे क्या कह रहे हैं। वे कहते हैं, सुख, अपने सारे आनंद, अपनी सारी है...फिर उसे बाहर उंडेल दो। "जब तुम श्वास छोड़ो, तो उसके साथ धन्यता बाहर छोड़ो। श्वास छोड़ो तो स्वयं एक बार तुम जान जाओ कि तुम्हारा अपने सभी दुख और नकार बाहर निकाल को अस्तित्व में उंडेल दो। यही करुणा की हृदय यह जादू, यह चमत्कार कर सकता दो। और जब श्वास लो तो आनंद, विधि है: सभी दुख पी लो और सभी है, तो तुम इसे फिर-फिर करना चाहोगे। विधायकता, सुख और प्रफुल्लता को आशीष उंडेल दो। इसे करके देखो। यह सबसे व्यावहारिक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को खोलना विधियों में से है, सरल है और तात्कालिक हृदय में पीने की अपेक्षा अपने ही दुख से द्वार बंद कर लो। पहले दुख को जितनी परिणाम लाती है। इसे आज ही करो, और शुरू करो। गहरे सागर में इतनी जल्दी मत सघनता से हो सके अनुभव करो। पीड़ा देखो। 'जाओ; पहले उथले पानी में तैरना सीखो। को महसूस करो। किसी ने तुम्हारा और यदि तुम एकदम से ही पूरे अस्तित्व अपमान किया है। अब, पीड़ा से बचने का स्वयं से शुरू करो के दुख लेने लगते हो तो वह मात्र सबसे अच्छा तरीका तो यह है कि तुम काल्पनिक प्रयोग ही रह जाएगा। वह जाकर उसका अपमान करो, ताकि तुम वास्तविक नहीं होगा, वह वास्तविक नहीं उसके साथ व्यस्त हो जाओ। यह ध्यान थतीशा कहते हैं : ग्रहण करने की हो सकता। वह शाब्दिक ही होगा। नहीं है।। क्षमता का विकास स्वयं से ही तुम स्वयं को कह सकते हो, “हां, मैं यदि किसी ने तुम्हारा अपमान किया है, शुरू करो। पूरे संसार के दुख ले रहा हूं" लेकिन पूरे तो उसके प्रति धन्यवाद से भरो कि उसने संसार के दुखों के बारे में तुम जानते क्या तुम्हें एक गहरे घाव को महसूस करने का अतीशा कहते हैं : इससे पहले कि तुम ।। हो? तुमने तो अभी अपने दुख का भी अवसर दिया। उसने तुम्हारे एक गहरे घाव यह प्रयोग पूरे अस्तित्व के साथ कर सको, अनुभव नहीं किया है। को खोल दिया। हो सकता है वह घाव तुम्हें पहले स्वयं से ही शुरू करना होगा। हम अपने दुख को ही टालते रहते हैं। तुम्हारे जीवन भर में झेले गए अपमानों से यह अंतर्विकास के बुनियादी रहस्यों में से तुम यदि दुखी होते हो तो रेडियो या निर्मित हुआ हो। हो सकता है वह सारी एक है। दूसरों के साथ तुम वह कर ही नहीं टेलीविजन चला लेते हो और व्यस्त हो पीड़ा का कारण न हो, वह बस एक सकते जो तुमने पहले स्वयं के साथ न कर जाते हो। तुम अखबार पढ़ने लगते हो प्रक्रिया शुरू होने के लिए निमित्त ही बना लिया हो। तुम दूसरों को तभी पीड़ा दे ताकि अपने दुख को भूल सको या तुम हो। सकते हो यदि स्वयं को पीड़ा देते हो, तुम फिल्म देखने चले जाते हो, या अपनी बस अपना कमरा बंद कर लो, मौन दूसरों के लिए तभी एक 'सिरदर्द बन प्रेमिका के पास, या अपने प्रेमी के पास बैठ जाओ, उस व्यक्ति के प्रति क्रोध मत सकते हो जब तुम स्वयं अपने लिए एक चले जाते हो। तुम क्लब चले जाते हो, रखो बल्कि वह भाव जो तुममें उठ रहा है 'सिरदर्द' होओ, और दूसरों के लिए बाजार में खरीददारी करने चले जाते हो, उसके प्रति सजग हो रहो-वह पीड़ा का आशीष भी तुम तभी बन सकते हो यदि ताकि बस किसी तरह अपने को अपने भाव कि तुम्हें अस्वीकृत कर दिया गया, तुम स्वयं के लिए एक आशीष हो। आप से ही दूर रख सको, ताकि तुम्हें घाव कि तुम्हें अपमानित कर दिया गया। और दूसरों के साथ तुम जो भी कर सकते को देखना न पड़े, ताकि तुम्हें यह न देखना फिर तुम चकित होओगे कि अब एक वही हो, वह जरूर तुमने पहले अपने साथ पड़े कि भीतर कितना दुखता है। व्यक्ति नहीं है वरन तुम्हारी स्मृति में वे किया होगा, क्योंकि वही तो तुम बांट लोग अपने आप को ही टालते चले सभी पुरुष और सभी स्त्रियां और वे सभी सकते हो। तुम वही बांट सकते हो जो जाते हैं। दुख के बारे में तुम जानते क्या लोग आने लगेंगे जिन्होंने कभी भी तुम्हारा तुम्हारे पास है; जो तुम्हारे पास नहीं है वह हो? तुम पूरे अस्तित्व के दुख की सोच भी अपमान किया होगा। तुम नहीं बांट सकते। अतीशा कहते हैं: कैसे सकते हो? तुम उन्हें न केवल स्मरण करने लगोगे "ग्रहण करने की क्षमता का विकास स्वयं पहले तुम्हें स्वयं से ही शुरू करना वरन तुम उन्हें फिर से जीने लगोगे। तुम से ही शुरू करो।" होगा। यदि तुम दुखी हो रहे हो, तो इसे एक प्रकार के गहन ग्रंथि-विसर्जन संसार के सारे दुखों को लेकर अपने एक ध्यान बन जाने दो। मौन बैठ जाओ, (प्राइमल) में चले जाओगे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां दुख को अनुभव करो, पीड़ा को हो। और अनेकानेक मादक द्रव्यों से यही दुख रहा है, कि उसमें ऊपर से नीचे तक अनुभव करो, उससे बचो मत। होता रहता है। आधुनिक मनुष्य इतने पीड़ा है, कि तुम्हारा पूरा शरीर ही पीड़ा के इसीलिए तो कई ध्यान-चिकित्साओं मादक द्रव्य ले रहा है जितने कभी नहीं अतिरिक्त और कुछ नहीं है। (थैरेपीज) में रोगी को कहा जाता है कि लिए गए, क्योंकि आधुनिक मनुष्य बड़ी यदि तुम उसका अनुभव कर चिकित्सा शुरू होने से पहले वह कोई पीड़ा में जी रहा है। मादक द्रव्यों के बिना सको-इसका बड़ा महत्व है-तब उसे मादक द्रव्य न ले क्योंकि मादक द्रव्य इतनी पीड़ा में जी पाना असंभव ही हो अवशोषित करना शुरू करो। उसे बाहर आंतरिक दुख से भागने के उपाय हैं। वे जाएगा। वे मादक द्रव्य एक अवरोध खड़ा मत फेंको। वह इतनी मूल्यवान ऊर्जा है, तुम्हें तुम्हारे घावों को नहीं देखने देते, उन्हें कर देते हैं, वे तुम्हें नशे में रखते हैं, वे कि उसे फेंको मत। उसे पचाओ, उसे दबा देते हैं। वे तुम्हें तुम्हारी पीड़ा में नहीं तुम्हें इतना संवेदनशील नहीं रहने देते कि पीओ, उसे स्वीकार करो, उसका स्वागत जाने देते और जब तक तुम अपनी पीड़ा में तुम अपनी पीड़ा को जान पाओ। करो, उसके प्रति अनुगृहीत होओ। और न जाओ, तुम उनके कारागृह से मुक्त नहीं पहला काम तो यह करो कि अपने द्वार स्वयं को ही कहो, इस बार मैं इसे टालूंगा हो सकते। बंद कर लो और किसी भी प्रकार की नहीं, इस बार मैं इसे अस्वीकृत नहीं यह बिलकुल वैज्ञानिक है कि समूह व्यस्तता को हटा दोः चाहे टेलीविजन करूंगा, इस बार मैं इसे दूर नहीं फेंकूगा। चिकित्सा से पहले सभी मादक द्रव्य छोड़ देखना हो, कि रेडियो सुनना हो, कि इस बार तो मैं इसे पीऊंगा और एक दिए जाएं–यदि संभव हो तो कॉफी, चाय पुस्तक पढ़ना हो। सभी काम बंद कर दो अतिथि की भांति इसका स्वागत करूंगा। और धूम्रपान इत्यादि भी छोड़ देने चाहिए, क्योंकि वह भी एक प्रकार का सूक्ष्म नशा इस बार मैं इसे पचा लूंगा।" क्योंकि वे सभी बचने के उपाय हैं। है। बस शांत हो रहो-नितांत अकेले। हो सकता है इसमें कुछ दिन लग जाएं तुमने कभी देखा? जब भी तुम घबड़ाए प्रार्थना भी मत करो, क्योंकि वह भी एक कि तुम इसे पचा सको, लेकिन जिस दिन होते हो तो तत्क्षण धूम्रपान शुरू कर देते नशा है, तुम व्यस्त होने लगे-तुम यह होता है, तुम ऐसे द्वार पर आ खड़े होते हो। यह घबड़ाहट से बचने का एक उपाय परमात्मा से बात करने लगते हो, प्रार्थना हो जो तुम्हें बहुत-बहुत दूर ले जाएगा। है: तुम धूम्रपान में व्यस्त हो जाते हो। करने लगते हो, स्वयं से बचकर भाग जाते तुम्हारे जीवन में एक नई यात्रा शुरू हो वास्तव में यह पीछे लौटना हो गया। हो।। गई, तुम एक नए प्रकार की सत्ता में प्रवेश धूम्रपान तुम्हें फिर से शिशुवत हो जाने की अतीशा कह रहे हैं : बस स्वयं हो रहो। कर रहे हो क्योंकि जिस क्षण तुम पीड़ा अनुभूति देता है-चिंतारहित, उत्तरदायित्व उसमें जो भी पीड़ा हो और जो भी विषाद को बिना किसी अस्वीकार के स्वीकृत कर मुक्त-क्योंकि सिगरेट और कुछ नहीं हो, उसे होने दो। पहले इसे इसकी पूर्ण लेते हो, तत्क्षण ही उसकी ऊर्जा और बस प्रतीकात्मक स्तन है। भीतर जाता सघनता में अनुभव करो। यह कठिन गुणवत्ता बदल जाती है। वह पीड़ा नहीं हुआ गरम धुआं तुम्हें उन दिनों में वापस ले होगा, हृदय-विदारक होगाः शायद तुम रहती। जाता है जब तुम मां के स्तनों से पोषण ले एक बच्चे की तरह रोने लगो, शायद तुम वास्तव में व्यक्ति चकित रह जाता है, रहे थे और उष्ण दूध तुममें भीतर जाता गहन पीड़ा में धरती पर लोटने लगो, यह घटना इतनी अविश्वसनीय है कि थाः स्तनाग्र अब सिगरेट बन गया है। तुम्हारा शरीर शायद विभिन्न आकृतियां विश्वास ही नहीं हो पाता। कोई विश्वास सिगरेट एक प्रतीकात्मक स्तन है। लेने लगे। हो सकता है अचानक तुम ही नहीं कर सकता कि विषाद को आनंद पीछे लौटकर तुम वयस्क होने की सजग हो जाओ कि पीड़ा केवल हृदय में में बदला जा सकता है, कि पीड़ा को जिम्मेदारियों और पीड़ाओं से बच जाते ही नहीं है, पूरे शरीर में है कि पूरा शरीर आह्लाद में बदला जा सकता है। 7 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण आंतरिक केंद्रीकरण - - द्र के बिना कोई भी नहीं रह सकता। उसका निर्माण नहीं 1" करना है बस उसका पुन विष्कार कर लेना है। वह परम सारतत्व जो तुम्हारा स्वभाव है, जो प्रभु-प्रदत्त है, वही केंद्र है। व्यक्तित्व परिधि है जिसे समाज ने प्रयासपूर्वक निर्मित किया है; वह प्रभु-प्रदत्त नहीं है। वह पोषण से आया है, स्वभाव से नहीं।। 99 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 100 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण एमरस क सूफी फकीर जो अपने जीवन | भर आनंदित रहा-किसी ने भी "उसे कभी दुखी नहीं देखा वह सदा हंसता रहता था। वह हंसी ही था, उसका पूरा होना ही उत्सव की सुवास थी। अपनी वृद्धावस्था में, मरते समय, मृत्यु-शैय्या पर वह मृत्यु का भी आनंद ले रहा था, मजे से हंस रहा था-एक शिष्य ने पूछा, “आप हमें हैरान करते हैं। अब आप मर रहे हैं, तो हंस क्यों दुखी या सुखी होने का निर्णय रहे हैं? इसमें हंसी की क्या बात है? हम था। जब युवा था तो मैं अपने गुरु के पास साथ क्या मामला है? आप पागल हैं या तो इतने दुखी हैं! आपके जीवन में हम गया था; मैं सत्रह वर्ष का ही था, और क्या हैं?" आपसे कई बार पूछना चाहते थे कि आप दुखी हो चुका था। और मेरे गुरु वृद्ध थे, “वे बोले, 'एक दिन मैं भी तुम्हारे कभी दुखी क्यों नहीं होते। लेकिन अब, सत्तर वर्ष के थे, और वे एक वृक्ष के नीचे जितना ही दुखी था। फिर यह बात मुझे मृत्यु का सामना करते हुए तो व्यक्ति को बैठे अकारण ही हंस रहे थे। कोई और समझ आई कि यह मेरा ही चुनाव है, यह दुखी होना चाहिए। आप अभी भी हंस रहे वहां नहीं था, कुछ भी हुआ नहीं था, मेरा जीवन है।' हैं! आप हंस कैसे पा रहे हैं?" किसी ने कोई चुटकुला वगैरह नहीं “उस दिन से, हर सुबह जब मैं उठता __तो उस वृद्ध ने कहा, “यह एक सुनाया। और वे बस अपना पेट पकड़े हंसे हूं, पहला निर्णय मैं यह लेता हूं कि अपनी छोटा-सा राज है। मैंने अपने गुरु से पूछा जा रहे थे। तो मैंने उनसे पूछा, आपके आंखें खोलने से पहले मैं स्वयं से ही 101 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछता हूं, 'अब्दुल्लाह' — यह उसका नाम था – 'तुम क्या चाहते हो ? दुख ? आनंद ? आज तुम क्या चुनने वाले हो ?” और ऐसा होता है कि मैं हमेशा ही आनंद को चुनता हूं।" ध्यान की विधियां समाप्त यह एक चुनाव है। इसे करके देखो । सुबह सबसे पहले जब तुम्हें लगे कि नींद , अपने से पूछो, “अब्दुल्लाह, एक और दिन मिल रहा है! क्या विचार है तुम्हारा? दुख चुनते हो या आनंद ?” और दुख को कौन चुनता है ? और भला क्यों? और दुख इतना अस्वाभाविक है— जब तक तुम दुख में ही आनंद न लेने लगो, लेकिन तब भी तुम आनंद ही चुन रहे हो, दुख नहीं। 2 102 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण व ने कहा: बहुत समय के । बाद किसी मित्र को मिलने पर जो हर्ष होता है उस हर्ष में लीन होओ। जब तुम किसी मित्र से मिलो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो और हर्ष ही हो जाओ। वास्तविक स्रोत की खोज और तब हर्ष से भर कर बोधपूर्ण रहते हुए डालोगे, तब वह भाव फैलने लगेगा। वह कि सुख तुम्हारे मित्र से आ रहा है, उसे अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि तुम्हारा पूरा शरीर, पूरा अस्तित्व ही बन देखने के कारण आ रहा है। यह वास्तविक पर रहने दो और तुम अपने सुखभाव में जाएगा। और बस उसे देखने वाले ही मत तथ्य नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। केंद्रित रहो। बने रहो; उसमें विलीन हो जाओ। कछ मित्र तो केवल परिस्थिति बन गया है। मित्र अन्य कई स्थितियों में भी यह किया जा क्षण होते हैं जब तुम हर्ष, सुख और आनंद ने हर्ष को बाहर आने में सहयोग दिया, सकता है। सूरज उग रहा है, और का अनुभव करते हो, लेकिन तुम उन्हें तुम्हें हर्ष को देखने में सहयोग दिया। और अचानक तुम अपने भीतर भी कुछ उगते चूकते रहते हो क्योंकि तम विषय-केंद्रित ऐसा हर्ष के साथ ही नहीं, वरन हर चीज के हुए अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल हो जाते हो। साथ है: क्रोध के साथ, उदासी के साथ, जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो। तुम जब भी प्रसन्नता आती है, तुम समझते दुख के साथ, सुख के साथ, हर चीज के उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो हो कि वह बाहर से आ रही है। तुम किसी साथ ऐसा ही है। दूसरे तो केवल परिस्थिति जाओ। जब तुम उस पर अपना बोध मित्र से मिले-स्वभावतः, ऐसा लगता है हैं जिनमें तुम्हारे भीतर छिपी चीजें 103 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां अभिव्यक्त हो जाती हैं। वे कारण नहीं हैं; क्रोध को उसकी पूर्णता में अनुभव करो; जाओगे। यदि आनंद होगा तो तुम आनंद वे तुम्हारे भीतर कुछ उत्पन्न नहीं कर रहे। भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत ही बन जाओगे। यदि क्रोध होगा, तो क्रोध जो भी हो रहा है, तुम्हें ही हो रहा है। वह तो करो; मत कहो कि उस व्यक्ति ने क्रोध तिरोहित हो जाएगा। सदा से ही भीतर मौजूद रहा है; बस इतना दिलाया है। उस व्यक्ति की निंदा मत नकारात्मक तथा विधायक भावदशाओं ही हुआ है कि उस मित्र का मिलना एक करो। वह तो केवल परिस्थिति बन गया में यही भेद है : यदि तुम किसी भावदशा परिस्थिति बन गया जिसमें छिपा हुआ जो है। और उसके प्रति अनुगृहीत होओ कि के प्रति सजग हो जाओ और तुम्हारे सजग था, वह खुले में आ गया-छिपे हुए स्रोत उसने छिपी हुई चीज को खुले में लाने में होने से वह तिरोहित हो जाए, तो वह से बाहर निकल आया-वह प्रकट हो तुम्हारी मदद की। उसने कहीं तुम पर चोट नकारात्मक है। यदि किसी भावदशा के गया, व्यक्त हो गया। की, और एक घाव वहां छिपा था। अब प्रति तुम्हारे सजग होने से तुम वह जब भी ऐसा हो आंतरिक अनुभूति में तुम उसे जानते हो, इसलिए घाव ही बन भावदशा ही बन जाओ, यदि फिर वह केंद्रित बने रहो, और तब जीवन में हर जाओ। भावदशा फैल जाए और तुम्हारी चीज के प्रति तुम्हारा भिन्न ही दृष्टिकोण नकारात्मक या विधायक, किसी भी अंतस-सत्ता ही बन जाए, तो वह होगा। भावदशा में, यह प्रयोग करो और तुममें विधायक है। सजगता दोनों में भिन्न रूप से नकारात्मक भावदशाओं के साथ भी अपूर्व परिवर्तन होगा। यदि भावदशा कार्य करती है। यदि भावदशा विषाक्त हो ऐसा ही करो। जब क्रोध उठे तो उस : नकारात्मक होगी तो इस बोध के कारण तो सजगता के द्वारा तुम उससे मुक्त हो व्यक्ति पर केंद्रित मत हो जाना जिसने कि वह तुम्हारे भीतर ही है, तुम उससे जाते हो। यदि वह शुभ हो, आनंदमय हो, क्रोध को जगाया है। उसे परिधि पर मुक्त हो जाओगे। यदि भावदशा विधायक आह्लादपूर्ण हो, तो तुम वही बन जाते हो। ही बना रहने दो। तुम क्रोध ही बन जाओ। होगी तो तुम स्वयं भावदशा ही बन सजगता उसे गहन कर देती है। 3. 104 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण व ने कहाः तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो। जब कामना तुम्हें पकड़ती है, तुम उद्विग्न हो जाते हो। निश्चित ही, यह स्वाभाविक है। कामना तुम्हें पकड़ती है तो तुम्हारा मन डोलने लगता है और सतह पर बहुत-सी लहरें दौड़ने लगती हैं। कामना तुम्हें खींचकर कहीं भविष्य में ले झंझावात का केंद्र जाती है; अतीत तुम्हें कहीं भविष्य में ले क्षणों में! तुम्हें कुछ प्रयोग करने होंगे; तभी अब तुम्हारे भीतर एक बिंदु है जो उद्विग्न जाता है। तुम उद्विग्न हो जाते हो तुम चैन तुम्हें इसका अभिप्राय समझ आएगा। तुम नहीं है। में न रहे। इसलिए कामना एक व्याधि है, क्रोध में होः क्रोध ने तुम्हें पकड़ लिया है। तुम्हें बोध रहेगा कि परिधि पर क्रोध है। एक तनाव है। तुम क्षणिक रूप से पागल हो गए, बुखार की तरह वह मौजूद है। परिधि कांप यह सूत्र कहता है, “तीव्र कामना की आविष्ट हो गए : तुम होश में नहीं रहे। रही है। परिधि अशांत है, लेकिन तुम मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।" लेकिन अचानक स्मरण करो कि अनुद्विग्न रहना उसको देख सकते हो। यदि तुम उसको अनुद्विग्न कैसे रहा जाए? कामना का अर्थ __ है-जैसे कि तुम वस्त्र उतार रहे हो। देख सको, तो शांत हो जाओगे। उसके ही उद्वेग है। फिर अनुद्विग्न कैसे रहा भीतर, नग्न हो जाओ-क्रोध को उतारकर साक्षी हो जाओ और तुम शांत हो जाओगे। जाए-और वह भी कामना के तीव्रतम नग्न हो जाओ। क्रोध तो रहेगा, लेकिन यह शांत बिंदु ही तुम्हारा 'मौलिक मन' है। 105 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मौलिक मन' उद्विग्न नहीं हो सकता; वह कभी उद्विग्न नहीं होता। लेकिन तुमने कभी उसकी ओर देखा ही नहीं। जब क्रोध होता है तब तुम क्रोध से तादात्म्य बना लेते हो । तुम भूल जाते हो कि क्रोध तुमसे अन्यथा है। तुम उसके साथ एक हो जाते हो, और तुम उससे ही नियंत्रित होने लगते हो, करा ही कुछ करने लगते हो। दो काम किए जा सकते हैं। क्रोध में तुम किसी के प्रति, अपने क्रोध के विषय के प्रति हिंसात्मक हो जाओगे, तब तुम दूसरे की ओर गति कर गए। क्रोध ने तुम्हारे और दूसरे के बीच जगह ले ली। यहां मैं हूं, फिर क्रोध है, और फिर तुम हो मेरे क्रोध विषय । क्रोध से मैं दो आयामों में यात्रा कर सकता हूं। या तो मैं तुम्हारी ओर जा सकता हूं : तब तुम मेरी चेतना के केंद्र बन जाते हो, मेरे क्रोध के विषय बन जाते हो । तब मेरा मन केंद्रित हो गया तुम पर – जिसने मेरा अपमान किया। यह एक ढंग हुआ क्रोध से यात्रा करने का। फिर एक और ढंग है: तुम अपनी ओर यात्रा कर सकते हो। तुम उस व्यक्ति की ओर नहीं जाते जिसने क्रोध दिलाया है, तुम उस व्यक्ति की ओर जाते हो जो क्रोधित हुआ; तुम विषय-वस्तु की ओर न जाकर स्वयं की ओर गति कर जाते हो । साधारणतः हम विषय की ओर गति करते रहते हैं । यदि तुम विषय की ओर गति करो, तो मन का धूल-भरा हिस्सा उद्विग्न हो जाता है, और तुम्हें लगेगा, “मैं उद्विग्न हो गया ।" यदि तुम अपनी अंतस - सत्ता के केंद्र में चले जाओ तो तुम ध्यान की विधियां मन के धूल भरे हिस्से के साक्षी हो सकोगे तुम देख सकोगे कि मन का धूल-भरा हिस्सा तो उद्विग्न है, परंतु "मैं उद्विग्न नहीं हूं"। और इस प्रयोग को तुम किसी भी कामना, किसी भी उद्वेग के साथ कर सकते हो । तुम्हारे मन में कामवासना जागती है; तुम्हारा पूरा शरीर उसकी पकड़ में आ जाता है: तुम यौन के विषय की ओर, कामना के विषय की ओर जा सकते हो। विषय वहां हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता । तुम कल्पना में भी विषय की ओर जा सकते हो, लेकिन तब तुम और भी उद्विग्न हो जाओगे। जितने तुम अपने केंद्र से दूर जाओगे, उतने ही ज्यादा उद्विग्न हो जाओगे । वास्तव में, दूरी और उद्वेग सदा ही समानुपात में रहते हैं । जितने तुम केंद्र से दूर होते हो उतने ही उद्विग्न होते हो; और केंद्र के जितने करीब होते हो उतने ही कम उद्विग्न होते हो। और यदि तुम केंद्र पर ही हो, तो कोई उद्वेग नहीं होता। झंझावात में एक केंद्र होता है जो अकंप रहता है— क्रोध के झंझावात में, काम-वासना के झंझावात में, कामना के झंझावात में ठीक केंद्र पर कोई झंझावात नहीं होता, और एक शांत केंद्र के बिना झंझावात भी नहीं हो सकता। क्रोध भी तुम्हारे भीतर किसी ऐसी चीज के बिना नहीं बना रह सकता जो क्रोध के पार हो । इसे स्मरण रखो : अपने विपरीत के बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। विपरीत अनिवार्य है। उसके बिना किसी चीज के होने की संभावना नहीं है। यदि तुम्हारे भीतर ऐसा कोई केंद्र न होता जो अविचल बना रहे, तो किसी गति की संभावना न रहती। यदि तुम्हारे भीतर ऐसा कोई केंद्र न होता जो अनुद्विग्न बना रहे, तो तुम्हें कोई उद्वेग नहीं घट सकता था । इसका विश्लेषण करो और इसे देखो । यदि तुम्हारे भीतर कोई नितांत अनुद्विग्न केंद्र न होता तो तुम कैसे यह महसूस कर सकते थे कि तुम उद्विग्न हो? तुम्हें कोई तुलना तो चाहिए न ! तुम्हें तुलना के लिए दो बिंदु चाहिए। मानो कोई व्यक्ति बीमार है : उसे बीमारी महसूस ही इसलिए होती है कि उसके भीतर पूर्ण स्वास्थ्य का एक केंद्र विराजमान है। इसीलिए वह तुलना कर सकता है। तुम कहते हो कि तुम्हारा सिर दुख रहा है: तुम इस पीड़ा, इस सिरदर्द को किस प्रकार जान लेते हो? यदि तुम ही सिरदर्द होते तो उसको न जान पाते । तुम जरूर कोई और हो, कुछ और हो - द्रष्टा, साक्षी, जो कह सकता है, “मेरा सिर दुख रहा है।" यह सूत्र कहता है, “तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।" तुम क्या कर सकते हो? यह विधि दमन की नहीं है । यह विधि यह नहीं कह रही कि जब क्रोध उठे तो उसे दबा लो और शांत बने रहो- नहीं ! यदि तुम दमन करोगे तो और उद्वेग पैदा कर लोगे । यदि क्रोध उठे और उसे दबाने का कोई प्रयास हो तो अशांति दुगुनी हो जाएगी! जब क्रोध उठे, तो अपने द्वार बंद कर लो, क्रोध पर ध्यान करो, क्रोध को उठने दो। तुम शांत रहो, और 106 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध का दमन भी मत करो। दमन करना सरल है; अभिव्यक्त करना भी सरल है। हम दोनों बातें कर सकते हैं, यदि परिस्थिति अनुमति दे। और यदि यह सुविधाजनक हो, और हमारे लिए खतरनाक न हो तो हम अभिव्यक्त कर देते हैं । यदि तुम दूसरे को नुकसान पहुंचा सको और दूसरा तुम्हें नुकसान न पहुंचा सके, तो तुम क्रोध को अभिव्यक्त कर दोगे । यदि यह खतरनाक हो, यदि दूसरा तुम्हें अधिक नुकसान पहुंचा सकता हो, यदि तुम्हारा बॉस या जिस पर भी तुम क्रोधित हो, वह ज्यादा मजबूत है, तो तुम क्रोध को दबा लोगे। अभिव्यक्ति और दमन दोनों सरल हैं: साक्षित्व कठिन है। साक्षित्व दोनों ही नहीं है । वह न तो दमन है, न अभिव्यक्ति है। वह अभिव्यक्ति इसलिए नहीं है क्योंकि तुम क्रोध को क्रोध के विषय पर अभिव्यक्त नहीं कर रहे हो। और न ही उसे दबा रहे हो। तुम उसे अभिव्यक्त होने दे रहे हो – शून्य में अभिव्यक्त होने दे रहे . हो। तुम उस पर ध्यान कर रहे हो। दर्पण के सामने खड़े हो जाओ और अपने क्रोध को अभिव्यक्त करो-और उसके साक्षी हो रहो। तुम अकेले हो, तो उस पर ध्यान कर सकते हो। जो भी करना चाहते हो करो, लेकिन शून्य में। यदि तुम किसी को पीटना चाहते थे तो रिक्त आकाश को पीट लो । यदि क्रोधित होना चाहते हो, तो क्रोधित हो लो; यदि चीखना चाहते हो, तो चीख लो। लेकिन अकेले ही करो, और स्वयं को उस बिंदु की भांति 107 आंतरिक केंद्रीकरण स्मरण में रखो जो यह सब, यह सारा नाटक देख रहा है । फिर यह एक मनोनाट्य बन जाता है, और तुम उस पर हंस सकते हो। और वह तुम्हारे लिए एक गहन रेचन बन जाएगा। बाद में तुम्हें लगेगा कि तुमने उससे छुटकारा पा लिया — और न केवल छुटकारा पा लिया वरन तुमने उससे कुछ पाया भी। तुम प्रौढ़ हो गए होओगे, तुम्हारा विकास हो गया होगा । और अब तुम्हें पता होगा कि जब तुम क्रोध में भी थे तो तुम्हारे भीतर एक केंद्र था जो शांत था। अब इस केंद्र को उघाड़ने का और और प्रयास करो, और कामना में उसे उघाड़ लेना सरल है। यह विधि बहुत उपयोगी हो सकती है, और तुम्हें इससे बहुत लाभ हो सकता है। लेकिन यह कठिन होगा क्योंकि जब तुम उद्विग्न होते हो तो सबकुछ भूल जाते हो । शायद तुम भूल ही जाओ कि तुम्हें ध्यान करना है । फिर इस प्रकार करके देखो : उस क्षण की प्रतीक्षा मत करो जब क्रोध उठे। उस क्षण की प्रतीक्षा मत करो! बस अपने कमरे का द्वार बंद कर लो, और क्रोध के किसी पूर्व अनुभव के विषय में सोचो जब तुम पागल हो गए थे। उसे याद करो, उसे फिर से दोहराओ। वह तुम्हारे लिए सरल होगा। उसे फिर से दोहराओ, फिर से करो, फिर से जिओ । उसे केवल स्मरण ही मत करो फिर से जिओ । स्मरण करो कि किसी ने तुम्हारा अपमान किया था, और उसने क्या कहा था, और कैसे तुमने प्रतिक्रिया की थी। फिर से प्रतिक्रिया करो; उसे फिर से दोहराओ । अतीत की किसी घटना का इस प्रकार फिर से अभिनय करना बहुत काम का होगा। हर किसी के मन में खरोंचें हैं, अनभरे घाव हैं। यदि तुम उन्हें फिर से दोहरा कर अभिनीत कर लो तो निर्धार हो जाओगे । यदि तुम अपने अतीत में जाकर और ऐसा कुछ कर सको जो अधूरा रह गया था, तो तुम अपने अतीत से मुक्त हो जाओगे । तुम्हारा मन ज्यादा ताजा हो जाएगा; धूल झड़ जाएगी। अपने अतीत की ऐसी किसी चीज का स्मरण करो जो तुम्हें लगता है कि अधूरी रह गई थी। किसी को तुम मार डालना चाहते थे, किसी को तुम प्रेम करना चाहते थे, तुम 'यह' चाहते थे और 'वह' चाहते थे, और वह सब अधूरा ही रह गया। वह अधूरी चीज मन पर बादलों की तरह मंडराती रहती है। “ तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो" : गुरजिएफ ने इस विधि का बहुत उपयोग किया। वह परिस्थितियां निर्मित कर देता था, लेकिन परिस्थितियां निर्मित करने के लिए एक ध्यान - विद्यालय की जरूरत है। तुम अकेले यह काम नहीं कर सकते । फोन्टेनब्लियु में गुरजिएफ का एक छोटा-सा ध्यान - विद्यालय था, और वह एक कठोर सद्गुरु था। वह जानता था कि कैसे परिस्थितियां निर्मित करनी हैं। तुम किसी कमरे में प्रवेश करते जहां कुछ लोग बैठे हैं, और कुछ ऐसी बात कर दी जाती कि तुम क्रोधित हो जाते। और यह इतने स्वाभाविक रूप से किया जाता कि तुम कभी कल्पना भी न कर पाते कि तुम्हारे लिए एक परिस्थिति निर्मित की गई है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां लेकिन यह एक युक्ति थी। कोई कुछ है। मनोनाट्य में तुम केवल अभिनय करते तो वास्तविक और अवास्तविक के भेद को कहकर तुम्हारा अपमान कर देता और तुम हो, बस एक खेल खेलते हो। जान नहीं सकता, विशेषतः कामवासना अशांत हो जाते। फिर हर कोई तुम्हारी प्रारंभ में वह केवल एक खेल ही होता में। यदि तुम उसकी कल्पना भी करो, तो अशांति में सहयोग देता और तुम पागल है, लेकिन देर-अबेर तुम आविष्ट हो जाते शरीर समझता है कि यह वास्तविक है। हो जाते। और जब तुम ठीक उस क्षण पर हो। और जब तुम आविष्ट हो जाते हो तो एक बार तुम कुछ करना शुरू कर दो, तो पहुंच जाते जहां तुममें विस्फोट हो सकता, · तुम्हारा मन सक्रिय होने लगता है, क्योंकि शरीर उसे वास्तविक समझ लेता है और तो गुरजिएफ चिल्लाता, “स्मरण रखो! तुम्हारा मन और तुम्हारा शरीर दोनों वास्तविक ढंग से ही व्यवहार करने लगता अनुद्विग्न बने रहो!" स्वचालित हैं; वे अपने आप से चलते हैं। है। तुम भी मदद कर सकते हो। तुम्हारा तो यदि तुम मनोनाट्य में किसी मनोनाट्य इसी प्रकार की विधियों पर परिवार एक विद्यालय बन सकता है; तुम अभिनेता को अभिनय करते देखो, जो आधारित एक पद्धति है। तुम क्रोधित नहीं एक-दूसरे की मदद कर सकते हो। मित्र क्रोध की किसी परिस्थिति में वास्तव में ही होः केवल क्रोधित होने का अभिनय कर मिलकर एक विद्यालय बना सकते हैं और क्रोधित हो जाए, तो शायद तुम सोचो कि रहे हो-और फिर तुम उसमें प्रवेश कर एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं। तुम वह मात्र अभिनय ही कर रहा है, परंतु जाते हो। लेकिन मनोनाट्य सुंदर है क्योंकि अपने परिवार के साथ यह निर्णय ले सकते ऐसा नहीं है। हो सकता है वह वास्तव में तुम जानते हो कि तुम केवल अभिनय कर हो। पूरा परिवार यह निर्णय ले सकता है: ही क्रोधित हो गया हो; शायद अब यह रहे हो। और फिर परिधि पर क्रोध कि अब पिता के लिए, या मां के लिए बिलकुल भी अभिनय न हो। वह कामना वास्तविक हो जाता है, और ठीक उसके कोई परिस्थिति निर्मित करनी है, और तब से, उद्वेग से, भाव से, भावदशा से पीछे छिपे तुम उसे देख रहे हो। अब तुम पूरा परिवार परिस्थिति निर्मित करने में जुट आविष्ट हो गया हो, और यदि वह सच में जानते हो कि तुम उद्विग्न नहीं हो, लेकिन जाए। जब पिता या मां बिलकुल पागल ही ही आविष्ट हो जाए, केवल तभी उसका क्रोध मौजूद है, उद्वेग मौजूद है। उद्वेग है, हो जाए तो सभी हंसने लगे और कहें, अभिनय वास्तविक लगता है। और फिर भी उद्वेग नहीं है। "बिलकुल शांत बने रहो।" तुम एक-दूसरे तुम्हारा शरीर तो नहीं जानता कि तुम दो शक्तियों के एकसाथ कार्य करने की की मदद कर सकते हो, और बड़ा अद्भुत अभिनय कर रहे हो या वास्तव में ही क्रोध यह अनुभूति तुम्हें एक अतिक्रमण दे देती अनुभव होता है। एक बार तुम किसी कर रहे हो। शायद तुमने अपने जीवन में है, तब फिर वास्तविक क्रोध में भी तुम उत्तप्त परिस्थिति में एक शीतल केंद्र को कभी देखा हो कि तुम क्रोध का अभिनय उसका अनुभव कर सकते हो। एक बार जान जाओ, तो तुम उसे भूल नहीं सकते। कर रहे थे, और तुम्हें पता भी नहीं चला तुम जान जाओ कि उसे कैसे अनुभव और फिर किसी भी उत्तप्त परिस्थिति में कि कब क्रोध वास्तविक हो गया। या, तुम करना है, तो वास्तविक परिस्थितियों में भी तुम उसका स्मरण कर सकते हो, उसे फिर बस अभिनय कर रहे थे और कामवासना तुम उसका अनुभव कर सकते हो। इस से जीवंत कर सकते हो, उसे फिर से प्राप्त की कोई अनुभूति नहीं हो रही थी: तुम विधि का उपयोग करो। यह तुम्हारे जीवन कर सकते हो। अपनी पत्नी के साथ, या अपनी प्रेमिका के को पूर्णतः बदल देगी। एक बार तुम जान पश्चिम में अब एक विधि, एक साथ, या अपने पति के साथ अभिनय कर जाओ कि कैसे अनुद्विग्न रहना है, तो मनोचिकित्सा विधि का उपयोग होता है। रहे थे, और अचानक यह वास्तविक हो संसार तुम्हारे लिए दुख नहीं रहता। फिर उसे कहते हैं "मनोनाट्य"। वह सहयोगी गया। शरीर ने बागडोर संभाल ली। वास्तव में ही कोई चीज तुम्हें किसी संशय है, और इसी प्रकार की विधि पर आधारित शरीर को तो छला जा सकता है। शरीर में नहीं डाल सकती, कोई चीज तुम्हें चोट अपना पला 108 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण - नहीं पहुंचा सकती। अब तुम्हारे लिए कोई तो पहली बार तुम अपने मालिक हो जाते यदि यह स्थिति है तो तुम्हारे सभी कर्म पीड़ा नहीं बचती, और एक बार तुम यह हो। वरना तो दूसरे तुम्हारे मालिक होते हैं। प्रतिक्रियाएं हैं, क्रियाएं नहीं। जान जाओ तो तुम एक दूसरा काम कर तुम तो बस एक गुलाम हो। तुम्हारी पत्नी केंद्र का यह बोध और केंद्र में यह सकते हो। जानती है, तुम्हारा बेटा जानता है, तुम्हारे थिरता तुम्हें एक मालिक बना देती है। एक बार तुम अपने केंद्र को परिधि से पिता जानते हैं, तुम्हारे मित्र जानते हैं कि वरना तो तुम एक गुलाम हो, और इतनों के अलग कर सको, तो एक दूसरा काम कर तुम्हें खींचा और धकेला जा सकता है। गुलाम हो-एक ही मालिक के नहीं, सकते हो। एक बार केंद्र बिलकुल अलग तुम्हें उद्विग्न किया जा सकता है, तुम्हें वरन कई-कई मालिकों के। हर चीज हो जाए, यदि तुम क्रोध में, कामना में सुखी और दुखी किया जा सकता है। यदि मालिक है और तुम पूरे जगत के गुलाम अनुद्विग्न रह सको तो तुम कामनाओं के कोई अन्य तुम्हें सुखी और दुखी कर हो। स्वभावतः तुम झंझट में पड़ोगे ही। साथ, क्रोध के साथ, उद्वेगों के साथ खेल सकता है तो तुम मालिक नहीं हुए। दूसरे इतने मालिक तुम्हें इतनी दिशाओं और सकते हो। का आधिपत्य हो गया। एक इशारे से वह आयामों में खींच रहे हैं कि तुम कभी एक यह विधि तुम्हारे भीतर दो अतियों का तुम्हें दुखी कर सकता है; एक छोटी-सी नहीं हो पाते, तुम एक इकाई नहीं हो। और एक भाव पैदा करने के लिए है। वे मौजूद मुस्कान से वह तुम्हें सुखी कर सकता है। इतनी दिशाओं में खींचे जाने से, तुम संताप तो हैं ही: दो विरोधी ध्रुव मौजूद हैं। एक तो तुम किसी और की दया पर हो; दूसरा में हो। जो अपना मालिक हो केवल वही बार तुम्हें इस ध्रुवीयता का बोध हो जाए, तुम्हारे साथ कुछ भी कर सकता है। और संताप का अतिक्रमण कर सकता है। 4 109 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां व ने कहाः हे कमल रा नयनी, मधुर स्पर्शी! गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए यह बोध बनाए रहो कि मैं हूं, और शाश्वत जीवन को खोज लो। यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए-गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए-सजग रहो कि 'तुम हो' और शाश्वत जीवन का आविष्कार कर लो:और अपने भीतर ही प्रवाह को, ऊर्जा अनुभव करो—'मैं हूं' को,शाश्वत जीवन को आविष्कृत कर लो। तीन या चार सैकेंड के लिए भी तुम अपना आत्म-स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं लेकिन हमें अपना ही बोध नहीं है। स्मरण नहीं रख सकते। तुम्हें लगेगा कि है। ऐसा नहीं कि तुम कहो, “हां, मैं हूं"। पश्चिम में गुरजिएफ ने आत्म-स्मरण तुम स्मरण कर रहे हो और अचानक तुम "हां, मैं हूँ" कहने से तुम चूक गए। “मैं का प्रयोग एक बुनियादी विधि के रूप में किसी अन्य विचार में गति कर चुकोगे। हूं", यह एक बौद्धिक बात हो गई, एक किया। वह आत्म-स्मरण इसी सूत्र से अगर यह विचार भी उठा कि “ठीक, मैं तो मानसिक प्रक्रिया हो गई। निकलता है। और गुरजिएफ की पूरी अपना स्मरण कर रहा हूं," तो तुम चूक यह अनुभव करो कि “मैं हूँ"। “मैं व्यवस्था इसी एक सूत्र पर आधारित है। गए, क्योंकि यह विचार आत्म-स्मरण हूँ"-इन शब्दों को नहीं अनुभव करना 'तुम कुछ भी करते हुए अपने को स्मरण नहीं है। है। उसे शब्द मत.दो। बस अनुभव करो रखो।' यह बहुत कठिन है। यह सरल आत्म-स्मरण में कोई विचार नहीं कि तुम हो। सोचो मत। अनुभव करो! मालूम होता है लेकिन तुम भूलते रहोगे। होगा; तुम बिलकुल रिक्त होओगे। और प्रयोग करो। यह कठिन है, लेकिन तुम 110 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण कृतसंकल्प होकर इस पर लगे ही रहो तो जाएगी एक झलक जो कोई एल एस डी लगेगा कि स्मरण आया और अगले ही यह घटित होता है। टहलते हुए, स्मरण तुम्हें नहीं दे सकती, एक झलक जो क्षण तुम भटक जाओगे। कोई विचार रखो कि तुम हो, और अपने होने को ही वास्तविक की है। एक क्षण के लिए तुम प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब तुम पर महसूस करो, किसी विचार या प्रत्यय को अपनी अंतस-सत्ता के केंद्र पर फेंक दिए झलक जाएगा, और तुम प्रतिबिंब में उलझ नहीं। बस अनुभव करो। मैं तुम्हारे हाथ जाते हो। तब तुम दर्पण के पीछे हो, तुम जाओगे। लेकिन न दुखी होओ और न ही को छुऊ, या अपना हाथ तुम्हारे सिर पर प्रतिबिंबों के जगत के पार चले गए; तुम हताश होओ। ऐसा इसलिए होता है रखू: उसे शब्द मत दो। बस स्पर्श को अस्तित्वगत हो गए। और यह तुम किसी क्योंकि जन्मों से हम प्रतिबिंबों में उलझे रहे अनुभव करो, और उस अनुभव करने में भी समय कर सकते हो। इसके लिए किसी हैं। यह एक यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। स्पर्श को ही नहीं, उसको भी अनुभव करो विशेष स्थान और विशेष समय की जरूरत तत्क्षण, स्वतः ही हम प्रतिबिंबों की ओर जिसे स्पर्श किया गया है। फिर तुम्हारी। नहीं है। और तुम यह नहीं कह सकते कि, वापस लौटा दिए जाते हैं। लेकिन एक चेतना के दो फलक हो जाएंगे। "मेरे पास समय नहीं है।" इसे तुम खाते क्षण को भी तुम्हें झलक मिल जाए, तो तुम वृक्षों के नीचे टहल रहे होः वृक्ष हैं, समय कर सकते हो, नहाते समय कर शुरू करने के लिए पर्याप्त है। और वह हवा है, सूरज उग रहा है। यह तुम्हारे चारों सकते हो, चलते हुए या बैठे हुए कर पर्याप्त क्यों है ? क्योंकि तुम्हें कभी भी दो ओर का संसार है; तुम उसके प्रति सजग सकते हो—किसी भी समय। इससे कोई क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। तुम्हारे साथ हो। एक क्षण को खड़े रहो, और फिर फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कर रहे हो, तो हमेशा केवल एक क्षण ही होता है। अचानक स्मरण करो कि 'तुम हो', लेकिन तुम अचानक अपना स्मरण कर सकते हो, और यदि तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक उसको शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि और फिर अपनी अंतस-सत्ता की उस मिल सके, तो तुम उसमें रह सकते हो। तुम हो। यह निशब्द अनुभूति, एक क्षण के झलक को जारी रखने की चेष्टा करो। केवल प्रयास की आवश्यकता है-एक लिए ही सही, तुम्हें एक झलक दे यह कठिन होगा। एक क्षण को तुम्हें सतत प्रयास की आवश्यकता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां रजिएफ ने एक कोने से इस विधि का प्रयोग कियाः सिर्फ यह स्मरण रखना है कि मैं कौन हूं। रमण महर्षि ने इसका प्रयोग दूसरे कोने से किया। उन्होंने “मैं कौन हूं?" पूछने को, खोजने को एक ध्यान बना दिया। परन्तु मन जो भी उत्तर तुम्हें दे सकता है उस पर विश्वास मत करो। मन कहेगा, "क्या नासमझी की बात तुम पूछ रहे हो? तुम यह हो, कि तुम वह हो, पुरुष हो, कि स्त्री हो, कि तुम शिक्षित हो, अशिक्षित हो, अमीर या गरीब हो।" मन उत्तर देता रहेगा, मैं कौन हूं? पर पूछते ही चले जाओ। कोई उत्तर वही सम्यक क्षण है। अब तुम उत्तर के जाएगा। प्रश्न पूछने के साथ-साथ मन का स्वीकार मत करो क्योंकि मन के द्वारा दिए करीब आ रहे हो। जब कोई उत्तर नहीं अंतिम अंश भी विलीन हो गया क्योंकि सभी उत्तर झूठे हैं। आता, तुम उत्तर के करीब हो क्योंकि मन वह प्रश्न भी मन का ही हिस्सा था। वे वे उत्तर तुम्हारे झूठे हिस्से से आते हैं। वे शांत हो रहा है-या, तुम मन से बहुत दूर उत्तर भी मन के थे और वह प्रश्न भी मन शब्दों से आते हैं, वे शास्त्रों से आते हैं, चले गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा का था। दोनों विलीन हो गए, तो अब 'तुम संस्कारों से आते हैं, समाज से आते हैं, और तुम्हारे चारों ओर एक शून्य निर्मित हो हो। दूसरों से आते हैं। पूछते ही जाओ। “मैं जाएगा, तो तुम्हारा प्रश्न पूछना व्यर्थ इस प्रयोग को करो। तुम यदि लगन से कौन हूं?" के इस तीर को गहरे और गहरे मालूम होगा। किससे तुम पूछ रहे हो? लगे रहे तो हर संभावना है कि यह विधि प्रवेश करने दो। एक क्षण ऐसा आएगा उत्तर देने वाला अब कोई नहीं है। तुम्हें सत्य की झलक दे जाए-और सत्य जब कोई उत्तर नहीं आएगा। अचानक, तुम्हारा प्रश्न पूछना भी बंद हो ही शाश्वत है। 6 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक केंद्रीकरण 7 व ने कहाः प्रत्येक वस्तु । अनुभूति के द्वारा ही जानी जाती है। अनुभूति के द्वारा ही आत्मा अंतस आकाश में प्रकाशित होती है। उस एक को ही ज्ञाता और ज्ञेय की भांति जानो। जब भी तुम कुछ जानते हो, वह अनुभूति के द्वारा ही जाना जाता है। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते स्व-सत्ता के केंद्र की ओर हो। तुम जानते हो वह गुलाब का फूल है। है। जानना तुम्हारी क्षमता है। ज्ञान इसी तो ज्ञान को तीन बिंदुओं में बांटा जा गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है। सकता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ज्ञान दो हो। तुमसे कोई चीज गुलाब के फूल तक लेकिन जानना दो चीजों को प्रगट करता बिंदुओं-विषयी और विषय के बीच पहुंचती है, तुमसे कोई चीज फूल पर है: ज्ञात और ज्ञाता। जब भी तुम किसी सेतु की भांति है। सामान्यतः तुम्हारा ज्ञान प्रक्षेपित होती है। तुम्हारे भीतर से कोई गुलाब के फूल को जानते हो और उस केवल ज्ञात को प्रकट करता है; ज्ञाता, ऊर्जा गति करती है, गुलाब पर आती है, ज्ञाता को, जानने वाले को भूल जाते हो जो जानने वाला अप्रकट रह जाता है। उसका रूप, रंग और गंध ग्रहण करती है, जान रहा रहा है तो तुम्हारा ज्ञान आधा है। सामान्यतः तुम्हारे ज्ञान में एक ही तीर होता और लौटकर तुम्हें खबर देती है कि यह इसलिए गुलाब को जानने में तीन चीजें है, जिसका लक्ष्य गुलाब की ओर तो होता गुलाब का फूल है। हुई: गुलाब का फूल-ज्ञेय; तुम्हारी ओर कभी भी नहीं होता। जब तक सारा ज्ञान, जो भी तुम जानते हो, जानने ज्ञाता-तुम, और दोनों के बीच का वह तुम्हारी ओर न मुड़ने लगे तब तक की क्षमता के द्वारा ही तुम पर प्रगट होता संबंध-ज्ञान। ज्ञान तुम्हें संसार के विषय में तो जानने 113 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां देगा, लेकिन कभी तुम्हारे अपने ही विषय तीसरे हो जाते हो-तुम दोनों ही नहीं चित्त को एकाग्र न कर सको, तो ज्ञाता की में नहीं जानने देगा। रहते। ज्ञेय और ज्ञाता दोनों के प्रति सजग ओर जाना भी कठिन होगा, क्योंकि तब __ ध्यान की सभी विधियां ज्ञाता को, होने की चेष्टा से ही तुम तीसरे हो जाते हो, तुम्हारा मन सदा भटका रहता है। तो जानने वाले को प्रगट करने के लिए हैं। तुम एक साक्षी हो जाते हो। तत्क्षण एक एकाग्रचित्तता ध्यान की ओर पहला कदम जॉर्ज गुरजिएफ ने ठीक इसी तरह की एक तीसरी संभावना उठती है-एक साक्षी बन जाती है। केवल गुलाब रह जाता है; विधि का उपयोग किया। वे उसे केंद्र अस्तित्व में आता है क्योंकि दोनों पूरा संसार विलीन हो गया। अब तुम आत्म-स्मरण कहते थे। वे कहते थे कि को तुम कैसे जान सकते हो? यदि तुम भीतर की ओर जा सकते हो, अब गुलाब जब भी तुम कुछ जान रहे हो तो सदा ज्ञाता हो, तो एक बिंदु पर जड़ रह जाते वह बिंदु बन जाता है जहां से तुम आगे बढ़ जानने वाले को भी जानो। उसे हो। आत्म-स्मरण में तुम ज्ञाता के उस जड़ सकते हो। अब गुलाब को देखो और स्वयं विषय-वस्तु में मत भुला दो। विषयी को, बिंदु से हट जाते हो। फिर ज्ञाता तुम्हारा मन के प्रति, ज्ञाता के प्रति सजग होने लगो। सब्जेक्ट को याद रखो। अभी तुम मुझे सुन होता है और ज्ञात होता है संसार, और तुम आरंभ में तो तुम चूकोगे। जब तुम ज्ञाता रहे हो। जब तुम मुझे सुन रहे हो, तो दो एक तीसरे बिंदु, एक चेतना, एक साक्षी पर पहुंच जाओगे, गुलाब चेतना से हट तरह से सुन सकते हो। एकः कि तुम्हारा केंद्र बन जाते हो। जाएगा। वह धूमिल हो जाएगा, दूर चला मन मेरी ओर ही केंद्रित हो-तब तुम इस तीसरे बिंदु का अतिक्रमण नहीं हो जाएगा, सुदूर हो जाएगा। फिर दोबारा तुम श्रोता को भूल जाते हो। तब वक्ता को तो: सकता, और जिसका अतिक्रमण नहीं हो गुलाब की ओर आओगे, और स्वयं को जान लिया गया, लेकिन श्रोता विस्मृत हो सकता वही परम है। जिसका अतिक्रमण भूल जाओगे। यह आंख-मिचौली का गया। हो सके वह महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि वह खेल चलता रहेगा, लेकिन तुम यदि प्रयास गुरजिएफ कहते थे कि सुनते हुए बोलने तुम्हारा स्वभाव नहीं हुआ उसका तुम करते ही रहो, तो देर-अबेर एक क्षण वाले के साथ-साथ सुनने वाले को भी अतिक्रमण कर सकते हो। आएगा जब अचानक तुम मध्य में जानो। तुम्हारा ज्ञान द्विमुखी होना तुम एक गुलाब के फूल के पास बैठे होओगे। जाननेवाला मन होगा, और चाहिए-ज्ञाता और ज्ञेय, दो बिंदुओं की होः उसे देखो। पहली बात यह करनी है गुलाब का फूल होगा, और तुम ठीक मध्य ओर इंगित करता हुआ। वह एक ही दिशा कि पूर्णतया सजग हो जाओ, गुलाब को में होओगे-दोनों को देखते हुए। वह में केवल विषय की ओर नहीं बहना पूरा ध्यान दो, ताकि पूरा संसार विलीन हो मध्य बिंदु, वह संतुलन का बिंदु ही साक्षी चाहिए। वह ज्ञेय और ज्ञाता, दो दिशाओं जाए और गुलाब ही बच रहे-तुम्हारी है। की ओर, एक साथ बहना चाहिए। इसे चेतना गुलाब के होने के प्रति पूर्णतया एक बार तुम यह जान जाओ, तो तुम गुरजिएफ आत्म-स्मरण कहते थे। सजग है। यदि ध्यान पूरा हो तो संसार दोनों ही बन गए। फिर गुलाब-जो ज्ञेय बुद्ध ने इसे सम्यक स्मृति विलीन हो जाता है, क्योंकि गुलाब पर है, और ज्ञाता-जो मन है, तुम्हारे दो पंख कहा-ठीक-ठीक स्मरण। उन्होंने कहा, जितना ध्यान केंद्रित किया जाएगा, शेष बन जाते हैं। फिर विषय और विषयी बस यदि तुम्हारा मन केवल एक ही बिंदु को सब कुछ उतनी ही दूर छूट जाएगा। संसार दो पंख होते हैं; तुम दोनों के केंद्र हो। वे जानता है तो सम्यक स्मृति में नहीं है। उसे विलीन हो जाता है; केवल गुलाब बच तुम्हारा विस्तार हैं। फिर संसार और दोनों का ज्ञान होना चाहिए। और तब एक रहता है। गुलाब ही संसार हो जाता है। परमात्मा दोनों ही तुम्हारा विस्तार हैं। तुम चमत्कार होता है। यदि तुम्हें ज्ञेय और यह पहला चरण है-गुलाब पर चित्त स्व-सत्ता के ठीक केंद्र पर पहुंच गए। और ज्ञाता दोनों का बोध हो, तो अचानक तुम को एकाग्र करना। यदि तुम गुलाब पर यह केंद्र बस एक साक्षी है।7। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 भीतर देखना भीतर देखना ये 'विधियां देखने के प्रयोग से संबंधित हैं। इसके पहले कि हम इन विधियों में प्रवेश करें आंखों के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी है क्योंकि ये विधियां उन बातों पर आधारित हैं। पहली बात : आंखें मनुष्य के शरीर की सबसे कम भौतिक, सबसे कम शारीरिक अंग हैं। यदि पदार्थ अपार्थिव हो सकते हों, तो यही स्थिति आंखों की है। आंखें पार्थिव हैं लेकिन साथ ही साथ वे अ- भौतिक भी हैं। आंखें तुम्हारे शरीर और तुम्हारे बीच एक मिलन बिन्दु हैं। शरीर में यह मिलन बिंदु और कहीं इतना गहरा नहीं है। शरीर और तुम्हारे बीच एक बड़ा अलगाव है; एक बड़ी दूरी है। लेकिन आंखों के तल पर तुम शरीर के सर्वाधिक निकट हो और शरीर तुम्हारे सर्वाधिक निकट है। यही कारण है कि आंखें अंतर्यात्रा के लिए उपयोग की जा सकती हैं। आंखों से ली गई एक छलांग तुम्हें मूलस्रोत पर ले जा सकती है। यह छलाँग हाथों से लेनी संभव नहीं है, हृदय से संभव नहीं है— शरीर में और किसी अंग से संभव नहीं है। किसी भी और बिंदु से तुम्हें लंबी यात्रा करनी पड़ेगी; दूरी बड़ी है। लेकिन आंखों से लिया गया एक कदम काफी है तुम्हें स्वयं के भीतर प्रवेश करने के लिए । आंखें तरल हैं, गतिमय हैं, सतत गत्यात्मक हैं; और इस गतिमयता की अपनी लयबद्धता, अपनी पद्धति और अपनी प्रक्रिया है । तुम्हारी आंखें यों ही अराजक गतिशील नहीं होती हैं। उनकी अपनी लय है और यह लय कई बातें दर्शाती है। यदि तुम्हारे मन में काम-वासना के विचार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां हैं, तो तुम्हारी आंखें भिन्न ढंग से गति और इस प्रवाह और गत्यात्मकता के कारण तक गति नहीं करने देते, तो वे बाहर से करती हैं-एक भिन्न लय में गति करती ही वे इतनी जीवंत हैं। गति जीवन है। भीतर की ओर गति करने लगेंगी। या तो वे हैं। तुम्हारी आंखों और उसकी गति को तुम प्रयास कर सकते हो अपनी आंखों असे ब की ओर गति करेंगी या यदि तुम देखते हुए यह कहा जा सकता है कि किस को किसी खास बिंदु पर, किसी एक उन्हें बाहर गति न करने दो, तो वे भीतर किस्म का विचार भीतर चल रहा है। जब विषयवस्तु पर रोक लेने के लिए और उन्हें की ओर गति करने लगती हैं। गति उनका तुम भूखे होते हो और भोजन का एक गति न करने देने के लिए, लेकिन गति स्वभाव है; गति उनकी जरूरत है। यदि विचार भीतर उठ रहा है, तो आंखों की में होना उसका स्वभाव है। तुम गति तुम अचानक उन्हें रोक लो और उन्हें बाहर एक अलग गति होती है। को रोक नहीं सकते, लेकिन तुम अपनी गति न करने दो, तो वे भीतर की ओर गति इसलिए स्मरण रहे कि विचार और आंखों को रोक रख सकते हो। यह फर्क करने लगती हैं। आंखों की गति परस्पर जुड़ी हुई है। समझ लो। इस तरह गति की दो संभावनाएं हैं। इसलिए यदि तुम अपनी आंखों को और तुम अपनी आंखों को एक स्थिर बिंदु पहली गति है : विषय असे विषय ब की उसकी गतियों को रोक लो, तो तत्काल पर या दीवाल पर बने एक निशान पर रोक ओर; यह एक बाह्य गति है; और विचारों की प्रक्रिया भी रुक जाएगी। या ले सकते हो, तुम उस बिंदु पर टकटकी सामान्यतया यही गति घटित हो रही है। फिर यदि तुम्हारे विचारों की प्रक्रिया बंद हो लगा सकते हो; तुम अपनी आंखों को उस लेकिन एक दूसरी संभावना है जो तंत्र जाए तो आंखों की गति अपने आप ही बंद : पर टिका सकते हो। लेकिन गति करना और योग का अभ्यास है-एक बाह्य हो जाएगी। उनका स्वभाव है। वे विषय अ से ब की विषय से दूसरे बाह्य विषय की ओर गति एक और बातः आंखें एक विषय से ओर गति नहीं कर सकतीं; क्योंकि तुमने न करने देना, यह गति ही रोक देना। दूसरे विषय पर सतत गति करती रहती हैं। उन्हें बिन्दु अ पर रुकने के लिए बाध्य कर तब आंखें बाह्य विषयवस्तु से अंतस अ से ब पर, ब से स पर-वे सतत गति दिया है, लेकिन तब एक अजीब घटना चेतना में छलांग लगा जाती हैं। वे भीतर करती रहती हैं। हलन-चलन उनका फलित होती है। की ओर गति प्रारंभ कर देती हैं। स्वभाव है। यह ऐसे ही है जैसे एक नदी गति तो वहां होनी ही है; वह आंखों का इन बातों को स्मरण रखें, फिर इन बहती रहती है-बहना उसका स्वभाव है। स्वभाव है। यदि तुम उन्हें बिन्दु अ से ब विधियों को समझना आसान होगा।। 116 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर देखना व ने कहाः आंखें बंद | करके अपने भीतर सविस्तार से देखो। इस तरह अपने वास्तविक स्वरूप को देख लो। "बंद आंखें"-अपनी आंखें बंद कर लो। लेकिन यह आंखें बंद करना पर्याप्त नहीं है। पूरी तरह से आंखें बंद करने का अर्थ है: आंखें बंद करके उनकी सब गतियां रोक लेना। नहीं तो आंखें वह सब देखना जारी रखेंगी जो कि बाहर का है। अंतर्दर्शन ध्यान बंद आंखों से भी तुम चीजों को आंखें बंद कर लेते हैं। रात्रि तुम अपनी समय की जरूरत होगी; यह अचानक नहीं देखोगे-वस्तुओं की छायाकृतियों को। आंखें बंद कर लेते हो, लेकिन ऐसा करना किया जा सकता। तुम्हें एक लंबे प्रशिक्षण वास्तविक चीजें तो वहां नहीं हैं, लेकिन तुम्हारे अंतस स्वभाव को प्रकट न करेगा। की जरूरत होगी। अपनी आंखें बंद कर आकृतियां, विचार, संचित स्मृतियां-वे इस तरह अपनी आंखें बद कर लो कि लो। सब प्रवाहित होने लगेंगी। वे सब भी बाह्य भीतर देखने को कुछ शेष न रहे-न तो जब भी तुम्हें समय हो और यह करना विषय हैं, इसलिए तुम्हारी आंखें अब भी कोई बाह्य विषय, और न बाह्य विषय की सरल लगे, तब आंखें बंद कर लो और पूरी तरह से बंद नहीं हैं। पूरी तरह से बंद अंतर्छाया ही; मात्र एक रिक्त अंधकार, फिर भीतर से आंखों की सारी आंखों का अर्थ है-देखने को कुछ भी न मानो तुम अचानक अंधे हो गए हो-न हलन-चलन को रोक लो। कोई गति मत रहा। इस फर्क को समझ लें। केवल बाह्य वास्तविकता के प्रति, बल्कि होने दो। इसका अनुभव करो। कोई गति न तुम अपनी आंखें बंद कर सकते हो; स्वप्न-सत्ताओं के प्रति भी। होने दो। आंखों की सभी गतियां रोक लो। यह सरल है। सभी व्यक्ति क्षण-क्षण इसका अभ्यास करना पड़े। एक लम्बे अनुभव करो जैसे कि तुम पाषाणवत हो 117 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां गए हो, फिर तुम आंखों की उस पाषाणवत किसी भी अंग में समग्रता से प्रवाहित हो करो तो तुम मन से भी अलग हो सकते दशा में बने रहो। कुछ भी मत करो; बस सकते हैं, तब वह अंग जीवंत हो उठता हो। फिर तुम जानोगे कि मन भी एक रुके रहो। अचानक एक दिन तुम्हें बोध है-इतना ज्यादा जीवंत हो उठता है कि विषयवस्तु है जिसे तुम देख सकते हो और होगा कि तुम स्वयं के भीतर देख रहे हो। तुम अभी कल्पना नहीं कर सकते कि उस यह कि वह जो मन को देख रहा है, वह तुमने अपने शरीर को केवल बाहर से अंग को क्या हो जाता है। तब तुम आंखों मन से भिन्न और अलग है। मन में प्रवेश देखा है। तुमने अपने शरीर को एक दर्पण में समग्रता से गति कर सकते हो। यदि तुम करने का वही अर्थ है जो अर्थ 'अंतरंग को में प्रतिफलित होते देखा है, या तुमने हाथों अपनी आंखों में समग्रता से गति कर विस्तार से देखने' का है। शरीर और मन को बाहर से देखा है। तुम नहीं जानते कि सकते हो और फिर किसी व्यक्ति की दोनों में प्रवेश करना है और उन्हें भीतर से तुम्हारे शरीर का भीतरी रूप क्या है। तुमने आंखों में झांको, तो तुम उसे आर-पार भेद देखना है। फिर तुम बस एक साक्षी हो कभी अपने भीतर प्रवेश नहीं किया है। तुम डालोगे; तुम उसकी अंतरंग गहराइयों में , और यह साक्षी और आगे विभक्त नहीं हो कभी अपनी अंतस-सत्ता में और अपने प्रवेश कर जाओगे। सकता। शरीर के भीतर नहीं हुए हो ताकि तुम वहां आंखें बंद कर लो; अपने अंतरंग को इसीलिए तो यह साक्षी तुम्हारा अंतरतम से चारों ओर देख सको कि वह भीतर से विस्तार से देखो। इस विधि का प्रथम और मर्म है: साक्षी ही तुम हो। जो विभक्त कैसा दिखता है। बाहरी हिस्सा है कि तुम अपने शरीर को किया जा सके, जो दृश्य बन सके-वह __ अपनी आंखें बंद कर लो, अपने भीतर के केंद्र से देखो। भीतर मध्य में खड़े तुम नहीं हो। जब तुम उस बिंदु पर आ गए अंतर्जगत को सविस्तार से देखो और रह कर चारों ओर देखो। तुम शरीर से जिसे विभक्त नहीं किया जा सकता, भीतर से प्रत्येक अंग पर गति करो। अलग हो जाओगे क्योंकि देखने वाला जिसमें तुम और आगे गति नहीं कर पैर के अंगूठे पर भीतर से दृष्टि ले कभी भी देखी गई वस्तु नहीं रह जाता। सकते, जिसका अवलोकन नहीं किया जा जाओ। पूरे शरीर को भूल जाओ; अंगूठे अवलोकन-कर्ता अवलोकित-वस्तु से सकता, केवल तभी तुम स्व-सत्ता पर पर जाओ। वहां ठहरो और देखो। फिर पैरों अलग है। पहुंचे। स्मरण रखो कि तुम साक्षी के स्रोत में गति करो, ऊपर की ओर चलो; पैरों के यदि तुम भीतर से अपने शरीर को पूरी के साक्षी नहीं हो सकते; यह बेतुका होगा। प्रत्येक हिस्से से गुजरो। तब बहुत-सी तरह से देख सको, फिर तुम कभी भी इस यदि कोई कहता हो कि “मैंने अपने चीजें घटित होती हैं। भ्रांति में नहीं पड़ सकते कि तुम शरीर हो। साक्षी का अवलोकन किया है"-तो यह फिर तुम्हारा शरीर इतना ज्यादा तब तुम भिन्न बने रहोगे, पूर्णतः अनर्गल कथन होगा। यह अनर्गल क्यों संवेदनशील संयंत्र हो जाता है जिसकी तुम भिन्न-शरीर के भीतर, लेकिन शरीर है? इसलिए कि यदि तुमने अपने कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर यदि तुम नहीं। यह इस विधि का पहला हिस्सा है। साक्षी-स्व का अवलोकन किया है, तो किसी को छुओ, तो तुम अपने हाथों में पूरी तब तुम गति कर सकते हो, तब तुम गति फिर वह विषय बन जाने के कारण ही परम तरह से प्रवाहित हो सकते हो और फिर करने के लिए मुक्त हुए। एक बार शरीर से चैतन्य न रह गया। फिर देखने वाला स्वयं वह स्पर्श रूपांतरणकारी हो जायेगा। यही मुक्त हो कर, तादात्म्य से मुक्त हो कर तुम परम चैतन्य हो गया। जिसका भी तुम अर्थ है सद्गुरु द्वारा छुए जाने काः वे गति करने के लिए मुक्त हुए। अब तुम अवलोकन कर सकते हो, तुम वह नहीं अपने किसी भी अंग में पूर्णतः प्रवाहित हो अपने मन में गहरे में गति कर सकते हो। हो; जिसे भी तुम देख सकते हो, तुम वह सकते हैं और फिर वे वहां पूरी तरह से यह मन की अंतर्गुफा है। नहीं हो; जो भी तुम्हारे बोध का विषय बन सघन हो उठते हैं। वे तुम्हारे शरीर के यदि तुम मन की इस अंतर्गुफा में प्रवेश जाता है, तुम वह नहीं हो। 2 118 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर देखना ग व ने कहाः एक पात्र को | देखो- बिना उसकी दीवारों को, या उसकी धातु के प्रकार को देखे। और कुछ ही क्षणों में जाग्रत हो जाओ। किसी भी चीज को देखो। एक पात्र या कोई भी चीज से काम हो जाएगा, लेकिन एक नई गुणवत्ता से देखना है : “एक पात्र को देखो-बिना उसकी दीवारों को या उसकी धातु के प्रकार को देखे।" किसी भी समग्रता को देखना वस्तु को देखो, लेकिन इन दो शर्तों के किसी चीज को एक समग्रता की भांति तुम किसी वस्तु को देखते हो एक समग्रता साथ देखो। पात्र की दीवारों को मत देखोः देखो; उसे हिस्सों में मत बांटो। क्यों? की भांति, तब आंखों को गति करने पात्र को एक समग्रता की भांति देखो। क्योंकि जब तुम बांटते हो, तब आंखों को की कोई जरूरत नहीं रह जाती। आंखों सामान्यतया तो हम हिस्सों को देखते एक हिस्से से दूसरे हिस्से में गति करने का को गति करने का कोई मौका न देने के हैं। भले ही यह ज्यादा सचेतन रूप से नहीं मौका मिल जाता है। किसी चीज को एक लिए यह शर्त बनाई गई है। किसी वस्तु किया जाता हो, लेकिन हम हिस्सों को ही समग्रता की तरह देखो। को पूरा देखो, उसे एक समग्र इकाई की देखते हैं। यदि मैं तुम्हें देखता हूं तो पहले इसका प्रयास करो। पहले किसी चीज तरह लो। और दूसरी शर्त है—“बिना मैं तुम्हारे चेहरे को देखता हूं, फिर तुम्हारे को एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक क्रमशः उसकी धातु के प्रकार को देखे।" यदि धड़ को, शरीर के मध्य भाग को देखता हूं देखो। फिर अचानक उस चीज को एक कटोरा लकड़ी का है तो लकड़ी को मत और तब तुम्हारे पूरे शरीर को देखता हूं। समग्रता की भांति देखो; बांटो मत। जब देखो-सीधे कटोरे को देखो, उसके 119 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां आकार को देखो। पदार्थ को मत देखो। सुंदर अनुभव हो जाता है। और तब यह सकते। वस्तु के भौतिक तत्व को छोड़ कटोरा सोने का बना हो सकता है, वह मत सोचो कि शरीर सुंदर है या नहीं, गोरा दिया गया है; उसके शुद्ध रूप को, चांदी का बना हो सकता है। इसका है या काला है, पुरुष है या स्त्री है। आकार को देखा जा रहा है। अब तुम खयाल लो। उस धातु को सोचो मत, बस आकार को देखो। सोना, लकड़ी, चांदी आदि के बारे में नहीं मत देखो जिससे कि यह कटोरा निर्मित पदार्थ को भूल जाओ और केवल आकार सोच सकते। हुआ है; केवल आकार को देखो। को देखो। “और कुछ ही क्षणों में जाग्रत समग्रता के साथ और आकार के साथ __ पहली बात है, उसे एक समग्रता की हो जाओ।" जुड़े रहो। और अचानक तुम स्वयं के बोध तरह देखना। दूसरी बात है : उसे एक रूप लगातार एक वस्तु के आकार को एक से भर जाओगे, क्योंकि अब आंखें गति की तरह देखो-एक पदार्थ की तरह नहीं। समग्रता की भांति देखते रहो। आंखों को नहीं कर सकतीं। और उन्हें गति की क्यों? क्योंकि उसका ठोस हिस्सा तो कोई हलन-चलन मत करने दो। उस वस्तु जरूरत है; गति उनका स्वभाव है। पदार्थ का अंग है और रूप आध्यात्मिक के “पदार्थ" के बारे में सोचना शुरू मत इसलिए तुम्हारी दृष्टि तुम पर चली हिस्सा है। तुम्हें भौतिक से अभौतिक की कर देना। आएगी। वह वापस हो जाएगी, वह घर ओर गति करना है। यह सहायक होगा। इससे क्या घटित होगा? अचानक तुम चली आएगी और अचानक तुम स्वयं के इसका प्रयोग करो। इसका प्रयोग तुम स्व-सत्ता के बोध से भर जाओगे। किसी बोध से भर जाओगे। यह स्व-सत्ता के किसी व्यक्ति के साथ भी कर सकते हो। वस्तु को देखते हुए तुम्हें स्वयं का बोध आ बोध से भर जाना एक सर्वाधिक संभव कोई पुरुष या कोई स्त्री खड़ी है: देखो, जाएगा। क्यों? क्योंकि आंखों के लिए आह्लादकारी क्षण है। जब पहली बार तुम्हें और उस पुरुष या स्त्री को अपनी दृष्टि में __ कोई संभावना नहीं है कि वे बाहर गति कर स्व-सत्ता का बोध होता है, तो उसका ऐसा पूरा का पूरा लो। शुरू-शुरू में यह बड़ा सकें। वस्तु के आकार को एक समग्रता सौंदर्य है और उसका ऐसा आनंद है कि अटपटा लगेगा, क्योंकि तुम्हें इसकी कोई की तरह देखा जा रहा है, इसलिए तुम उस तुम उसकी तुलना किसी भी पूर्व-परिचित आदत नहीं है, लेकिन अंत में यह बहुत वस्तु के छोटे हिस्से पर गति नहीं कर अनुभव से नहीं कर सकते। 3 120 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर देखना -त्सू ने कहाः जब प्रकाश को एक वृत्त में घूमने दिया जाता है, तब स्वर्ग और पृथ्वी की, रोशनी और अंधकार की सारी ऊर्जाएं संघटित और एकजुट हो जाती हैं। तुम्हारी चेतना बाहर की ओर प्रवाहित हो रही है-यह एक तथ्य है, इसमें विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं है। जब तुम किसी वस्तु को देखते हो, तब तुम्हारी चेतना उसकी ओर बहती है। ऊर्जा का अंतर्वृत्त उदाहरण के लिए तुम मुझे देख रहे हो। हम यह जानते हैं-यह प्रतिपल घट तुम्हें एक साथ, युगपत, विषयवस्तु और तब तुम स्वयं को भूल जाते हो और मुझ रहा है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरती है जाननेवाले दोनों का बोध हो सके ताकि पर केंद्रित हो जाते हो। तब तुम्हारी ऊर्जा और अचानक तुम्हारी ऊर्जा उसका तुम्हें स्वयं का बोध हो सके। तब मेरी ओर बहती है, तुम्हारी आंखें मेरी ओर अनुगमन करने लगती है। इस ऊर्जा के, आत्म-बोध का आविर्भाव होता है। टिकी हुई हैं। यह बहिर्मुखता है। इस प्रकाश के बाहर की दिशा में बहने को सामान्यतया हम इसी आधे-आधे ढंग तुम एक फूल को देखते हो और हम जानते हैं। यह केवल आधी बात है। से जीते हैं-आधे जीवित, आधे मत। विमुग्ध हुए तुम फूल पर केंद्रित हो जाते लेकिन हर बार जब अंतस ऊर्जा, अंतस यही हमारी स्थिति है। और धीरे-धीरे हो। तुम स्वयं के प्रति अनुपस्थित हो प्रकाश बाहर बहता है, तुम स्वयं के प्रति प्रकाश बाहर की ओर प्रवाहित होता रहता जाते हो, तुम फूल के सौंदर्य मात्र के प्रति मूछित हो जाते हो। प्रकाश को वापस है और कभी वापस नहीं लौटता। तुम सजग रह जाते हो। भीतर की ओर प्रवाहित होना चाहिए ताकि अधिक से अधिकतर रिक्त और खोखले 121 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां होते जाते हो। तुम एक काला खड्डु बन यद्यपि ताओ के किसी शास्त्र में इसका प्रतिबिंब से लौटकर तुम तक वापस आने जाते हो। उल्लेख नहीं है, फिर भी मुझे यह बहुत देना ताकि ऊर्जा का एक पूरा वृत्त निर्मित ताओ के साधकों का अनुभव है कि यह सरल विधि लगती है, जिसका अभ्यास हो जाता है। और जब भी ऊर्जा का पूरा ऊर्जा जो तुम्हारी बहिर्मुखता में तुम खर्च कोई भी व्यक्ति कर सकता है और वृत्त बनता है-एक गहन मौन भीतर उतर करते हो, इसे अधिक से अधिक भीतर बहुत आसानी से।। आता है। इकट्ठा और एकजुट किया जा सकता यदि अपने स्नानगृह में दर्पण के सामने खड़े अधूरा वृत्त बेचैनी पैदा करता है और तुम इसे वापस लौटा लेने की ध्यान-विधि हुए पहले तुम दर्पण में अपने प्रतिबिंब को जब ऊर्जा का वृत्त पूरा होता है तब वह सीख लो। यह संभव है। यही तो देखते हो। तुम देख रहे हो और प्रतिबिंब गहन विश्राम को जन्म देता है। वह तुम्हें एकाग्रचित्तता की समस्त विधियों का तुम्हारा विषय है। फिर पूरी स्थिति को केंद्रस्थ कर देता है और केंद्रस्थ होना विज्ञान है। बदल डालो, प्रक्रिया को उलटा कर दो। ऊर्जावान होना है। यह तुम्हारी स्वयं की. किसी दिन दर्पण के सामने खड़े होकर अनुभव करो कि तुम प्रतिबिंब हो और शक्ति है। एक छोटा-सा प्रयोग करो। तुम दर्पण में दर्पणवाला प्रतिबिंब तुम्हें देख रहा है। तुरंत यह एक तरह का प्रयोग है; तुम इसे देख रहे हो-तुम दर्पण में अपना चेहरा, तुम एक परिवर्तन घटित होता हुआ और दूसरे ढंग से भी कर सकते हो। अपनी आंखें देख रहे हो। यह बहिर्मुखता देखोगे-एक विराट ऊर्जा तुम पर आती गुलाब के फूल के पास जा कर पहले है: तुम दर्पण में प्रतिबिंबित चेहरा देख रहे. हुई। उसे कुछ क्षणों के लिए, कुछ मिनटों के हो-निश्चय ही अपना खुद का चेहरा शुरू में हो सकता है कि यह घटना तुम्हें लिए देखो और फिर उसकी विपरीत देख रहे हो, लेकिन यह प्रतिबिंब तुमसे भयभीत करने वाली लगे क्योंकि तुमने न प्रक्रिया शुरू करो कि गुलाब का फूल तुम्हें बाहर का एक विषय है। कभी यह प्रयोग किया है और न ही तुम देख रहा है। तुम आश्चर्यचकित हो फिर एक क्षण के लिए इस पूरी प्रक्रिया इस घटना से परिचित हो। यह तुम्हें एक जाओगे कि गुलाब का फूल तुम्हें कितनी को उलटा कर दो। यह अनुभव करना विक्षिप्त बात लग सकती है। तुम शायद ऊर्जा दे सकता है। शुरू करो कि दर्पण में प्रतिबिंबित चेहरे झकझोरे गए अनुभव कर सकते हो; तुममें यह प्रयोग वृक्षों, सितारों और व्यक्तियों द्वारा तुम देखे जा रहे हो-ऐसा नहीं कि एक कंपकंपी भी उठ सकती है; या तुम के साथ भी किया जा सकता है। बहुत तुम दर्पण में प्रतिफलित बिंब को देख रहे अस्तव्यस्त हुआ अनुभव कर सकते हो अच्छा होता है इसे उस स्त्री या पुरुष के हो, वरन ऐसा कि दर्पण में प्रतिबिंबित क्योंकि अब तक के तुम्हारे सारे संस्कार साथ करना जिसे तुम प्रेम करते हो। बस चेहरा तुम्हें देख रहा है। और फिर तुम एक बहिर्मुखता के रहे हैं। अंतर्मुखता को एक-दूसरे की आंखों में झांको। पहले अजीब स्थिति अनुभव करोगे। धीरे-धीरे सीखना होगा। लेकिन तभी वृत्त दूसरे में देखना शुरू करो, फिर अनुभव कुछ मिनटों के लिए इसका प्रयोग पूरा होता है। करो कि दूसरा व्यक्ति ऊर्जा को तुम पर करो; तुम बहुत जीवंत हो उठोगे और एक यदि तुम इस प्रयोग को कुछ दिन करो वापस लौटा रहा है; उपहार वापस लौट विराट अज्ञात शक्ति तुममें प्रविष्ट होने तो तुम आश्चर्य से भर जाओगे कि पूरे कर आ रहा है। तुम आपूरित हुआ, स्नान लगेगी। तुम शायद भयभीत भी हो जाओ, दिन अब तुम कितना ज्यादा जीवंत अनुभव किया हुआ, एक नई ऊर्जा से भीगा हुआ क्योंकि तुमने इसे कभी नहीं जाना है; तुमने करने लगे हो। बस कुछ मिनट के लिए अनुभव करोगे। तुम इससे गुजरकर ज्यादा ऊर्जा के पूर्ण वृत्त को कभी नहीं देखा है। दर्पण के सामने खड़े होना और ऊर्जा को प्राणवान, ज्यादा जीवंत अनुभव करोगे। 4 122 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 6 प्रकाश पर ध्यान प्रकाश पर ध्यान म्हारे हृदय में ज्योति जल रही है; तुम्हारा शरीर उस ज्योति के चारों ओर का प्रकाश है। 1 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 124 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश पर ध्यान द से दिन में कम से कम दो बार २ करो-सबसे अच्छा समय सुबह-सुबह का है, ठीक तुम्हारे बिस्तर से उठने से पहले। जिस क्षण तुम्हें लगे कि तुम जाग गए, इसे कम से कम बीस मिनट के लिए करो। सुबह सबसे पहला यही काम करो!-बिस्तर से मत उठो। वहीं, उसी समय, तत्क्षण इस विधि को करो, स्वर्णिम प्रकाश ध्यान क्योंकि जब तुम नींद से जग रहे होते हो जाग रही होती है, उस समय पूरे विश्व में लगेंगी; तब तुम धारा के विरुद्ध लड़ोगे। तब बहुत नाजुक और संवेदनशील होते जाग रही ऊर्जा की एक विशाल लहर होती सुबह के समय तुम धारा के साथ जाओगे। हो। जब तुम नींद से बाहर आ रहे होते हो है। उस लहर का उपयोग कर लो; अवसर तो इसे शुरू करने का सबसे अच्छा समय तब बहुत ताजे होते हो और इस विधि का को मत चूको। सुबह-सुबह का है, ठीक उसी समय जब प्रभाव बहुत गहरा जाएगा। जिस समय सभी प्राचीन धर्म सुबह-सुबह प्रार्थना तुम आधे सोए और आधे जागे होते हो। तुम नींद से बाहर आ रहे होते हो तो उस किया करते थे जब सूर्य उगता है, क्योंकि और प्रक्रिया बड़ी सरल है। इसके लिए समय सदा की अपेक्षा तुम बुद्धि में कम सूर्य का उगना अस्तित्व में व्याप्त सभी किसी मुद्रा, किसी योगासन, किसी स्नान होते हो। तो कुछ अंतराल हैं जिनके ऊर्जाओं का उदित होना है। इस क्षण में इत्यादि, किसी चीज की जरूरत नहीं है। माध्यम से यह विधि तुम्हारे अंतर्तम सत्व तुम उदित होती ऊर्जा की लहर पर सवार तुम अपने बिस्तर में जैसे लेटे हुए हो, में प्रवेश कर जाएगी। और सुबह-सुबह, हो सकते हो; यह सरल होगा। शाम तक वैसे ही अपनी पीठ के बल लेटे रहो। जब तुम जाग रहे होते हो और पूरी पृथ्वी यह कठिन हो जाएगा, ऊर्जाएं वापस बैठने अपनी आंखें बंद रखो। जब तुम श्वास 125 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां भीतर लो तो कल्पना करो कि एक विशाल गहरी और धीमी हो सकती है क्योंकि प्रवेश कर जाता है। प्रकाश तुम्हारे सिर से होकर तुम्हारे शरीर शरीर विश्रांत और शिथिल है। इसे सुबह-सुबह बीस मिनट के लिए में प्रवेश कर रहा है, जैसे तुम्हारे सिर के मुझे दोहराने दोः श्वास भीतर लेते हुए करो। और दूसरा सबसे अच्छा समय है, निकट ही कोई सूर्य उग गया हो-स्वर्णिम स्वर्णिम प्रकाश को सिर से अपने भीतर रात को, जब तुम वापस नींद में लौट रहे प्रकाश तुम्हारे सिर में उंडल रहा है, तुम आने दो, क्योंकि वहीं पर ही स्वर्ण-पुष्प हो। बिस्तर पर लेट जाओ, कुछ मिनट बिलकुल रिक्त हो और स्वर्णिम प्रकाश प्रतीक्षा कर रहा है। वह स्वर्णिम प्रकाश आराम करो। जब तुम्हें लगे कि अब तुम तुम्हारे सिर में उंडल रहा है, और गहरे से सहायक होगा। वह तुम्हारे पूरे शरीर को सोने और जागने के बीच डोल रहे हो, तो गहरा जाता जा रहा है और तुम्हारे पंजों से स्वच्छ कर देगा और उसे सृजनात्मकता से ठीक उस मध्य में प्रक्रिया को फिर से शुरू बाहर निकल रहा है। जब तुम श्वास भीतर पूरी तरह भर देगा। यह पुरुष-ऊर्जा है। करो, और उसे बीस मिनट तक जारी लो, तो इस कल्पना के साथ लो। फिर जब तुम श्वास छोड़ो, तो अंधकार रखो। यदि तुम इसे करते-करते सो जाओ, __ और जब तुम श्वास छोड़ो, तो एक को, जितने अंधेरे की तुम कल्पना कर तो सबसे अच्छा, क्योंकि इसका प्रभाव और कल्पना करोः अंधकार पंजों से प्रवेश सकते हो-जैसे कोई अंधेरी रात, नदी के अचेतन में बना रहेगा और वह कार्य करता कर रहा है, एक विशाल अंधेरी नदी तुम्हारे समान-अपने पंजों से ऊपर उठने दो। चला जाएगा। पंजों से प्रवेश कर रही है, ऊपर बढ़ रही है यह स्त्रैण ऊर्जा है: यह तुम्हें शांत करेगी, तीन महीने की एक अवधि के बाद तुम और तुम्हारे सिर से बाहर निकल रही है। तुम्हें ग्राहक बनाएगी, तुम्हें मौन करेगी, हैरान होओगेः जो ऊर्जा सतत मूलाधार श्वास धीमी और गहरी रखो ताकि तुम तुम्हें विश्राम देगी-और उसे अपने सिर पर, निम्नतम कामकेंद्र पर इकट्ठी हो रही कल्पना कर सको। बहुत धीरे-धीरे बढ़ो। से बाहर निकल जाने दो। तब फिर से थी, अब वहां इकट्ठी नहीं हो रही है। वह और सो कर उठने के बाद तुम्हारी श्वास श्वास लो, और स्वर्णिम प्रकाश भीतर ऊपर जा रही है। 2 126 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश पर ध्यान व ने कहाः सोते, जागते । और स्वप्न देखते समय स्वयं को प्रकाश की भांति जानो। जागते, चलते, खाते, कार्य करते हुए प्रकाश की भांति अपना स्मरण रखो, जैसे कि तुम्हारे हृदय में कोई ज्योति जल रही है, और तुम्हारा शरीर उस ज्योति के चारों ओर एक आभामंडल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। यह कल्पना करोः तुम्हारे हृदय प्रकाश का हृदय में एक ज्योति जल रही है, और तुम्हारा दिन स्मरण रख पाने में सक्षम हो जाओगे। शरीर नहीं, वरन एक विद्युत शरीर, एक शरीर उस ज्योति के इर्द-गिर्द एक प्रकाश जागरण काल में, जब सड़क पर चल रहे प्रकाश शरीर। इसे करते चले जाओ। मंडल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो, तो तुम एक ज्योति हो जो चल रही है। यदि तुम प्रयास पर दृढ़ रहे, तो तीन तुम्हारा शरीर उस ज्योति के चारों ओर एक प्रारंभ में तो किसी और को इसकी खबर महीने के भीतर, या उसके आस-पास प्रकाश है। इसे अपने मन और अपनी नहीं होगी, लेकिन यदि तुम इस प्रयोग को दूसरे भी सजग होने लगेंगे कि तुम्हें कुछ चेतना में गहरा उतर जाने दो। इसे जारी रखो तो तीन महीने बाद दूसरे भी हो गया है। उन्हें तुम्हारे चारों ओर एक आत्मसात कर लो। सजग होने लगेंगे। जब दूसरे सजग हो सूक्ष्म प्रकाश का अनुभव होगा। जब तुम इसमें समय लगेगा, लेकिन यदि तुम जाएं तब तुम सहज हो सकते हो। किसी से उनके पास आओगे, तो उन्हें एक नई उष्मा इसके बारे में सोचते ही चले जाओ, इसका कुछ मत कहो। बस एक ज्योति की की अनुभूति होगी। यदि तुम उन्हें छुओ, अनुभव करते रहो, इसकी कल्पना करते कल्पना करो, और तुम्हारा शरीर इसके तो उन्हें एक उष्ण स्पर्श का आभास होगा। रहो, तो एक निश्चित समय में तुम इसे पूरे चारों ओर एक आभामंडल हो-भौतिक वे सजग हो जाएंगे कि तुम्हारे साथ कुछ 127 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां अदभुत घट रहा है। किसी को भी बताओ कम होते जाएंगे और नींद अधिक से यदि तुम सजग हो सको कि तुम एक मत। जब दूसरे सजग हो जाएं, तो तुम अधिक गहरी होती जाएगी। ज्योति हो, एक प्रकाश हो, कि नींद तुम्हें विश्रांत हो सकते हो, और तभी तुम दूसरे जब तुम्हारे स्वप्न में यह वास्तविकता नहीं घट रही, तो तुम जागरूक हो। तुम चरण में प्रवेश कर सकते हो, उससे पहले प्रगट हो जाती है कि तुम प्रकाश हो, एक एक जागरूक प्रयास कर रहे हो; अब तुम नहीं। ज्योति हो, एक ज्वलंत ज्योति हो, तो सभी उस ज्योति के चारों ओर सुगठित हो गए। दूसरा चरण है, इसको स्वप्न में ले स्वप्न समाप्त हो जाएंगे। जब तुम्हारे स्वप्न शरीर सोया है, तुम नहीं। जाना। अब तुम इसे स्वप्न में ले जा सकते समाप्त हो जाएं तभी इस भाव को तुम नींद कृष्ण यही गीता में कहते हैं: योगी हो। यह एक वास्तविकता बन गई है। अब में ले जा सकते हो, उससे पहले नहीं। अब कभी सोते नहीं। जब दूसरे सोते हैं, तो भी यह कोई कल्पना नहीं है। कल्पना के द्वारा तुम द्वार पर आ खड़े हुए। जब स्वप्न वे जागे होते हैं। ऐसा नहीं कि उनके शरीर तुमने एक वास्तविकता को उघाड़ लिया समाप्त हो जाएं और तुम स्वयं को एक कभी नहीं सोते, उनके शरीर तो सोते है। यह यथार्थ है। हर चीज प्रकाश से बनी ज्योति की भांति स्मरण रखो, तो तुम नींद हैं लेकिन शरीर ही। शरीर को विश्राम है। तुम प्रकाश हो-भले ही इस बात से के द्वार पर पहुंच गए। अब तुम इस भाव चाहिए, चेतना को कोई विश्राम नहीं अनभिज्ञ हो-क्योंकि पदार्थ का हर कण के साथ प्रवेश कर सकते हो। और एक चाहिए; क्योंकि शरीर तो यंत्र है, चेतना प्रकाश है। बार तुम इस भाव के साथ नींद में प्रवेश कोई यंत्र नहीं है। शरीर को ईंधन चाहिए, वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ इलेक्ट्रॉन्स कर जाओ कि तुम एक ज्योति हो, तो तुम उसे विश्राम चाहिए। यही कारण है कि जब से बना हैयह एक ही बात है। प्रकाश उसमें सजग बने रहोगे-नींद अब तुम्हारे शरीर पैदा होता है तो युवा होता है, फिर सबका स्रोत है। तुम भी सघनीभूत प्रकाश शरीर को घटेगी, तुम्हें नहीं। वह वृद्ध होता है, और फिर वह मर जाता होः कल्पना के द्वारा तुम बस एक योग और तंत्र मानवीय मन को तीन है। चेतना न कभी पैदा होती है, न कभी वास्तविकता को ही उघाड़ रहे हो। इसे खंडों में बांटते हैं-मन के आयाम को, बूढ़ी होती है, न कभी मरती है। उसे कोई आत्मसात करो-और जब तुम इससे पूरे स्मरण रखना। वे मन को तीन खंडों में ईंधन नहीं चाहिए, कोई विश्राम नहीं भर जाओ, तभी इसे स्वप्न में भी ले जा बांटते है: जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। ये चाहिए। वह शुद्ध ऊर्जा है, अहर्निश सकते हो, उससे पहले नहीं। तुम्हारी चेतना के खंड नहीं हैं, तुम्हारे मन शाश्वत ऊर्जा है। फिर सोते समय ज्योति के विषय में के खंड हैं, और चेतना है-चौथी। यदि तुम ज्योति और प्रकाश की इस सोचते रहो, उसे देखते रहो, अनुभव करते पूरब में उसे कोई नाम नहीं दिया गया आकृति को नींद के द्वारों से गुजार कर ले रहो कि तुम प्रकाश हो। इसे स्मरण करते है; वे बस इसे चतुर्थ-तुरीय-कहते हैं। जा सको, तो फिर कभी सोओगे नहीं, बस हुए...स्मरण करते-करते तुम नींद में चले पहले तीन के नाम हैं; वे बादल हैं। उनको शरीर विश्राम करेगा। और जब शरीर जाते हो, और स्मरण चलता रहता है। नाम दिया जा सकता है—जाग्रत बादल, सोया होगा, तो तुम्हें इसका बोध होगा। प्रारंभ में तुम्हें ऐसे स्वप्न आएंगे जिनमें सुषुप्त बादल और स्वप्नरत बादल। वे एक बार यह हो जाए, तो तुम चौथे हो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे भीतर एक ज्योति सब बादल हैं, और जिस आकाश में वे गए। अब जागना, सोना और स्वप्न है, कि तुम प्रकाश हो। धीरे-धीरे, सपनों विचरते हैं, वह अनाम है, उसे बस चतुर्थ देखना मन के तीन हिस्से हो गए। वे हिस्से में भी तुम उसी भाव से उतरोगे। और एक कह कर छोड़ दिया गया है। हैं, और तुम चौथे हो गए—वह जो उन बार यह भाव सपनों में प्रवेश कर जाए, तो यह विधि इन तीन अवस्थाओं से ऊपर सबसे गुजरता है, और उनमें से कोई भी स्वप्न विलीन होने लगेंगे। सपने कम से उठने में तुम्हारी मदद करने के लिए है। नहीं है। 3 128 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: हे देवी, अपनी देहाकृति के सुदूर ऊपर और नीचे परिव्याप्त सूक्ष्म उपस्थिति में प्रवेश करो। यह विधि तभी की जा सकती है यदि तुमने "पंख की भांति छूने वाली विधि कर ली हो। इसे अलग से भी किया जा सकता है; लेकिन तब यह बहुत कठिन होगा। लेकिन पहली विधि करके फिर सूक्ष्म शरीर को देखना दूसरी विधि को करना अच्छा है, और पृथ्वी के किसी भी गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो गया है। बहुत सरल भी है। जब भी ऐसा हो कि तुम हलके-फुलके, जमीन से उठते हुए महसूस करो, जैसे कि तुम उड़ सकते हो – अचानक तुम्हें यह बोध होगा कि तुम्हारी देहाकृति के चारों एक नीला प्रकाश है। लेकिन यह तुम तभी देख सकोगे जब तुम्हें लगे कि तुम जमीन से ऊपर उठ सकते हो, कि तुम्हारा शरीर उड़ सकता है, हलका-फुलका हो गया है, हर बोझ से मुक्त हो गया है, प्रकाश पर ध्यान 129 जब भी तुम्हें इस निर्भरता की अनुभूति हो, तो आंखें बंद करके अपनी देहाकृति के प्रति सजग हो जाओ। आंखें बंद किए हुए ही अपने पंजों और उनकी आकृति, टांगों और उनकी आकृति, और फिर पूरे शरीर की आकृति को अनुभव करो। यदि तुम बुद्ध की भांति, सिद्धासन में बैठे हुए हो तो बुद्ध की भांति बैठे हुए ही देहाकृति को अनुभव करो। भीतर से बस अपनी देह की आकृति को अनुभव करने का प्रयास करो। वह स्पष्ट हो जाएगी, वह तुम्हारे समक्ष प्रगट हो जाएगी, और साथ ही साथ तुम्हें बोध होगा कि उस आकार के चारों ओर नीला-सा प्रकाश फैला है। आरंभ में इस प्रयोग को आंखें बंद रख कर करो। और जब यह प्रकाश फैलता चला जाए और तुम्हें देहाकृति के चारों ओर एक प्रकाश मंडल, एक नीले प्रकाश - मंडल की अनुभूति हो, तब कभी रात को किसी प्रकाशहीन अंधेरे कमरे में Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां इस प्रयोग को करते हुए अपनी आंखें है। दूसरी आकृति आकाशीय तत्व की सहयोग दो। तुम क्या कर सकते हो? खोल लो और तुम ठीक अपने शरीर के है-तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे शरीर के बस मौन बैठकर इसे देखो; कुछ मत चारों ओर एक नीली आकृति चारों ओर। वह तुम्हारे शरीर में प्रवेश करो, बस अपने आसपास एक नीली देखोगे-मात्र प्रकाश। तुम्हारे शरीर के करती है और वह तुम्हारे शरीर के चारों आभा को देखते रहो; कुछ भी न करते चारों ओर एक नीला प्रकाश होगा। यदि ओर एक मंद प्रकाश, एक नीले हुए, बस इसे देखते हुए-तुम्हें लगेगा कि तुम सचमुच इसे देखना चाहते हो, बंद प्रकाश-सी एक ढीले चोगे की तरह चारों वह बढ़ रही है, फैल रही है, बड़ी से बड़ी आखों से नहीं वरन खुली आंखों से, तो ओर से घेरे हुए है।। होती जा रही है। क्योंकि जब तुम कुछ भी इस प्रयोग को किसी अंधेरे कमरे में करो जब भी कोई तुम्हें प्रेम करता है, जब भी नहीं कर रहे होते तो पूरी ऊर्जा सूक्ष्म शरीर जहां कोई प्रकाश न हो। कोई गहन प्रेम से तुम्हें छूता है, तो वह में चली जाती है। इसे स्मरण रखो। जब यह नीली आकृति, यह नीला प्रकाश, तुम्हारे सूक्ष्म शरीर को छूता है। इसीलिए तुम कुछ भी करते हो तो ऊर्जा सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म शरीर की उपस्थिति है। तुम्हारे कई यह तुम्हें इतना सुखदायी लगता है। इसके से बाहर निकाल ली जाती है। शरीर हैं। यह विधि सूक्ष्म शरीर से संबंधित चित्र भी लिए गए हैं। दो प्रेमी गहन प्रेम में जब तुम कुछ नहीं कर रहे हो, तब है, और सूक्ष्म शरीर के द्वारा तुम परम संभोग कर रहे हैं : यदि उनका संभोग एक तुम्हारी ऊर्जा बाहर गति नहीं कर रही है। आनंद में प्रवेश कर सकते हो। सात शरीर निश्चित सीमा तक, चालीस मिनट से वह सूक्ष्म शरीर की ओर चली जाती है। हैं, और हर शरीर का उपयोग दिव्य में अधिक चल सके, और स्खलन न हो, तो वहां एकत्रित हो जाती है। तुम्हारा सूक्ष्म प्रवेश करने के लिए किया जा सकता है; गहन प्रेम में, दोनों शरीरों के आसपास शरीर एक विद्युत-कुंड बन जाता है। और हर शरीर बस एक द्वार है। एक नीला प्रकाश प्रगट होता है। उसके वह जितना विकसित होता है, तुम उतने ही यह विधि सूक्ष्म शरीर का उपयोग करती चित्र भी लिए गए हैं। मौन हो जाते हो। जितने तुम मौन होते हो, है, और सूक्ष्म शरीर को अनुभव करना पहले तुम्हें उस ऊर्जा मंडल के प्रति उतना ही यह विकसित होता है। एक बार सबसे सरल है। शरीर जितना गहरा हो, सजग होना होगा जो तुम्हारी भौतिक तुम जान जाओ कि कैसे सूक्ष्म शरीर को उतना ही उसे अनुभव करना कठिन है; आकृति को घेरे हुए है, और जब तुम ऊर्जा देनी है और कैसे उसे व्यय नहीं लेकिन सूक्ष्म शरीर तो तुम्हारे करीब ही है, सजग हो जाओ तो उसे विकसित होने में करना है, तो तुम जान गए; तुम्हें एक गुप्त भौतिक शरीर के करीब है। बस पास ही सहयोग दो, उसे बढ़ने और फैलने में कुंजी का पता चल गया। 4 130 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश पर ध्यान व ने कहाः अनुभव करो ा कि ब्रह्मांड एक आलोकमयी शाश्वत उपस्थिति है। यह विधि आंतरिक संवेदनशीलता पर आधारित है। पहले संवेदनशीलता को बढ़ाओ। अपने द्वार-दरवाजे बंद कर लो, कमरे को अंधेरा कर लो, और एक छोटी मोमबत्ती जला लो। मोमबत्ती के निकट एक अत्यंत प्रेमपूर्ण भावदशा में, आलोकमयी उपस्थिति प्रार्थनापूर्ण भावदशा में बैठ जाओ। मोमबत्ती में बहुत-सी चीजें बदल रही हैं। क्योंकि प्रकाश सब रंग है। तुम्हें एक सूक्ष्म मोमबत्ती से प्रार्थना करो, “स्वयं को मुझ वे मोमबत्ती में नहीं बदल रही हैं-स्मरण संवेदनशीलता की जरूरत है। बस उसे पर प्रगट करो।" स्नान कर लो, अपनी रखना। तुम्हारी आंखें बदल रही हैं। अनुभव करो और उसकी ओर देखते रहो। आंखों पर ठंडा पानी छिड़क लो, और फिर एक प्रेमपूर्ण भावदशा में, पूरे संसार को आंसू बहने लगें तो भी, उसकी ओर देखते एक अत्यंत प्रार्थनापूर्ण भावदशा में बाहर बंद करके, पूरी एकाग्रचित्तता से, ही रहो। वे आंसू तुम्हारी आंखों को और मोमबत्ती के सामने बैठ जाओ। उसकी भावपूर्ण हृदय लिए, बस मोमबत्ती और ताजा करने में सहायक होंगे। ओर देखो और बाकी सब कुछ भूल ज्योति की ओर देखते रहो। तब तुम्हें ज्योति कई बार तुम्हें लग सकता है कि ज्योति, जाओ। बस उस छोटी-सी मोमबत्ती की के चारों ओर नए रंग, नई छटाएं दिखाई मोमबत्ती रहस्यमय-सी हो गई है। यह वह ओर देखो-ज्योति और मोमबत्ती की देंगी, जिनके होने का पहले तुम्हें पता ही साधारण मोमबत्ती नहीं है जो तुम अपने ओर। उसकी ओर देखते चले जाओ। नहीं था। वे मौजूद थे: पूरा इंद्रधनुष मौजूद साथ लाए थे। उसने एक नई आभा ले ली पांच मिनट के बाद तम्हें लगेगा कि था। जहां भी प्रकाश है, वहां इंद्रधनुष है है। उसमें एक सूक्ष्म दिव्यता उतर आई है। 131 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां इस प्रयोग को करते रहो। इसे तुम कई नहीं होता। जल्दबाजी में तुम असंवेदनशील हो तो वह सहायक होगा। और चीजों के साथ भी कर सकते हो। होते हो। किसी भी चीज को लेकर चुपचाप तुम कई ढंग से प्रयोग कर सकते हो। संवेदनशीलता बढ़नी ही चाहिए। तुम्हारी प्रतीक्षा करो, और तुम एक ऐसा नया किसी का हाथ अपने हाथ में ले लो। हर इंद्रिय ज्यादा जीवंत हो जानी चाहिए। चमत्कार खोज लोगे जो सदा से मौजूद था, अपनी आंखें बंद कर लो और दूसरे के फिर तुम इस विधि के साथ प्रयोग कर लेकिन तुम्हें जिसकी खबर नहीं भीतर जीवन ऊर्जा को अनुभव करो। उसे सकते हो। “अनुभव करो कि ब्रह्मांड एक थी—जिसका तुम्हें बोध नहीं था। अनुभव करो, और अपनी ओर बहने दो। आलोकमयी शाश्वत उपस्थिति है।" “अनुभव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी अपने स्वयं के जीवन को अनुभव करो प्रकाश हर ओर है-कई-कई आकारों में, आलोकमयी उपस्थिति है," और जैसे ही और उसे दूसरे की ओर बहने दो। किसी रूपों में प्रकाश हर ओर घटित हो रहा है। तुम शाश्वत अस्तित्व की उपस्थिति को वृक्ष के समीप बैठ जाओ और वृक्ष की उसकी ओर देखो! और प्रकाश सब जगह अनुभव करोगे तुम्हारा मन बिलकुल शांत छाल को स्पर्श करो। अपनी आंखें बंद कर है, क्योंकि अस्तित्व की पूरी घटना प्रकाश हो जाएगा। तुम इस अस्तित्व में बस एक लो और वृक्ष में जीवन को उठता हुआ की आधारशिला पर खड़ी है। किसी पत्ती, अंश रह जाओगे, इस महासंगीत में बस अनुभव करो, और तुम तत्क्षण रूपांतरित या किसी फूल, या किसी पत्थर की ओर एक स्वर रह जाओगे। न कोई बोझ रहा, न हो जाते हो। देखो, और देर-अबेर तुम उसमें से किरणें कोई तनावः बूंद सागर में समा गई। यदि यह प्रयोग तीन महीने के लिए निकलती अनुभव करोगे। बस धैर्य से : लेकिन प्रारंभ में बड़ी कल्पना की जरूरत किया जाए, तो तुम एक भिन्न ही जगत में प्रतीक्षा करो। जल्दबाजी मत करो क्योंकि होगी, और यदि तुम संवेदनशीलता में जीने लगोगे क्योंकि अब तुम भिन्न हो जब तुम जल्दी में होते हो तो कुछ भी प्रकट प्रशिक्षित होने का दूसरा प्रयोग भी कर रहे जाओगे। 1322 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार पर ध्यान अंधकार पर ध्यान स बीज की भांति, जो अपना जीवन मिट्टी के अंधकार में शुरू करता है, या उस बच्चे की भांति जो अपना जीवन गर्भ के अंधकार में शुरू करता है, सभी प्रारंभ अंधकार में ही होते हैं, क्योंकि अंधकार किसी भी चीज के शुरू होने के लिए अनिवार्य शर्तों में से है। प्रारंभ रहस्यमय है, इसीलिए अंधकार की जरूरत है। और प्रारंभ इतना नाजुक है, इसलिए भी अंधकार की जरूरत है। प्रारंभ बहुत अंतरस्थ भी है, इस कारण से भी अंधकार की जरूरत है। अंधकार में एक गहराई है और पोषण की एक विराट शक्ति है। दिन तुम्हें थका देता है; रात फिर से ताजा कर जाती है। सुबह तो आएगी ही, दिन तो पीछे-पीछे चला ही आएगा, लेकिन यदि तुम अंधकार से भयभीत हो गए तो फिर दिन कभी नहीं आएगा। यदि कोई अंधकार को छोड़ देना चाहे तो दिन असंभव है। प्रभात तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को आत्मा की घनेरी अंधेरी रात से गुजरना होता है। मृत्यु पहले है, बाद में जीवन है।। वस्तुओं की सामान्य शृंखला में जन्म पहले होता है, बाद में जीवन विकसित होता है। लेकिन अंतर्जगत में, अंतर्यात्रा में, इसके ठीक विपरीत होता है: मृत्यु पहले है, जीवन बाद में।। 133 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 134 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार पर ध्यान ANGRE व ने कहाः वर्षाऋतु की रा किसी अंधेरी रात में, आकारों के आकार की भांति उस अंधकार में प्रवेश करो। अंधकार में तुम कैसे प्रवेश कर सकते हो? तीन बातें: पहला चरण: . अंधकार को गौर से देखो। कठिन है। किसी ज्योतिशिखा या प्रकाश के किसी भी आंतरिक अंधकार स्रोत की ओर देखना सरल है, क्योंकि वह तुम्हारी आंखों में प्रवेश करने लगेगा। हिस्सा है; वह विधायक अंधकार नहीं है। वह एक विषय की भांति इंगित होकर वहां और जब अंधकार तुम्हारी आंखों में प्रवेश यहां प्रकाश है : तुम अपनी आंखें बंद मौजूद है; तुम अपना होश उसी ओर करे, तो तुम अंधकार में प्रवेश कर रहे हो। कर लो और एक अंधकार पा सकते हो, केंद्रित कर सकते हो। अंधकार कोई विषय अंधेरी रात में जब इस विधि को करो तो लेकिन वह अंधकार प्रकाश का निगेटिव नहीं है; वह तो सभी जगह है, चारों ओर आंखें खोले रहो। अपनी आंखें बंद मत मात्र ही है। ठीक उसी तरह जैसे तुम जब है। तुम उसे एक विषय की तरह नहीं देख करो क्योंकि बंद आंखों से तुम्हारे समक्ष खिड़की की ओर देखने के बाद अपनी सकते। शून्य में ही गौर से झांको। वह एक भिन्न अंधकार होता है जो तुम्हारा आंखें बंद करते हो तो तुम्हें खिड़की की चारों ओर है; तुम बस उसमें झांको। अपना है, मानसिक है; वह वास्तविक निगेटिव आकृति दिखाई देती है। हमारा विश्रामपूर्ण हो जाओ और उसमें झांको। नहीं है। वास्तव में, वह एक नकारात्मक सारा अनुभव प्रकाश का ही है, तो जब 135 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां हम अपनी आंखें बंद करते हैं तो प्रकाश अंधकार, शिव का अंधकार-उससे सुदूर गांव में चले जाओ जहां बिजली न का निगेटिव अनुभव होता है जिसे हम हमने संपर्क खो दिया है। उससे हमारा हो, या किसी पहाड़ की चोटी पर चले अंधकार कहते हैं। वह वास्तविक नहीं है, कोई संपर्क नहीं है। हम उससे इतने जाओ। बस शुद्ध अंधकार का अनुभव वह काम नहीं आएगा। भयभीत हो गए हैं कि हमने अपने को करने के लिए एक सप्ताह वहां रहो। अपनी आंखें खोल लो, अंधेरे में अपनी उससे बिलकुल दूर कर लिया है। हम तुम एक अलग व्यक्ति होकर लौटोगे, आंखें खोले रहो, और तुम्हें एक भिन्न उसकी ओर अपनी पीठ किए खड़े हैं। तो क्योंकि सात दिनों के उस परिपूर्ण अंधकार अंधकार दिखाई देगा-जो विधायक यह प्रयोग कठिन होगा, लेकिन यदि तुम में सभी भय, सभी आदिम भय ऊपर आ अंधकार है। उसमें झांको। अंधकार में इसे कर सको, तो यह चमत्कारिक है, जादू जाएंगे। तुम्हें राक्षसों का सामना करना झांकते रहो। तुम्हारे आंसू आने लगेंगे, से भरा है। तुम्हारा एक बिलकुल ही भिन्न पड़ेगा, अपने ही अचेतन का सामना करना तुम्हारी आंखें सूज जाएंगी, वे दुखने अस्तित्व हो जाएगा। पड़ेगा। पूरी मनुष्यता...यह ऐसे ही होगा लगेंगी। चिंता मत करो, बस झांकते रहो। जब अंधकार तुममें प्रवेश करता है, तो जैसे तुम उस पूरे मार्ग से गुजर रहे हो जो और जिस क्षण अंधकार, वहां जो तुम उसमें प्रवेश कर जाते हो। यह घटना अतीत में घटित हुआ था और तुम्हारे गहन वास्तविक अंधकार है वह तुम्हारी आंखों सदा ही पारस्परिक होती है, अन्योन्य होती अचेतन से बहुत-सी चीजें उठेगी। वे में प्रवेश कर जाता है तो वह तुम्हें सुख की है। तुम किसी भी ब्रह्मांडीय घटना में प्रवेश वास्तविक लगेंगी। शायद तुम डर जाओ, एक गहन अनुभूति देगा। जब वास्तविक कर ही नहीं सकते यदि वह ब्रह्मांडीय भयभीत हो जाओ, क्योंकि वे बहुत अंधकार तुममें प्रवेश कर जाता है, तो तुम घटना तुममें प्रवेश न कर जाए। तुम उससे वास्तविक लगेंगी-और वे हैं तुम्हारे मन उससे भर जाओगे। बलात्कार नहीं कर सकते; तुम उसमें की ही निर्मिति। और अंधकार का यह प्रवेश तुम्हें सारे जबरदस्ती प्रवेश नहीं कर सकते। यदि तुम तुम्हें अपने अचेतन से मित्रता करनी निगेटिव अंधकार से रिक्त कर देगा। यह उपलब्ध हो, खुले हो, संवेदनशील हो,' होगी। और अंधकार पर यह ध्यान तुम्हारे एक अत्यंत गहन घटना है। तुम्हारे भीतर और यदि तुम किसी भी ब्रह्मांडीय आयाम पागलपन को पूरी तरह आत्मसात कर जो अंधकार है वह एक निगेटिव चीज है; को स्वयं में प्रवेश करने के लिए मार्ग देते लेगा। इस प्रयोग को करो; इसे तुम अपने वह प्रकाश के विपरीत है वह प्रकाश की हो, तभी तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो। घर में भी कर सकते हो। हर रात, एक घंटे अनुपस्थिति नहीं है; वह प्रकाश के यह घटना सदा ही पारस्परिक होती है। तुम के लिए अंधकार के साथ रहो। कुछ भी विपरीत है। यह वह अंधकार नहीं है जिसे इसे अरोपित नहीं कर सकते, केवल होने मत करो, बस अंधकार में गौर से झांको। शिव आकारों का आकार कह रहे हैं वह दे सकते हो। तुम्हें पिघलने जैसी अनुभूति होगी, और जो वास्तविक अंधकार है। अब तो शहरों में वास्तविक अंधकार तुम्हें लगेगा कि कुछ तुममें प्रवेश कर रहा है हम उससे इतने भयभीत हैं कि हमने को खोज पाना कठिन है; हमारे घरों में और तुम किसी चीज में प्रवेश कर रहे हो। सुरक्षा की तरह प्रकाश के कई स्रोत निर्मित वास्तविक अंधकार को खोज पाना कठिन तीन महीने तक रोज एक घंटा अंधकार कर लिए हैं, और एक प्रकाशित संसार में है। नकली प्रकाश से हमने सभी कुछ के साथ रहने, जीने से तुम वैयक्तिकता जीते हैं। फिर हम अपनी आंखें बंद कर नकली बना लिया है। हमारा अंधकार भी का, विभाजन का सारा भाव खो दोगे। लेते हैं और प्रकाशित संसार भीतर प्रदूषित है, शुद्ध नहीं है। तो मात्र अंधकार फिर तुम एक द्वीप नहीं रहोगे; तुम निगेटिव होकर प्रतिबिंबित होता है। वह को अनुभव करने के लिए किसी सुदूर महासागर बन जाओगे। तुम अंधकार के जो वास्तविक अंधकार है-इसेनीज का स्थान पर चले जाना अच्छा है। किसी साथ एक हो जाओगे। और अंधकार 136 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार पर ध्यान बिलकुल सागरवत है : और कुछ भी इतना जैसा मैंने तुम्हें कहा, यदि तुम एक है-तुम बहुत ही विश्रांत अनुभव करोगे। विराट, इतना शाश्वत नहीं है। और अन्य ज्योतिशिखा बनाए रखो और अनुभव करो इस प्रयोग को करो। तुम अत्यंत विश्रांत कुछ भी तुम्हारे इतने करीब नहीं है, और कि तुम प्रकाश हो तो तुम्हारा शरीर एक अनुभव करोगे। तुममें हर चीज धीमी हो किसी और चीज से तुम इतने भयभीत व विशेष प्रकार का अदभुत प्रकाश जाएगी। तुम दौड़ नहीं पाओगे, बस डरे हुए भी नहीं हो। अंधकार बस करीब विकीर्णित करने लगेगा और जो लोग चलोगे, और वह चलना भी धीमा होगा। ही मौजूद है, सदा प्रतीक्षा कर रहा है। संवेदनशील हैं वे उसे अनुभव करने तुम धीरे-धीरे चलोगे, जैसे कोई गर्भवती लगेंगे; अंधकार के साथ भी ऐसा ही स्त्री चलती है। तुम धीरे-धीरे, अत्यंत दूसरा चरणः होगा। सावधानी से चलोगे। तुम कुछ लेकर चल ___ यदि तुम अपने भीतर अंधकार लेकर रहे हो। लेट जाओ और ऐसा भाव करो कि तुम चलो तो तुम्हारा पूरा शरीर इतना शिथिल, और जब तुम ज्योतिशिखा लेकर अपनी मां के पास हो। अंधकार मां है, शांत और शीतल हो जाएगा कि वह चलोगे तो इसके ठीक विपरीत घटना सबकी मां है। सोचो: जब कुछ भी नहीं महसूस होगा। और जिस प्रकार तुम जब घटेगीः तुम्हारी चाल तेज हो जाएगी; था, तो क्या था? तुम अंधकार को प्रकाश अपने भीतर लेकर चलते हो तो बल्कि तुम दौड़ना पसंद करोगे। गति बढ़ छोड़कर कुछ और नहीं सोच सकते। जब कुछ लोग तुम्हारी ओर आकर्षित होते हैं, जाएगी, तुम अधिक सक्रिय हो जाओगे। सब कुछ समाप्त हो जाएगा, तब भी क्या वैसे ही जब तुम अपने भीतर अंधकार अंधकार को लेकर चलते समय तुम बच रहेगा? अंधकार होगा। लेकर चलोगे तो कुछ लोग तुमसे बचकर विश्रांत हो जाओगे। दूसरों को यह लगने अंधकार मां है, गर्भ है, तो लेट जाओ भागने लगेंगे। वे भयभीत हो जाएंगे और लगेगा कि तुम सुस्त हो गए हो। और भाव करो कि तुम अपनी मां के गर्भ डर जाएंगे। वे इतनी शांत अंतस-सत्ता को . जिन दिनों मैं यूनिवर्सिटी में था, तो दो में पड़े हो। और यह यथार्थ हो जाएगा, सहन नहीं कर पाएंगे; यह उनके लिए वर्ष से मैं यह प्रयोग कर रहा था। मैं इतना उष्ण हो जाएगा, और देर-अबेर तुम्हें असहनीय हो जाएगा। सुस्त हो गया कि सुबह बिस्तर से उठना लगने लगेगा कि एक अंधकार, एक गर्भ सारे दिन अंधकार को अपने भीतर भी कठिन हो गया। मेरे प्रोफेसर इस बात तुम्हें सब ओर से घेरे हुए है, तुम उसके लेकर चलना अत्यंत सहायक होगा, से बड़े परेशान हो गए, और उन्हें लगा कि . भीतर हो। क्योंकि फिर जब तुम रात को अंधकार पर मेरे साथ कोई गड़बड़ हो गई है—या तो मैं मनन करोगे और ध्यान करोगे तो वह बीमार हूं, या बिलकुल उदासीन हो गया तीसरा चरणः आंतरिक अंधकार जो तुम सारा दिन लेकर हूं। एक प्रोफेसर जो मुझसे बहुत प्रेम करते घूमे हो वह तुम्हें बाहर के अंधकार से थे, मेरे विभागाध्यक्ष, इतने चिंतित हो गए चलते हुए, कार्य पर जाते हुए, बोलते मिलने में मदद करेगा-आंतरिक कि परीक्षा के दिनों में सुबह मुझे होस्टल हुए, खाते हुए, कुछ भी करते हुए, अंधकार बाह्य से मिलने के लिए आ से परीक्षा-भवन ले जाने के लिए आते अंधकार का एक टुकड़ा अपने भीतर लिए जाएगा। ताकि मैं समय पर पहुंच जाऊं। प्रतिदिन रहो। जो अंधकार तुममें प्रवेश कर गया है, और केवल इस स्मरण मात्र से कि तुम जब वे यह देख लेते कि मैं परीक्षाभवन में उसे बनाए रखो। जिस प्रकार हमने अंधकार लेकर चल रहे हो-तुम अंधकार प्रवेश कर गया हूं, तभी वे चैन की सांस ज्योतिशिखा बनाए रखने की विधि पर बात से भर जाते हो, शरीर का रोम-रोम, शरीर लेते और घर जाते। की, वैसे ही अंधकार भी बनाए रखो। की हर कोशिका अंधकार से भर जाती इस प्रयोग को करके देखो। अपने गर्भ 137 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां में अंधकार को लेकर चलना, अंधकारमय तुम्हारे भीतर भरा हुआ है; तुम उससे भरे में नहीं आ सकते। तुम्हारी नींद इतनी गहरी हो जाना जीवन के सुंदरतम अनुभवों में से हुए हो। और फिर देखो चीजें किस प्रकार हो जाएगी कि स्वप्न विलीन हो जाएंगे है। चलते हुए, खाते हुए, बैठे हुए, कुछ रूपांतरित होती हैं। तुम उत्तेजित नहीं हो और सारा दिन तुम इस प्रकार चलोगे जैसे भी करते हुए, स्मरण रखो कि अंधकार सकते, बहुत सक्रिय नहीं हो सकते, तनाव नशे में हो। 2 138 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार पर ध्यान 'व ने कहाः जब वर्षा ऋतु | की चंद्रविहीन रात न उपलब्ध हो तो आंखें बंद करो और अपने समक्ष अंधकार को खोज लो, फिर आंखें खोलते हुए अंधकार को देखो। इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते हैं। आंतरिक अंधकार को बाहर लाओ यह कुछ ज्यादा कठिन है। पिछली दिन अचानक तुम आंतरिक अंधकार बाहर ला सकते हो, और अंधकार का एक विधि में तुम वास्तविक अंधकार भीतर को बाहर ला पाओगे। जिस दिन तुम टुकड़ा तुम्हारे समक्ष फैल जाएगा। यह लिए चलते हो। इस विधि में तुम झूठे आंतरिक अंधकार को बाहर ला पाओ, बहुत ही अटपटा अनुभव है, क्योंकि अंधकार को बाहर लाते हो-लाते चले तुमने भीतर के वास्तविक अंधकार को कमरा प्रकाशित है। यदि तुम आंतरिक जाते हो। अपनी आंखें बंद करो, अंधेरे पा लिया। वास्तविक को ही लेकर चला अंधकार तक पहुंच गए हो तो सूर्य के को महसूस करो; आंखें खोलो, और जा सकता है; झूठे को लेकर नहीं चला जा प्रकाश में भी उसे बाहर ला सकते हो। खुली आंखों से अंधकार को बाहर देखो। सकता। फिर अंधकार का एक टुकड़ा तुम्हारी इसी प्रकार तुम झूठे अंधकार को बाहर और यह बड़ा जादुई अनुभव है। यदि आंखों के सामने छा जाता है। तुम उसे फेंकते हो-उसे फेंकते रहो। इसमें तीन तुम आंतरिक अंधकार को बाहर ला सको, फैलाते चले जा सकते हो। से छह सप्ताह तक लगेंगे, और तब एक तो एक प्रकाशित कमरे में भी तुम उसे एक बार तुम जान जाओ कि यह हो 139 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां सकता है, तो तुम सूर्य के पूरे प्रकाश में भी यदि तुममें उत्तेजित होने की प्रवृत्ति हो। वे प्रतिक्रिया नहीं उठती। इसे करके देखो। अंधेरी से अंधेरी रात जैसा अंधकार फैला अपने आप से ही नहीं रहते; वे तुम्हारे जब कोई तुम्हारा अपमान करे, तो इतना सकते हो। सूर्य निकला हुआ है, लेकिन उत्तेजित होने की क्षमता के कारण होते हैं। स्मरण रखो कि तुम अंधकार से भरे हुए तुम अंधकार फैला सकते हो। अंधकार कोई तुम्हारा अपमान कर देता है, और उस हो, और अचानक तुम्हें लगेगा कि कोई सदा मौजूद है; जब सूर्य मौजूद हो तब भी अपमान को आत्मसात कर लेने के लिए प्रतिक्रिया नहीं हो रही। तुम एक सड़क से अंधकार तो रहता ही है। तुम उसे देख नहीं तुम्हारे भीतर कोई अंधकार न हो, तो तुम गुजरते हो; किसी सुंदर स्त्री या पुरुष को सकते; वह सूर्य के प्रकाश से ढंका रहता जलने लगते हो, क्रोधित हो जाते हो, देखा-तुम उत्तेजित हो जाते हो। अनुभव है। एक बार तुम जान जाओ कि उसे कैसे प्रज्वलित हो जाते हो, और तब सब कुछ करो कि तुम अंधकार से भरे हुए हो; उघाड़ना है, तो तुम उसे उघाड़ सकते हो। संभव है। तुम हिंसक हो सकते हो, हत्या अचानक उत्तेजना विलीन हो जाती है। यह यही विधि है। पहले उसे भीतर अनुभव कर सकते हो, वह काम तक कर सकते हो प्रयोग तुम करके देखो। यह बिलकुल करो; उसे गहन रूप से अनुभव करो ताकि जो कोई पागल ही करे। कुछ भी संभव प्रयोगात्मक है, इस पर विश्वास करने की उसे बाहर भी प्रत्यक्ष कर सको। तब है-अब तुम पागल हो गए। कोई तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। अचानक आंखें खोलो और उसे बाहर प्रशंसा कर देता है: तब फिर तुम दूसरी जब भी तुम्हें लगे कि तुम उत्तेजना से या अनुभव करो। इसमें समय लगेगा। अति पर पहुंचकर पागल हो जाते हो। इच्छा से या कामवासना से भर गए हो तो और यदि तुम आंतरिक अंधकार को तुम्हारे चारों ओर परिस्थितियां हैं, और बस आंतरिक अंधकार का स्मरण करो। बाहर ला पाओ तो दोष सदा के लिए तुम उन्हें आत्मसात करने में सक्षम नहीं एक क्षण के लिए अपनी आंखें बंद करो विलीन हो जाते हैं, क्योंकि यदि आंतरिक हो। किसी बुद्ध का अपमान करोः वह और अंधकार को अनुभव करो और तुम अंधकार की अनुभूति हो जाए तो तुम इतने उसे आत्मसात कर सकता है, चुपचाप उसे देखोगे कि उत्तेजना विलीन हो गई, कामना शीतल, इतने शांत, इतने अनुत्तेजित हो निगल सकता है, पचा सकता है। उस नहीं रही। आंतरिक अंधकार ने उसे जाओगे कि दोष तुम्हारे साथ रह ही नहीं अपमान को कौन पचाता है?-अंधकार आत्मसात कर लिया। तुम एक अनंत शून्य सकते। का, मौन का एक आंतरिक सरोवर। तुम हो गए जिसमें कुछ भी गिर जाए तो वापस इसे स्मरण रखोः दोष तभी रह सकते हैं कोई भी विषाक्त चीज उसमें फेंक दो; वह नहीं लौटेगा। अब तुम एक अंतहीन खाई जब तुममें उत्तेजित होने की संभावना हो, आत्मसात हो जाती है। उससे कोई की भांति हो गए। 140 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना 1 हली बात है अपनी ऊर्जा को अनुभव करना। पहला प्रश्न इस 1 बात का नहीं है कि, “उसका उपयोग कैसे करना है?" पहली बात है: कैसे उसे अनुभव करना और कैसे उसे सघनता से, उत्कट अभीप्सा से, समग्रता से अनुभव किया जाए। और सौंदर्य यह है कि एक बार तुम अपनी ऊर्जा को अनुभव कर लो तो यह अंतर्बोध भी उठता है कि उसे कैसे उपयोग करना है। ऊर्जा तुम्हारा मार्गदर्शन करने लगती है। तुम ऊर्जा का मार्गदर्शन नहीं करते इसके विपरीत, ऊर्जा अपने आप से ही गति करने लगती है और तुम बस उसका अनुसरण करते हो। फिर सहजता आती है, फिर मुक्ति आती है।। 141 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 142 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: अपनी प्राण-शक्ति को मेरुदंड पर केंद्र से केंद्र की ओर गति करती हुई प्रकाश-किरण समझो; और इस प्रकार तुममें जीवंतता का उदय होता है। बहुत-सी योग पद्धतियां इस पर आधारित हैं। पहले समझो कि यह क्या है, और तब प्रयोग । मेरुदंड, रीढ़ तुम्हारे शरीर और मन दोनों का आधार है। तुम्हारा जीवन ऊर्जा का आरोहण - 1 मस्तिष्क, तुम्हारा सिर, तुम्हारी रीढ़ का अंतिम छोर है। पूरा शरीर मेरुदंड में मूलबद्ध है। यदि मेरुदंड युवा है, तो तुम युवा हो । यदि मेरुदंड वृद्ध है, तो तुम वृद्ध हो । यदि तुम अपने मेरुदंड को युवा रख सको, तो वृद्ध हो पाना कठिन है । तुम्हारा सब कुछ मेरुदंड पर ही निर्भर है। यदि तुम्हारा मेरुदंड जीवंत है, तो तुम्हारे मस्तिष्क में प्रखर मेधा होगी। यदि वह मंद और मृत है, तो तुम्हारा मस्तिष्क मंद होगा। पूरा योग कई-कई ढंगों से प्रयास ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना 143 करता है कि तुम्हारी मेरुदंड जीवंत, प्रखर, आलोकित, युवा और ताजा हो जाए। मेरुदंड के दो छोर हैं। आरंभ में काम-केंद्र है और अंत में सहस्रार - सिर के ऊपर का सातवां चक्र है । मेरुदंड का आरंभ पृथ्वी से जुड़ा है, और तुम्हारे भीतर सबसे पार्थिव चीज है। अपने मेरुदंड के आरंभिक चक्र से तुम सृष्टि के संपर्क में आते हो, उसके संपर्क में आते हो जिसे प्रकृति, पृथ्वी या पदार्थ कहा गया है। अंतिम चक्र, या दूसरे ध्रुव - सिर के भीतर स्थित सहस्रार - से तुम दिव्य के, परमात्मा के संपर्क में आते हो। तुम्हारे अस्तित्व के ये दो ध्रुव हैं: पहला काम-केंद्र है और दूसरा सहस्रार है। अंग्रेजी में सहस्रार के लिए कोई शब्द नहीं है। ये दो ध्रुव हैं - या तो तुम्हारा जीवन काम-उन्मुख होगा, या सहस्रार-उन्मुख होगा । या तो तुम्हारी ऊर्जा काम-केंद्र से नीचे पृथ्वी की ओर बहेगी, या सहस्रार से ब्रह्मांड में विलीन हो जाएगी। सहस्रार से तुम ब्रह्म में, परम अस्तित्व में प्रवाहित होते Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो । काम-केंद्र से तुम सापेक्ष अस्तित्व में बह जाते हो। ये दो प्रवाह हैं, दो संभावनाएं हैं। जब तक तुम ऊपर की ओर बहना न शुरू कर दो, तुम्हारा दुख कभी समाप्त नहीं होगा। हो सकता है तुम्हें सुख की झलकें मिली हों, लेकिन केवल झलकें ही - और वे भी भ्रांतियां हैं। जब ऊर्जा ऊपर की ओर उठने लगेगी तो तुम्हें अधिकाधिक वास्तविक झलकें मिलने लगेंगी। और एक बार वह सहस्रार पर पहुंच जाए और वहां से मुक्त हो जाए तो तुम्हें पूर्ण आनंद प्राप्त होगा - वही निर्वाण है । फिर कोई झलकें नहीं आतीं : तुम स्वयं ही आनंद बन जाते हो। तो योग और तंत्र के लिए पूरी बात ही यह है कि कैसे ऊर्जा को मेरुदंड के, रीढ़ के माध्यम से ऊपर की ओर उठाया जाए, कैसे उसे गुरुत्वाकर्षण के विपरीत गतिमान किया जाए। कामवासना बहुत सरल है क्योंकि वह गुरुत्वाकर्षण का अनुसरण करती है। पृथ्वी हर चीज को वापस नीचे खींच रही है; तुम्हारी काम-ऊर्जा पृथ्वी के द्वारा खींची जा रही है। शायद तुमने सुना न हो, लेकिन अंतरिक्षयात्रियों को यह अनुभव होता है - जिस क्षण वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलते हैं, उन्हें कामुकता का कोई बहुत अनुभव नहीं होता। जैसे ही शरीर भार खोता है, कामुकता विलीन हो जाती है, समाप्त हो जाती है। पृथ्वी तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को नीचे की ओर खींच रही है और यह स्वाभाविक है, क्योंकि जीवन-ऊर्जा पृथ्वी से ही आती है। ध्यान की विधियां तुम भोजन लेते हो तो अपने भीतर जीवन-ऊर्जा निर्मित कर रहे हो; वह पृथ्वी से आती है, और पृथ्वी उसे वापस खींच रही है। सबकुछ अपने स्रोत पर लौट जाता है। और यदि यह इसी तरह से चलता रहता है, कि जीवन- ऊर्जा बार-बार वापस लौटती रहे, तो तुम एक चक्र में गति कर रहे हो; तुम जन्मों-जन्मों तक चक्कर लगाते रहोगे । इस प्रकार तुम अनंतकाल तक चक्कर लगाते रह सकते हो जब तक कि तुम अंतरिक्षयात्रियों की तरह छलांग न ले लो। अंतरिक्षयात्रियों की तरह तुम्हें छलांग लगानी होगी और वर्तुल से बाहर निकल आना होगा। फिर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का ढांचा टूट जाता है। उसे तोड़ा जा सकता है। कैसे उसे तोड़ा जा सके वे विधियां यहां हैं— कि कैसे ऊर्जा तुम्हारे भीतर ऊर्ध्वगामी होकर नए-नए केंद्रों पर पहुंचती हुई ऊपर उठ सकती है; कि कैसे तुम्हारे भीतर नई-नई ऊर्जाएं प्रगट की जाएं, जो तुम्हें हर प्रवाह के साथ एक नया व्यक्ति बना जाएं। और जिस क्षण ऊर्जा तुम्हारे सहस्रार से, काम के विपरीत ध्रुव से मुक्त होती है, तो तुम मनुष्य नहीं रहते। फिर तुम इस पृथ्वी से संबंधित नहीं रहते; तुम दिव्य हो गए। जब हम कहते हैं कृष्ण भगवान हैं, या बुद्ध भगवान हैं, तो उसका यही अर्थ है । उनके शरीर तो तुम्हारे जैसे ही हैं। उनके शरीरों को बीमार पड़ना होगा और उनको मरना भी होगा। उनके शरीरों में तो सबकुछ वैसा ही होता है जैसे तुम्हें होता है। उनके शरीर में बस एक ही चीज नहीं हो रही जो तुम्हारे शरीर में हो रही है; ऊर्जा ने गुरुत्वाकर्षण का बंधन तोड़ दिया है। वह तुम नहीं देख सकते; वह तुम्हारी आंखों को दिखाई नहीं देता। लेकिन कभी जब तुम किसी बुद्ध के पास बैठे होओ, तो यह अनुभव कर सकते हो। अचानक तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर ऊर्जा का संचार ..हुआ और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर गति करने लगती है। तभी तुम्हें बोध होता है कि कुछ हुआ। किसी बुद्ध के संपर्क में आते ही तुम्हारी ऊर्जा ऊपर सहस्रार की ओर उठने लगती है। एक बुद्ध इतना शक्तिशाली है, कि पृथ्वी भी कम शक्तिशाली रह जाती है, वह तुम्हारी ऊर्जा को नीचे की ओर नहीं खींच सकती। किसी जीसस, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के आस-पास जिन्होंने यह अनुभव किया उन्होंने उन्हें भगवान कहा है। उनके पास ऊर्जा का एक भिन्न स्रोत है जो पृथ्वी से अधिक मजबूत है। गुरुत्वाकर्षण के इस बंधन को किस प्रकार तोड़ा जा सकता है? यह विधि इस ढांचे को तोड़ने में बड़ी उपयोगी है। पहले एक बुनियादी बात को समझ लो । एक, तुमने यदि कभी ध्यान दिया हो, तो तुमने देखा होगा कि तुम्हारी काम-ऊर्जा कल्पना से गति करती है। कल्पना से ही तुम्हारा काम-केंद्र सक्रिय हो जाता है। वास्तव में, कल्पना के बिना वह संक्रिय हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि जब तुम किसी के साथ प्रेम में होते हो तो वह बेहतर ढंग से कार्य कर सकता है क्योंकि प्रेम के 144 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना साथ कल्पना प्रवेश कर जाती है। यदि तुम यह सूत्र कहता है, “अपनी है-और तुम भी। इसीलिए कुरान कहती प्रेम में नहीं हो तो यह बहुत कठिन हो जाता प्राण-शक्ति को प्रकाश-किरण मानो..." है कि परमात्मा प्रकाश है। तुम प्रकाश हो! है। फिर वह सक्रिय नहीं होता। स्वयं को, अपने अस्तित्व को प्रकाश पहले यह कल्पना करो कि तुम प्रकाश काम-केंद्र क्योंकि कल्पना से सक्रिय किरण की भांति सोचो... “मेरुदंड पर की किरणें मात्र हो; फिर अपनी कल्पना होता है, तो तुम सपनों में भी उत्तेजित और केंद्र से केंद्र की ओर गति करती हुई," रीढ़ को काम-केंद्र पर ले जाओ। अपने होश स्खलित हो सकते हो-वे वास्तविक हैं; पर चढ़ती हुई, “और इस प्रकार तुममें को वहां केंद्रित करो और अनुभव करो कि स्वप्न केवल कल्पना हैं। यह देखा गया जीवंतता का उदय होता है।" काम-केंद्र से प्रकाश की किरणें ऊपर की कि यदि शारीरिक रूप से आदमी स्वस्थ योग ने तुम्हारे मेरुदंड को सात चक्रों में ओर उठ रही हैं, जैसे कि काम-केंद्र हो तो हर पुरुष रात में कम से कम दस बांटा है। पहला है काम-केंद्र और अंतिम प्रकाश का एक स्रोत बन गया हो और बार कामोत्तेजित होता है। मन की हर गति है सहस्रार, और इन दोनों के बीच पांच प्रकाश-किरणें एक अतिशय में नाभिकेंद्र के साथ, काम के थोड़े से विचार से भी, चक्र हैं। कई व्यवस्थाएं उसे पांच में की ओर ऊपर उठ रही हों। उत्तेजना आ जाएगी। तुम्हारे मन में विभाजित करती हैं। अन्य कुछ व्यवस्थाएं विभाजन की जरूरत है क्योंकि तुम्हारे बहुत-सी ऊर्जाएं हैं, बहुत-सी क्षमताएं हैं, नौ में विभाजित करती हैं, कुछ तीन में, लिए अपने काम-केंद्र को सहस्रार से और उनमें से एक है इच्छाशक्ति। लेकिन कुछ चार में विभाजन अर्थपूर्ण नहीं है। जोड़ना कठिन होगा। इसलिए छोटे-छोटे काम की तुम इच्छा नहीं कर सकते। तुम अपना स्वयं का विभाजन बना ले विभाजन सहायक होंगे। यदि तुम सीधे ही कामवासना के लिए इच्छा नपुंसक है। सकते हो। पांच चक्र प्रयोग करने के लिए जुड़ सको, तो किसी विभाजन की जरूरत यदि तुम किसी से प्रेम करने की चेष्टा पर्याप्त हैं: पहला काम-केंद्र है, दूसरा नहीं है। तुम फिर काम-केंद्र और उसके करो, तो तुम्हें लगेगा कि तुम नपुंसक हो नाभि के ठीक पीछे, तीसरा ठीक हृदय के बाद के सारे विभाजनों को छोड़ सकते हो, गए हो। इसलिए कभी चेष्टा मत करो। पीछे, चौथा तुम्हारी दो भौहों के पीछे, ठीक और ऊर्जा, जो जीवन शक्ति है वह प्रकाश इच्छा कभी कामवासना के साथ सक्रिय बीच में, मस्तक के मध्य में। और पांचवा की तरह सहस्रार की ओर उठ जाएगी। नहीं होती; केवल कल्पना ही कार्य करेगी। चक्र, सहस्रार, ठीक सिर के शिखर पर लेकिन विभाजन अधिक सहयोगी होंगे कल्पना करो, और काम-केंद्र सक्रिय होने है। ये पांच काम देंगे। क्योंकि तुम्हारा मन छोटे खंडों को अधिक लगेगा। मैं इस तथ्य पर क्यों जोर दे रहा यह सूत्र कहता है, “स्वयं सरलता से आत्मसात कर सकता है। हूं? -क्योंकि यदि कल्पना ऊर्जा को को...मानो" : जिसका अर्थ हुआ अपनी तो बस यह अनुभव करो कि ऊर्जा, गतिमान होने में सहयोग करती है, तो तुम कल्पना करो-अपनी आंखें बंद कर लो प्रकाश-किरणें एक नदी की भांति तुम्हारे कल्पना से ही उसे ऊपर या नीचे की ओर और कल्पना करो कि तुम प्रकाश हो। यह काम-केंद्र से नाभि की ओर उठ रही हैं। गतिमान कर सकते हो। कल्पना के द्वारा मात्र कल्पना ही नहीं है। प्रारंभ में तो यह तत्क्षण तुम अपने भीतर एक उष्णता को तुम अपने रक्त को गतिमान नहीं कर कल्पना है, लेकिन यह वास्तविकता भी है उदित होता अनुभव करोगे। शीघ्र ही सकते; कल्पना के द्वारा तुम शरीर में और क्योंकि सबकुछ प्रकाश से ही बना है। तुम्हारी नाभि गरम हो जाएगी। तुम गरमी कुछ भी नहीं कर सकते। लेकिन विज्ञान अब कहता है कि सबकुछ प्रकाश को अनुभव कर सकते हो; दूसरे भी उस काम-ऊर्जा को कल्पना द्वारा गतिमान से बना है; विज्ञान कहता है कि सबकुछ गरमी को अनुभव कर सकते हैं। तुम्हारी किया जा सकता है, तुम उसकी दिशा विद्युत से बना है। तंत्र ने सदा से यही कहा कल्पना से काम-ऊर्जा उठना शुरू कर बदल सकते हो। है कि सबकुछ प्रकाश-कणों से बना देगी। जब तुम्हें लगे नाभि पर स्थित दूसरा 145 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केंद्र अब प्रकाश स्रोत बन गया है, कि किरणें अब आकर वहां इकट्ठी हो रही हैं, तो फिर हृदय केंद्र की ओर बढ़ना शुरू करो। जैसे-जैसे प्रकाश हृदय केंद्र पर पहुंचेगा, जैसे-जैसे किरणें आएंगी, तुम्हारी हृदयगति बदल जाएगी । तुम्हारी श्वास गहरी हो जाएगी, और तुम्हारे हृदय एक उष्णता आ जाएगी। इस तरह ऊपर की ओर बढ़ते रहो। और जैसे ही तुम्हें उष्णता की अनुभूति होगी, उसके साथ ही साथ तुम अनुभव करोगे कि एक 'जीवंतता', एक नया जीवन तुममें आविर्भूत हो रहा है, एक आंतरिक प्रकाश ऊर्ध्वगति कर रहा है। काम-ऊर्जा के दो हिस्से हैं: एक शारीरिक और एक साइकिक, मानसिक । तुम्हारे शरीर में हर चीज के दो हिस्से हैं। ठीक तुम्हारे शरीर और मन की तरह, तुम्हारे भीतर हर चीज के दो हिस्से हैं - एक भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक । काम ऊर्जा के दो हिस्से हैं। भौतिक हिस्सा है वीर्य । वह ऊपर नहीं उठ सकता; उसके लिए कोई मार्ग नहीं है। इस कारण पश्चिम के कई मनोवैज्ञानिक कहते हैं। कि तंत्र और योग की पद्धतियां बकवास हैं और वे उनको पूरी तरह से इनकार करते हैं। काम-ऊर्जा कैसे ऊपर उठ सकती है ? न कोई मार्ग है और न ही काम - ऊर्जा ऊपर उठ सकती है। वे सही हैं, फिर भी गलत हैं। वीर्य, जो भौतिक हिस्सा है, ऊपर नहीं उठ सकता, लेकिन वही सब कुछ नहीं है - वह केवल काम - ऊर्जा का स्थूल शरीर है; वह काम ऊर्जा नहीं है। ध्यान की विधियां काम ऊर्जा उसका साइकिक, ऊर्जागत हिस्सा है, और साइकिक हिस्सा ऊपर उठ सकता है। और उस साइकिक हिस्से के लिए मेरुदंड का उपयोग किया जाता है— मेरुदंड और उसके चक्रों का। लेकिन उसका अनुभव करना होता है, और तुम्हारी अनुभूतियां मृत हो चुकी हैं। मुझे स्मरण आता है कि कहीं किसी मनोचिकित्सक ने एक मरीज, एक महिला के बारे में लिखा है। वह इसे कुछ अनुभव करने को कह रहा था लेकिन मनोचिकित्सक को लगा कि वह अनुभव नहीं कर रही थी, बल्कि अनुभूति के बारे में सोच रही थी, और वह एक अलग बात है। तो मनोचिकित्सक ने अपना हाथ स्त्री के हाथ पर रखा और उसे दबाया, स्त्री को कहा कि वह आंख बंद करके बताए कि उसे क्या अनुभव रहा है। वह तत्क्षण बोली कि, “मुझे आपके हाथ का अनुभव हो रहा है। " लेकिन मनोचिकित्सक ने कहा, “नहीं, यह तुम्हारी अनुभूति नहीं है। यह केवल तुम्हारा विचार है, तुम्हारा अनुमान है। मैंने अपना हाथ तुम्हारे हाथ में रखा है; तुम कहती हो तुम मेरे हाथ को अनुभव कर रहीं हो। लेकिन तुम अनुभव नहीं कर रहीं। यह अनुमान है। तुम क्या अनुभव कर रही हो ?" तो उसने कहा, “मैं आपकी अंगुलियां अनुभव कर रही हूं।" मनोचिकित्सक ने फिर से कहा, “नहीं, यह अनुभव नहीं है। किसी चीज का अनुमान मत लगाओ। बस अपनी आंखें बंद करो और उस स्थान पर पहुंच जाओ जहां मेरा हाथ है; फिर मुझे बताओ कि तुम क्या अनुभव करती हो ।” तब वह बोली, "ओह! मैं तो पूरी बात ही चूके जाती थी। मैं दबाव और उष्णता महसूस कर रही हूं।" जब कोई हाथ तुम्हें स्पर्श करता है तो हाथ का अनुभव नहीं होता। दबाव और उष्णता का अनुभव होता है। हाथ तो मात्र एक अनुमान है, एक बौद्धिक बात है, अनुभूति नहीं । अनुभूति तो है दबाव और उष्णता का। अब वह अनुभव कर रही थी । हमने भाव को बिलकुल खो दिया है। तुम्हें भाव को विकसित करना होगा। तभी तुम इस प्रकार की विधियां कर सकते हो । वरना, वे कार्य नहीं करेंगी। तुम बस बौद्धिक व्याख्या कर लोगे। तुम सोचोगे कि तुम अनुभव कर रहे हो, और अस्तित्वगत कुछ भी नहीं होगा। यही कारण है कि मेरे पास आकर लोग कहते हैं, "आप तो हमें बताते हैं कि यह विधि बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे कुछ भी नहीं होता।” उन्होंने प्रयास तो किया, लेकिन वे एक आयाम को चूक रहे हैं-भाव का आयाम | तो पहले तुम्हें भाव के आयाम को विकसित करना होगा, और तब कुछ विधियां हैं जो तुम कर सकते हो। भाव- केंद्र सक्रिय हो जाना चाहिए, तभी ये विधियां सहायक होंगी। वरना तुम सोचते रहोगे कि ऊर्जा ऊपर उठ रही है, लेकिन कोई अनुभूति नहीं होगी। और यदि कोई भाव की शक्ति न हो, तो कल्पना नपुंसक है, व्यर्थ है । केवल एक 146 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना भावपूर्ण कल्पना ही तुम्हें कोई परिणाम दे संवेदनशीलता और भाव पैदा करो। मिलन होता है। काम-कृत्य के समय भी सकती है। तुम और बहुत-सी चीजें कर फिर तुम्हारे लिए इन विधियों को करना तुम यह प्रयोग कर सकते होः दोनों साथी सकते हो और उन्हें करने के लिए किसी सरल होगा, और फिर तुम अपने भीतर इसे कर सकते हैं। ऊर्जा को ऊपर की ओर विशेष प्रयास की जरूरत नहीं है। जब तुम जीवंतता को उदय होता अनुभव करोगे। ले जाओ, और काम-कृत्य तंत्र की साधना सोने लगो तो अपने बिस्तर को महसूस इस ऊर्जा को बीच में कहीं भी मत छोड़ो। बन जाता है। ध्यान बन जाता है। करो, तकिए को महसूस करो-शीतलता उसे सहस्रार तक आने दो। यह स्मरण लेकिन ऊर्जा को शरीर के भीतर किसी को महसूस करो। बस उसके प्रति उन्मुख रखोः जब भी तुम इस प्रयोग को करो तो चक्र पर मत छोड़ दो। हो सकता है कोई हो जाओ: तकिए के साथ खेलो। इसे बीच में मत छोड़ो। तुम्हें इसे पूरा करना आ जाए और तुम्हें कुछ करना पड़े, या अपनी आंखें बंद कर लो और एअर है। इस बात का ध्यान रखो कि कोई तुम्हें कोई फोन आ जाए और तुम्हें रुकना पड़े। कंडिशनर की, या ट्रैफिक की, या घड़ी बाधा न डाले। यदि इस ऊर्जा को तुम बीच तो इस प्रयोग को किसी ऐसे समय पर करो अथवा किसी भी चीज की आवाज को में कहीं छोड़ दो, तो वह हानिकारक हो कि कोई भी तुम्हें बाधा न डाले, और ऊर्जा सुनो। बस सुनो। उस पर कोई लेबल मत सकती है। उसे मुक्त करना है। तो उसे को किसी भी केंद्र में मत छोड़ो। वरना लगाओ, कुछ भी कहो मत। मन का सिर तक ले आओ और भाव करो कि सिर जिस केंद्र में तुम ऊर्जा को छोड़ोगे वह एक प्रयोग न करो। बस अनुभूति में जिओ। एक खुलापन बन गया है। घाव बन जाएगा, और तुम बहुत से सुबह, जागरण के पहले क्षण में जब तुम्हें भारत में हमने सहस्रार को कमल की मानसिक रोग पैदा कर ले सकते हो। तो लगे कि अब नींद जा चुकी, तो सोचने मत भांति चित्रित किया है-एक सहस्र सचेत रहो; अन्यथा इस प्रयोग को मत लगो। कुछ क्षण के लिए तुम फिर से बच्चे पंखुड़ी वाले कमल की भांति। 'सहस्रार' करो। इस विधि के लिए बिलकुल एकांत बन सकते हो-निर्दोष, ताजे। सोचना का अर्थ है सहस्र पंखुड़ी वाला, सहस्र चाहिए, और कोई बाधा न हो, और इसे शुरू मत करो। मत सोचो कि तुम क्या पंखुड़ियों का खुल जाना। जरा हजार पूरा ही करना चाहिए। ऊर्जा सिर तक करने वाले हो और कब तुम्हें दफ्तर के पंखुड़ी वाले कमल की कल्पना करो, जो आनी चाहिए, और वहां से मुक्त हो जानी लिए जाना है, और कौन-सी ट्रेन तुम खुल गया है, और उसकी हर पंखुड़ी से चाहिए। पकड़ने वाले हो। सोचना शुरू मत करो। यह प्रकाश-ऊर्जा ब्रह्मांड में जा रही है! तुम्हें कई अनुभव होंगे। जब तुम्हें उन सब फिजूल की बातों के लिए तुम्हारे फिर से, यह एक प्रेम-कृत्य है-प्रकृति से लगेगा कि किरणें ऊपर को उठने लगी, तो पास काफी समय होगा। जरा ठहरो। नहीं, अब तो परम के साथ। फिर से, यह कई बार कामोत्तेजना होगी या काम-केंद्र कुछ क्षण के लिए बस आवाजों को एक आनंद-शिखर, एक ऑर्गाज़्म हो पर सनसनी होगी। कई लोग बड़े भयभीत सुनो। कोई पक्षी गीत गा रहा है या वृक्षों से गया। और घबड़ाए हुए मेरे पास आते हैं। वे हवा गुजर रही है, या कोई बच्चा रो रहा दो प्रकार के आनंद-शिखर कहते हैं कि जब भी वे ध्यान करने लगते है, या फिर दूध वाला आया है और (आर्गाज़्म) हैं: एक यौनजन्य है और हैं, जब भी वे गहरे जाने लगते हैं, तो आवाजें कर रहा है, या दूध उंडेला जा रहा दूसरा है आध्यात्मिक। यौनजन्य आर्गाज्म कामोत्तेजना उठ आती है। वे हैरान होते हैं है। जो कुछ भी हो, उसे अनुभव करो। निम्नतम केंद्र से आता है और आध्यात्मिक कि यह क्या है? वे भयभीत हो जाते हैं उसके प्रति संवेदनशील रहो, खुले रहो। आर्गाज्म उच्चतम केंद्र से आता है। क्योंकि उनका विचार है कि ध्यान में काम उसे अपने साथ घटित होने दो और तुम्हारी उच्चतम केंद्र से तुम उच्चतम से मिलते हो नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम जीवन के संवेदनशीलता विकसित होगी। और निम्नतम केंद्र से तुम्हारा निम्नतम से कार्य करने का ढंग नहीं जानते। यह एक मा 147 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ लक्षण है। इससे पता चलता है कि अब ऊर्जा वहां जीवंत है। अब उसे गति चाहिए। तो भयभीत मत होओ और यह मत सोचो कि कुछ गलत हो रहा है। यह एक शुभ लक्षण है। जब तुम ध्यान करने लगोगे तो काम-केंद्र अधिक संवेदनशील, जीवंत, और उत्तेजित हो जाएगा, और प्रारंभ में तो उत्तेजना किसी कामोत्तेजना जैसी ही होगी — लेकिन केवल प्रारंभ में ही । जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान गहराएगा, तुम ऊर्जा को ऊपर की ओर बहता अनुभव करोगे। जैसे-जैसे फिर ऊर्जा बहती है, काम-केंद्र शांत व कम उत्तेजित हो जाता है। जब ऊर्जा वास्तव में सहस्रार पर पहुंच जाती है तो काम केंद्र पर कोई संवेदना नहीं होगी। वह बिलकुल शांत और स्थिर हो जाएगा। वह पूरी तरह शीतल हो जाएगा, और उष्मा सिर पर पहुंच जाएगी। और यह शारीरिक घटना है। जब काम-केंद्र उत्तेजित होता है, तो गरम हो ध्यान की विधियां जाता है। तुम उस गरमी को अनुभव कर सकते हो; वह शारीरिक है। जब ऊर्जा गति करती है, तो काम केंद्र शीतल से शीतल होता जाएगा और उष्मा सिर में पहुंच जाएगी। तुम चक्कर- सा आता अनुभव करोगे । जब ऊर्जा सिर पर पहुंचेगी तो तुम चक्कर - सी बेचैनी अनुभव करोगे। कई बार तो तुम्हें मितली का जी भी हो सकता है क्योंकि ऊर्जा पहली बार, सिर पर आई है और तुम्हारा सिर उससे परिचित नहीं है। उससे तालमेल बिठाना है। तो डरो मत। कई बार तो हो सकता है कि तुम तत्क्षण बेहोश हो जाओ, लेकिन डरो मत। यह : होता है। यदि इतनी ज्यादा ऊर्जा अचानक गति करने लगे और सिर में विस्फोटित हो जाए, तो शायद तुम बेहोश हो जाओ । लेकिन वह बेहोशी एक घंटे से अधिक नहीं रह सकती। एक घंटे के भीतर ऊर्जा स्वयं ही पीछे लौट जाती है या मुक्त हो जाती है। मैं कहता हूं एक घंटा, लेकिन वास्तव में यह समय ठीक 48 मिनट है। उससे अधिक नहीं हो सकता। हजारों वर्ष के प्रयोगों में उससे अधिक समय नहीं लगा है, इसलिए डरो मत। यदि तुम बेहोश भी हो जाओ तो ठीक है। उस बेहोशी के बाद तुम इतने ताजे अनुभव करोगे कि जैसे पहली बार तुम गहनतम नींद में सोए हो । योग ने इसे एक विशेष नाम दिया है : 'योग तंद्रा' – योग - निद्रा । वह नींद बहुत गहरी है: तुम गहनतम केंद्र पर चले जाते हो। लेकिन डरो मत। और यदि तुम्हारा सिर गरम हो जाए, तो यह एक शुभ लक्षण है। ऊर्जा को मुक्त कर दो। ऐसा अनुभव करो कि तुम्हारा सिर एक कमल के फूल की तरह खिल रहा है, जैसे कि ऊर्जा ब्रह्मांड में मुक्त हो रही है। जैसे ही ऊर्जा मुक्त होती है तुम अपने भीतर एक शीतलता को आता हुआ महसूस करोगे । तुमने उस शीतलता का कभी अनुभव ही नहीं किया जो इस गरमी के बाद आती है। लेकिन विधि को पूरा ही करो; इसे कभी भी अधूरा मत करो। 2 148 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करना गव ने कहाः अथवा बीच के रिक्त स्थानों में, इसे बिजली की कौंध जैसा जानो। थोड़े भेद से यह वैसी ही विधि है: "अथवा बीच के रिक्त स्थानों में इसे बिजली की कौंध जैसा जानो।" जब किरणें एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर आ रही हों तो जीवन ऊर्जा का आरोहण -2 बीच में तुम बिजली की कौंध-सा अनुभव तुम यदि पहली विधि करो और.अचानक एक छलांग है। कर सकते हो-प्रकाश की एक तुम्हें लगे कि किरणें एक केंद्र से दूसरे केंद्र स्त्रियों के लिए पहली विधि सरल होगी छलांग-सा। कुछ लोगों के लिए दूसरी पर सीधे छलांग ले लेती हैं, तो पहली और पुरुषों के लिए दूसरी। स्त्रैण मन विधि अधिक उपयुक्त होगी और कुछ के विधि को मत करो। दूसरी विधि तुम्हारे क्रमिकता की अधिक सरलता से कल्पना लिए पहली। इसीलिए थोड़ा-सा सुधार लिए बेहतर है: “इसे बिजली की कौंध कर सकता है और पुरुष मन अधिक किया गया है। कुछ ऐसे लोग हैं जो जैसा जानो"-जैसे प्रकाश की एक सरलता से छलांग लगाता है। पुरुष मन क्रमिक चीजों की कल्पना नहीं कर सकते चिनगारी एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर छलांग छलांग लेने वाला है। वह एक से दूसरी और ऐसे लोग भी हैं जो छलांग की लगा रही है। और दूसरी विधि अधिक चीज पर छलांग लगाता है। पुरुष मन में कल्पना नहीं कर सकते। यदि तुम वास्तविक है क्योंकि प्रकाश में छलांग एक सूक्ष्म बेचैनी है। स्त्रैण मन में एक धीरे-धीरे सोच पाओ और कल्पना कर लगती है। विकास क्रमिक नहीं होता, क्रमिक प्रक्रिया होती है। वह छलांग लेने पाओ तो पहली विधि अच्छी है। लेकिन एक-एक कदम करके नहीं होता। प्रकाश वाला नहीं होता। यही कारण है कि स्त्री 149 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुरुष के तर्क बड़े भिन्न होते हैं। पुरुष एक चीज से दूसरी चीज पर छलांग लगाता रहता है, और स्त्रियों के लिए यह अकल्पनीय है। उनके लिए तो विकास होना चाहिए— क्रमिक विकास। लेकिन चुनाव करो। इन दोनों को करके देखो, और तुम्हें जो भी अपने लिए अच्छा लगे, उसे चुन लो । इस विधि के संबंध में दो-तीन बातें और। बिजली की कौंध के साथ तुम्हें इतनी गरमी का अनुभव हो सकता है कि शायद वह तुम्हें असहनीय लगे । यदि तुम्हें ऐसा लगे तो इस प्रयोग को मत करो। बिजली की कौंध तुम्हें बहुत गरमी दे सकती है। यदि तुम्हें ऐसा लगे, कि यह असहनीय है, ध्यान की विधियां तो इस प्रयोग को मत करो। फिर यदि पहली विधि तुम्हारे लिए सहज है, तो ठीक । अन्यथा असहजता से इसे मत करो। कई बार विस्फोट इतना बड़ा हो सकता है कि शायद तुम उससे भयभीत हो जाओ, और एक बार भयभीत हो गए तो फिर कभी दोबारा इस प्रयोग को न कर पाओगे। फिर भय आ जाता है। तो व्यक्ति को सदा सजग रहना होता है कि किसी भी चीज से भयभीत न हो। यदि तुम्हें लगे कि भय लगेगा, और यह तुम्हारे लिए बहुत ज्यादा हो जाएगा, तो इसे मत करो। फिर प्रकाश किरणों वाली पहली विधि सबसे अच्छी है। यदि तुम्हें लगे कि प्रकाश-किरणों से भी बहुत गरमी आ रही है - और यह निर्भर करता है, क्योंकि लोग भिन्न हैं - तो कल्पना करो कि किरणें शीतल हैं; उनके शीतल होने की कल्पना करो। तब गरमी महसूस करने की बजाय तुम हर चीज के साथ एक शीतलता का अनुभव करोगे। वह भी प्रभावकारी होगा। तो तुम निर्णय ले सकते हो ः प्रयोग करके देखो और निर्णय लो। स्मरण रखो, यदि इस विधि में या किसी और विधि में तुम्हें बहुत बेचैनी लगे या कुछ असहनीय लगे, तो उसे मत करो। दूसरी विधियां भी हैं, और हो सकता है यह विधि तुम्हारे लिए न हो । भीतर व्यर्थ की अशांति से तुम इतनी समस्याएं निर्मित कर लोगे जितनी सुलझा भी नहीं पाओगे । 150 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण ध्वनिरहित नाद का श्रवण नकी श्रवण ऊर्जा से संबंधित ध्यान की विधियां निष्क्रिय और मास्त्रैण हैं। तुम्हें कुछ करना नहीं है; तुम्हें बस सुनना है। पक्षियों की आवाजें, हवाओं का वृक्षों से गुजरना या कोई संगीत या ट्रैफिक की आवाजें, यातायात वाहनों का शोरगुल–बस सुनना, कुछ और न करना-एक गहन मौन भीतर उठता है, एक गहन शांति तुममें उतरने और बरसने लगती है। आंखों के बदले कानों से इसका घटित होना अधिक सरल है। कानों से यह सरल है, क्योंकि कान निष्क्रिय और अनाक्रामक हैं। कान अस्तित्व में कोई बाधा नहीं डाल सकते; वे केवल चीजों को घटित होने दे सकते हैं। कान द्वार है-वह घटनाओं को प्रवाहित होने देता है।। 151 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 152 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण दब्रह्म एक प्राचीन तिब्बती विधि है जिसे सुबह ब्रह्ममुहूर्त में किया जाता रहा है। अब इसे दिन में किसी भी समय अकेले या अन्य लोगों के साथ किया जा सकता है लेकिन पेट खाली होना चाहिए और इस ध्यान के बाद पंद्रह मिनट तक विश्राम करना जरूरी है। यह ध्यान एक घंटे का है और इसके तीन चरण हैं। नादब्रह्म ध्यान पहला चरण: तीस मिनट स्थिति ऐसी आती है जब गुंजार अपने दो भागों में बंटा हुआ है। पहले साढ़े आप जारी रहता है और तुम एक श्रोता सात मिनट में दोनों हथेलियां एक विश्रामपूर्ण मुद्रा में आंख और मात्र हो जाते हो। इस विधि में किसी आकाशोन्मुखी फैला कर नाभि के पास मुंह बंद करके बैठें। अब भौरे की तरह विशेष श्वसन प्रक्रिया की जरूरत नहीं है से आगे की ओर बढ़ाते हुए चक्राकार गुंजार की ध्वनि निकालना शुरू करें। और तुम गुंजार की लय को बदल सकते घुमाएं। दायां हाथ दायीं ओर और बायां गुंजार इतना तीव्र हो कि तुम्हारे आसपास हो तथा लगे तो शरीर को धीरे-धीरे झूमने हाथ बायीं ओर चक्राकार घुमाएं। और बैठे लोगों को यह सुनाई पड़ सके और दे सकते हो। तब वर्तुल पूरा करते हुए दोनों हथेलियों गुंजार की ध्वनि के कंपन तुम्हारे पूरे शरीर को पूर्ववत नाभि के सामने वापस ले में फैल सकें। स्वयं को एक खाली पात्र दूसरा चरण: पंद्रह मिनट आएं। यह गति साढ़े सात मिनट तक या खोखले ट्यूब की तरह कल्पना करो जारी रखें। गति इतनी धीमी हो कि कई जो गुंजार की ध्वनि से भर गई हो। एक दूसरा चरण साढ़े सात-सात मिनट के बार तो ऐसा लगेगा कि कोई गति ही नहीं 153 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां हो रही है। भाव करें कि आप अपनी तीसरा चरण: पंद्रह मिनट हाथ क्रॉस करके एक दूसरे के हाथ पकड़ ऊर्जा बाहर ब्रह्मांड में फैलने दे रहे हैं। लेते हैं फिर पूरा शरीर एक बड़े कपड़े से साढ़े सात मिनट के बाद हथेलियों को शांत और थिर हो कर बैठे रहें या लेट ढंक लेते हैं। यदि वे निर्वस्त्र हों तो अच्छा उलटा, भूमिउन्मुख कर लें और उन्हें जाएं। 2 होगा। कमरे में मंद प्रकाश हो जैसे विपरीत दिशा में वृत्ताकार घुमाना शुरू छोटी-छोटी चार मोमबत्तियां जल रही करें। अब फैले हुए हाथ नाभि की ओर हों। केवल इस ध्यान के लिए अलग वापस आएंगे फिर पेट के किनारे से स्त्री-पुरुष जोड़ों रखी एक अगरबत्ती का उपयोग कर बाहर वृत्त बनाते हुए बाजुओं में फैल कर सकते हैं। फिर वृत्त को पूरा करते हुए नाभि की ओर आंखें बंद कर लें और तीस मिनट वापस लौटेंगे। अनुभव करो कि तुम तक, एक साथ, भौरे की गुंजार करें। ऊर्जा भीतर ग्रहण कर रहे हो। पहले 'शो ने इस विधि का एक भिन्न कुछ ही समय में अनुभव होगा कि चरण की तरह शरीर में यदि कोई धीमी गारूप जोड़ों के लिए दिया है। ऊर्जाएं आपस में मिल रहीं, डूब रहीं गति हो तो उसे रोकें मत, होने दें। स्त्री और पुरुष आमने-सामने बैठ अपने और एक हो रही हैं।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहाः ओम् जैसी किसी ध्वनि का धीमे-धीमे गुंजार करो। जैसे-जैसे ध्वनि पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है वैसे-वैसे साधक भी। "ओम् जैसी किसी ध्वनि का धीमे-धीमे गुंजार करो।" उदाहरण के लिए ओम् को लो। यह आधारभूत ध्वनियों में से एक है। अ उ और म- ये तीन ध्वनियां ओम् में सम्मिलित हैं। ये तीनों बुनियादी ध्वनियां हैं। अन्य सभी ध्वनियां इनसे ही निष्पन्न, ओम् ॐ इनसे ही बनी और इनका ही मिश्रण हैं। ये तीनों बुनियादी हैं जैसे भौतिकी के लिए इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और पाजीट्रॉन बुनियादी हैं। इस बात को गहराई से समझना होगा । .... ध्वनि का उच्चारण एक सूक्ष्म विज्ञान है । पहले तुम्हें ओम का उच्चारण जोर से बाहर-बाहर करना है। दूसरे भी इसे सुन सकेंगे। जोर से उच्चार शुरू करना अच्छा है। क्यों? क्योंकि जब तुम जोर से उच्चार करते हो तो तुम भी उसे साफ-साफ सुनते 155 ध्वनिरहित नाद का श्रवण हो । जब भी तुम कुछ कहते हो तो दूसरों से कहते हो; वह तुम्हारी आदत बन गई है। जब भी तुम बात करते हो तो दूसरों से करते हो। और तुम स्वयं को बोलते हुए तभी सुनते हो जब तुम दूसरों से बात करते होते हो। इसलिए एक स्वाभाविक आदत से आरंभ करना अच्छा है। ओम् ध्वनि का उच्चार करो, और फिर धीरे-धीरे उस ध्वनि के साथ लयबद्ध अनुभव करो। जब ओम् का उच्चार करो तो उससे आपूरित हो जाओ, भर जाओ । और सब कुछ भूल जाओ; ओम् ही बन जाओ, ध्वनि ही बन जाओ। और ध्वनि ही बन जाना बहुत आसान है क्योंकि ध्वनि तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे मन में, तुम्हारे पूरे स्नायु संस्थान में गूंजने लगती है। ओम् की अनुगूंज को अनुभव करो। ओम् का उच्चार करो और अनुभव करो कि तुम्हारा पूरा शरीर उससे भर गया है, शरीर का प्रत्येक कोश उससे गूंज उठा है। उच्चार करना लयबद्ध होना भी है। ध्वनि के साथ लयबद्ध होओ; ध्वनि ही Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन जाओ। और तब तुम अपने और ध्वनि के बीच गहरी लयबद्धता अनुभव करोगे; तब तुममें उसके लिए गहरा अनुराग पैदा होगा। यह ओम् की ध्वनि इतनी ही सुंदर और संगीतमय है। जितना ही तुम उसका उच्चार करोगे उतने ही तुम उसकी सूक्ष्म मिठास से भर जाओगे। ऐसी ध्वनियां हैं जो बहुत तीखी और कठोर हैं। ओम् एक बहुत मीठी ध्वनि है और यह शुद्धतम है। इसका उच्चार करो और इससे आपूरित हो जाओ । जब तुम ओम् की ध्वनि के साथ लयबद्ध अनुभव करने लगो, तब तुम इसका जोर से उच्चार करना बंद कर सकते हो। अब ओंठ बंद कर लो और ओम् का उच्चार भीतर ही करो, लेकिन पहले भीतर जोर से उच्चार करो, ताकि ध्वनि तुम्हारे पूरे शरीर में फैल जाए, उसके प्रत्येक हिस्से को, एक-एक कोशिका को छूए । तुम इससे अधिक प्राणवान, अधिक जीवंत हुआ अनुभव करोगे। तुम स्वयं में एक नवजीवन प्रवेश करता हुआ अनुभव करोगे । तुम्हारा शरीर एक वाद्य यंत्र की तरह है । उसे लयबद्धता की जरूरत है; और जब लयबद्धता खंडित होती है, तो तुम अड़चन में पड़ते हो। यही कारण है कि जब तुम संगीत सुनते हो, तो तुम्हें अच्छा लगता है। तुम्हें यह अच्छा क्यों लगता है? संगीत और क्या है सिवाय लयबद्ध सुर-ताल के ? जब तुम्हारे आसपास संगीत होता है तो ध्यान की विधियां तुम इतना सुख-चैन क्यों अनुभव करते हो ? और शोरगुल और अराजकता के बीच तुम्हें बेचैनी क्यों लगती है ? कारण है कि तुम स्वयं गहरे रूप से संगीतमय हो । तुम एक वाद्य यंत्र हो और यह यंत्र प्रतिध्वनित करता है। अपने भीतर ओम् का उच्चार करो और तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारा पूरा शरीर उसके साथ नृत्य करने लगा है। तब तुम्हें महसूस होगा कि तुम्हारा पूरा शरीर उसमें नहा रहा है; उसका पोर पोर इस स्नान से शुद्ध हो रहा है। लेकिन जैसे-जैसे इसकी प्रतीति प्रगाढ़ हो, जैसे- जैसे यह ध्वनि ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे भीतर प्रवेश करे वैसे-वैसे उच्चार को धीमा करते जाओ। क्योंकि ध्वनि जितनी धीमी होगी, उतनी ही वह गहराई प्राप्त करेगी। यह होमिओपैथी की खुराक जैसी है; जितनी छोटी खुराक उतनी ही गहरी उसकी पैठ होती है। गहरे जाने के लिए तुम्हें सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो कर जाना होगा। स्थूल और कर्कश स्वर तुम्हारे हृदय में नहीं उतर सकते; वे तुम्हारे कानों में तो प्रवेश करेंगे, लेकिन हृदय में नहीं । हृदय में प्रवेश का मार्ग बहुत संकरा है और हृदय स्वयं इतना कोमल है कि सिर्फ बहुत धीमे, लयपूर्ण और सूक्ष्म स्वर ही उसमें प्रवेश पा सकते हैं। और जब तक कोई ध्वनि तुम्हारे हृदय में प्रवेश न करे, तब तक मंत्र पूरा नहीं होता है। मंत्र तभी पूरा होता है जब उसकी ध्वनि तुम्हारे हृदय में, तुम्हारी अंतस सत्ता के गहनतम केंद्रीय मर्म में प्रवेश करे । इसलिए उच्चार को धीमा, और धीमा करते चलो। इन ध्वनियों को धीमा और सूक्ष्म बनाने के और भी कारण हैं। ध्वनि जितनी सूक्ष्म होगी, उतने ही ज्यादा सघन और तीक्ष्ण बोध की भीतर तुम्हें जरूरत होगी। ध्वनि जितनी ज्यादा स्थूल होगी, भीतर उतने ही कम होश की जरूरत होती है। ध्वनि की स्थूलता ही काफी है तुम पर चोट करने के लिए; तुम्हें उसका बोध होगा ही । लेकिन वह हिंसात्मक है। यदि ध्वनि संगीतपूर्ण, लयपूर्ण और सूक्ष्म हो तो तुम्हें उसे अपने भीतर सुनना होगा, और उसे सुनने के लिए तुम्हें बहुत सजग होना होगा। यदि तुम सचेत नहीं हो, तो तुम निद्रा में उतर जाओगे और तब तुम पूरी बात ही चूक जाओगे । किसी मंत्र या जप के साथ, किसी ध्वनि के प्रयोग के साथ यही कठिनाई है कि वह नींद पैदा करता है। वह एक सूक्ष्म शामक है, नींद की दवा है। यदि तुम किसी ध्वनि को निरंतर दोहराते रहे, उसके प्रति बिना सजग हुए, तो तुम सो जाओगे क्योंकि तब पुनरुक्ति यांत्रिक हो जाती है। ओम् - ओम् - ओम् यांत्रिक हो जाता है और तब पुनरुक्ति ऊब पैदा करती है। इसलिए दो बातें तुम्हें साधनी है: ओम् के उच्चार को धीमा और सूक्ष्म करते जाओ और उसके साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा सजग होते जाओ। ध्वनि जितनी ज्यादा सूक्ष्म होती है, तुम उतने ज्यादा सचेत होते जाते हो। तुम्हें ज्यादा सजग बनाने के लिए ओम् का उच्चार ज्यादा सूक्ष्म करते जाना होगा । तब एक बिंदु आता है जब ध्वनि 156 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण निर्ध्वनि में या पूर्णध्वनि में प्रवेश करती है, उसके चरम शिखर पर होना चाहिए। जब पर, अपने एव्हरेस्ट पर पहुंच चुका होता और तुम पूर्ण होश में प्रवेश कर जाते हो। ध्वनि अपनी घाटी में उतर जाती है, घाटी है। और वहां ध्वनि निर्ध्वनि में या जब तक ध्वनि निर्ध्वनि या पूर्णध्वनि में के निम्नतम, गहनतम केंद्र में उतर जाती पूर्णध्वनि में विलीन होती है और तुम पहुंचे, उस समय तक तुम्हारे होश को है, तब तुम्हारा होश अपने उच्चतम शिखर परिपूर्ण होश में विलीन हो जाते हो। 4 157 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां र रात को सोने के पहले तुम एक 2 छोटा-सा प्रयोग कर सकते हो जो बहुत ही सहायक होगा। प्रकाश बुझा लो, सोने के लिए तैयार हो कर अपने बिस्तर पर बैठ जाओ-पंद्रह मिनट के लिए। आंखें बंद कर लो और फिर कोई निरर्थक एकसुरी आवाज निकालना शुरू करो। उदाहरण के लिए ल ल ल ल-और प्रतीक्षा करो कि मन तुम्हें नई ध्वनियां देता देववाणी जाए। एक ही बात याद रखनी है कि वे तब इटालियन भाषा अच्छी होगी। वह दिया जा सके। जब मन का अचेतन आवाजें या शब्द उस किसी भाषा के न हों कोई भाषा बोलो जिससे तुम अपरिचित हिस्सा बोलता है, तो वह तो कोई भाषा जो तुम जानते हो। यदि तुम अंग्रेजी, जर्मन हो। नहीं जानता।... और इटालियन भाषा जानते हो तो पहले दिन कुछ क्षणों के लिए तुम यह एक बहुत ही प्राचीन विधि है। यह उच्चारित शब्द इन भाषाओं के न हों। कोई अड़चन में पड़ोगे, क्योंकि वह भाषा तम ओल्ड टेस्टामेंट में, पुरानी बाइबिल में भी भाषा जो तुम नहीं जानते हो-जैसे कैसे बोल सकते हो जो तुम जानते ही उल्लिखित है। उन दिनों इस विधि को मान लो तिब्बती, चीनी, जापानी-उनकी नहीं? एक बार प्रारंभ भर हो जाए, फिर 'ग्लोसोलालिया' कहा जाता था और ध्वनियां तुम उच्चारित कर सकते हो। वह बोली जा सकती है। कोई भी आवाज, अमेरिका के कुछ चर्च अभी भी इसका लेकिन यदि तुम जापानी भाषा जानते हो, अर्थहीन शब्द-ताकि सतही चेतन मन उपयोग करते हैं। वे इसे 'जीभ की बोली' तो उसका उपयोग तुम नहीं कर सकते; को शिथिल करके, अचेतन मन को बोलने कहते हैं। और यह एक अद्भुत विधि 158 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण है-अचेतन का भेदन करने वाली बोलती है; साधक एक रिक्त पात्र और जब तक कि एक अज्ञात भाषा-प्रवाह गहनतम विधियों में से यह एक विधि है। ऊर्जा प्रवाह के लिए एक मार्ग बन जाता जैसे लगने वाले शब्द न आने लगें। ये तुम 'ल, ल, ल,' के उच्चार से शुरू है। यह ध्यान जीभ का लातिहान है। यह आवाजें मस्तिष्क के उस अपरिचित कर सकते हो, फिर बाद में जो कुछ ध्वनि विधि चेतन मन को इतनी अधिक गहराई हिस्से से आनी चाहिए जिसका उपयोग आए उसके साथ बहो। केवल पहले दिन से शिथिल करती है कि जब इसका बचपने में शब्द सीखने के पहले तुम तुम थोड़ी कठिनाई अनुभव करोगे। एक प्रयोग रात सोने के पहले किया जाए, तो करते थे। बातचीत की शैली में कोमल बार यह चल पड़े फिर तुम इसका राज़, निश्चित ही इसके बाद गहन निद्रा आने ध्वनि वाले शब्द-प्रवाह को आने दो। न इसका गुर जान गए। फिर पंद्रह मिनट तक __ वाली है। रोओ, न हंसो, न चीखो, न चिल्लाओ। तुममें उतर रही इस अज्ञात भाषा का इस विधि में पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार उपयोग करो; और इसका उपयोग एक चरण हैं। सभी चरणों में आंखें बंद रखो। तीसरा चरणः पंद्रह मिनट बोलचाल की भाषा की तरह ही करो; वास्तव में तुम इस भाषा में बातचीत ही खड़े हो जाओ और अनजानी भाषा में कर रहे हो। देववाणी ध्यान के लिए बोलना जारी रखो और अब उच्चारित इस विधि का पंद्रह मिनट का अभ्यास निर्देश शब्दों के साथ एक लयबद्धता में शरीर तुम्हारे चेतन मन को गहरा विश्राम दे देगा। को धीरे-धीरे गति करने दो, मुद्राएं बनाने और तब तुम बस लेट जाओ और निद्रा में पहला चरण: पंद्रह मिनट दो। यदि तुम्हारा शरीर शिथिल है तो डूब जाओ। तुम्हारी नींद गहरी हो जाएगी। सूक्ष्म ऊर्जाएं तुम्हारे भीतर एक लातिहान कुछ ही सप्ताह में तुम अपनी नींद में एक शांत बैठ जाओ कोमल संगीत को : नामक मुद्राएं और गतियां पैदा करेंगी, जो गहराई का अनुभव करोगे और सुबह तुम सुनो। तुम्हारे कुछ भी किये बिना ही जारी बिलकुल ताजा अनुभव करोगे। 5 रहेंगी। दूसरा चरण: पंद्रह मिनट चौथा चरणः पंद्रह मिनट तेववाणी का अर्थ है परमात्मा की निरर्थक आवाजें निकालना शुरू करो, वाणी। इसमें साधक को माध्यम उदाहरण के लिए 'ल, ल, ल' से प्रारंभ लेट जाओ, शांत और निष्क्रिय बने बनाकर दिव्यता ही गति करती है और करो और इसे उस समय तक जारी रखो रहो। 6 159 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां ग व ने कहाः तारवाले वाद्यों । की ध्वनि सुनते हुए उसकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ। तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो, सितार या किसी वाद्य को। उसमें कई स्वर हैं। सजग हो कर उसके केंद्रीय स्वर को सुनो-उस स्वर को जो उसका मेरुदंड हो. और जिसके चारों ओर और सभी स्वर संगीत ः एक ध्यान घूमते हों; उसकी गहनतम धारा को सुनो उसके प्रति जागरूक होओ। हो सकता है। यदि उसका नृत्य या संगीत जो अन्य सभी स्वरों को सम्हाले हुए हो। बुनियादी रूप में, मूलतः संगीत का में ध्यान नहीं है तो वह टेक्नीशियन ही जैसे तुम्हारे पूरे शरीर को उसका मेरुदंड, उपयोग ध्यान के लिए किया जाता था। है। वह बड़ा टेक्नीशियन हो सकता है; उसकी रीढ़ सम्हाले हुई है, वैसे ही संगीत भारतीय संगीत का विकास तो विशेष रूप लेकिन तब उसके संगीत में आत्मा नहीं की भी रीढ़ होती है। से ध्यान की विधि के रूप में ही हुआ। वैसे है, शरीर भर है। आत्मा तो तब होती है संगीत को सुनते हुए सजग हो कर ही भारतीय नृत्य का विकास भी जब संगीतज्ञ गहरा ध्यानी भी हो। उसमें प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को ध्यान-विधि की तरह हुआ। संगीतज्ञ या संगीत तो बाहरी चीज है। लेकिन खोजो–उस केंद्रीय स्वर को खोजो जो पूरे नतर्क के लिए ही नहीं, श्रोता या दर्शक के सितार बजाते हुए वादक केवल सितार ही संगीत को सम्हाले हुए रहता है। स्वर तो लिए भी वे गहरे ध्यान के उपाय थे। नहीं बजाता है, वह भीतर अपने बोध को आते-जाते और विलीन होते रहते हैं, नर्तक या संगीतज्ञ मात्र एक भी जगा रहा है। बाहर सितार बजता है लेकिन केंद्रीय तत्व प्रवाहमान रहता है। यंत्रविशेषज्ञ, एक टेक्नीशियन भी और उसका सघन होश भीतर गति करता 160 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण है। संगीत बाहर बहता रहता है, लेकिन विधियां जागरूकता के लिए विकसित की मर्म को प्राप्त कर तुम जाग जाओगे और वह संगीत के अंतरस्थ केंद्र के प्रति सदा गई थीं, उनका उपयोग नींद के लिए किया उस जागरण के साथ तुम सर्वव्यापी हो सजग बना रहता है। वह समाधि लाता है। जा रहा है! और यह एक उदाहरण है कि जाओगे। वह आनंद लाता है। वह शिखर बन जाता आदमी कैसे अपने साथ दुष्टता और अभी तो तुम कहीं एक जगह हो; उस है।... अनिष्ट किए जा रहा है।... बिंदु को हम अहंकार कहते हैं। अभी तुम लेकिन जब तुम संगीत सुनते हो तो क्या यह सूत्र कहता है कि “तारवाले वाद्यों उसी बिंदु पर हो। यदि तुम जाग जाओगे करते हो? तुम ध्यान नहीं करते हो; उलटे की ध्वनि को सुनते हुए उसकी संयुक्त तो यह बिंदु विलीन हो जाएगा। तब तुम तुम संगीत का शराब की तरह उपयोग केंद्रीय ध्वनि को सुनो। इस प्रकार कहीं एक जगह नहीं होओगे, सर्वत्र करते हो। तुम हलके होने के लिए संगीत सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।" और होओगे; तब तुम सर्व ही हो जाओगे। तुम का उपयोग करते हो; तुम आत्म-विस्मरण तब तुम उसे जान लोगे, जो जानने योग्य सागर हो जाओगे। तुम अनंत हो जाओगे। के लिए संगीत का उपयोग करते हो। है। तब तुम सर्वव्यापक हो जाओगे। उस मन के साथ सीमा है और ध्यान के .. यही दुर्भाग्य है, यही पीड़ा है कि जो संगीत के साथ, उसके सामासिक केंद्रीय साथ अनंत प्रवेश करता है। 7 161 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां पण व ने कहाः ध्वनि के केंद्र में स्नान करो-मानो जलप्रपात के सतत नाद में स्नान कर रहे हो। या कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद, अनाहत को सुनो। इस विधि का प्रयोग अनेक ढंग से किया जा सकता है। एक ढंग है कि कहीं भी बैठ कर इसे शुरू करो। ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं। चाहे बाजार हो या हिमालय की कोई एकांत गुफा, ध्वनियां सर्वत्र हैं। चुप हो कर बैठो। ध्वनि का केंद्र ध्वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है: तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो। ध्वनि के लिए है और तुम उसके केंद्र हो। यह भाव भी जब भी कोई ध्वनि होगी, तुम उसके केंद्र तुम सदा परमात्मा हो-समस्त ब्रह्मांड के कि तुम केंद्र हो, तुम्हें एक गहरी शांति से होओगे। सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती केंद्र। प्रत्येक ध्वनि वर्तुलाकार में तुम तक भर देगा। सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है हैं-सब तरफ से, सब दिशाओं से। दृष्टि आ रही है, तुम तक गति कर रही है। और तुम उसके केंद्र रहते हो। और प्रत्येक के साथ, आंखों के साथ यह बात नहीं है। यह विधि कहती है: "ध्वनि के केंद्र में चीज, प्रत्येक ध्वनि तुम्हारी तरफ बढ़ रही दृष्टि रेखाबद्ध है। मैं तुम्हें देखता हूं तो स्नान करो।" यदि तुम इस विधि का प्रयोग है। मुझसे तुम तक एक रेखा खिंच जाती है। कर रहे हो तो तुम जहां भी हो वहीं आंखें "मानो जलप्रपात के सतत नाद में स्नान लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है; वह रेखाबद्ध बंद कर लो और भाव करो कि सारा करते हो।" यदि तुम किसी जलप्रपात के नहीं है। सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है। अनुभव करो किनारे बैठे हो, तो आंखें बंद कर लो और और तुम उनके केंद्र हो। तुम जहां भी हो, कि प्रत्येक ध्वनि तुम्हारी ओर गति कर रही अपने चारों ओर की ध्वनि को महसूस 162 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिरहित नाद का श्रवण करो और उसे सब ओर से अपने ऊपर बिंदु है जहां कोई ध्वनि प्रवेश नहीं कर कि यह केंद्र सिर में नहीं है। मालूम तो बरसता हुआ अनुभव करो और यह पाती; वह बिंदु तुम हो। होता है कि सिर में है; क्योंकि तुम ध्वनि अनुभव करो कि तुम उसके केंद्र हो। बीच बाजार में इस विधि का प्रयोग नहीं, शब्द सुनते हो। शब्दों के लिए तो __ अपने को केंद्र समझने पर यह जोर क्यों करो। बाजार जैसा कोई दूसरा स्थान नहीं सिर ही केंद्र है; लेकिन ध्वनि के लिए वह है? क्योंकि केंद्र पर कोई ध्वनि नहीं है। है; वह शोरगुल से, पागल शोरगुल से केंद्र नहीं है। यही कारण है कि जापान में वे केंद्र ध्वनिशून्य है; यही कारण है कि तुम्हें खूब भरा रहता है। लेकिन इस शोरगुल के कहते हैं कि आदमी सिर से नहीं, पेट से ध्वनि सुनाई पड़ती है अन्यथा तुम उसे नहीं संबंध में सोचना शुरू मत करो; यह मत सोचता है। जापान में उन्होंने बहुत समय सुन सकते। एक ध्वनि दूसरी ध्वनि को कहो कि यह ध्वनि अच्छी है, यह बुरी है; से ध्वनि के ऊपर काम किया है। नहीं सुन सकती। अपने केंद्र पर ध्वनिशून्य यह उपद्रव पैदा करती है, यह सुंदर और तुमने मंदिरों में बड़े घंटे लगे देखे होंगे। होने के कारण तुम्हें आवाजें सुनाई पड़ती लयपूर्ण है। ध्वनियों के संबंध में तुम्हें वे वहां साधकों के चारों ओर ध्वनि पैदा हैं। केंद्र तो बिलकुल ही मौन है, शांत है, सोच-विचार नहीं करना है। तुम्हें केवल करने के लिए रखे गए हैं। कोई साधक इसी कारण तुम ध्वनि को अपनी ओर केंद्र का बोध रखना है। तुम्हारा यह काम ध्यान कर रहा है और घंटे बजाए जा रहे आते, अपने भीतर प्रवेश करते, अपने को नहीं है कि जो ध्वनि तुम्हारी तरफ बह कर हैं। तुम्हें लगेगा कि इस घंटे की आवाज से घेरते हुए अनुभव करते हो। आए उस पर तुम विचार करो कि वह साधक के लिए बाधा खड़ी हो रही है। यदि तुम खोज लो कि यह केंद्र कहां है, अच्छी है, बुरी है या सुंदर है। तुम्हें इतना लगेगा कि ध्यान करने वाले को बाधा तुम्हारे भीतर वह क्षेत्र कहां है जहां सब ही स्मरण रखना है कि तुम केंद्र हो और महसूस हो रही है। यह क्या उपद्रव है! ध्वनियां बह कर आ रही हैं, तो अचानक सभी ध्वनियां बह कर तुम्हारे पास आ रही मंदिर में आने वाला प्रत्येक दर्शनार्थी सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी, और तुम हैं।... घंटे को बजा देता है। यह आवाज उपद्रव निर्ध्वनि में, ध्वनिशून्यता में प्रवेश कर ध्वनियां कान में नहीं सुनी जाती हैं; वे नहीं है; वह आदमी तो ध्वनि की प्रतीक्षा जाओगे। यदि तुम उस केंद्र को महसूस कान में नहीं सुनी जातीं। कान उन्हें सुन भी कर रहा है। हर दर्शनार्थी इसमें सहयोग दे कर सको जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं नहीं सकते; कान सिर्फ संचारण करने का रहा है। बार-बार घंटा बजता है, ध्वनि तो अचानक चेतना स्थानांतरित हो जाती काम करते हैं। और इस संचारण के क्रम में निर्मित होती है और ध्यानी फिर अपने में है। एक क्षण तक तुम ध्वनि से भरे संसार वे उस सब को छीट देते हैं जो तुम्हारे लिए प्रवेश कर जाता है। वह उस केंद्र को को सुनोगे और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना जरूरी नहीं है। वे चुनाव करते हैं और तब देखता है, जहां वह ध्वनि गहरे में उतर भीतर की ओर मुड़ जाएगी और तुम चुनी हुई ध्वनियां तुम्हारे भीतर प्रवेश करती जाती है। एक चोट घंटे पर लगती है, जिसे निर्ध्वनि को, मौन को सुनोगे जो जीवन का हैं। दर्शनार्थी लगाता है। दूसरी चोट कहीं परम केंद्र है। अब भीतर खोजो कि तुम्हारा केंद्र कहां ध्यानी के भीतर लगती है। यह दूसरी चोट __ और एक बार तुमने उस ध्वनि को सुन है। कान केंद्र नहीं है। तुम कहीं किसी कहां लगती है? यह दूसरी चोट सदा पेट लिया, तो कोई भी आवाज तुम्हें विचलित गहराई से सुनते हो। कान तो कुछ चुनी हुई में, नाभि पर लगती है-सिर में कभी नहीं कर सकेगी। वह तुम्हारी ओर आती ध्वनियों को ही भेजते हैं। तुम कहां हो? नहीं। यदि यह सिर में लगे तो समझना है, लेकिन तुम तक कभी पहुंचती नहीं है। तुम्हारा केंद्र कहां है? चाहिए कि वह ध्वनि नहीं है, शब्द है। तब वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है, लेकिन यदि तुम ध्वनियों के साथ काम करते हो तुमने ध्वनि के संबंध में सोचना शुरू कर वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती। एक तो देर-अबेर तुम जान कर चकित होओगे दिया। तब शुद्धता नष्ट हो गई।... 163 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ध्वनि के केंद्र में स्नान करो—मानो जलप्रपात के सतत नाद में स्नान कर रहे हो । या कानों में उंगली डालकर नादों के नाद अनाहत को सुनो।” तुम अपनी उंगलियों से या किसी दूसरी चीज से कानों को बंद करके भी यह ध्वनि पैदा कर सकते हो उस हालत में भी एक ध्वनि सुनाई देती है । वह कौन-सी ध्वनि है जो कानों को बंद करने पर सुनाई देती है ? और उसे तुम क्यों सुनते हो ? जैसे फोटोग्राफ के निगेटिव होते हैं वैसे ही नकारात्मक ध्वनियां भी होती हैं। और न सिर्फ आंखें नकारात्मक चित्र देखती हैं, कान भी नकारात्मक ध्वनि सुनते हैं। तो जब तुम कान बंद करते हो तो तुम ध्वनियों के नकारात्मक संसार को सुनते हो । सभी ध्वनियां बंद हो गई हैं और अचानक एक नई आवाज सुनाई देने लगी है। यह ध्वनि ध्वनियों की अनुपस्थिति है । एक अंतराल आ गया; तुम कुछ चूक रहे हो। और तब तुम अनुपस्थिति को सुनते हो । “या कानों में उंगली डाल कर तुम नादों के नाद को, अनाहत नाद को सुनो" वह नकारात्मक ध्वनि ही अनाहत नाद कहलाती है। क्योंकि वास्तव में वह ध्वनि नहीं है, उसकी अनुपस्थिति है या वह ध्यान की विधियां नैसर्गिक ध्वनि है; क्योंकि वह किसी माध्यम से पैदा नहीं की गई है। “कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को, अनाहत नाद को सुनो।” यह ध्वनियों की अनुपस्थिति बहुत ही सूक्ष्म अनुभव है। यह तुम्हें क्या दे सकता है ? जिस क्षण ध्वनियां नहीं रहती हैं, तुम अपने पर आ जाते हो । ध्वनियों के साथ तुम दूर चल पड़ते हो; ध्वनि के साथ तुम दूसरे की तरफ चल पड़ते हो। इसे समझने की कोशिश करोः ध्वनि से हम दूसरे से संबंधित होते हैं, दूसरे से संवाद करते हैं । .. यदि ध्वनि दूसरे तक पहुंचने का वाहन है तो निर्ध्वनि स्वयं में पहुंचने का माध्यम बन जाता है। ध्वनि के द्वारा तुम दूसरे के साथ संवाद करते हो; निर्ध्वनि के द्वारा तुम अपने में, अपने अतल शून्य में उतर जाते हो । यही कारण है कि अनेक विधियों में अंतर्यात्रा के लिए निर्ध्वनि को काम में लाया जाता है। बिलकुल गूंगे और बहरे हो जाओ - जरा देर लिए ही सही । तब तुम अपने अतिरिक्त और कहीं नहीं जा सकते। अचानक तुम पाओगे कि तुम अपने अंतस में विराजमान हो; फिर कोई गति संभव नहीं होगी। इस कारण से ही मौन की इतनी साधना की जाती थी । मौन में दूसरे तक के सारे सेतु गिर जाते हैं। ... "या कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को सुनो।” एक ही विधि के अंदर दो विपरीत बातें कही गई हैं। “ध्वनि के केंद्र में स्नान करो - मानो किसी जलप्रपात के सतत नाद में स्नान कर रहे हो।" यह एक अति है। "या कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को सुनो”; यह दूसरी है। एक हिस्सा कहता है अपने केंद्र पर पहुंचने वाली ध्वनि को सुनो, और दूसरा हिस्सा कहता है कि सब ध्वनियों को बंद करके ध्वनियों की ध्वनि को सुनो। एक ही विधि में दोनों को समाहित करने का एक विशेष उद्देश्य है कि तुम एक छोर से दूसरे छोर तक गति कर सको। यहां “या” शब्द चुनाव करने को नहीं कहता है कि इनमें से किसी एक प्रयोग को करना है। नहीं, दोनों का प्रयोग करो। यही कारण है कि एक विधि के भीतर दोनों को समाविष्ट किया गया है। पहले कुछ महीने तक एक प्रयोग करो, और तब दूसरे का प्रयोग कुछ माह करो। तब तुम ज्यादा जीवंत होओगे और तुम दोनों छोरों को जान लोगे । और यदि तुम दोनों छोरों में आसानी से डोल सको तो तुम सदा युवा बने रह सकते हो। 8 164 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: किसी भी अक्षर के उच्चारण के आरंभ में, और उसके क्रमिक परिष्कार में, निर्ध्वनि में जागो । यह कैसे करोगे ? किसी मंदिर में चले जाओ। वहां एक घंटा होगा या घड़ियाल । घंटे को हाथ में ले लो और प्रतीक्षा करो। पहले समग्रता से सजग हो जाओ। ध्वनि होने वाली है और तुम्हें उसका आरंभ नहीं चूकना है। पहले तो समग्ररूपेण सजग ध्वनि का आरंभ और अंत होओ – मानो इस पर ही तुम्हारी जिंदगी निर्भर है, मानो कि अभी कोई तुम्हारी हत्या करने जा रहा हो और तुम्हें सावधान रहना है। ऐसे सावधान रहो मानो यह तुम्हारी मृत्यु बनने वाली है। और यदि तुम्हारे मन में कोई विचार चल रहा हो तो अभी रुको; क्योंकि विचार नींद है। विचार के रहते तुम सजग नहीं हो सकते। और जब तुम सजग हो तो विचार नहीं रहता है। इसलिए रुको। जब लगे कि अब मन ध्वनिरहित नाद का श्रवण 165 निर्विचार हो गया, कि अब मन में कोई बादल न रहा, कि अब तुम जागरूक हो, तब ध्वनि के साथ गति करो। पहले जब ध्वनि नहीं है, तब उस पर ध्यान दो। फिर आंखें बंद कर लो। और जब ध्वनि पैदा हो, घंटा बजे, तब ध्वनि के साथ गति करो। ध्वनि धीमी से धीमी, सूक्ष्म होती जाएगी, और फिर विलीन हो जाएगी। इस ध्वनि के साथ यात्रा करो। सजग और सावधान रहो । ध्वनि के साथ उसके अंत तक यात्रा करो। ध्वनि के दोनों छोर को देखो - आरंभ और अंत दोनों को देखो। पहले किसी बाहरी ध्वनि के साथ, घंटा या घड़ियाल के साथ प्रयोग करो। फिर आंखें बंद कर लो। अब भीतर किसी अक्षर का, ओम् या किसी अन्य अक्षर का उच्चारण करो। उसके साथ भी वही प्रयोग करो जो घंटे की ध्वनि के साथ किया था। यह कठिन होगा। इसलिए हम पहले Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर ही ध्वनि के साथ प्रयोग करते हैं। जब बाहर करने में सक्षम हो जाओगे तो भीतर करना भी आसान होगा। तब करो। उस क्षण की प्रतीक्षा करो जब मन खाली हो जाए और तब भीतर ध्वनि निर्मित करो। उसे अनुभव करो; उसके ध्यान की विधियां इस प्रयोग को करने में समय लगेगा। कुछ महीने लग जाएंगे, कम से कम तीन महीने तीन महीनों में तुम अधिकाधिक जागरूक हो जाओगे । ध्वनि - पूर्व अवस्था साथ गति करो, जब तक वह बिलकुल और ध्वनि के बाद की अवस्था का विलीन न हो जाए। निरीक्षण करना है; कुछ भी नहीं चूकना है । और जब तुम इतने सजग हो जाओगे कि ध्वनि के आदि और अंत को देखते रह सको तो इसी प्रक्रिया के द्वारा तुम सर्वथा भिन्न व्यक्ति हो जाओगे। 166 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस आकाश को खोज लेना अंतस आकाश को खोज लेना णन्यता तुम्हारा अंतर्तम केंद्र है। सब क्रियाएं परिधि पर हैं: अंतर्तम केंद्र मात्र एक शून्य है।। 167 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 168 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस आकाश को खोज लेना णि व ने कहा : ग्रीष्म ऋतु में रा जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन रूप से मेघरहित देखो, तो उस शून्य स्पष्टता में प्रवेश करो। आकाश पर ध्यान करोः ग्रीष्म ऋतु का मेघरहित आकाश, अंतहीन रूप से रिक्त और स्पष्ट, जिसमें कुछ भी गति नहीं कर रहा-अपने परिपूर्ण कुंवारेपन में। इस पर रिक्त आकाश में प्रवेश करो चित्त को लगाओ, इस पर ध्यान करो, और हुए, उसकी स्पष्टता, मेघरहितता व अनंत बहुत उपयोगी होगी, क्योंकि पृथ्वी पर तो इस शून्य स्पष्टता में प्रवेश कर जाओ। विस्तार को अनुभव करो और उस स्पष्टता ऐसा कुछ बचा नहीं है जिस पर ध्यान यह स्पष्टता, यह आकाशवत स्पष्टता ही में प्रवेश कर जाओ, उसके साथ एक हो किया जाए–केवल आकाश ही है। यदि हो जाओ। जाओ। ऐसा महसूस करो जैसे कि तुम ही तुम चारों ओर देखो, तो सबकुछ आकाश पर ध्यान करना सुंदर है। बस आकाश बन गए हो, अवकाश बन गए मनुष्य-निर्मित है, सबकुछ सीमित है, लेट रहो ताकि पृथ्वी को तुम भल जाओ: हो। सीमा में बंधा हुआ है। आकाश ही है जो किसी भी निर्जन तट पर, कहीं भी धरती आकाश की स्पष्टता में झांकने और सौभाग्य से अभी ध्यान के लिए उपलब्ध पर अपनी पीठ के बल लेट जाओ और उसके साथ एक हो जाने की यह विधि है। आकाश की ओर देखो। खाली आकाश सबसे अधिक अभ्यास में लाई गई है। कई इस विधि को करके देखो, यह सहयोगी सहयोगी होगा-मेघरहित, अनंत। बस परंपराओं ने इसका उपयोग किया है। और होगी, लेकिन तीन बातों का स्मरण रखो। आकाश को देखते हुए, एकटक देखते विशेषतः आधुनिक मन के लिए यह विधि एक : पलक मत झपकाओ-एकटक 169 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां देखो। यदि तुम्हारी आंखें दुखने लगें और चालीस मिनट के लिए अभ्यास करना कर गया है। बीच-बीच में अंतराल होंगे। आंसू आ जाएं तो भी फिक्र मत करो। वे चाहिए; उससे कम से काम नहीं चलेगा, कुछ समय के लिए विचार रुक आंसू भी निर्भार होने की प्रक्रिया का ही वह सहायक नहीं होगा। जाएंगे-जैसे कि यातायात रुक गया और अंग होंगे; वे सहायक होंगे। वे आंसू जब तुम्हें सच में लगे कि तुम आकाश कोई गति नहीं कर रहा है। तुम्हारी आंखों को अधिक निर्दोष और से एक हो गए, तो अपनी आंखें बंद कर प्रारंभ में तो कुछ क्षणों के लिए ही ऐसा सद्यःस्नात कर जाएंगे। तुम बस अपलक लो। जब आकाश तुममें प्रवेश कर जाए तो होगा, लेकिन वे क्षण भी रूपांतरंकारी हैं। देखते रहो। तुम आंखें बंद कर सकते हो। तुम उसे धीरे-धीरे मन शांत होने लगेगा, और दूसरी बातः आकाश के बारे में सोचो भीतर भी देख पाओगे। तो चालीस मिनट ज्यादा लंबे अंतराल प्रकट होंगे। कई-कई मत; यह स्मरण रहे। तुम आकाश के के बाद ही आंखें बंद करो-जब तुम्हें लगे मिनटों के लिए कोई विचार, कोई मेघ नहीं विषय में सोचना शुरू कर सकते हो। तुम कि एकपन घट गया और एक मिलन उठेगा। और जब कोई विचार, कोई मेघ आकाश के विषय में कई कविताएं, कई घटित हो रहा है, तुम आकाश के एक नहीं रहता तब बाह्य और आंतरिक सुंदर कविताएं स्मरण कर सकते हो-तब हिस्से हो गए और मन नहीं रहा–फिर आकाश एक हो जाते हैं क्योंकि केवल तुम बात को चूक जाओगे। तुम्हें उसके आंखें बंद कर लो और भीतर के आकाश विचार ही बाधा है; केवल विचार ही बारे में सोचना नहीं है-उसमें प्रवेश में ही रहो।। दीवार खड़ी करता है। विचार के कारण ही करना है, तुम्हें उसके साथ एक हो जाना यह स्पष्टता तीसरी बात में सहायक बाह्य बाह्य है और आंतरिक आंतरिक है। है क्योंकि यदि तुम उसके बारे में सोचने होगी कि “उस शून्य स्पष्टता में जब विचार नहीं होता तो बाह्य और लगो, तो फिर से एक अवरोध निर्मित हो प्रवेश करो।" स्पष्टता सहयोगी आंतरिक अपनी सीमाएं खो देते हैं, वे एक गया। तुम फिर से आकाश को चूकने होगी-अप्रदूषित, मेघरहित आकाश। हो जाते हैं। सीमाएं वास्तव में कभी थीं ही लगे, और तुम फिर से अपने मन में बस उस स्पष्टता के प्रति सजग रहो जो नहीं। वे विचार के कारण, अवरोध के आबद्ध हो गए। आकाश के बारे में सोचो तुम्हारे चारों ओर है। उसके विषय में सोचो कारण ही प्रगट हुई थीं। मत। आकाश ही हो जाओ। बस झांको मत। बस स्पष्टता, शुद्धता व निर्दोषता के लेकिन ग्रीष्म ऋतु न हो तो तुम क्या और आकाश में प्रवेश करो और आकाश प्रति सजग रहो। इन शब्दों को दोहराना करोगे? यदि आकाश मेघाच्छादित है, को अपने भीतर आने दो। यदि तुम नहीं है। सोचने की अपेक्षा तुम्हें उनको स्पष्ट नहीं है, तो अपनी आंखें बंद कर लो आकाश में प्रवेश कर जाओ, तो आकाश अनुभव करना है। और एक बार तुम और अंतआकाश में प्रवेश कर जाओ। तत्क्षण तुममें प्रवेश कर जाएगा। आकाश में झांको तो अनुभव आ ही बस अपनी आंखें बंद कर लो और यदि यह तुम किस प्रकार कर सकते हो? जाएगा, क्योंकि तुम्हें इन चीजों की कल्पना तुम्हें कोई विचार दिखाई दें, तो उन्हें ऐसे यह तुम किस प्रकार करोगे—यह आकाश नहीं करनी है वे मौजूद हैं ही। यदि तुम देखो जैसे कि वे आकाश में तिरते हुए मेघ में प्रवेश कर जाना? बस दूर से दूर झांकते आकाश में झांको तो वे तुम्हें घटने लगेंगी। हों। पृष्ठभूमि के आकाश के प्रति सजग चले जाओ। झांकते ही चले जाओ-जैसे यदि तुम खुले मेघरहित आकाश पर रहो और विचारों से उदासीन बने रहो। कि तुम सीमा को खोजने का प्रयास कर ध्यान करो तो अचानक तुम्हें लगेगा कि हम विचारों की बहुत फिक्र लेते हैं और रहे हो। गहरे चले जाओ। जितनी दूर जा मन विलीन हो रहा है, मन गिर रहा है। बीच के अंतराल के प्रति कभी जागते ही सकते हो जाओ। वह जाना ही अवरोध को अंतराल आएंगे। अचानक तुम्हें बोध होगा नहीं। एक विचार गुजरता है, और दूसरे तोड़ देगा। और इस विधि का कम से कम कि जैसे स्वच्छ आकाश तुममें भी प्रवेश विचार के प्रवेश करने से पहले एक 170 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराल आता है— उस अंतराल में आकाश मौजूद है । फिर, जब भी कोई विचार नहीं होता, तो वहां क्या होता है? शून्य वहां होता है। तो यदि आकाश मेघाच्छादित है— ग्रीष्म ऋतु नहीं है और आकाश स्पष्ट नहीं है - तो अपनी आंखें बंद कर लो, अपने मन को पृष्ठभूमि पर, अंतर्भ्राकाश पर केंद्रित करो जिसमें विचार आते और जाते हैं। विचारों पर बहुत ध्यान मत दो; उस आकाश पर ध्यान दो जिसमें 171 गति करते हैं। जैसे, हम इस कक्ष में बैठे हुए हैं। इस अंतस आकाश को खोज लेना कमरे को मैं दो ढंग से देख सकता हूं। या तो मैं तुम्हारी ओर देखूं, ताकि जिस आकाश में, जिस खाली जगह में, जिस कक्ष में तुम बैठे हो उसके प्रति उदासीन हो जाऊं – मैं तुम्हारी ओर देखूं, अपना मन तुम लोगों पर केंद्रित करूं, जो यहां बैठे हैं, और उस कक्ष पर नहीं जिसमें तुम हो-या, मैं अपनी सजगता का फोकस बदल सकता हूं मैं कक्ष में देखूं और तुम्हारे प्रति उदासीन हो जाऊं। तुम यहां हो, लेकिन मेरा जोर, मेरी सजगता कक्ष पर है । फिर पूरा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। इस प्रयोग को अंतर्जगत में जरा करो। अंतअकाश की ओर देखो। उसमें विचार चल रहे हैं: उनके प्रति उदासीन रहो, उन पर कोई ध्यान मत दो। वे हैं; इसे देख भर लो कि वे चल रहे हैं। सड़क पर यातायात चल रहा है। सड़क को देखो और यातायात के प्रति उदासीन रहो। यह मत देखो कि कौन गुजर रहा है; बस इतना ही बोध रखो कि कुछ गुजर रहा है और जिस खाली जगह में वह गुजर रहा है, उसके प्रति सजग रहो। तब ग्रीष्म ऋतु का आकाश भीतर ही घटित होता है। 2 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: हे प्रिये, इस क्षण में मन, चेतना, श्वास, रूप, सब को समाविष्ट करो। ध्यान की विधियां यह विधि थोड़ी कठिन है, लेकिन यदि तुम इसे कर सको, तो यह बहुत अ और सुंदर है। बैठे हुए, कुछ भी विभाजित मत करो। ध्यान में बैठे हुए, सबकुछ समाविष्ट कर लो - अपना शरीर, अपना मन, अपनी श्वास, अपना सोच-विचार, सब को समाविष्ट करो अपनी ज्ञानानुभूति, सबकुछ | सबकुछ समाविष्ट करो । विभाजित मत करो, कोई हिस्से मत करो। सामान्यतः हम हिस्से करते हैं, हिस्से करते रहते हैं । हम कहते हैं, "मैं शरीर नहीं हूं।” ऐसी विधियां हैं जो इसका भी उपयोग कर सकती हैं, लेकिन यह विधि न केवल भिन्न है, बल्कि बिलकुल विपरीत है। “मैं सबकुछ हूं” – और सबकुछ हो रहो । अपने भीतर कोई हिस्से मत करो। यह एक अनुभूति है। आंखें बंद करके वह सबकुछ समाविष्ट कर लो जो तुम्हारे भीतर मौजूद है । स्वयं को कहीं भी केंद्रित मत करो - अकेंद्रित हो जाओ। श्वास आती है और जाती है, विचार आता है और चला जाता है। तुम्हारे शरीर का रूप बदलता रहेगा। तुमने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है। यदि तुम आंखें बंद करके बैठो तो कई बांटो मत। मत कहो, “मैं शरीर नहीं हूं।" मत कहो, “मैं श्वास नहीं हूं।" मत कहो, "मैं मन नहीं हूं।" इतना ही कहो, शरीर बड़ा बार तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा हो गया है, कभी लगेगा कि तुम्हारा शरीर छोटा हो गया है; कभी भारी हो जाएगा, कभी हलका हो जाएगा, ऐसे कि जैसे तुम उड़ सको। तुम आकार के इस बढ़ने और घटने को अनुभव कर सकते हो। अपनी आंखें बंद करके बैठ जाओ और तुम्हें लगेगा कभी कि शरीर बहुत बड़ा हो गया है— पूरे कमरे में समा रहा है; कभी लगेगा : बहुत छोटा हो गया है - बस अणुवत। यह आकार क्यों बदलता है ? 172 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस आकाश को खोज लेना जैसे ही तुम्हारी सजगता बदलती है, शरीर ही तुममें समाविष्ट हो जाएगा। क्योंकि वृक्ष और तुम दोनों ही पृथ्वी से का आकार बदल जाता है। यदि तुम सब मूल सूत्र है सर्व समावेश को स्मरण संबद्ध हो। तुम दोनों की जड़ें एक ही पृथ्वी समाविष्ट कर लेते हो, तो शरीर बड़ा हो रखना। छोड़ो मत। यह इस सूत्र के लिए में हैं और अंततः एक ही अस्तित्व में हैं। जाएगा; यदि तुम निषेध करते हो— “यह कुंजी है–समावेश; समाविष्ट करो। तो जब तुम्हें लगता है कि वृक्ष तुम्हारे मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं"-तब वह बहुत समाविष्ट करो और बढ़ो। समाविष्ट करो भीतर है तो वृक्ष तुम्हारे भीतर ही है-यह सूक्ष्म, बहुत छोटा-सा, आणविक हो और फैलो। इसे अपने शरीर के साथ कल्पना नहीं है और अचानक तुम जाएगा। करके देखो, और फिर बाह्य जगत के साथ उसके प्रभाव को महसूस करोगे। वृक्ष की अपनी अंतस-सत्ता में सब समाविष्ट भी करके देखो। जीवंतता, हरियाली, ताजगी, उसमें से कर लो और कुछ भी मत छोड़ो। मत किसी वृक्ष के नीचे बैठकर, वृक्ष की होकर गुजरती हवा, सबकी तुम्हारे हृदय में कहो, “यह मैं नहीं हूं।" कहो, "मैं हूं," ओर देखो, फिर अपनी आंखें बंद कर लो अनुभूति होगी। अधिकाधिक अस्तित्व को और उसमें सब समाविष्ट कर लो। यदि और वृक्ष को अपने भीतर देखो। आकाश समाविष्ट करो और छोड़ो मत। तुम बैठे हुए यह कर सको तो अद्भुत और की ओर देखो, फिर अपनी आंखें बंद कर तो यह स्मरण रखोः समाविष्ट करने बिलकुल नई घटनाएं तुम्हें घटेंगी। तुम्हें लो और अनुभव करो कि आकाश तुम्हारे को जीवन की एक शैली ही बना लो। न लगेगा कि तुम्हारा कोई केंद्र नहीं है। तुम्हारे भीतर ही है। उगते हुए सूर्य को देखो, फिर केवल ध्यान, वरन एक जीवन-शैली, एक भीतर कोई केंद्र नहीं है। और केंद्र के जाते अपनी आंखें बंद कर लो और अनुभव जीने का ढंग ही बना लो। और-और ही न कोई स्व रहता है, न कोई अहंकार करो कि सूर्य तुम्हारे भीतर उग रहा है। समाविष्ट करने का प्रयास करो। जितना रहता है; केवल चेतना बच रहती स्वयं को अधिक समाविष्ट करता अनुभव तुम समाविष्ट करते हो, उतने ही तुम है-आकाश की भांति चेतना-हर चीज करो। फैलते हो, उतनी ही तुम्हारी सीमाएं को ढंके हुए! और जैसे-जैसे यह विकसित तुम्हें एक अपूर्व अनुभव होगा। जब अस्तित्व के दिगांतरों तक फैलती जाती हैं। होता है, न केवल तुम्हारी श्वास ही तुम्हें लगेगा कि वृक्ष तुम्हारे भीतर है, तो एक दिन केवल तुम्हीं होते हो; पूरा समाविष्ट होगी, न केवल तुम्हारी अपनी तत्क्षण तुम अधिक युवा, अधिक ताजे अस्तित्व समाहित हो गया। यह सारे देहाकृति समाविष्ट होगी, अंततः पूरा जगत अनुभव करोगे। और यह कल्पना नहीं है, धार्मिक अनुभव की परम स्थिति है। 3 173 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां जब तुम बहुत ऊंचाई पर उड़ रहे हो तो ध्यान करने के लिए उससे बेहतर परिस्थिति तुम नहीं खोज सकते। ऊंचाई जितनी अधिक हो, ध्यान करना उतना ही सरल है। इसीलिए सदियों से साधक ऊंचाई खोजने के लिए हिमालय जाते रहे हैं। जेट-सेट के लिए एक ध्यान जब गुरुत्वाकर्षण कम होता है और पृथ्वी बहुत दूर तो पृथ्वी के बहुत सारे आकर्षण भी दूर रह जाते हैं। तुम भ्रष्ट समाज से बहुत दूर हो जाते हो जिसे मनुष्य ने निर्मित किया है। तुम बादलों से, सितारों से, चांद से, सूरज से, और विशाल आकाश से घिरे होते हो। तो एक काम करोः इस विशालता के साथ एक होने का अनुभव करना शुरू करो, और ऐसा तीन चरणों में करो। पहला चरण है। कुछ मिनट के लिए यही सोचो कि तुम बड़े हो रहे हो...तुम पूरे वायुयान में भरे जा रहे हो। फिर दूसरा चरण है : भाव करना शुरू करो कि तुम और भी बड़े हो रहे हो, वायुयान से भी बड़े हो रहे हो, वास्तव में वायुयान अब तुम्हारे भीतर ही है। और तीसरा चरण: भाव करो कि तुम समस्त आकाश में फैल गए हो। अब ये जो बादल चल रहे हैं, और ये चांद-तारे-ये सब तुम्हारे भीतर चल रहे हैं; तुम विशाल हो, असीम हो। यह भाव ही तुम्हारा ध्यान बन जाएगा, और तुम बिलकुल विश्रांत और तनावरहित अनुभव करोगे। 4 174 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस आकाश को खोज लेना - तंजलि ने कहाः समाधि की 7 निर्विचार अवस्था की परम शुद्धता उपलब्ध होने पर प्रकट होता है आध्यात्मिक प्रकाश। तुम्हारी अंतरतम सत्ता प्रकाश के स्वभाव की है। चेतना प्रकाश है। चेतना ही है एकमात्र प्रकाश। तुम जी रहे हो बहुत अचेतन रूप से; कई चीजें कर रहे हो, न जानते हुए कि क्यों कर रहे हो; आकांक्षा विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो कर रहे हो चीजों की, न जानते हए कि करो। चीजों की ओर ज्यादा सजगता से वृक्ष कुछ अलग ही हो जाता है। वह क्यों; मांग कर रहे हों चीजों की, न जानते देखो। तुम गुजरते हो एक वृक्ष के निकट ज्यादा हरा होता है, वह ज्यादा जीवंत होता हुए कि क्यों! एक अचेतन निद्रा में बहे से; वृक्ष को ज्यादा सजगता से देखो। रुक है, वह ज्यादा सुन्दर होता है। वृक्ष वही है, चले जा रहे हो। तुम सब नींद में चलने जाओ कुछ देर को, देखो वृक्ष की ओर। केवल तुम बदल गए। वाले हो। निद्राचारिता एकमात्र आंखें मल लो अपनी; ज्यादा सजगता से एक फूल की ओर देखो, ऐसे जैसे कि आध्यात्मिक रोग है-निद्रा में चल रहे हो देखो वृक्ष की ओर। तुम्हारी जागरूकता तुम्हारा सारा अस्तित्व इस देखने पर निर्भर और जी रहे हो! को इकट्ठा करो, देखो वृक्ष की तरफ। और करता हो। तुम्हारी सारी जागरूकता को ज्यादा बोधपूर्ण हो जाओ। विषयों के भेद पर ध्यान देना। उस फूल तक ले आओ और अचानक साथ ज्यादा बोधपूर्ण, चैतन्यपूर्ण होना शुरू अकस्मात जब तुम सचेत हो जाते हो, फूल महिमावान हो जाता है-वह ज्यादा 175 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां चमकीला होता है, वह ज्यादा प्रदीप्त होता जाता है। नाक को कुछ हो गया है, कुछ गलत घट है, उसमें शाश्वत की कोई आभा होती है, सदा स्मरण में रख लेना कि जब गान गया है। बहुत थोड़े से आदमियों के पास जैसे कि शाश्वत आ पहुंचा हो लौकिक समाप्त होता है तो वह वातावरण में एक संवेदनशील नाक होती है। लेकिन यदि संसार में किसी फूल के रूप में ही। निश्चित गुणवत्ता छोड़ जाता है-वह तुम्हारे पास है तो जरा नजदीक रहना सजगता से देखना तुम्हारे पति के, अनुपस्थिति। वातावरण अब वही नहीं फूल के। सुवास भरने देना स्वयं में। फिर, तुम्हारी पत्नी के, तुम्हारे मित्र के, तुम्हारी रहा। वातावरण संपूर्णतया बदल गया धीरे-धीरे सरकते जाना फूल से दूर, बहुत प्रेमिका के चेहरे की तरफ; ध्यान करना क्योंकि गाने का अस्तित्व था और फिर धीमे से, लेकिन महक के प्रति, सुवास के उस पर और अचानक तुम देखोगे न ही गान तिरोहित हो गया-अब है गाने की प्रति सचेत रहना जारी रखना। जैसे-जैसे केवल शरीर को, बल्कि उसको जो शरीर अनुपस्थिति। ध्यान देना इस पर-सारा तुम दूर होते जाते हो, सुवास अधिकाधिक के पार का है, जो झर रहा है शरीर के अस्तित्व भरा हुआ है गाने की अनुपस्थिति सूक्ष्म होती जाएगी, और तुम्हें ज्यादा भीतर से। दिव्यता का एक आभामंडल से। और यह ज्यादा सुंदर है किसी भी गाने ' जागरूकता की आवश्यकता होगी, उसे होता है शरीर के चारों ओर। प्रेमिका का से क्योंकि यह गान है मौन का। एक गान अनुभव करने के लिए। चेहरा अब तुम्हारी प्रेमिका का चेहरा न उपयोग करता है ध्वनि का और जब ध्वनि नाक ही बन जाना। भूल जाना सारे रहा: प्रेमिका का चेहरा परमात्मा का चेहरा तिरोहित हो जाती है तो अनुपस्थिति शरीर के बारे में और अपनी सारी ऊर्जा ले बन चुका है। देखना तुम्हारे बच्चे की ओर, उपयोग करती है मौन का। पक्षी गा चुका आना नाक तक, जैसे कि केवल नाक का पूरी सजगता से, जागरूकता से, उसे होता है तो उसके बाद मौन ज्यादा गहन ही अस्तित्व हो। यदि तुम खो देते हो गंध देखना खेलते हुए और अचानक विषय होता है। यदि तुम देख सकते हो इसे, यदि का बोध, तो फिर कुछ कदम और आगे रूपांतरित हो जाता है।... तुम सचेत रह सकते हो, तो अब तुम ध्यान बढ़ना; फिर पकड़ लेना गंध को। फिर आ उदाहरण के लिए एक पक्षी गाता है एक कर रहे होते हो सूक्ष्म विषय पर, बहुत ही जाना पीछे, पीछे की ओर। धीरे-धीरे, तुम वृक्ष परः सजग हो जाओ, जैसे कि उसी सूक्ष्म विषय पर। बहुत, बहुत दूर से फूल को सूंघने योग्य हो पल में और पक्षी के उसी गान में अस्तित्व एक व्यक्ति चल रहा होता है, बहुत जाओगे। कोई और दूसरा वहां से सूंघ नहीं हो तुम्हारा-समष्टि अस्तित्व नहीं सुंदर व्यक्ति-ध्यान देना उस व्यक्ति पाएगा फूल को। फिर और दूर हटते चले रखती। अपनी समग्र सत्ता को केन्द्रित करो पर। और जब वह चला जाता है, तो ध्यान जाना। बहुत सीधे-सरल ढंग से तुम विषय पक्षी के गान की तरफ और तुम जान देना अनुपस्थिति पर। वह पीछे छोड़ गया को सूक्ष्म बना रहे होते हो। फिर एक घड़ी जाओगे अंतर को। यातायात के शोर का है कोई चीज। उसकी ऊर्जा ने बदल दिया आ जाएगी जब तुम गंध को सूंघ न कोई अस्तित्व न रहा, या फिर वह होता है कमरे को; अब वह वही कमरा पाओगेः अब सूंघ लेना अनुपस्थिति को। अस्तित्व रखता है परिधि पर ही-दूर, नहीं रहा।... अब सूंघना उस अभाव को। जहां सुवास कहीं बहुत दूर। वह छोटा-सा पक्षी और यदि तुम्हारे पास संवेदनशील नाक अभी कुछ देर पहले थी, अब वह वहां उसका गान तुम्हारे अस्तित्व को भर देता है है-बहुत थोड़े से लोगों के पास होती है; नहीं रही; उसी के अस्तित्व का वह दूसरा संपूर्णतया-केवल तुम्हारा और पक्षी का मानवता अपनी नाक लगभग बिलकुल ही हिस्सा है, वह अनुपस्थित हिस्सा, वह अस्तित्व बना रहता है। और फिर जब गान खो चुकी है। पशु बेहतर हैं, उनकी अंधेरा हिस्सा। यदि तुम संघ सको महक समाप्त हो जाता है, तो सुनो गाने की घ्राण-शक्ति कहीं ज्यादा संवेदनशील है, की अनुपस्थिति को, यदि तुम अनुभव कर अनुपस्थिति को। तब विषय सूक्ष्म बन ज्यादा क्षमतापूर्ण है आदमी से। आदमी की सको कि इससे अंतर पड़ता है-पड़ता ही 176 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस आकाश को खोज लेना है इससे अंतर-तब विषय बहुत सूक्ष्म अनुभव कर सकते हो। तब तुम आ पहुंचे ही प्रसाद तुम पर उतरता है। यही है वह बन जाता है।... होते हो बड़ी गहन जागरूकता तक।... घड़ी जब फूलों की वर्षा हो जाती है। यही तुम ऐसा कर सकते हो लोभान के लेकिन जब विषय संपूर्णतया तिरोहित है वह क्षण जब तुम जुड़ जाते हो साथ। जलाओ लोभान को, ध्यान करो हो जाता है—विषय की उपस्थिति समाप्त अंतस-सत्ता और जीवन के मूल स्रोत के उस पर, महसूस करो उसको, सुगंध हो जाती है और विषय की अनुपस्थिति भी साथ। यही है वह क्षण जब तुम भिखारी महसूस करो उसकी, भर जाओ उससे, समाप्त हो जाती है; विचार मिट जाता है नहीं रहते; तुम सम्राट हो जाते हो। यही है और फिर पीछे हटते जाओ, दूर हटते और अ-विचार भी मिट जाता है; मन वह क्षण जब तुम संपूर्ण रूप से जाओ उससे। और उस पर ध्यान करते तिरोहित हो जाता है और अ-मन की अभिषेकित हो जाते हो। इससे पहले तो जाओ, करते चले जाओ और होने दो उसे धारणा भी तिरोहित हो जाती है—केवल तुम सूली पर थे; यही होता है वह क्षण अधिक से अधिक सूक्ष्म। एक घड़ी आती तभी तुम उपलब्ध होते हो उस उच्चतम जब सूली तिरोहित हो जाती है और तुम है जब तुम किसी चीज की अनुपस्थिति को को। अब यही है वह घड़ी जब अकस्मात सम्राट हो जाते हो। 5 177 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां लोपा ने कहा: बांस की । पोली पोंगरी की भांति अपने शरीर के साथ सहज हो रहो। यह तिलोपा की विशेष विधियों में से है। हर सदगुरु की अपनी कोई विशेष विधि होती है जिसके द्वारा वह उपलब्ध हुआ, और जिसके द्वारा वह दूसरों की मदद करना चाहेगा। यह तिलोपा की विशेष विधि है: “बांस की पोली पोंगरी की भांति अपने शरीर के साथ सहज हो रहो।" बांस की पोली पोंगरी बांस की पोंगरी, भीतर से बिलकुल रही है और शांत है, विचारों से कंपित इसे करके देखो; वह बांस की पोली खाली। जब तुम विश्राम करो, तो इतना ही नहीं हो रही, मन शिथिल होकर देख पोंगरी बन जाने की यह विधि, अनुभव करो कि तुम बांस की एक पोंगरी रहा है, किसी विशेष चीज की प्रतीक्षा सुंदरतम विधियों में से है। तुम्हें कुछ की तरह हो गए हो-भीतर से बिलकुल नहीं कर रहा, तो बांस की एक पोली और करने की जरूरत नहीं। तुम यही पोले और खाली। और वास्तव में ऐसा ही पोंगरी की तरह अनुभव करो-और हो जाओ और बाकी सब हो जाता है : तुम्हारा शरीर बांस की पोंगरी जैसा ही अचानक अनंत ऊर्जा तुममें उंडलने लगती है। अचानक तुम्हें लगता है कि तुम्हारे है, और भीतर से खाली है। तुम्हारी त्वचा, है, तुम अज्ञात से, रहस्यमय से, दिव्य खालीपन में कुछ उतर रहा है। तुम तुम्हारी हड्डियां, तुम्हारा रक्त, सबकुछ से भर जाते हो। बांस की पोली पोंगरी एक गर्भ की भांति हो और एक नया जीवन बांस का ही हिस्सा है, और भीतर आकाश एक बांसुरी बन जाती है और परमात्मा तुममें प्रवेश कर रहा है, एक बीज गिर है, खालीपन है। उसे बजाने लगता है। एक बार तुम खाली रहा है। और एक क्षण आता है जब - जब तुम बिलकुल मौन होकर, हो जाओ तो परमात्मा को तुममें प्रवेश बांस भी पूरी तरह विलीन हो जाता है। 6 निष्क्रिय बैठे हो, जिह्वा तालु को छ करने में कोई बाधा नहीं बचती। 178 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु में प्रवेश मृत्यु में प्रवेश वन मृत्यु की ओर एक तीर्थयात्रा है। प्रारंभ से ही मृत्यु आने लगती है। जन्म के क्षण से ही मृत्यु तुम्हारी ओर आनी शुरू हो गई है; तुम मृत्यु की ओर चल पड़े हो। और मनुष्य के मन के साथ सबसे बड़ी दुर्घटना घटी है कि वह मृत्यु के विरुद्ध है। मृत्यु के विरुद्ध होने का अर्थ है कि तुम महानतम रहस्य को चूक जाओगे। और मृत्यु के विरुद्ध होने का यह भी अर्थ है कि तुम स्वयं जीवन को ही चूक जाओगे क्योंकि वे एक-दूसरे में गहन रूप से आबद्ध हैं; वे दो नहीं हैं। जीवन विकास है, मृत्यु उसकी खिलावट है। यात्रा और लक्ष्य भिन्न नहीं हैं—यात्रा लक्ष्य पर पूर्ण होती है।। 179 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 180 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु में प्रवेश ग व ने कहाः अपने शरीर में - पंजों से ऊपर उठती हुई अग्नि पर अपने होश को केंद्रित करो जब तक कि शरीर जल कर राख न हो जाए, लेकिन तुम नहीं। बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी; उन्होंने अपने शिष्यों को इस विधि में दीक्षित किया। जब भी कोई व्यक्ति बुद्ध द्वारा दीक्षित होता, तो पहली बात यही होती थी : वे उसे कहते कि श्मशान जाकर किसी जलते हुए मृत्यु में प्रवेश शरीर को, जलती हुई लाश को देखो। तीन था। देर-सबेर उसे अपना ही शरीर चिता स्मरण रखो, तुम भयभीत हो कि नहीं, महीने तक उसे कुछ भी नहीं करना होता, पर दिखाई देने लगता। वह स्वयं को ही मृत्यु ही एकमात्र निश्चित घटना है। जीवन बस वहां बैठना और देखना होता। जलता हुआ देखने लगता। में मृत्यु के सिवाय और कुछ भी निश्चित बुद्ध कहते, “उसके विषय में विचार यदि तुम मृत्यु से बहुत भयभीत हो तो नहीं है। सब कुछ अनिश्चित है; केवल मत करना, उसे बस देखना।" और यह इस विधि को तुम नहीं कर सकते, क्योंकि मृत्यु ही एक निश्चितता है। बाकी सब कठिन है कि मन में यह विचार न उठे कि भय ही तुम्हारा बचाव करेगा। तुम उसमें कुछ सांयोगिक है-हो भी सकता है, नहीं देर-सबेर तुम्हारा शरीर भी जला दिया प्रवेश नहीं कर सकते। या, तुम सतह पर भी हो सकता-केवल मृत्यु ही सांयोगिक जाएगा। तीन महीना एक लंबा समय है, ही उसकी कल्पना कर सकते हो, लेकिन नहीं है। और मानवीय मन की ओर देखो। और साधक को रात-दिन निरंतर जब भी तुम्हारे गहन प्राण उसमें नहीं होंगे। फिर हम मृत्यु के सबंध में सदा ऐसे ही बात कोई चिता जलती, उस पर ध्यान करना तुम्हें कुछ भी नहीं घटेगा। करते हैं जैसे वह कोई दुर्घटना हो। जब भी 181 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां कोई मरता है तो हम कहते हैं कि उसकी पहला काम जो बच्चा करता है, वह है वास्तव में, हम श्वास छोड़ने से मृत्यु असामयिक थी। जब भी कोई मरता श्वास भीतर लेना। बच्चा श्वास बाहर भयभीत हैं। यही कारण है कि श्वास है, हम इस प्रकार बात करने लगते हैं जैसे नहीं छोड़ सकता। पहला काम है श्वास उथली हो गई है। तुम कभी भी श्वास यह कोई दुर्घटना रही हो। मृत्यु, केवल भीतर लेना। वह श्वास बाहर नहीं छोड़ छोड़ते नहीं, बस भीतर लिए चले जाते हो। मृत्यु ही दुर्घटना नहीं है, बाकी सब सकता, क्योंकि उसकी छाती में हवा नहीं बस शरीर ही श्वास छोड़ता है, क्योंकि घटनावश है। मृत्यु पूर्णतः निश्चित है। है; उसे श्वास भीतर लेनी होगी। पहला शरीर केवल श्वास भीतर लेने से नहीं चल तुम्हें मरना ही है। काम है श्वास भीतर लेना। और वृद्ध सकता। उसे जीवन और मृत्यु दोनों की और जब मैं कहता हूं कि तुम्हें मरना है, व्यक्ति, मरते समय जो अंतिम काम जरूरत है। तो लगता है मृत्यु भविष्य में, कहीं बहुत करेगा, वह है श्वास बाहर छोड़ना। मरते दूर है। ऐसा नहीं है-तुम मर ही चुके हो। समय तुम श्वास भीतर नहीं ले . पहला चरणः जिस क्षण तुम पैदा हुए, तुम मरने लगे थे। सकते-या, ले सकते हो? जब तुम मर जन्म के साथ ही मृत्यु एक निर्धारित घटना रहे हो, तुम श्वास भीतर नहीं ले सकते। एक प्रयोग करो। पूरे दिन, जब भी तुम्हें हो गई। उसका एक भाग-जन्म-तो अंतिम कृत्य श्वास भीतर लेना नहीं हो स्मरण आए, गहरी श्वास छोड़ो और घट ही गया; अब केवल दूसरे भाग का सकता; अंतिम कृत्य श्वास का बाहर श्वास भीतर मत लो। शरीर को श्वास लेने घटना रह गया है। तो तुम पहले ही मर छोड़ना होगा। पहला कृत्य श्वास लेना है, दो; तुम बस गहरी श्वास छोड़ते रहो। तुम चुके, आधे मर चुके, क्योंकि एक बार और अंतिम कृत्य श्वास छोड़ना है। श्वास एक गहन शांति अनुभव करोगे, क्योंकि व्यक्ति पैदा हो गया, तो वह मृत्यु के घेरे में भीतर लेना जन्म है और श्वास बाहर मृत्यु शांति है, मृत्यु मौन है। और यदि आ गया, प्रवेश कर गया। अब कुछ भी छोड़ना मृत्यु है। लेकिन हर क्षण तुम दोनों श्वास छोड़ने पर तुम ध्यान दे सको, उसे बदल नहीं सकता, अब उसे बदलने ही कार्य कर रहे हो-श्वास लेना भी और अधिक ध्यान दे सको तो तुम अहंकारशून्य का कोई उपाय नहीं है। तुम उसमें प्रवेश छोड़ना भी। श्वास लेना जीवन है, श्वास अनुभव करोगे। श्वास लेने में तुम्हें कर चुके। जन्म के साथ ही तुम आधे मर छोड़ना मृत्यु है।। अहंकार का अधिक अनुभव होगा; श्वास गए। दूसरेः मृत्यु अंत में नहीं होने वाली; शायद तुमने देखा न हो, पर इसे देखने छोड़ने में तुम्हें अधिक अनुभव वह पहले ही हो चुकी है। वह एक प्रक्रिया का प्रयास करो। जब भी तुम श्वास छोड़ते अहंकारशून्यता का होगा। श्वास छोड़ने है। जिस प्रकार जीवन एक प्रक्रिया है, हो, तुम अधिक शांत होते हो। गहरी पर अधिक ध्यान दो। सारा दिन, जब भी मृत्यु भी एक प्रक्रिया है। हम द्वैत पैदा करते श्वास छोड़ो, और तुम भीतर एक विशेष तुम्हें याद आए, गहरी श्वास छोड़ो और हैं लेकिन जीवन और मृत्यु तुम्हारे दो शांति का अनुभव करोगे। जब भी तुम श्वास भीतर मत लो; शरीर को ही श्वास पैरों की तरह, तुम्हारे दो पांवों ही तरह हैं। श्वास लेते हो, तुम सघन हो जाते हो, तन ले लेने दो; तुम कुछ भी मत करो। जीवन और मृत्यु दोनों एक ही प्रक्रिया हैं। जाते हो। श्वास लेने की सघनता ही एक श्वास छोड़ने पर दिया गया यह बल तुम हर क्षण मर रहे हो। तनाव निर्मित कर देती है। और सामान्यतः, तुम्हें इस प्रयोग को करने में बहुत मदद यह मैं इस तरह कहूं: जब भी तुम साधारणतः श्वास लेने पर ही जोर दिया देगा, क्योंकि तुम मरने को तैयार होओगे। श्वास भीतर लेते हो, तो वह जीवन है, जाता है। यदि मैं तुम्हें गहरी श्वास के लिए एक तैयारी चाहिए, वरना यह विधि बहुत और जब भी तुम श्वास छोड़ते हो, तो वह कहूं तो तुम सदा श्वास भीतर लेने से ही सहयोगी न होगी। और तैयार तुम तभी हो शुरू करोगे। सकते हो जब तुमने किसी तरह से मृत्यु मृत्यु है। 182 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु में प्रवेश का स्वाद ले लिया हो। गहरी श्वास छोड़ो चाहते हो तो तुम्हें इस गहन भय के प्रति सकते हो। और तुम्हें मृत्यु का स्वाद मिल जाएगा। सजग होना चाहिए। और इस गहन भय अगली विधि करने से पहले पंद्रह सुंदर है यह। को छोड़ना है, उससे मुक्त होना है, तभी मिनट के लिए यह प्रयोग करो ताकि तुम मृत्यु सुंदर है, क्योंकि कुछ भी मृत्यु तुम इस विधि में प्रवेश कर सकते हो। यह तैयार हो जाओ-न केवल तैयार बल्कि जैसा नहीं है-इतना मौन, इतना सहयोगी होगाः श्वास छोड़ने पर अधिक स्वागतपूर्ण, ग्राहक। अब मृत्यु का भय विश्रामदायी, इतना शांत, इतना स्थिर। ध्यान दो। पूरे दिन तुम विश्रांत अनुभव नहीं रहा, क्योंकि मृत्यु अब विश्राम जैसी लेकिन हम मृत्यु से भयभीत हैं। और हम करोगे, और एक अंतर्मोन निर्मित हो लगती है, मृत्यु अब गहन विश्राम जैसी मृत्यु से क्यों भयभीत हैं? मृत्यु का इतना जाएगा। लगती है। भय क्यों है? हम मृत्यु के कारण मृत्यु से । भयभीत नहीं है क्योंकि उसे तो हम दूसरा चरण: तीसरा चरणः जानते नहीं हैं। तुम उस चीज से कैसे डर सकते हो जिससे तुम्हारा कभी साक्षात्कार इस भाव को तुम अधिक गहरा सकते लेट जाओ। पहले मृत की भांति अपनी ही न हुआ हो? उस चीज से तुम कैसे डर हो यदि तुम एक दूसरा प्रयोग करो। रोज कल्पना करो। शरीर बस एक लाश की सकते हो जिसे तुम जानते ही नहीं? उससे पंद्रह मिनट के लिए गहरी श्वास बाहर तरह है। लेट जाओ, और फिर अपने होश डरने के लिए कम से कम तुम्हें उसे जानना छोड़ो। किसी कुर्सी पर या जमीन पर बैठ को पंजों पर लाओ। आंखें बंद किए हुए तो चाहिए। तो वास्तव में तुम मृत्यु से जाओ, गहरी श्वास छोड़ो, और श्वास भीतर गति करो। अपने होश को पंजों पर भयभीत नहीं हो; भय कुछ और है। तुम छोड़ते समय आंखें बंद कर लो। जब हवा लाओ और भाव करो कि वहां से अग्नि कभी जिए ही नहीं-उससे मृत्यु का भय बाहर जाए, तुम भीतर चले जाओ। और ऊपर की ओर उठ रही है, सबकुछ जल पैदा होता है। फिर शरीर को श्वास लेने दो, और जब रहा है। जैसे-जैसे आग उठती है, तुम्हारा भय इसलिए आता है कि तुम जी नहीं हवा भीतर जाए, आंखें खोल लो और तुम शरीर विलीन हो रहा है। पंजों से शुरू करो रहे, इसलिए तुम भयभीत हो–“अभी बाहर चले जाओ। बिलकुल विपरीतः जब और ऊपर की ओर जाओ। तक तो मैं जिया ही नहीं, और यदि मृत्यु श्वास बाहर जाए, तुम भीतर जाओ; जब पंजों से क्यों शुरू करना है? यह सरल आ जाए, तो क्या होगा? अतृप्त, श्वास भीतर जाए, तो तुम बाहर जाओ। होगा, क्योंकि पंजे तुम्हारे मैं से, तुम्हारे अनजिया ही मैं मर जाऊंगा।" मृत्यु का जब तुम श्वास छोड़ते हो, तो भीतर अहंकार से बहुत दूर हैं। भय उन्हीं लोगों को होता है जो वास्तव में एक खाली स्थान निर्मित होता है, क्योंकि तुम्हारा अहंकार सिर पर केंद्रित है। तुम जीवित नहीं हैं। यदि तुम जीवित हो, तो श्वास ही जीवन है। जब तुम गहरी श्वास सिर से शुरू नहीं कर सकते, यह बहुत मृत्यु का स्वागत करोगे। फिर कोई भय छोड़ते हो तो तुम खाली हो गए, जीवन कठिन होगा; तो दूर के बिंदु से शुरू नहीं है। तुमने जीवन जाना है; अब तुम बाहर चला गया। एक तरह से तुम मर करो-पंजे अहंकार से सबसे दूर के बिंदु मृत्यु को भी जानना चाहोगे। लेकिन हम गए, एक क्षण के लिए तुम मर गए। मृत्यु हैं। वहीं से अग्नि को शुरू करो। भाव जीवन से ही इतने भयभीत हैं कि हमने उसे की उस शांति में, भीतर प्रवेश कर जाओ। करो कि पंजे जल गए हैं, केवल राख बची नहीं जाना, हम उसमें गहरे प्रवेश नहीं हवा बाहर जा रही है: तुम अपनी आंखें है। फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ो, आग के किए। उससे मृत्यु का भय पैदा होता है। बंद करो और भीतर चले जाओ। वहां सामने जो कुछ भी आए उसे जलाते हुए। यदि तुम इस विधि में प्रवेश करना स्थान रिक्त है और तुम सरलता से जा पैर, जांघ, सभी अंग विलीन हो जाएंगे। 183 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस यह देखते रहो कि वे राख हो गए हैं। आग ऊपर उठ रही है, और जिन-जिन अंगों से वह गुजरी है, वे अब नहीं रहे; वे राख हो गए हैं। ऊपर जाते जाओ, और अंततः सिर भी विलीन हो जाता है। तुम पर्वतशिखर पर बैठे एक द्रष्टा बने रहोगे । शरीर मौजूद होगा – मृत जला हुआ, राख - और तुम द्रष्टा होओगे, तुम साक्षी ओगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं होता । यह विधि अहंकारशून्य दशा तक पहुंचने के लिए अच्छी है। क्यों ? — क्योंकि इसमें बहुत-सी बातें समाहित हैं। यह सरल लगती है; इतनी सरल है नहीं । व्यक्ति की आंतरिक संरचना बहुत जटिल है। पहली बात : तुम्हारी स्मृतियां तुम्हारे शरीर का हिस्सा हैं। स्मृति भौतिक है; इसीलिए उसे संगृहीत किया जा सकता है—वह मस्तिष्क की कोशिकाओं में संगृहीत है । वह भौतिक है, शरीर का हिस्सा है। तुम्हारे मस्तिष्क की कोशिकाओं की शल्य चिकित्सा की जा सकती है, और यदि कुछ विशेष कोशिकाएं हटा दी जाएं तो तुम्हारी कुछ विशेष स्मृतियां तुमसे विदा हो जाएंगी। स्मरण रखो, यह समझने की बात है: यदि स्मृति अभी भी मौजूद है, तो शरीर बना रहेगा और तुम धोखा ही दे रहे थे। यदि तुम सच में ही इस भाव में गहरे चले जाओ कि शरीर मर गया है, जल रहा है, और आग ने उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया है, तो उस क्षण में कोई स्मृति नहीं होगी । ध्यान की विधियां द्रष्टा होने के उस क्षण में, कोई मन नहीं बचेगा। सब कुछ रुक जाएगा - विचार की कोई गति नहीं, बस देखना, बस देखना कि क्या हुआ है। और एक बार तुम यह जान जाओ, तो तुम इस दशा में सतत रह सकते हो । एक बार तुम जान जाओ कि तुम स्वयं को शरीर से अलग कर सकते हो - यह विधि तुम्हें शरीर से अलग करने का, तुम्हारे और शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षण के लिए शरीर से बाहर हो जाने का एक उपाय है। यदि तुम यह कर सको, तो तुम शरीर में रह सकते हो लेकिन फिर भी तुम शरीर में नहीं होओगे। तुम ऐसे ही रह सकते हो जैसे पहले रह रहे थे, लेकिन फिर तुम वही नहीं होओगे। यह विधि कम से कम तीन महीने लेगी। इसे करते रहो। यह एक दिन में नहीं होनें वाला, लेकिन यदि एक घंटा रोज तुम इस विधि को करते रहो, तो तीन महीने के भीतर, एक दिन अचानक तुम्हारी कल्पना अपना काम कर चुकेगी और अंतराल निर्मित हो जाएगा, और तुम शरीर को सच ही राख हुआ देखोगे। तब तुम अवलोकन कर सकते हो। उस अवलोकन में तुम्हें एक गहन अनुभूति होगी- कि अहंकार एक झूठी सत्ता है । अहंकार इसलिए था कि शरीर से, विचारों से, मन से तुम्हारा तादात्म्य था। तुम इनमें से कुछ भी नहीं हो—न मन और न शरीर। जो कुछ भी तुम्हें घेरे है, तुम उस सब से भिन्न हो; तुम अपनी परिधि से भिन्न हो । 2 मृत्यु का उत्सव मनाना ' ने तीन फकीरों के बारे में सुना है। उनके नाम का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी को अपना नाम नहीं बताया, उन्होंने कभी किसी बात का जवाब नहीं दिया। इसलिए चीन में उन्हें बस 'तीन हंसते फकीरों' के नाम से ही जाना जाता है। वे एक ही काम करते थे : वे किसी गांव में प्रवेश करते, बाजार में खड़े हो जाते, और हंसना शुरू कर देते । अचानक लोग सजग हो जाते, और वे अपने पूरे प्राणों से हंसते । फिर दूसरे लोग भी प्रभावित हो जाते, और एक भीड़ जमा हो जाती, और उनको देखने भर से ही पूरी भीड़ भी हंसने लगती। यह क्या हो रहा है? फिर पूरा शहर सम्मिलित हो जाता। और वे फकीर किसी दूसरे शहर को चल देते। उन्हें बहु प्रेम किया जाता था । उनका यही एक मात्र उपदेश था, यही एक संदेश था- कि हंसो । और वे कुछ सिखाते नहीं थे, बस परिस्थिति पैदा कर देते थे। फिर ऐसा हुआ कि वे देश भर में प्रसिद्ध हो गए- 'तीन हंसते फकीर' । पूरा चीन उनको प्रेम करता था, उनका सम्मान करता था। किसी ने भी इस तरह से शिक्षा नहीं दी — कि जीवन एक हंसी होना चाहिए, और अन्यथा कुछ भी नहीं। और वे किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं हंस रहे थे, लेकिन बस हंस रहे थे, जैसे कि वे 184 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु में प्रवेश ब्रह्मांडीय मजाक को समझ गए हों। एक आदमी जीत गया। हम हमेशा ही सोचते थे कि कोई भी अशुद्धता मेरे पास जमा नहीं शब्द भी बिना बोले उन्होंने पूरे चीन भर में कि कौन पहले मरेगा, और इस आदमी ने हो सकती, मेरे पास भी नहीं फटक बहत आनंद फैलाया। लोग उनके नाम हमें हरा दिया। हम अपनी पराजय पर और सकती। मैंने कोई धूल इकट्ठी नहीं की; पूछते, लेकिन वे बस हंस देते, तो यही उसकी जीत पर हंस रहे हैं। और फिर, वह हंसी सदा ही युवा और ताजी होती है। तो उनका नाम हो गया-'तीन हंसते इतने वर्ष हमारे साथ रहा, और हम मुझे नहलाना मत, और न ही मेरे कपड़े फकीर'। एकसाथ हंसे और हमने एक-दूसरे के बदलना।" फिर वे वृद्ध हुए, और किसी गांव में, साथ का, मौजूदगी का आनंद लिया। उसे तो, बस उसे सम्मान प्रकट करने के उनमें से एक फकीर मर गया। पूरा गांव अंतिम विदा देने का कोई और उपाय नहीं लिए, उन्होंने उसके कपड़े नहीं बदले। अपेक्षा करता था, बहुत अपेक्षा से भर हो सकता। हम हंस भर सकते हैं।" और जब शरीर को चिता पर रखा गया तो गया था, क्योंकि अब तो कम से कम उन्हें पूरा गांव दुखी था, लेकिन जब मृत अचानक उन्हें पता चला कि उसने अपने रोना ही चाहिए जब कि उनमें से एक फकीर की देह को चिता पर रखा गया तो कपड़ों के नीचे बहुत-सी चीजें छिपा ली फकीर मर गया है। यह देखने जैसा होगा, पूरे गांव को पता चला कि यही दोनों नहीं थीं और वे सभी चीजें शुरू हो गईं...चीनी क्योंकि इन लोगों के रोने की कोई कल्पना हंस रहे थे-तीसरा, जो मर गया था वह पटाखे! तो पूरा गांव हंसा, और वे दो भी नहीं कर सकता था। भी हंस रहा था। क्योंकि वह तीसरा व्यक्ति फकीर बोले, "बदमाश! तू मर गया, • पूरा गांव जमा हो गया। दो फकीर जो मर गया था उसने अपने साथियों को लेकिन तूने दोबारा हमें हरा दिया। तेरी तीसरे फकीर की लाश के पास खड़े थे, कहा था, "मेरे कपड़े मत बदलना!" ऐसा हंसी ही अंतिम रही।" । और दिल खोल कर हंस रहे थे। तो गांव रिवाज था कि जब कोई व्यक्ति मर जाता, जब इस ब्रह्मांड का पूरा मजाक समझ वालों ने पूछा, "कम से कम यह तो तो वे उसके कपड़े बदलते और उसके लिया जाता है तो एक ब्रह्मांडीय हंसी उठती समझाएं!" शरीर को नहलाते, तो उसने कह रखा था, है। वह उच्चतम है, केवल कोई बुद्ध ही तो पहली बार वे बोले, और उन्होंने "मुझे नहलाना मत, क्योंकि मैं कभी भी उस भांति हंस सकता है। वे तीन फकीर कहा, "हम इसलिए हंस रहे हैं कि यह गंदा नहीं रहा। मेरे जीवन में इतनी हंसी थी निश्चित ही तीन बुद्ध रहे होंगे। 185 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 186 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 तृतीय नेत्र से देखना तृतीय नेत्र से देखना रब द्वारा इस जगत को दिए योगदानों में एक है इस बात का बोध कि इन दो आंखों के मध्य में भीतर की ओर एक तीसरी आंख है। सामान्यतः प्रसुप्त रहती है। व्यक्ति को बड़ा श्रम करना होता है, अपनी पूरी काम ऊर्जा को ऊपर की ओर, गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध उठाना पड़ता है, और जब ऊर्जा तृतीय नेत्र पर पहुंचती है, तो वह खुल जाता है। इसके लिए कई विधियां उपयोग में लाई गई हैं, क्योंकि जब तृतीय नेत्र खुलता है तो अचानक प्रकाश की एक कौंध होती है, और जो चीजें तुम्हें कभी स्पष्ट नहीं थीं, वे अचानक स्पष्ट हो जाती हैं। जब मैं अवलोकन, साक्षीभाव पर जोर देता हूं... यह तृतीय नेत्र को सक्रिय करने का सबसे अच्छा उपाय है, क्योंकि यह अवलोकन भीतर होता है। इन दो आंखों का प्रयोग नहीं किया जा सकता, वे केवल बाहर ही देख सकती हैं। उन्हें बंद करना जरूरी है। और जब तुम भीतर देखने का प्रयास करते हो, तो उसका निश्चित ही यह अर्थ है कि भीतर आंख जैसा कुछ है, जो देखता है। तुम्हारे विचारों को कौन देखता है ? ये आंखें तो नहीं देखतीं। कौन देखता है कि तुममें क्रोध उठ रहा है? देखने के उस स्थान को प्रतीक रूप से 'तृतीय नेत्र' कहा गया है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 188 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना टस विधि में पंद्रह-पंद्रह मिनट के २ चार चरण हैं। पहले दो चरण साधक को तीसरे चरण में सहज लातिहान के लिए तैयार कर देते हैं। ओशो ने बताया है कि यदि पहले चरण में श्वास-प्रश्वास को ठीक से कर लिया जाए तो रक्त प्रवाह में निर्मित कार्बन डाइआक्साइड के कारण आप स्वयं को गौरीशंकर जितना ऊंचा अनुभव करेंगे। गौरीशंकर ध्यान पहला चरणः पंद्रह मिनट दूसरा चरणः पंद्रह मिनट ग्रहणशील हो जाने दें। आपके सामान्य नियंत्रण के पार शरीर को गतिशील आंखें बंद करके बैठ जाएं। नाक से सामान्य श्वास प्रक्रिया पर लौट आएं करती हुई सूक्ष्म ऊर्जाओं की अनुभूति गहरी श्वास लेकर फेफड़ों को भर लें। और किसी मोमबत्ती की लौ अथवा होगी। इस लातिहान को होने दें। आप श्वास को जितनी देर बन पड़े रोके रखें, जलते-बुझते नीले प्रकाश को सौम्यता से गति न करें: गति को सौम्यता से और तब धीमे-धीमे मुख के द्वारा श्वास को देखते रहें। अपने शरीर को स्थिर रखें। प्रसादपूर्वक स्वयं ही होने दें। बाहर छोड़ दें और जितनी देर संभव हो फेफड़ों को खाली रखें। फिर नाक से तीसरा चरण: पंद्रह मिनट चौथा चरण: पंद्रह मिनट श्वास भीतर लें और पूरी प्रक्रिया को दोहराएं। पहले चरण में पूरे समय इस आंखें बंद रखे हुए ही, खड़े हो जाएं आंखें बंद किए हुए ही, शांत और श्वास की प्रक्रिया को जारी रखें। और अपने शरीर को शिथिल एवं स्थिर होकर लेट जाएं। 189 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां पहले तीन चरणों में पीछे सतत भी चल रहा हो। ताल सामान्य एक लयबद्ध ताल की ध्वनि चलती हृदय गति से सात गुना अधिक होनी रहनी चाहिए, और अच्छा हो यदि चाहिए और यदि संभव हो तो उसकी पृष्ठभूमि में कोई सुखकर संगीत जलता-बुझता प्रकाश भी 'सिन्क्रोनाइज्ड स्ट्रोब' में हो अर्थात् प्रकाश का अनुनादित कंपन हृदय गति से सात गुना होना चाहिए। 2 190 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य एक अन्य शक्तिशाली, रेचक विधि है जो ऊर्जा का एक वर्तुल निर्मित कर देती है जिससे स्वाभाविक रूप से ही केंद्रस्थता घट जाती है। इसमें पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं। पहला चरण: पंद्रह मिनट आखें खुली रख कर एक ही स्थान पर खड़े-खड़े दौड़ें। धीरे-धीरे शुरू करके तीव्र से तीव्र होते जाएं। जहां तक बन सके घुटनों को ऊपर उठाएं। श्वास को गहरा और सम रखने से ऊर्जा भीतर घूमने लगेगी। मन को भूल जाएं और शरीर को भूल जाएं। दौड़ते रहें। मंडल ध्यान दूसरा चरण: पंद्रह मिनट आखें बंद कर बैठ जाएं। मुंह को शिथिल और खुला रखें। कमर से ऊपर के शरीर को धीर-धीरे चक्राकार घुमाएं- जैसे हवा में पेड़-पौधे झूमते हैं। अनुभव करें कि हवा आपको इधर-उधर, आगे-पीछे और चारों ओर घुमा रही है। इससे भीतर जागी ऊर्जा नाभि - केंद्र पर आ जायेगी। 191 तृतीय नेत्र से देखना तीसरा चरण: पंद्रह मिनट अब आंखें खोलकर, सिर को स्थिर रखते हुए पीठ के बल लेट जाएं, और दोनों आंखों की पुतलियों को बाएं महत्वपूर्ण है। मुंह खुला रहे और जबड़े शिथिल रहें। श्वास कोमल एवं सम बनी रहे। इससे तुम्हारी केंद्रित ऊर्जा तीसरी आंख पर आ जाएगी। से दाएं घड़ी के कांटे की तरह वृत्ताकार चौथा चरण: पंद्रह मिनट घुमाएं। आंखों को इस तरह घुमाएं, जैसे कि वे एक बड़ी घड़ी की सुई का अनुसरण कर रही हों, परंतु गति को जितना हो सके तेज रखें। यह आखें बंद कर निष्क्रिय हो रहें । 3 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां व ने कहाः होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्व से भर जाने दो, और वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए। यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस यह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्तव में वह पश्चिम में सारे रहस्यवाद का उद्गम बन गया, स्रोत बन गया। वह पश्चिम में पूरे रहस्यवाद का जनक है। साक्षी को खोजना यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आंख का बीच में केंद्रित करो। आंखें बंद करके ठीक इसे समझने का प्रयास करोः "होश को अस्तित्व है, लेकिन साधारणतः वह मध्य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम दोनों भौंहों के मध्य में लाओ।"... निष्क्रिय रहती है। उसे खोलने के लिए अपनी दोनों आंखों से देख रहे हो। उस पर आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध तुम्हें कुछ करना पड़ेगा। वह आंख अंधी पूरा ध्यान दो।। कहती है कि दोनों भौहों के मध्य में एक नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी यह विधि सचेत होने के सरलतम ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्यमय अंग आंख को खोलने के लिए ही है। उपायों में से है। तुम शरीर के किसी अन्य है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते होश को दोनों भौंहों के मध्य में अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हैं, यही तिब्बतियों का तृतीय नेत्र लाओ।"...अपनी आंखें बंद कर लो, हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह है-शिवनेत्र : शिव का, तंत्र का नेत्र। और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक आत्मसात कर लेती है। यदि तुम उस 192 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना पर होश को भ्रूमध्य पर केंद्रित करो जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल तो तुम्हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया। रहे हों। सम्मोहित हो जाती हैं। वे जड़ हो जाती "होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाओ साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो हैं, हिल भी नहीं सकतीं। यदि तुम शरीर और मन को विचार के समक्ष आने रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम के किसी अन्य अंग के प्रति सचेत होने दो।"... यदि यह होश लग जाए तो बीमार हो, तुम्हारा शरीर दुख रहा है और का प्रयास कर रहे हो, तो यह कठिन है। पहली बार तुम्हें एक अद्भुत अनुभव पीड़ित है, तुम दुखी और पीड़ित हो, जो यह तीसरी आंख होश को पकड़ लेती होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने भी होः उसके साक्षी हो जाओ। जो भी हो है, होश को खींचती है। वह होश के सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे; तुम रहा है, स्वयं का उससे तादात्म्य मत करो। लिए चुम्बकीय है। तो संसार भर की साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्म के साक्षी बने रहो-द्रष्टा बने रहो। फिर यदि सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया परदे जैसा होता है : विचार दौड़ रहे हैं और साक्षित्व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र है। होश को साधने का यह सरलतम तुम एक साक्षी हो। एक बार तुम्हारा होश में केंद्रित हो जाओगे। उपाय है क्योंकि तुम ही होश को केंद्रित तृतीय नेत्र पर केंद्रित हो जाए, तो तुम दूसरा, इससे उलटा भी हो सकता है। करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्वयं वह तत्क्षण विचारों के साक्षी हो जाते हो। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है; वह सामान्यतया तुम साक्षी नहीं होतेः तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही चुम्बकीय है। तुम्हारा होश बलपूर्वक विचारों के साथ एकात्म हो। यदि क्रोध प्रक्रिया के हिस्से हैं। तो पहली बात : उसकी ओर खींच लिया जाता है। वह आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का आत्मसात हो जाता है। विचार उठता है तो तुम साक्षी नहीं प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों से तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होते-तुम विचार के साथ एक हो जाते साक्षात्कार कर सकते हो। यह पहली बात होश तीसरी आंख का भोजन है। वह हो, एकात्म हो जाते हो; और उसके साथ होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब आंख भूखी है; जन्मों-जन्मों से भूखी है। ही चलने लगते हो। तुम विचार बन जाते तुम श्वास के सूक्ष्म और कोमल स्पंदन को यदि तुम उस पर होश को लगाओ, तो वह हो; तुम विचार का रूप ले लेते हो। जब अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्वास के जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल गया। काम उठता है तो तुम काम बन जाते हो; प्रारूप को, श्वास के सारतत्व को अनुभव और एक बार तुम जान जाओ कि होश ही जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध बन जाते कर सकते हो। भोजन है, एक बार तुम्हें लग जाए कि हो; जब लोभ आता है तो तुम लोभ बन पहले यह समझने का प्रयास करो कि तुम्हारा होश स्वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्बकीय जाते हो। कोई भी चलता हुआ विचार और 'प्रारूप' का, 'श्वास के सारतत्व' का ढंग से खिंचता है, आकर्षित होता है, तो उनसे तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार क्या अर्थ है। श्वास लेते समय तुम केवल फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं और तुम्हारे बीच में कोई अंतराल नहीं हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान है। व्यक्ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता। कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करो, लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम हो-बस ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व दोनों आंखों को भ्रूमध्य की ओर चले जाने अचानक एक साक्षी बन जाते हो। तृतीय अन्य गैसों का मिश्रण। वे कहते हैं दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब नेत्र के माध्यम से तुम साक्षी हो जाते हो। कि तुम "वायु" भीतर ले रहे हो! तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक अचानक तुम्हारी आंखें जड़ हो जाएंगी। देख सकते हो जैसे कि आकाश में बादल वाहन है, वास्तविक चीज नहीं है। तुम 193 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां प्राण को, जीवन-शक्ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्तु है। तुम केवल वायु ही नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो। तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक श्वास के सारतत्व को, प्राण को देख सको तुम श्वास के सारतत्व को देख सकते तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां हो-श्वास को नहीं बल्कि श्वास के से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित सारतत्व को, प्राण को। और यदि तुम होती है। 4 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना व ने कहाः आंख की - पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है, और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है। अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी बंद आंखों पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों से छू जाने दो-लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव पंख की भांति छूना मत डालो; बस पंख की भांति छुओ। तुम्हें वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। डालो। आंखों की ऊर्जा को थोड़े-से दबाव थोड़ा समायोजन करना होगा क्योंकि शुरू यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म का भी पता चल जाता है। में तो तुम दबाव डालोगे। दबाव को कम बदल गया-तुम आक्रामक हो गए। और वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्म है, बहुत कोमल से कम करते जाओ जब तक कि दबाव जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह बहुत है। दबाव मत डालो-बस पंख की बिलकुल समाप्त न हो जाए-बस तुम्हारी सूक्ष्म है : थोड़ा-सा दबाव, और वह संघर्ष भांति, तुम्हारी हथेलियां ही छुएं, जैसे कि हथेलियां पुतलियों को छुएं। बस एक करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा स्पर्श हो ही न रहा हो: स्पर्श ऐसे करो जैसे स्पर्श, बिना दबाव का एक मिलन क्योंकि हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो कि वह स्पर्श न हो, दबाव जरा भी न हो; यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक बस एक स्पर्श, एक हलका-सा एहसास करेगी। तो बस एक पंख की भांति। प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक कि हथेली पुतली को छू रही है, बस। क्यों? क्योंकि जहां सुई का काम हो संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत इससे क्या होगा? जब तुम बिना दबाव 195 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की विश्रांति अनुभव करो और फिर दोनों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्पर्श कर रहे ओर जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालो हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। हैं। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लेकिन दबाव मत डालो-यह बड़ी डाल रहे हैं, बस स्पर्श कर रहे हैं। यह एक लड़ने लगती है और बाहर निकल जाती महत्वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति गहन बोध बन जाएगा, बिलकुल ऐसे जैसे है। हलका-सा स्पर्श , और ऊर्जा भीतर छुओ। श्वास-प्रश्वास। जैसे बुद्ध कहते हैं कि पूरे जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है, बस जब तुम स्पर्श करो और दबाव न जागकर श्वास लो, ऐसा ही स्पर्श के साथ द्वार बंद होता है और ऊर्जा वापस लौट डालो, तो तुम्हारे विचार तत्क्षण रुक भी होगा। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा कापस लौटेगी जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्हारा हाथ तुम अपने पूरे चेहरे और सिर पर एक सकते; वे जम जाते हैं। विचारों को उन्माद बस एक पंख, एक भारहीन वस्तु बन हलकापन व्याप्त होता अनुभव करोगे। और बुखार की जरूरत होती है, उनके जाना चाहिए, जो बस छुए। तुम्हारा चित्त यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्हें हलका कर चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। समग्रतः सचेत होकर वहां आंखों के पास देती है। वे तनाव के सहारे ही जीते हैं। जब आंखें लगा रहेगा, और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के लगे तो विचार रुक जाएंगे। तुम्हें एक टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्हें लगेगा मध्य में तीसरी आंख है। आंखों से वापस मस्ती का अनुभव होगा, जो रोज-रोज वह सरिता-सी हो गई है, और एक साल लौटती ऊर्जा तीसरी आंख से टकराती है। गहराता जाएगा। बीतते-बीतते तुम्हें लगेगा कि वह एक यही कारण है व्यक्ति हलका और जमीन तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा से उठता हुआ अनुभव करता है, जैसे कि एक क्षण के लिए छूना भी अच्छा रहेगा। होता है-“आंख की पुतलियों को पंख कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी जब भी तुम्हारी आंखें थकी हुई, की भांति छूने से उनके बीच का आंख से ऊर्जा हृदय पर बरस जाती है। ऊर्जा-विहीन और चुकी हुई महसूस हलकापन...।"-जब तुम स्पर्श करोगे यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करें-पढ़कर, फिल्म देख कर, या तो तुम्हें हलकापन महसूस होगा। वह तुम करके ऊर्जा टपकती है और तुम अत्यंत टेलीविजन देख कर-जब भी तुम्हें ऐसा अभी भी महसूस कर सकते हो। जैसे ही हलकापन अपने हृदय में प्रवेश करता लगे, अपनी आंखें बंद कर लो और स्पर्श तुम स्पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन अनुभव करोगे। हृदयगति कम हो जाएगी, करो। तत्क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि आ जाता है। और वह “उनके बीच का श्वास धीमी हो जाएगी। तुम्हारा पूरा शरीर तुम इसे एक ध्यान बनाना चाहो, तो इसे हलकापन हृदय में खुलता है।"... वह विश्रांत अनुभव करेगा। कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। हलकापन हृदय में प्रवेश कर जाता है, यदि तुम गहन ध्यान में प्रवेश नहीं भी और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं खुल जाता है। हृदय में केवल हलकापन कर रहे, तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा ही प्रवेश कर सकता है; कोई भी बोझिल रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी स्पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए चीज प्रवेश नहीं कर सकती। हृदय के समय, आराम से कुर्सी पर बैठ कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और साथ बहुत हलकी-फुलकी घटनाएं ही घट जाओ-या तुम्हारे पास यदि कुर्सी न हो, दबाव डालने लगोगे। सकती हैं। जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हो तो दबाव मत डालो। चालीस मिनट के दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन अपनी आंखें बंद कर लो, पूरे शरीर में एक लिए यह बोध बनाए रहो कि तुम्हारे हाथों हृदय में टपकने लगेगा, और हृदय उसको 196 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा-"और बनती है, तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर ऐसा ही लगेगा कि तुम ब्रह्मांड बन गए वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।" और बह जाओगे। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक हो। तुम्हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए, तुम्हें रहे-अहंकार-वह नहीं बचेगा। 5 197 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्सू ने कहा : व्यक्ति नासाग्र की ओर देखे । लू ध्यान की विधियां क्यों ? — क्योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती हैं तो उससे कई बातें होती हैं। मूल बात यह है कि तुम्हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है – कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक नासाग्र को देखना बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण, उसका खिंचाव, उसका चुम्बकत्व इतना शक्तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओ तो अपने बावजूद भी तुम उसकी ओर खिंच जाओगे। तुम्हें बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओ तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। अचानक तुम पाओगे कि गेस्टाल्ट बदल गया, क्योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती हैं, और इन दोनों आंखों के बीच की एक आंख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्टाल्ट को बदलने की एक सरल विधि है । मन इसे विकृत कर सकता है— मन कह सकता है, “ठीक, अब नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस पर चित्त को एकाग्र करो । ” यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्योंकि होना तो तुम्हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूलबद्ध, केंद्रित और स्थिर हो जाओ तो तुम्हारा तृतीय नेत्र तुम्हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। 198 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग लगते हो; तुम स्त्रैण ऊर्जा-यिन-बन भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है, भीतर में आने लगे, तो उसके चारों ओर जमी हुई जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने पर देखो-सरल-सी विधि है, लेकिन प्रकाश को भीतर कैसे घसीट सकते हो? लगे, तब तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो परिणाम लगभग जादुई है। प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाआगे। और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्हें बहुत ही के साथ ही नहीं है। बौद्ध भी इस बात को खुले और संवेदनशील रहो।... हलका होना होगा, बोझ नहीं-बिना जानते हैं, हिंदू भी जानते हैं। ध्यानी साधक "दोनों आंखों से नासाग्र को देखता किसी खींच-तान के। तुम्हें एक समर्पण सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष है।" की दशा में बस वहीं मौजूद रहना पर पहुंचते रहे हैं कि आंखें यदि आधी ही स्मरण रखो, तुम्हें दोनों आंखों से होगा।... बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग से तुम नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों ___ “यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं दोनों गड्डों से बच जाते हो। पहली विधि में आंखें अपने द्वैत को खो दें। तो, जो प्रकाश करता तो या तो वह आंखें खोलकर दूर साधक बाह्य जगत से विचलित हो रहा है तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े, और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत नासाग्र पर एक हो जाता है; वह एक केंद्र अथवा वह पलकों को इतनी जोर से बंद से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर पर आ जाता है। जहां तुम्हारी दोनों आंखें कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और मिलती हैं, वही स्थान है जहां खिड़की पड़ती।" यही सूत्र है : भीतर और बाहर की सीमा खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर नासाग्र को बहुत सौम्यता से देखने का पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरुष इस घटना को होने दो, फिर तो बस आनंद एक अन्य प्रयोजन यह भी है कि इससे हो न स्त्री हो। तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त मनाओ, उत्सव मनाओ, हर्षित होओ, तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकतीं। है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर के विभाजन प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना यदि तुम अपनी आंखें फैला कर खोल लो का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने . है। तो पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है जहां भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी दोनों आंखों से नासाग्र को देखता हजारों व्यवधान हैं। कोई सुंदर स्त्री गुजर तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा है, सीधा होकर बैठता है।"... जाती है और तुम पीछा करने लगते में आते हो।... सीधा होकर बैठना सहायक है। जब हो–कम से कम मन में। या कोई लड़ "मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है, तुम्हारे रहा है; तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है, से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को लेकिन तुम सोचने लगते हो कि “क्या होने भीतर बहने देना।" उपलब्ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां वाला है.?" या कोई रो रहा है और तुम इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है: हैं, कोई जटिलता इनमें नहीं है...बस जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें तुम्हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर सतत तुम्हारे चारों ओर चल रही हैं। यदि प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। मिलती हैं, तो तुम तृतीय नेत्र को उपलब्ध आंखें फैल कर खुली हुई हैं तो तुम पुरुष यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्वयं ही हो जाते हो। अपनी काम-ऊर्जा को भी ऊर्जा-यांग-बन जाते हो। भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो, तो तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर यदि आंखें बिलकुल बंद हों तो तुम एक भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्हें प्रभाव दुगुना हो जाएगा, प्रभाव प्रकार की तंद्रा में आ जाते हो, स्वप्न लेने उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है, उसे शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी 199 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारी ऊर्जा काम-केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा की जाए। “व्यक्ति सीधा होकर और आरामदेह मुद्रा में बैठता है।” सदगुरु चीजों को अत्यंत स्पष्ट कर रहे हैं। सीधे होकर, निश्चित ही, लेकिन इसे कष्टप्रद मत बनाओ वरन फिर तुम अपने कष्ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है । संस्कृत शब्द 'आसन' का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा । आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्हारा मन कष्ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो ।... “और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्य में होना नहीं है।” और केंद्रित होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सिर के मध्य में केंद्रित होना है। “केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है। " और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुंच गए। चाहो तो उसे परमात्मा कह लो । यही वह बिंदु है, यही वह आकाश है जहां से सब जन्मा है । यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह ध्यान की विधियां सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है, शाश्वत है।... “ध्यान की साधना अपरिहार्य है।” ध्यान क्या है? – निर्विचार का एक क्षण । निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल । और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा-सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है। मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है, और तुम कारों से इतने ज्यादा ग्रसित हो कि तुम्हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्हें अलग रखता है। तुम्हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक-दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होती है, हर विचार परिभाष्य होता है, लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो, उसकी खोज नहीं कर रहे हो । ध्यान का अर्थ है गेस्टाल्ट को बदल डालना। साधारणतः हम विचारों को देखते हैं: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार | जब तुम गेस्टाल्ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता, अंतराल पर आ जाता है।... “यदि संसारिक विचार उठें तो व्यक्ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन होता है। " यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्मों से आते रहे हैं कि इतनी सरलता से तुम्हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्हारा हिस्सा बन गए हैं, वे तुम्हारे आंतरिक ढांचे ही हो गए हैं। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो । ऐसा होता है : जब लोग ध्यान में शांत होकर बैठते हैं, तो सामान्यतः जितने विचार आते हैं, तब उससे अधिक विचार आते हैं— असामान्य विस्फोट होते हैं। लाखों विचार दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उनका अपना स्वार्थ है तुममें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्टा कर रहे हो ? वे तुम्हारा जम कर विरोध करेंगे। तो विचार तो आएंगे ही। विचारों के साथ तुम क्या करोगे ? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते, तुम्हें कुछ करना पड़ेगा । संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे, तृतीय नेत्र का, 200 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय नेत्र से देखना प्रकाश के प्रवाह का बोध खो जाएगा; तुम "प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ चला जाए, तो फिर से ध्यान के अभ्यास सब भूल कर विचारों के जंगल में खो भी प्राप्त नहीं होता।" पर वापस लौट आओ। जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने यही फ्रायडियन मनोविश्लेषण भी है: “जब विचारों की उड़ान आगे बढ़ती लगे तो तुम खो गए, उनका अनुसरण विचारों की मुक्त साहचर्य शृंखला। एक जाए, जो व्यक्ति को रुक कर विचारों का करने लगे तो खो गए, उनके साथ तुम विचार आता है, और फिर तुम दूसरे निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर ध्यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण फिर क्या करना है? तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है।... शुरू करे।" और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को हर मनोविश्लेषण यही करता है-तुम तो जब भी विचार आता है, तब उपयोग में लाए। वास्तव में सभी राज तो अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब लगभग एक से ही हैं क्योंकि मनुष्य वही दूसरे से जुड़ा होता है, और यह शृंखला ध्यान करो। है-ताला वही है, तो कुंजी भी वही होनी अनंत तक चलती है। उसका कोई अंत “यह संबोधि को तीव्रता से लाने का चाहिए। यही राज है : बुद्ध इसे सम्मासती, नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है सम्यक स्मृति कहते हैं। इतना स्मरण तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल प्रकाश का वृत्ताकार प्रवाह। प्रवाह है रखोः यह विचार आया है, बिना किसी जाओगे, और यह बिलकुल अपव्यय निरीक्षण और प्रकाश है ध्यान।" विरोध, बिना किसी दलील, बिना किसी होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके जब भी तुम ध्यान करोगे तो प्रकाश को निंदा के देखो कि वह है कहां, एक प्रति सजग रहो।... भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा तुम एकाग्र होकर देखोगे तो प्रवाह को कि वह कहां है, कहां से आ रहा है, कहां सकते, इसलिए व्यर्थ में अनावश्यक चेष्टा निर्मित करोगे, प्रवाह को संभव बनाओगे। जा रहा है। उसके आने को देखो, उसके मत करो; वरना एक बात तुम्हें दूसरी में ले दोनों की ही जरूरत है। रुकने को देखो, उसके जाने को देखो। जाएगी और ऐसा आगे से आगे चलता “प्रकाश ध्यान है। ध्यान के बिना और विचार बहुत गत्यात्मक हैं; वे देर तक रहेगा, और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना नहीं रुकते। तुम्हें तो बस विचार के उठने, कि तुम क्या करने का प्रयास कर रहे थे। प्रवाह।" उसके रुकने, उसके जाने को देखना भर नासाग्र गायब हो जाएगा, तृतीय नेत्र भूल यही हुआ है। हठयोग के साथ यही होता है। न संघर्ष करने की चेष्टा करो, न जाएगा, और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते हैं, अनुसरण करने की, बस एक मौन मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें चित्त को एकाग्र तो करते हैं, लेकिन निरीक्षक बने रहो। और तुम्हें हैरानी होगीः स्मरण रखने की हैं, ये दो पंख हैं। एकः प्रकाश को वे भूल गए हैं। अतिथि के निरीक्षण जितना थिर हो जाता है, विचार जब अंतराल आ जाए, कोई विचार न विषय में वे बिलकुल भूल गए हैं। वे बस उतने ही कम आएंगे। जब निरीक्षण चलता हो, तो ध्यान करो। जब कोई घर को तैयार किए चले जाते हैं; वे घर को बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार विचार आए तो बस इन तीन बातों को तैयार करने में इतने उलझ गए हैं कि वे उस समाप्त हो जाते हैं। बस एक अंतराल, देखोः विचार कहां है, वह कहां से आया प्रयोजन को ही भूल गए हैं जिसके लिए एक मध्यांतर ही बचता है। है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए घर की तैयारी है। हठयोगी सतत अपने लेकिन एक बात और याद रखनाः मन अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध फिर से एक चाल चल सकता है। को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह करता है, योगासन, प्राणायाम करता है, 201 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां और आजीवन करता ही चला जाता है। दुर्घटना घटी है। एक दूसरी दुर्घटना हजारों बातों की कल्पना करते हैं, लेकिन वह भूल ही गया है कि यह सब वह कर मनोविश्लेषकों और दार्शनिकों के साथ उनका घर तैयार नहीं है। दोनों ही चूक किसलिए रहा है। और प्रकाश बाहर खड़ा घटी है। जाते हैं। है लेकिन हठयोगी उसे भीतर नहीं आने दे "निरीक्षण के बिना ध्यान का अर्थ है "इसका खयाल रखो!" रहे हैं क्योंकि प्रकाश तभी भीतर आ प्रवाह के बिना प्रकाश।" दोनों में से किसी भी भ्रांति में मत गिरो। सकता है जब तुम पूर्णतः समर्पण की दशा वे प्रकाश पर विचार करते हैं, लेकिन यदि तुम सचेत रह सको तो यह अत्यंत में आ जाओ। उन्होंने प्रकाश की बाढ़ भीतर आ सके सरल-सी प्रक्रिया है और गहन रूप से ___“ध्यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है इसके लिए तैयारी नहीं की हैवे प्रकाश रूपांतरणकारी है। जो व्यक्ति ठीक ढंग से प्रकाश के बिना प्रवाह।" पर केवल विचार करते हैं। वे अतिथि के समझ ले वह एक क्षण में ही एक भिन्न तथाकथित योगियों के साथ यही विषय में सोचते हैं, अतिथि के विषय में वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है। 6 202 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 मात्र बैठना तु मात्र बैठना म बस बैठे हो, कुछ भी न करते और सब मौन है, सब शांत है, आनंद ही आनंद है। तुम परमात्मा में प्रवेश कर गए, तुम सत्य में प्रवेश कर गए। 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 204 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र बैठना जोन के साधक कहते हैं: "बस बैठ राजाओ, कुछ भी मत करो।” संसार में सबसे कठिन काम है-कुछ न करते हुए बस बैठना। लेकिन एक बार तुम्हें उसका गुर आ जाए, यदि कुछ महीनों तक रोज तुम कुछ घंटे बिना कुछ किए बैठे रहो तो धीरे-धीरे कई बातें होंगी। तुम्हें नींद-सी आने लगेगी, तुम सपने देखोगे। कई विचार तुम्हारे मन में भीड़ लगा लेंगे, कई बातें होंगी। मन कहेगा, “तुम अपना समय झा-झेन क्यों व्यर्थ कर रहे हो? तुम थोड़ा धन ही रहो...वह हर तरह की चालाकियां करेगा; कल्पना, न कोई स्वप्न, न कोई विचार। कमा सकते थे। कम से कम तुम कोई कल्पना करेगा, स्वप्न देखेगा, निद्रित होने तुम बस बैठे हुए हो, कुछ भी न फिल्म ही देखने चले जाते, अपना लगेगा। मन तुम्हें शांत मुद्रा से बाहर करते...और सब मौन है, सब शांत है, मनोरंजन कर लेते, या तुम आराम करते घसीटने के लिए जो कर सकता है करेगा। आनंद ही आनंद है। तुम परमात्मा में प्रवेश और गप-शप मार लेते। तुम टेलीविजन लेकिन तुम यदि बैठे ही रहो, सतत प्रयास कर गए, तुम सत्य में प्रवेश कर गए। 2 देख सकते थे या रेडियो सुन सकते थे, या में लगे रहो, तो एक दिन सूरज उगता है। तुम कहीं भी बैठ सकते हो, लेकिन कम से कम तुम अखबार ही पढ़ लेते जो एक दिन ऐसा होता है, तुम्हें नींद नहीं जिस चीज की ओर भी तुम देखो वह बहुत तुमने अभी तक नहीं देखा है। अपना आती, मन तुमसे थक जाता है, तुमसे ऊब उत्तेजक नहीं होनी चाहिए। जैसे, चीजें समय तुम व्यर्थ क्यों कर रहे हो?" जाता है, यह विचार ही छोड़ देता है कि बहुत गतिशील नहीं होनी चाहिए। वे मन तुम्हें हजारों तर्क देगा, लेकिन तुम तुम्हें फंसाया जा सकता है, तुमसे सब नाते विक्षेप बन जाती हैं। तुम वृक्षों को देख यदि मन से बिना प्रभावित हुए सुनते तोड़ लेता है। न कोई नींद बची, न सकते हो उसमें कोई समस्या नहीं है 205 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां क्योंकि वृक्ष गति नहीं कर रहे, और दृश्य चौथी बात है : अपने शरीर को जितना निर्देश : थिर बना रहता है। तुम आकाश को देख हो सके स्थिर हो जाने दो। पहले कोई सकते हो, या किसी कोने में बैठकर दीवार अच्छी शारीरिक मुद्रा खोज लो-तुम किसी खाली दीवार की ओर मुंह की ओर देख सकते हो। किसी तकिए पर, किसी गद्दे पर बैठ सकते करके बैठ जाएं, और लगभग एक हाथ दूसरी बात है, किसी वस्तु विशेष की हो या जैसा भी तुम्हें आरामदेह लगे, की दूरी रखें। आंखें आधी खुली हों ओर मत देखो-बस शून्य में देखो, लेकिन एक बार तुम बैठ जाओ तो फिर जिससे नजर धीमे से दीवार पर ठहरी क्योंकि आंखें हैं तो कहीं तो देखना ही स्थिर रहो, क्योंकि यदि शरीर न हिले तो रहे। अपनी पीठ सीधी रखें और एक पड़ेगा, लेकिन तुम विशेष रूप से किसी मन स्वतः ही शांत हो जाता है। गतिमान हाथ को दूसरे हाथ पर रख कर दोनों चीज की ओर नहीं देख रहे हो। किसी शरीर में मन भी गति करता रहता है, अंगूठों को आपस में इस तरह से जोड़ लें चीज पर चित्त को केंद्रित या एकाग्र मत क्योंकि शरीर और मन झे चीजें नहीं हैं। वे कि एक अंडाकृति बन जाए। तीस मिनट करो-बस मद्धिम-सी आकृति बने। एक ही हैं...यह एक ही ऊर्जा है। के लिए जितना हो सके स्थिर रहें। इससे बड़ी शिथिलता आ जाती है। शुरू में यह थोड़ा कठिन लगेगा लेकिन बैठे समय एक चुनाव रहित और तीसरी बात है। अपनी श्वास को कुछ दिन बाद तुम्हें इसमें बहुत मजा आने जागरूकता को घटने दें और होश को शिथिल कर लो। और करो मत,उसे होने लगेगा। तुम देखोगे, धीरे-धीरे, मन की विशेष रूप से कहीं न ले जाएं, बल्कि दो। उसे स्वाभाविक होने दो और इससे । पर्त-दर-पर्त छूटती जा रही है। एक क्षण क्षण-प्रतिक्षण जितना हो सके खुले और और अधिक शिथिलता आएगी। आता है जब तुम मन के बिना होते हो। सचेत रहें। 206 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र बैठना द्ध को एक दिन कोई विशेष व प्रवचन देना था, और दूर-दूर से उहजारों शिष्य इकट्ठे हुए थे। जब बुद्ध आए तो वे एक फूल पकड़े हुए थे। समय गुजरा, लेकिन बुद्ध कुछ भी नहीं बोले। वे बस फूल की ओर देखते रहे। भीड़ बेचैन होने लगी, लेकिन महाकाश्यप जो अपने को रोक न सका, हंसने लगा। झेन की हंसी बुद्ध ने उसे बुलाया, फूल उसे दिया, यह गाथा स्रोत है जिससे परी उन्हें भेंट किया होगा। और भीड़ से बोले: "मेरे पास सच्ची परंपरा-पृथ्वी की सबसे सुंदर परंपरा, बुद्ध आए, वृक्ष के नीचे बैठ गए। लोग देशना की आंख है। जो भी शब्दों से दिया झेन की परंपरा शुरू हुई। प्रतीक्षा करते रहे-करते रहे और वे बोलें जा सकता है मैं तुम्हें दे चुका हूं; लेकिन इस गाथा को समझने का प्रयास करो। ही न। वे तो उनकी ओर देखे भी नहीं। वे इस फूल के साथ, मैं महाकाश्यप को इस बुद्ध एक सुबह आए और सदा की तरह तो फूल को ही देखते रहे। मिनट बीते, देशना की कुंजी देता हूं।" श्रोता लोग जमा थे। कई लोग उन्हें सनने फिर घंटे, और लोग बहुत बेचैन हो गए। __ यह गाथा बड़ी महत्वपूर्ण गाथाओं में से की प्रतीक्षा कर रहे थे। कहते हैं कि महाकाश्यप स्वयं को रोक है, क्योंकि इसी से झेन की परंपरा शुरू लेकिन एक बात असामान्य थी-वे नहीं सका। वह जोर से हंसा। बुद्ध ने उसे हुई। बुद्ध स्रोत थे, और महाकाश्यप अपने हाथ में एक फूल पकड़े हुए थे। बुलाया, फूल दिया और वहां जमा लोगों पहला, मौलिक झेन सद्गुरु था। बुद्ध पहले कभी वे अपने हाथ में कुछ लेकर से बोले, "शब्दों से जो भी कहा जा सकता स्रोत थे, महाकाश्यप पहला गुरु था, और नहीं आए थे। लोगों ने सोचा, किसी ने है, मैंने तुम्हें कह दिया है, और जो शब्दों 207 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में नहीं कहा जा सकता, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं। शब्दों से कुंजी नहीं दी जा सकती। मैं कुंजी महाकाश्यप को देता हूं।" लेकिन झेन का यही उद्गम है। महाकाश्यप कुंजी को धारण करने वाला पहला व्यक्ति बना। फिर बोधिधर्म तक छब्बीस धारक भारत में हुए । बोधिधर्म कुंजी का छब्बीसवां धारक था, और उसने भारत भी में बहुत खोजा, लेकिन वह महाकाश्यप की हैसियत का कोई व्यक्ति न खोज सका, कोई व्यक्ति जो मौन को समझ सकता। ऐसे व्यक्ति की खोज में ही उसे भारत को छोड़ना पड़ा जिसे कुंजी दी जा सके; वरना तो कुंजी खो जाती। बोधिधर्म के साथ ही बुद्ध-धर्म ने चीन में प्रवेश किया जब वे ऐसे व्यक्ति की तलाश में वहां पहुंचे जिसे कुंजी दी जा सके, जो मौन को समझ सके, जो मन से अभिभूत हुए बिना हृदय से हृदय की बात कर सके, जिसका सिर न हो । शब्दों के पार का यह संप्रेषण हृदय और हृदय के बीच ही संभव है। तो नौ वर्षों तक बोधिधर्म ने चीन में तलाश की, और तब भी वह एक ही व्यक्ति को खोज सका। एक चीनी व्यक्ति सत्ताईसवां गुरु बना । और अभी तक यह क्रम चल रहा है। कुंजी अभी भी है; कोई न कोई अभी भी उसे धारण किए है। नदी अभी सूखी नहीं है। हम एक बुद्ध से भी चाहते हैं कि वे बोलें क्योंकि यही केवल हम समझते हैं। यह मूढ़ता की बात है। तुम्हें बुद्ध के साथ ध्यान की विधियां मौन होना सीखना चाहिए, क्योंकि तभी वे तुममें प्रवेश कर सकते हैं। शब्दों से वे तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे सकते हैं, लेकिन कभी प्रवेश नहीं कर सकते; मौन से वे तुममें प्रवेश कर सकते हैं, और जब तक वे तुममें प्रवेश न कर जाएं, तुम्हें कुछ भी नहीं घटेगा । उनका प्रवेश तुम्हारे अस्तित्व में एक नया तत्व ले आएगा; हृदय में उनका प्रवेश तुम्हें एक नई धड़कन और एक नई गति दे देगा, जीवन का एक नया प्रसार दे देगा, लेकिन उनका प्रवेश ही । महाकाश्यप लोगों की मूढ़ता पर हंसा । वे बेचैन हो रहे थे और सोच रहे थे : बुद्ध कब खड़े होंगे और इस मौन को समाप्त करेंगे ताकि हम घर जा सकें? महाकाश्यप हंसा । हंसी महाकाश्यप के साथ शुरू हुई और झेन परंपरा में चलती चली आ रही है। कोई और परंपरा नहीं है जो हंस सके। झेन मठों में वे लोग हंसते रहे हैं, और हंसते ही रहे हैं। महाकाश्यप हंसा, और यह हंसी अपने में कई आयाम लिए हुए थी । एक तो वह हंसा पूरी परिस्थिति की मूढ़ता पर, कि एक बुद्ध मौन हैं और कोई उसे समझ नहीं रहा, हर कोई अपेक्षा कर रहा है कि वे बोलें। अपने पूरे जीवन बुद्ध कहते रहे थे कि सत्य को कहा नहीं जा सकता, और फिर भी सब उनसे बोलने की अपेक्षा कर रहे थे। दूसरा आयाम - वह बुद्ध पर भी हंसा, जो पूरी नाटकीय परिस्थिति उन्होंने पैदा कर दी थी उस पर हंसा - फूल हाथ में पकड़कर उसे देखते हुए वे बैठ गए थे और सभी में इतनी बेचैनी, इतनी व्यग्रता पैदा कर रहे थे। बुद्ध के इस नाटकीय अंदाज पर वह हंसा, वह हंसा और हंसता ही गया। तीसरा आयाम - वह स्वयं पर हंसा । अब तक वह समझ क्यों नहीं सका ? सारी बात सीधी और सरल थी। और जिस दिन तुम समझते हो, तुम हंसोगे, क्योंकि समझने को कुछ है ही नहीं। कोई समस्या ही नहीं है सुलझाने को । सब कुछ सदा से ही सीधा-साफ रहा है। तुम उसे चूक कैसे सके ? बुद्ध मौन बैठे हैं, पक्षी वृक्षों में गीत गा रहे हैं, वृक्षों से बयार गुजरती है, सभी बेचैन हैं, और महाकाश्यप समझ गया। क्या समझा वह ? वह समझ गया कि समझने को कुछ भी नहीं है, कहने को कुछ भी नहीं है, समझाने को कुछ भी नहीं है। सारी बात सीधी और स्पष्ट है। कुछ भी इसमें छिपा नहीं है। खोजने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो है, वह अभी और यहां तुम्हारे भीतर है। वह स्वयं पर भी हंसा, इस मौन को समझने के लिए अपने जन्मों-जन्मों के अर्थहीन प्रयास पर हंसा, इतने सोच-विचार पर हंसा । बुद्ध ने उसे बुलाया, फूल दिया और बोले, "आज मैं तुम्हें कुंजी सौंपता हूं।" कुंजी क्या है? मौन और हंसी है कुंजी - भीतर मौन, बाहर हंसी । और जब हंसी मौन से उठती है तो इस संसार की नहीं होती, दिव्य होती है। हंसी जब मौन से उठती है तो तुम किसी 208 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और की कीमत पर नहीं हंस रहे । तुम तो इस पूरे जागतिक मजाक पर हंस रहे हो । और यह सच ही एक मजाक है। इसीलिए मैं तुम्हें चुटकुले सुनाता रहता हूं, क्योंकि चुटकुलों में शास्त्रों से अधिक सार है। यह एक मजाक है, क्योंकि तुम्हारे भीतर सब कुछ है, और तुम सब ओर खोज रहे हो। और क्या मजाक होगा ? तुम एक राजा हो, और सड़क पर खड़े भिखारी जैसा अभिनय कर रहे हो। न केवल अभिनय कर रहे हो, न केवल दूसरों को धोखा दे रहे हो, बल्कि खुद को भी धोखा दे रहे हो कि तुम भिखारी हो । तुम्हारे पास समस्त ज्ञान का स्रोत है और तुम प्रश्न पूछ रहे हो ! तुम्हारे पास बोधपूर्ण सत्ता है जो जानती है और तुम सोचते हो कि तुम अज्ञानी हो; तुम्हारे भीतर अमृतधर्मा है और तुम मृत्यु व व्याधि से भयभीत हो। यह मजाक ही है, और यदि वह हंसा तो उसने अच्छा किया। महाकाश्यप मौन रहा था, और अंतर्धारा चुपचाप बहती रही थी। फिर कुंजी दूसरों को दी जाती रही, और कुंजी अभी भी जीवित है, अभी भी द्वार खोलती है। ये दो अंग हैं। आंतरिक मौन – इतना गहरा मौन कि तुम्हारे प्राणों में कोई तरंग भी न बचे; तुम हो, लेकिन कोई लहर नहीं है; तुम बस एक सरोवर हो जिसमें कोई 209 मात्र बैठना लहर नहीं, एक भी लहर नहीं उठती; पूरे प्राण शांत हैं, निश्चल हैं; भीतर, केंद्र पर मौन है—और परिधि पर उत्सव व हंसी । और मौन ही हंस सकता है क्योंकि मौन ही जागतिक मजाक को समझ सकता है। मैं तुम्हें कहता हूं, जिस मौन में उदासी हो वह सच्चा नहीं हो सकता। उसमें कुछ गलती हो गई। तुम मार्ग को चूक गए; तुम पटरी से उतर गए। केवल उत्सव प्रमाण दे सकता है कि वास्तविक मौन घटा यह है। वास्तविक मौन और झूठे मौन में क्या भेद है ? झूठा मौन सदा ही आरोपित होता है । वह प्रयास से उपलब्ध होता है। वह सहज नहीं होता, वह तुम्हें घटा नहीं । तुमने उसे घटाया है। तुम मौन बैठे हो और भीतर तूफान मचा है । उसे तुम दबाते हो और फिर हंस नहीं सकते। तुम उदास हो जाओगे क्योंकि हंसी खतरनाक होगी - यदि तुम हंसे अपना मौन खो दोगे, क्योंकि हंसी में तुम दमन नहीं कर सकते। हंसना दमन के विपरीत है। यदि तुम दमन करना चाहो तो तुम्हें हंसना नहीं चाहिए; यदि तुम हंसे तो सब बाहर आ जाएगा। हंसी में, जो वास्तविक है वह बाहर आ जाएगा, और जो अवास्तविक है वह खो जाएगा। यह कुंजी है— इसका अंतर्भाग मौन है, और कुंजी का बाह्य भाग है उत्सव, हंसी । उत्सवपूर्ण और मौन हो जाओ। अपने चारों ओर अधिकाधिक संभावनाएं निर्मित करो - अंतस को मौन होने के लिए बाध्य मत करो, बस अपने चारों ओर अधिकाधिक संभावनाएं निर्मित करते चले जाओ ताकि अंतर्पुष्प उसमें खिल सके। ध्यान तुम्हें मौन तक नहीं ले जाता । ध्यान केवल परिस्थिति पैदा करता है जिसमें मौन घटता है। और यह कसौटी होनी चाहिए— कि जब भी मौन घटता है, तुम्हारे जीवन में हंसी आ जाएगी। चारों ओर एक जीवंत उत्सव घटने लगेगा। जब मौन बहुत ज्यादा हो जाता है तो हंसी बन जाता है । वह इतना भर जाता है कि सब दिशाओं में बहने लगता है। वह हंसा । जरूर वह एक पागल हंसी रही होगी। और उस हंसी में कोई महाकाश्यप नहीं रहा । मौन हंस रहा था । मौन एक खिलावट पर पहुंच गया था। तुम्हारा बुद्धत्व तभी पूर्ण होता है जब मौन एक उत्सव बन जाए। इसीलिए मेरा जोर है कि जब तुम ध्यान करो, उसके बाद तुम्हें उत्सव मनाना चाहिए। मौन होने के बाद तुम्हें उसका आनंद लेना चाहिए, तुम्हें अहोभाव प्रकट करना चाहिए। समग्र के प्रति एक गहन अहोभाव प्रकट करना चाहिए कि तुम्हें होने का अवसर मिला, कि तुम ध्यान कर सकते हो, कि तुम मौन हो सकते हो, कि तुम हंस सकते हो। 5 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां 210 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम में ऊपर उठना प्रेम में ऊपर उठनाः ध्यान में एक साझेदारी प्रति आकर्षित करता है। एक- द हाग, उतना ही उनमें छ अत्यंत बुनियादी बातें समझने की हैं। पहली, पुरुष और स्त्री एक ओर तो एक-दूसरे के परिपूरक हैं, और दूसरी ओर विपरीत ध्रुव हैं। उनका विपरीत होना ही उन्हें एक-दूसरे के प्रति आकर्षित करता है। जितनी दूर वे होंगे, उतना ही उनमें गहन आकर्षण होगा; जितने वे एक-दूसरे से भिन्न होंगे, उतना ही आकर्षण और सौंदर्य होगा। लेकिन इसी में सारी समस्या भी है। जब वे निकट आते हैं, तो निकटतर आना चाहते हैं, वे एक-दूसरे में घुल जाना चाहते हैं, एक हो जाना चाहते हैं, एक लयबद्ध समग्रता बन जाना चाहते हैं लेकिन उनका पूरा आकर्षण विपरीतता पर निर्भर करता है, और लयबद्धता विपरीतता के विलीन होने पर निर्भर करेगी। जब तक कोई प्रेम संबंध बहुत जागरूक न हो तो बड़ा विषाद, बड़ी तकलीफ पैदा करेगा। सभी प्रेमी अड़चन में हैं। अड़चन व्यक्तिगत नहीं है; यह चीजों के स्वभाव में है। वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित न हुए होते...इसे वे प्रेम में गिरना कहते हैं इसके लिए वे कोई कारण नहीं दे सकते कि उन्हें एक-दूसरे की ओर ऐसा प्रबल आकर्षण क्यों है। वे तो मौलिक कारणों के प्रति भी सचेत नहीं हैं; इसलिए एक अजीब बात होती है : सबसे सुखी प्रेमी वे होते हैं जो कभी नहीं मिलते। 211 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां एक बार वे मिल जाएं तो जिस जाता है। फिर स्त्री और पुरुष का समझने जैसा है। विपरीतता ने आकर्षण पैदा किया था, वही सह-जीवन एक सुंदर लय बन सकता है। तुम मुझे प्रेम करते हो, लेकिन मुझे तुम संघर्ष बन जाती है। हर छोटी-छोटी बात वरना, वह एक सतत संघर्ष बना रहता है। उसी ढंग से प्रेम नहीं करते जैसे अपने पति पर उनके दृष्टिकोण भिन्न होते हैं, उनकी छुट्टियां भी होती हैं। कोई दिन में को, अपनी पत्नी को करते हो। मेरे प्रति पहुंच भिन्न होती है। यद्यपि वे एक ही भाषा चौबीस घंटे तो नहीं लड़ता रह सकता, उसे तुम्हारा प्रेम शारीरिक नहीं है; मेरे साथ बोलते हैं फिर भी एक-दूसरे को समझ थोड़ा आराम भी चाहिए ताकि नई तुम्हारा प्रेम बिलकुल भिन्न घटना है-यह नहीं सकते। लड़ाई के लिए तैयार हो सकने को थोड़ा आत्माओं का प्रेम है, शरीर का नहीं। और पुरुष जिस ढंग से संसार को देखता है आराम मिले। दूसरे, मुझसे तुम जुड़े हो-अपनी सत्य वह स्त्री से भिन्न है। जैसे, पुरुष दूर की लेकिन यह सबसे आश्चर्यजनक घटना की खोज के कारण। बातों में उत्सुक होता है-मनुष्यता के है कि स्त्री और पुरुष हजारों वर्षों से साथ मेरा तुम्हारा संबंध ध्यान का है। मेरे भविष्य में, दूर के सितारों में, कि दूसरे रह रहे हैं और फिर भी अजनबी हैं। वे और तुम्हारे बीच ध्यान ही एक मात्र सेतु ग्रहों पर जीवित प्राणी हैं या नहीं। बच्चे पैदा किए चले जाते हैं फिर भी है। जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान गहराएगा स्त्री इस पूरी निरर्थकता पर हंसती है। अजनबी बने रहते हैं। स्त्रैण दृष्टिकोण वैसे-वैसे तुम्हारा प्रेम भी गहराएगा, और वह आस-पास के छोटे से घेरे में ही और पौरुष दृष्टिकोण एक-दूसरे से इतने जब तुम्हारा ध्यान खिलेगा तो तुम्हारा प्रेम उत्सुक होती है-पड़ोसियों में, परिवार में, विपरीत हैं कि जब तक सजग चेष्टा न की भी खिलेगा। लेकिन यह एक बिलकुल कि कौन अपनी पत्नी को धोखा दे रहा है, जाए, जब तक यह तुम्हारा ध्यान ही न बन भिन्न तल पर हो रहा है। किसकी पत्नी शोफर के प्रेम में पड़ गई है। जाए, तब तक शांत जीवन की कोई आशा अपने पति के साथ तुम ध्यान से नहीं उसका रस बड़ा स्थानीय और अत्यंत नहीं है। जुड़ी हो। तुम लोग कभी एक घंटा भी मानवीय होता है। उसे पुनर्जन्म की चिंता मेरी गहन चेष्टाओं में से यह एक हैः साथ-साथ नहीं बैठते कि एक-दूसरे नहीं हैन ही वह मृत्यु के बाद के जीवन में कि कैसे प्रेम और ध्यान को एक-दूसरे में की चेतना को महसूस करो। या तो तुम उत्सुक है। उसका रस व्यावहारिक चीजों इतना समाहित किया जाए कि हर लड़ रहे हो, या संभोग कर रहे हो, लेकिन में है। उसका वर्तमान में, अभी और यहां प्रेम-संबंध स्वतः ध्यान में एक साझेदारी दोनों ही बातों में तुम शरीर से, शारीरिक में रस है। बन जाए-और हर ध्यान तुम्हें इतना हिस्से से, जैविकी से, हार्मोन्स से संबंधित पुरुष कभी अभी और यहां नहीं होता। सजग कर दे कि तुम्हें प्रेम में गिरने की हो। तुम एक-दूसरे के अंतर्तम बिंदु से वह सदा कहीं और होता है। उसकी जरूरत न रहे, तुम प्रेम में ऊपर उठ सको। संबंधित नहीं हो। तुम्हारी आत्माएं अजीब व्यस्तताएं होती हैं-पुनर्जन्म, तुम सजग रूप से, सविवेक कोई मित्र अलग-अलग बनी रहती हैं। मंदिरों में मृत्यु के बाद का जीवन! खोज ले सकते हो। और चर्चों में, और न्यायालयों में तुम्हारे ___ यदि दोनों साथी इस तथ्य के प्रति सचेत तुम मेरे साथ एक गहन लयबद्धता का, शरीरों का ही विवाह होता है। तुम्हारी हों कि यह दो विपरीतताओं का मिलन है, शांति के क्षणों का, प्रेम और मौन का आत्माएं मीलों दूर रहती हैं। यदि तुम और यह कि इसे कोई संघर्ष बनाने की अनुभव करते हो, और स्वभावतः तुममें चाहती हो कि अपने पुरुष के साथ तुम्हारा जरूरत नहीं है, तो फिर यह बिलकुल यह प्रश्न उठा है कि जो मेरे साथ संभव संबंध लयबद्ध हो तो तुम्हें और अधिक विपरीत दृष्टिकोण को समझने और है, वह उस व्यक्ति के साथ क्यों संभव ध्यानपूर्ण होना सीखना पड़ेगा। अकेला आत्मसात करने का एक बड़ा अवसर बन नहीं है जिसे तुम प्रेम करते हो। यह भेद प्रेम ही पर्याप्त नहीं है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम में ऊपर उठना अकेला प्रेम तो अंधा है; ध्यान उसे साथ-साथ लक्ष्य में प्रवेश कर सकते हैं। कुछ कहती है, तुम कुछ और समझते हो। आंखें देता है। ध्यान उसे समझ देता है। क्योंकि लक्ष्य तुमसे बाहर नहीं है; वह मैंने ऐसे दंपत्ति देखे हैं जो तीस-चालीस और एक बार तुम्हारा प्रेम ध्यान और प्रेम तो झंझावात का केंद्र है, वह तो तुम्हारी वर्ष तक साथ रहे हैं; फिर भी वे उतने ही दोनों ही बन जाए, तो तुम सहयात्री बन अंतस सत्ता का अंतर्तम केंद्र है। लेकिन अपरिपक्व नजर आते हैं जितने अपने जाते हो। फिर यह पति और पत्नी के बीच तुम उसे तभी खोज सकते हो जब तुम पहले दिन लगते थे। अभी भी वही का साधारण संबंध नहीं रहता। फिर यह समग्र होओ, और दूसरे के बिना तुम समग्र शिकायत है : “मैं जो कह रहा हूं यह प्रेम जीवन के रहस्यों की खोज पर जाते नहीं हो सकते। स्त्री और पुरुष एक ही समझती ही नहीं।" चालीस साल साथ रह मार्ग पर एक मैत्रीभाव बन जाता है। समग्रता के दो हिस्से हैं। कर भी तुम कोई उपाय नहीं खोज पाए कि अकेले पुरुष को या अकेली स्त्री को तो लड़ने में समय व्यर्थ करने की तुम्हारी पत्नी वही समझ सके जो तुम कह यात्रा बड़ी थकाने वाली और बड़ी लंबी अपेक्षा एक-दूसरे को समझने का प्रयास रहे हो, ताकि तुम बिलकुल वही समझ लगेगी, जैसा कि अतीत में होता था। इस करो। अपने को दूसरे के स्थान पर रखकर सको जो वह कह रही है। सतत संघर्ष को देखते हुए, सभी धर्मों ने समझने की चेष्टा करो। इस तरह से देखने मैं सोचता हूं कि ध्यान के सिवाय कोई निर्णय लिया कि जो सत्य की खोज में की चेष्टा करो जैसे एक पुरुष देखता है, और संभावना नहीं है कि यह घट सके, निकलना चाहते हैं उन्हें दूसरे का त्याग कर जैसे स्त्री देखती है। और चार आंखें दो क्योंकि ध्यान तुम्हें मौन की, होश की, देना चाहिए-भिक्षुओं को ब्रह्मचारी होना आंखों से सदा बेहतर होती हैं तुम्हें पूरा श्रवण की गुणवत्ता देता है, स्वयं को दूसरे चाहिए, भिक्षुणिओं को ब्रह्मचारिणी होना दृश्य देखने को मिलता है। तुम्हें चारों की परिस्थिति में रखने की क्षमता देता है। चाहिए। लेकिन पांच हजार वर्षों के दिशाएं उपलब्ध हो जाती हैं। मेरे साथ यह संभव है: मेरा तुम्हारे इतिहास में कितने भिक्षु और कितनी लेकिन एक बात स्मरण रखने की है: जीवन की छोटी-छोटी बातों से कुछ भिक्षुणियां आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए? कि ध्यान के बिना प्रेम असफल होगा ही; लेना-देना नहीं है। यहां तुम मूलतः सुनने तुम मुझे दस उंगलियों पर गिनने लायक उसके सफल होने की कोई संभावना नहीं और समझने के लिए हो। यहां तुम नाम भी नहीं बता सकते। और सभी धर्मों है। तुम पाखंड कर सकते हो और दूसरों आध्यात्मिक रूप से विकसित होने के के लाखों भिक्षु हुए-बौद्ध, हिंदू ईसाई, को धोखा दे सकते हो, लेकिन स्वयं को लिए हो। स्वभावतः संघर्ष का कोई प्रश्न मुसलमान। क्या हुआ? धोखा नहीं दे सकते। गहरे में तुम जानते हो नहीं है, और लयबद्धता बिना किसी प्रयास ___ मार्ग इतना लंबा नहीं है। लक्ष्य इतनी कि प्रेम ने जो भी वायदे किए थे वे पूरे नहीं के उठती है। दूर नहीं है। लेकिन तुम अपने पड़ोसी के हुए। तुम मुझे समग्रता से प्रेम कर सकते हो. घर भी जाना चाहो तो तुम्हें अपने दोनों पैरों ध्यान के साथ ही प्रेम नए रंग, नया क्योंकि मेरे साथ तुम्हारा संबंध ध्यान का की जरूरत होगी। बस एक पैर पर संगीत, नए गीत, नए नृत्य लेना शुरू है। किसी और पुरुष के साथ या किसी उछल-उछल कर तुम कितनी दूर तक जा करता है क्योंकि ध्यान तुम्हें विपरीत और स्त्री के साथ, यदि तुम लयबद्धता में सकते हो? ध्रुवों को समझने की अंतर्दृष्टि देता है, और जीना चाहो तो तुम्हें वही वातावरण और __ मैं एक बिलकुल नई दृष्टि दे रहा हूं, कि उस समझ में ही संघर्ष समाप्त हो जाता है। वही जलवायु पैदा करनी होगी जो तुम यहां गहन मैत्री में, एक प्रेमपूर्ण और ध्यानपूर्ण संसार में सारा संघर्ष ही गलतफहमी के ले आए हो। संबंध में, जीवंत समग्रताओं की भांति कारण होता है। तुम कुछ कहते हो, तुम्हारी चीजें असंभव नहीं हैं, लेकिन हमने स्त्री और पुरुष जिस क्षण भी चाहें, पत्नी कुछ और समझती है। तुम्हारी पत्नी ठीक-ठीक औषधि का इस्तेमाल ही नहीं 213 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां करके देखा। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहूंगा होगी और ध्यान तुम्हारे जीवन को निपट पाश्चात्य मनुष्य का यही दुख है। कि 'मेडिसिन' शब्द उसी मूल से आता है आनंद बना देगा। पश्चिम का मनुष्य जीवन की खिलावट को जिससे 'मेडिटेशन'। औषधि तुम्हारे शरीर संभाव्य रूप से हम आनंदित होने में चूक रहा है क्योंकि वह ध्यान के विषय में का उपचार करती है; ध्यान तुम्हारी आत्मा सक्षम हैं, लेकिन कैसे होना-इसका हमें कुछ भी नहीं जानता। और पूरब का मनुष्य का उपचार करता है। औषधि तुम्हारे बोध नहीं है। अकेले हम अधिक से चूक रहा है क्योंकि वह प्रेम के विषय में भौतिक अंश को आरोग्य देती है; ध्यान अधिक दुखी ही होते हैं। एक-साथ तो कुछ नहीं जानता। तुम्हारे आत्मिक अंश को आरोग्य देता है। नरक ही हो जाता है। और मेरे लिए तो जैसे पुरुष और स्त्री लोग इकट्ठे जी रहे हैं और उनकी यहां तक कि ज्यां पाल सात्र जैसे बड़े एक-दूसरे के परिपूरक हैं, वैसे ही प्रेम आत्माएं घावों से भरी हुई हैं, इसलिए प्रतिभाशाली व्यक्ति को भी कहना पड़ता और ध्यान भी परिपूरक हैं। ध्यान पुरुष है; छोटी-छोटी चीजें भी उन्हें बहुत चोट है कि दूसरा व्यक्ति नरक है, कि अकेला प्रेम स्त्री है। ध्यान और प्रेम के मिलन में पहुंचा जाती हैं। लोग बिना किसी समझ के होना बेहतर है कि दूसरे का साथ तुम निभा पुरुष और स्त्री का मिलन है। और उस जी रहे हैं। इसलिए, वे जो भी करेंगे उसका नहीं सकते। वह इतना निराश हो गया कि मिलन में हम अतिमानव का निर्माण कर अंत विपदा के रूप में ही होगा। यदि तुम उसने कहा कि दूसरे का साथ निभाना लेते हैं जो न पुरुष है, न स्त्री। जब तक किसी पुरुष से प्रेम करो तो ध्यान श्रेष्ठतम असंभव ही है, दूसरा व्यक्ति नरक है। हम पृथ्वी पर अतिमानव का निर्माण नहीं भेंट होगी जो तुम उसे दे सको। यदि तुम साधारण रूप से वह सही है। ध्यान के कर लेते, तब तक कोई बहुत आशा नहीं किसी स्त्री से प्रेम करते हो तो संसार का साथ दूसरा तुम्हारा स्वर्ग बन जाता है। है। लेकिन मझे लगता है कि मेरे संन्यासी सबसे बड़ा हीरा, कोहेनूर, भी कुछ नहीं लेकिन ज्या पाल सार्च को ध्यान का कोई वह कर पाने में सक्षम हैं जो देखने में है; ध्यान कहीं ज्यादा मूल्यवान भेंट पता नहीं था। असंभव लगता है।। 214 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम में ऊपर उठना गव ने कहाः अनुभव करो ए कि सृजन के सूक्ष्म गुण तुम्हारे स्तनों को परिव्याप्त कर रहे हैं और कोमल समानुरूप धारण कर रहे हैं। शि क सूजन के कम गुण स्तनों पर चित्त को एकाग्र करो, उनके साथ एक हो जाओ, बाकी पूरे शरीर को भूल जाओ। अपनी पूरी चेतना को स्तनों पर ले जाओ और कई घटनाएं तुम्हारे साथ घटेंगी। यदि तुम ऐसा कर सको, यदि पूरी तरह से स्तनों पर अपने होश को केंद्रित प्रेम का वर्तुल कर सको तो सारा शरीर भारमुक्त हो से स्त्रियों के लिए हैं। लेकिन स्त्री के स्तन धनात्मक हैं। यदि जाएगा और एक गहन माधुर्य तुम्हें घेर इस विधि को कोई पुरुष नहीं कर स्त्रियां स्तनों के पास चित्त को एकाग्र करें, लेगा। माधुर्य का एक गहन भाव तुम्हारे सकता। वास्तव में यदि कोई पुरुष अपने तो वे अत्यंत आह्लादित, अत्यंत आनंदित बाहर, भीतर, ऊपर, नीचे, सब ओर स्तनों पर चित्त को एकाग्र करने लगे तो अनुभव करेंगी; एक माधुर्य उनके पूरे स्पंदित होगा। वह बेचैन हो जाएगा। करके देखो। पांच प्राणों पर परिव्याप्त हो जाएगा और शरीर जो भी विधियां विकसित की गई हैं, वे मिनट में ही तुम्हारा पसीना बहने लगेगा, गुरुत्वाकर्षण खो देगा। वे हलकी महसूस कमोबेश पुरुष द्वारा ही विकसित की गई तुम बेचैन हो जाओगे, क्योंकि पुरुष के करेंगी, जैसे कि उड़ सकती हों। और इस हैं। इसलिए उनमें ऐसे ही केंद्रों का उल्लेख स्तन ऋणात्मक हैं, वे तुम्हें नकारात्मकता एकाग्रता के साथ बहुत से परिवर्तन होंगेः है जो पुरुष के लिए सरल होते हैं। जहां ही देंगे। तुम्हें बेचैनी और दुविधा होगी, तुम अधिक मातृत्वमय हो जाओगी। भले तक मैं जानता हूं केवल शिव ने ही कुछ जैसे शरीर में कुछ गड़बड़, कुछ ही तुम मां न होओ, लेकिन तुम अधिक ऐसी विधियां दी हैं जो आधारभूत रूप अस्वस्थता, कुछ बीमारी हो गई हो। मातृत्वमय हो जाओगी। हर किसी से 215 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारा संबंध ममता का हो जाएगा - अधिक करुणा घटेगी, अधिक प्रेम घटित होगा। लेकिन स्तनों के निकट इस एकाग्रता को बहुत ही शिथिलतापूर्वक साधना चाहिए, तनाव से भरकर नहीं । उसके लिए यदि तुम तनाव से भर जाओ तो तुम्हारे और स्तनों के बीच में एक विभाजन हो जाएगा । शिथिल होकर स्तनों में विलीन हो जाओ और अनुभव करो कि तुम कहीं भी नहीं हो, केवल स्तन ही हैं। यदि पुरुष को यही प्रयोग करना हो तो उसे काम-केंद्र के साथ करना होगा, स्तनों के साथ नहीं । इसीलिए हर कुंडलिनी योग में पहले चक्र का महत्व है। पुरुष को जननेंद्रिय की जड़ पर चित्त को एकाग्र करना पड़ेगा — उसकी सृजनात्मकता वहां है, वहां वह धनात्मक है। और इसे सदा स्मरण रखना कभी भी किसी ऋणात्मक बिंदु पर चित्त को एकाग्र मत करना क्योंकि उसके पीछे हर नकारात्मक चीज चली आएगी। धनात्मक के पीछे ही विधायक चीज चली आएगी। जब पुरुष और स्त्री का मिलन होता है, तो ये जो दो ध्रुव हैं - पुरुष का ऊर्ध्वभाग ऋणात्मक होता है और निम्न भाग धनात्मक होता है; स्त्री में ऋणात्मक भाग नीचे होता है और ऊर्ध्वभाग धनात्मक होता है— ऋणात्मक और धनात्मक, ये दो ध्रुव मिलते हैं और एक वर्तुल निर्मित हो जाता है। वह वर्तुल आनंदपूर्ण है, लेकिन सामान्यतः वह नहीं बनता। सामान्यतः काम-कृत्य में वर्तुल नहीं बनता - इसीलिए सेक्स से तुम इतने ध्यान की विधियां आकर्षित भी होते हो, और विकर्षित भी उसके लिए तुम इतनी इच्छा करते हो, इतनी जरूरत तुम्हें महसूस होती है, इतनी तुम उसकी मांग करते हो, लेकिन जब वह तुम्हें दे दिया जाता है, जब वह उपलब्ध होता है, तो तुम निराश हो जाते हो - कुछ भी होता नहीं। यह तभी संभव है जब दोनों शरीर अत्यंत शिथिल हों, बिना किसी भय और बिना किसी प्रतिरोध के एक-दूसरे के प्रति खुले हों; इतना समग्र स्वीकार हो कि दोनों विद्युत आपस में मिलकर एक वर्तुल बन सकें। फिर एक अद्भुत घटना घटती है... तंत्र ने इसका उल्लेख किया है, और तुमने शायद इस घटना के विषय में सुना भी न हो - यह सबसे अद्भुत घटना है - जब दो प्रेमी वास्तव में मिलते हैं और एक वर्तुल बनता है, तो एक त्वरित घटना घटती है। एक क्षण के लिए प्रेमी प्रेमिका बन जाता है और प्रेमिका प्रेमी बन जाती है, और अगले क्षण, प्रेमी फिर से प्रेमी बन जाता है और प्रेमिका फिर से प्रेमिका बन जाती है। पुरुष एक क्षण के लिए स्त्री बन जाता है, और तब स्त्री एक क्षण के लिए पुरुष बन जाती है— क्योंकि वर्तुल घूम रहा है, ऊर्जा गति कर रही है और एक वर्तुल बन गई है। तो ऐसा होगा कि कुछ मिनट के लिए पुरुष सक्रिय होगा और फिर वह शिथिल हो जाएगा और स्त्री सक्रिय हो जाएगी। इसका अर्थ हुआ कि अब पुरुष ऊर्जा स्त्री के शरीर में प्रवेश कर गई और वह सक्रिय हो जाएगी, और पुरुष निष्क्रिय हो जाएगा। और यह चलता रहेगा। साधारणतः तुम पुरुष होते हो या स्त्री होते हो । गहन प्रेम में, गहन संभोग में, ऐसा होगा कि कुछ क्षण के लिए तुम स्त्री बन जाओगे, और स्त्री पुरुष बन जाएगी। और यह अनुभूति होगी, सघन अनुभूति होगी, और इसका बोध होगा कि निष्क्रियता परिवर्तन लाती है । जीवन में एक लय है; हर चीज में लय है। तुम एक श्वास लेते हो, श्वास भीतर जाती है— फिर कुछ सैकेंड के लिए वह रुक जाती है, कोई गति नहीं होती । तब फिर वह चलती है, बाहर जाती है - और फिर रुकती है, एक अंतराल आता है, कोई गति नहीं होती, उसके बाद फिर गति होती है। गति, अ-गति, गति । तुम्हारा हृदय धड़क रहा है— एक धड़कन, अंतराल दूसरी धड़कन, अंतराल । धड़कन का अर्थ है— सक्रियता; अंतराल का अर्थ है— निष्क्रियता । धड़कन का अर्थ है— पुरुष, धड़कन न होने का अर्थ है स्त्री । जीवन लय है। जब स्त्री और पुरुष मिलते हैं तो एक वर्तुल बन जाता है: दोनों के लिए ही बीच में अंतराल आएंगे। तुम एक स्त्री हो और अचानक एक अंतराल आएगा, तुम स्त्री नहीं रहोगी, पुरुष बन जाओगी। तुम पुरुष और फिर स्त्री और फिर पुरुष बनते रहोगे। और जब ये अंतराल महसूस हों तो तुम अनुभव कर सकते हो कि तुमने एक वर्तुल उपलब्ध कर लिया। 2 216 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा: जब ऐसे आलिंगन में तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की तरह कंपने लगें तो इस कंपन में प्रवेश करो। नहीं करने देते, क्योंकि तुम्हारे शरीरों को यदि बहुत गतिशील होने दिया जाए तो काम - कृत्य तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगा। जब वह काम-केंद्र तक ही सीमित हो तो तुम उसे नियंत्रण कर सकते हो । मन नियंत्रक बना रह सकता है। जब वह पूरे शरीर पर फैल जाता है, तब तुम उसे नियंत्रित नहीं कर सकते। शायद तुम कंपने लगो, शायद तुम चीखने लगो, और एक बार शरीर नियंत्रण अपने हाथ में ले ले तो फिर तुम शरीर को नियंत्रित 217 प्रेम में ऊपर उठना “जब ऐसे आलिंगन में”... अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी के साथ ऐसे प्रगाढ़ मिलन में... "तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की तरह कंपने लगें तो इस कंपन में प्रवेश करो। " हम तो भयभीत हो गए हैं: संभोग करते समय भी तुम अपने शरीरों को बहुत गति संभोग में कंपना नहीं कर सकोगे। हम गतियों का दमन कर लेते हैं। विशेषकर स्त्रियों के लिए सारे संसार भर में हमने सारी गति, सारे कंपन का निषेध किया है। वे लाश की तरह पड़ी रहती हैं। उनके साथ कुछ कर रहे हो, वे तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं कर रहीं। वे तो बस निष्क्रिय साझेदार हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? संसार भर में पुरुष स्त्री को इस तरह क्यों दबाता है ? कारण भय है- क्योंकि एक बार स्त्री का शरीर आविष्ट हो जाए तो अकेले एक पुरुष के लिए उसे संतुष्ट कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि स्त्री एक शृंखला में अनेक बार यौन-सुख के शिखर को उपलब्ध हो सकती है। पुरुष ऐसा नहीं कर सकता। पुरुष एक बार ही यौन-सुख के शिखर को छू सकता है, स्त्री अनेक बार यह शिखर छू सकती है। स्त्रियों के ऐसे अनुभव के कई विवरण मिले हैं। कोई भी स्त्री एक शृंखला में तीन-तीन बार शिखर अनुभव को प्राप्त हो सकती है, लेकिन पुरुष को यह अनुभव Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां एक ही बार प्राप्त हो सकता है। और पुरुष बुनियादी इकाई यौन-कोशिका ही रहती ब्रह्मांड के हिस्से हो जाओगे। वह क्षण के संभोग के शिखर-अनुभव पर पहुंचने है। जब तुम पूरे शरीर में कंपते हो तो यह विराट सृजन का है। ठोस शरीरों की भांति से स्त्री और-और शिखर-अनुभव के लिए तुम्हारा और तुम्हारी प्रेमिका का ही मिलन तुम विलीन हो गए। और तुम तरल हो उत्तेजित होती है, तैयार होती है। तब बात नहीं रह जाता। तुम्हारे भीतर भी हर गए-एक-दूसरे में बहने लगे। मन खो कठिन हो जाती है। फिर कैसे इसे संभाला कोशिका अपनी विपरीत कोशिका से मिल गया, भेद खो गया। तुम एकरूपता को पा जाए? रही है। कंपन से इसका पता चलता है। गए। कंपो! तरंगायित होओ! अपने शरीर के यह कंपन पाशविक लगेगा, लेकिन मनुष्य यह अद्वैत है। और यदि तुम इस अद्वैत अणु-अणु को नाचने दो, और यह नृत्य एक पशु ही तो है, और इसमें कोई गलत को अनुभव न कर पाओ तो अद्वैत के सभी दोनों के लिए हो। प्रेमिका भी नाच रही हो, बात नहीं है। दर्शनशास्त्र व्यर्थ हैं। वे शब्द मात्र हैं। जब हर अणु तरंगायित हो रहा हो। तभी तुम इस कंपन में प्रवेश कने, और कंपते तुम अद्वैत के इस अस्तित्वगत क्षण को दोनों का मिलन हो सकता है, और तब समय अलग मत रहो। दर्शक मत बने जान जाओ, तभी उपनिषदों को समझ वह मिलन बौद्धिक नहीं होगा। वह तुम्हारी रहो, क्योंकि मन दर्शक है। अलग मत सकते हो। तभी तुम ऋषियों को समझ जैविक ऊर्जाओं का मिलन होगा। खड़े रहो! कंपन ही हो जाओ, कंपन ही सकते हो-कि जब वे ब्रह्मांडीय अद्वैत कंपना बिलकुल अद्भुत है क्योंकि जब बन जाओ। सब भूल जाओ और कंपन ही की, पूर्णता की बात करते हैं तो क्या कह अपने संभोग में तुम कंपते हो तो ऊर्जा पूरे - बन जाओ। ऐसा नहीं कि तुम्हारा शरीर रहे हैं। फिर तुम जगत से भिन्न नहीं होते, शरीर में बहने लगती है, ऊर्जा पूरे शरीर में कंप रहा है: तुम कंप रहे हो, तुम्हारे पूरे विजातीय नहीं होते। फिर अस्तित्व तुम्हारा तरंगायित होती है। तब शरीर की हर प्राण कंप रहे हैं। तुम कंपन मात्र ही बन घर बन जाता है। और जब यह भाव पैदा कोशिका उसमें भाग लेती है। हर कोशिका जाओ। फिर दो शरीर, दो मन नहीं रहते। हो जाए कि “अब अस्तित्व मेरा घर है," जीवित हो जाती है क्योंकि हर कोशिका शुरू-शुरू में दो कंपती हुई ऊर्जाएं होती फिर सब चिंताएं खो जाती हैं। फिर कोई काम-कोशिका है। हैं, लेकिन अंत में बस एक वर्तुल बचता दुख, कोई संघर्ष, कोई द्वंद्व नहीं रहता। जब तुम पैदा हुए थे, तो दो यौन है-दो नहीं। इसी को लाओत्सू ताओ कहते हैं, शंकर कोशिकाओं का मिलन हुआ और तुम्हारा इस वर्तुल में क्या होगा? एकः तुम अद्वैत कहते हैं। इसके लिए तुम अपना होना घटित हुआ, तुम्हारे शरीर का निर्माण एक अस्तित्वगत शक्ति के हिस्से हो शब्द चुन ले सकते हो, लेकिन गहन हुआ। वे दो काम-कोशिकाएं तुम्हारे शरीर जाओगे-सामाजिक मन के नहीं वरन आलिंगन के द्वारा इसे अनुभव करना में सब ओर हैं। वे प्रतिगुणित होती गईं अस्तित्वगत शक्ति के। तुम पूरे ब्रह्मांड के सरल है। जीवंत होओ, कंपो, और कंपन और प्रतिगुणित होती गईं, लेकिन तुम्हारी हिस्से हो जाओगे। उस कंपन में तुम पूरे मात्र ही बन जाओ।3 218 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि व ने कहा : मिलन का स्मरण करने से भी, आलिंगन के बिना ही रूपांतरण होता है। एक बार तुम पिछली दो विधियों को जान जाओ तो साथी की भी जरूरत नहीं है। तुम यौन - कृत्य का स्मरण करने भर से ही उसमें प्रवेश कर सकते हो। लेकिन पहले तुम्हें अनुभूति होनी चाहिए। तुम्हें अनुभूति हो जाए तो साथी के बिना भी तुम प्रेम का आत्म-वर्तुल तुम होते हो, और तुम्हारे साथी के लिए तुम नहीं होते: केवल वही होता है या होती है। वह अद्वैत तुम्हारे भीतर केंद्रित हो गया; साथी अब नहीं बचा। और स्त्रियों के लिए इसे अनुभव करना सरल है क्योंकि वे सदा आंखें बंद करके ही संभोग करती हैं। कृत्य में प्रवेश कर सकते हो। यह थोड़ा कठिन है, लेकिन यह घटित होता है । और जब तक ऐसा न हो जाए, तुम निर्भर ही रहते हो : एक निर्भरता निर्मित हो जाती है। ऐसा कई कारणों से होता है। यदि तुम्हें अनुभूति हो गई हो, यदि तुमने उस क्षण को जान लिया हो जब तुम नहीं थे वरन एक तरंगायित ऊर्जा ही थी — तुम एक हो गए थे, और साथी के साथ एक वर्तुल बन गया था— उस क्षण साथी था ही नहीं। उस क्षण में केवल प्रेम में ऊपर उठना 219 इस विधि को करते हुए, अच्छा हो यदि तुम अपनी आंखें बंद कर लो। तब वर्तुल का एक अंतर्भाव ही होता है, अद्वैत का एक अंतर्भाव ही होता है । फिर बस उसका स्मरण करो। अपनी आंखें बंद कर लो; लेट जाओ जैसे कि तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ हो। बस स्मरण करो और अनुभव करने लगो। तुम्हारा शरीर कंपने और तरंगायित होने लगेगा। इसे होने दो! बिलकुल भूल जाओ कि दूसरा व्यक्ति साथ नहीं है। ऐसे गति करो जैसे कि दूसरा मौजूद हो। बस शुरू में ही यह 'जैसे कि ' होता है। एक बार तुम जान जाओ तो यह 'जैसे कि' नहीं रहता । फिर दूसरा मौजूद होता है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की विधियां ऐसे गति करो, जैसे कि तुम सच ही अस्तित्व ही तुम्हारी प्रेमिका, तुम्हारा प्रेमी किसी के साथ एक हो गए हो। और तब संभोग कृत्य में उतर रहे हो। वह सब कुछ बन जाता है-और तब इस विधि का एकरूपता का यह भाव साथी से मुक्त करो जो तुमने अपने साथी के साथ किया उपयोग लगातार किया जा सकता है, और किया जा सकता है और पूरे अस्तित्व के होता। चीखो, हिलो, कंपो। जल्दी ही व्यक्ति अस्तित्व के साथ सतत मिलन में साथ उपयोग में लाया जा सकता है। तुम ऊर्जा का वर्तुल बन जाएगा, और यह रह सकता है। और फिर तुम इस प्रयोग को किसी वृक्ष के साथ, चांद के साथ, किसी वर्तुल चमत्कारिक है। जल्दी ही तुम्हें दूसरे आयामों में भी कर सकते हो। सुबह भी चीज के साथ काम-कृत्य में हो सकते लगेगा कि वर्तुल बन गया, लेकिन अब टहलते हुए तुम इसे कर सकते हो। फिर हो। एक बार तुम जान जाओ कि इस यह वर्तुल किसी पुरुष या स्त्री के साथ तुम्हारा हवा से, और उगते हुए सूरज से, वर्तुल को कैसे निर्मित करना है, तो यह नहीं बना। यदि तुम पुरुष हो तो पूरा जगत और सितारों से, और वृक्षों से मिलन होता किसी भी चीज के साथ निर्मित किया जा स्त्री बन जाएगा; यदि तुम स्त्री हो तो पूरा है। रात सितारों को एक टक देखते हुए तुम सकता है—बिना किसी चीज के भी जगत पुरुष बन जाएगा। अब तुम स्वयं यह प्रयोग कर सकते हो। चांद की ओर निर्मित किया जा सकता है। अस्तित्व के साथ एक गहन मिलन में हो, देखते हुए तुम यह प्रयोग कर सकते हो। यह वर्तुल तुम अपने ही भीतर निर्मित और दूसरा, जो द्वार है, अब मौजूद नहीं एक बार तुम जान जाओ कि कैसे यह होता कर सकते हो क्योंकि पुरुष पुरुष और स्त्री है तो तुम पूरे अस्तित्व के साथ संभोग में दोनों है और स्त्री भी स्त्री व पुरुष दोनों है। दूसरा बस एक द्वार है। किसी स्त्री से उतर सकते हो। तुम दोनों ही हो, क्योंकि तुम दो के द्वारा संभोग करते हुए, वास्तव में तुम अस्तित्व लेकिन मनुष्यों के साथ शुरू करना पैदा हुए थे। तुम पुरुष और स्त्री दोनों के से ही संभोग कर रहे हो। स्त्री बस एक अच्छा है क्योंकि वे तुम्हारे निकटतम द्वारा निर्मित हुए थे, इसलिए तुम्हारा आधा द्वार है, पुरुष बस एक द्वार है। दूसरा हैं-ब्रह्मांड के निकटतम अंश हैं। लेकिन हिस्सा विपरीत ध्रुव का रहता है। तुम सब व्यक्ति समग्र के लिए एक द्वार ही है, वे परिहार्य हैं। तुम एक छलांग ले सकते कुछ पूरी तरह से भूल सकते हो, और लेकिन तुम इतनी जल्दी में हो कि तुम्हें हो और द्वार को बिलकुल भूल सकते हो। वर्तुल तुम्हारे भीतर निर्मित किया जा कभी इसका बोध ही नहीं होता। यदि तुम मिलन का स्मरण करने से भी रूपांतरण सकता है। एक बार वर्तुल तुम्हारे भीतर मिलन में बने रहो, घंटों तक गहन होता है।" और तुम रूपांतरित हो जाओगेः निर्मित हो जाए-तुम्हारा पुरुष तुम्हारी स्त्री आलिंगन में आबद्ध रहो, तो तुम दूसरे को तुम नए हो जाओगे। के साथ मिले, भीतर की स्त्री भीतर के भूल जाओगे और वह बस समग्र का ही तंत्र कहता है : इसमें समग्रता से प्रवेश पुरुष के साथ मिले तो तुम अपने भीतर विस्तार बन जाएगा। एक बार इस विधि करो। अपने को, अपनी सभ्यता को, ही आलिंगनबद्ध हो गए। और जब यह का पता चल जाए तो तुम अकेले भी अपने धर्म को, अपनी संस्कृति को, अपनी वर्तुल निर्मित होता है तभी वास्तविक इसका उपयोग कर सकते हो, और अकेले धारणाओं को बस भूल जाओ; सब कुछ ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। वरना तो सब इसका उपयोग कर सको तो यह तुम्हें एक भूल जाओ। बस संभोग में उतर जाओः ब्रह्मचर्य केवल विकृतियां हैं, और तब वे नई स्वतंत्रता दे देती है-दूसरे से उसमें समग्रता से चले जाओ; कुछ भी अपनी स्वयं की समस्याएं निर्मित कर लेते स्वतंत्रता। बाहर मत छोड़ो। बिलकुल निर्विचार हो हैं। जब भीतर यह वर्तुल निर्मित होता है, वास्तव में, ऐसा होता है कि पूरा जाओ। तभी यह बोध होता है कि तुम तो तुम मुक्त हो जाते हो। 4 220 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा खंड चौथा खंड ध्यान में बाधाएं 221 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं दो कठिनाइयां राष्ट्रपति बन सकते हो, देश के प्रधानमंत्री बन सकते हो।" इन विचारों को लेकर वह यात्रा शुरू करता है और जैसे-जैसे वह सफल होता है, उसका अहंकार बड़े से बड़ा होता जाता है। ___ हर तरह से अहंकार सबसे बड़ा रोग है , ध्यान के मार्ग पर केवल दो कठिनाइयां हैं: एक है अहंकार। समाज के द्वारा, जो मनुष्य को लग सकता है। यदि तुम परिवार के द्वारा, स्कूल के द्वारा, चर्च के द्वारा, अपने आसपास हर किसी के द्वारा सफल हो जाओ तो तुम्हारा अहंकार बड़ा तुम सतत अहंकारी होने के लिए तैयार किए जाते हो। आधुनिक मनोविज्ञान भी हो जाता है-यह खतरा है, क्योंकि तब अहंकार को मजबूत करने पर ही आधारित है। __ तुम्हें एक बड़ी चट्टान हटानी होगी जो कि रास्ता रोके हुए है। या यदि अहंकार छोटा सकते हो। किसी भी क्षेत्र में चाहे है, तुम सफल नहीं हुए, तुम असफल अहंकार व्यापार हो, चाहे राजनीति हो, कोई भी सिद्ध हुए, तब तुम्हारा अहंकार एक घाव व्यवसाय हो तुम्हें अत्यंत आक्रामक बन जाएगा। फिर वह दुखता है, फिर वह याधुनिक मनोविज्ञान और व्यक्तित्व की जरूरत है, और हमारा पूरा हीनता की एक ग्रंथि निर्मित कर देता । आधुनिक शिक्षा की पूरी धारणा समाज बच्चे में आक्रामक व्यक्तित्व है-तब फिर उससे एक समस्या पैदा हो ही यह है कि जब तक व्यक्ति के पास निर्मित करने में लगा हुआ है। प्रारंभ से ही जाती है। तुम किसी भी चीज में जाने से, बहुत ही.मजबूत अहंकार न हो तब तक हम उसे कहना शुरू कर देते हैं, "अपनी ध्यान से भी, सदा भयभीत रहते हो, वह जीवन में संघर्ष नहीं कर पाएगा, जहां कक्षा में प्रथम आओ।" जब बच्चा कक्षा क्योंकि तुम जानते हो कि तुम असफल इतना संघर्ष है कि यदि तुम विनम्र हो तो में प्रथम आ जाता है तो हर कोई उसकी व्यक्ति हो, कि तुम असफल ही कोई भी तुम्हें एक ओर धकेल देगा; तुम प्रशंसा करता है। तुम क्या कर रहे हो? होओगे-यह तुम्हारा मन बन गया है। हमेशा पीछे ही रहोगे। इस प्रतियोगी संसार तुम शुरू से ही उसके अहंकार को पोषित तुम हर जगह असफल हुए हो, और ध्यान में लड़ने के लिए तुम्हें लोहे-सा मजबूत कर रहे हो। तुम उसे एक निश्चित तो इतनी बड़ी चीज है...तुम सफल हो ही अहंकार चाहिए। तभी तुम सफल हो महत्वाकांक्षा दे रहे होः “तम देश के नहीं सकते। 223 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं यदि इस धारणा के साथ तुम ध्यान में लेकिन मेरे लिए यह बिलकुल भी अभीप्सा बन जाते हैं कि वह कौन है। यह प्रवेश करो-कि असफलता हाथ लगेगी आलोचना नहीं है। यह तो सीधा-सादा स्वाभाविक है। अब उसे अपनी सीमाओं ही, कि यही तुम्हारी नियति है, कि यह सत्य है। हां, धर्म की खोज फिर से गर्भ का बोध होने लगता है-अपने शरीर का, तुम्हारा भाग्य है-तब निश्चित ही तुम की खोज है। धर्म की खोज फिर से इस पूरे अपनी जरूरतों का। कभी वह सुखी होता सफल नहीं हो सकते। यदि अहंकार बड़ा अस्तित्व को ही एक गर्भ बना लेने की है, कभी दुखी होता है; कभी वह तृप्त हो तो तुम्हें बाधा देता है। और अहंकार खोज है। होता है, कभी अतृप्त होता है; कभी उसे बहुत छोटा हो तो एक घाव बन जाता है, बच्चा मां के साथ पूरी तरह लय में भूख लगी होती है, वह रो रहा होता है और फिर वह भी बाधा देता है। दोनों ही बातों में होता है। बच्चे की मां के साथ लय कभी मां का कोई पता नहीं होता; कभी वह मां अहंकार एक समस्या है।। नहीं टूटती। बच्चे को मां से भिन्न होने का के स्तनों से लगा होता है, और फिर से मां बोध नहीं होता। यदि म स्वस्थ है तो के साथ एकरूपता का आनंद लेता है। के गर्भ में हर बच्चा बिलकुल बच्चा स्वस्थ है; यदि मां बीमार है तो लेकिन अब कई भाव, और कई दशाएं हैं, आनंदित होता है। निश्चित ही बच्चा बीमार है। यदि मां उदास है तो और धीरे-धीरे वह अलगाव अनुभव करने वह उससे बेखबर होता है, उसका उसे बच्चा उदास है; यदि मां प्रसन्न है तो बच्चा लगेगा। एक अलगाव हो गया, गठबंधन कोई बोध नहीं होता। वह अपने आनंद के प्रसन्न है। यदि मां नाच रही है तो बच्चा टूट गया। मां के साथ उसका पूरी तरह साथ इतना एकरूप होता है कि पीछे जानने नाच रहा है; यदि मां शांत बैठी हुई है तो गठबंधन था; अब वह हमेशा अलग वाला कोई नहीं बच रहता। आनंद उसका बच्चा शांत है। बच्चे की अभी अपनी रहेगा। और उसे खोजना होगा कि वह स्वभाव होता है, और ज्ञाता व ज्ञेय के बीच स्वयं की सीमाएं नहीं हैं। यह शुद्धतम कौन है। जीवन भर व्यक्ति यही खोजने कोई भेद नहीं होता। तो निश्चित ही बच्चे आनंद है, लेकिन इसे खोना पड़ता है। का प्रयास करता रहता है कि वह कौन है। को बोध नहीं होता कि वह आनंदित है। बच्चा पैदा होता है, और अचानक वह यह सबसे बुनियादी प्रश्न है। तुम्हें बोध तभी होता है जब तुम कुछ खो केंद्र से परे फेंक दिया जाता है। अचानक बच्चे को पहले 'मेरे' का बोध होता है, देते हो। वह धरती से, मां से उखड़ जाता है। उसके फिर 'मुझ' का, फिर 'तू' का, और फिर 'मैं' यह ऐसा ही है। बिना कुछ खोए, उसे सहारे खो जाते हैं, और उसे पता नहीं होता का। ऐसे बात आगे चलती है। ठीक ऐसी जानना बहुत कठिन है क्योंकि जब तुमने कि वह कौन है। जब वह मां के साथ था प्रक्रिया है, ठीक इसी शृंखला में। पहले उसे खोया ही नहीं तो तुम उसके साथ पूरी तो जानने की कोई जरूरत भी नहीं उसे 'मेरे' का अनुभव होता है। इस पर तरह एकरूप हो। कोई भेद ही नहीं है: थी—वह सब कुछ था, और जानने की ध्यान दो, क्योंकि यही तुम्हारी, तुम्हारे द्रष्टा और दृश्य एक हैं; ज्ञाता और ज्ञेय कोई जरूरत नहीं थी, कोई भेद नहीं था। अहंकार की संरचना है। पहले बच्चे को एक हैं। कोई 'तू' नहीं था, इसलिए किसी 'मैं' का 'मेरे' का बोध होता है-'यह खिलौना मेरा __ हर बच्चा गहन आनंदपूर्ण दशा में होता कोई प्रश्न नहीं था। सत्य अविभाजित था। है, यह मां मेरी है।' वह कब्जा करने लगता है। मनोवैज्ञानिक भी इससे सहमत होते हैं। अद्वैत था, शुद्ध अद्वैत था। है। कब्जे वाला मन पहले प्रवेश करता है; वे कहते हैं कि धर्म की पूरी खोज मां के लेकिन एक बार बच्चा पैदा हो जाए, कब्जे का भाव बुनियादी है। इसीलिए सभी गर्भ को फिर से खोज लेने के अतिरिक्त और उसकी नाभि के तंतु काट दिए जाएं धर्म कहते हैं: अपरिग्रही हो जाओ, और कुछ भी नहीं है। वे इसे धर्म की और वह अपने आप से श्वास लेने लगे तो क्योंकि परिग्रह के साथ ही नरक शुरू हो आलोचना की तरह उपयोग करते हैं, अचानक उसके पूरे प्राण यह जानने की जाता है। 224 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं छोटे बच्चों को देखोः कितने द्वेषपूर्ण, बाहर हैं, वे 'तू' हैं। दूसरा स्पष्ट हो जाता उतना ही यह पूरा अस्तित्व तुम्हारा हिस्सा कितने पकड़ के बैठे हैं! हर बच्चा बाकी है; अब चीजें विभाजित होने लगती हैं। हो जाएगा, और तुम पूरे अस्तित्व के हिस्से सब से सब कुछ खींच लेने की और दूसरों जगत एक है, जगत एकता है। कुछ भी हो जाओगे। एक बार तुम समझ जाओ कि से अपने खिलौनों को बचाने की चेष्टा कर विभक्त नहीं है। हर चीज बाकी दूसरी हम एक-दूसरे के सदस्य हैं, तो अचानक रहा है। और तुम्हें ऐसे बच्चे मिलेंगे जो चीजों से जुड़ी हुई है; यह एक गहन दृष्टि बदल जाती है। तब ये वृक्ष विजातीय बहत हिंसक हैं, दूसरों की आवश्यकताओं संबद्धता है। नहीं रहते; वे लगातार तुम्हारे लिए भोजन के प्रति लगभग उदासीन। यदि एक बच्चा तुम पृथ्वी से जुड़े हो, वृक्षों से जुड़े हो, तैयार कर रहे हैं। जब तुम श्वास भीतर अपने खिलौने के साथ खेल रहा हो और सितारों से जुड़े हो; सितारे तुमसे जुड़े हैं, लेते हो तो ऑक्सीजन भीतर लेते हो, जब कोई दूसरा बच्चा आ जाए तो तुम अडोल्फ सितारे वृक्षों से जुड़े हैं, नदी से जुड़े हैं, तुम श्वास छोड़ते हो तो कार्बन डाई हिटलर को, चंगेज खान को, नादिरशाह पर्वतों से जुड़े हैं। सबकुछ अंतर्संबंधित है। ऑक्साइड छोड़ते हो; वृक्ष कार्बन डाई को देख सकते हो। वह अपने खिलौने को कुछ भी अलग-थलग नहीं है; कुछ भी ऑक्साइड भीतर लेते हैं और ऑक्सीजन पकड़ लेगा; अब वह चोट करने को तैयार अलग नहीं हो सकता। अलगाव संभव ही छोड़ते हैं-एक अहर्निश मिलन घट रहा है, लड़ने को तैयार है। यह साम्राज्य का नहीं है। है। हम एक लय में हैं। सत्य एक इकाई प्रश्न है, आधिपत्य का प्रश्न है। हर क्षण तुम श्वास ले रहे हो-श्वास है; और 'मुझ' व 'तू' के विचार के साथ ही . मालकियत का भाव पहले आता है; भीतर लेते हो, श्वास बाहर छोड़ते हम सत्य से बाहर निकल गिरते हैं। और यही बुनियादी विष है। और बच्चा कहने हो–अस्तित्व के साथ एक सतत सेतु एक बार भीतर कोई गलत धारणा बैठ जाए लगता है, "यह मेरा है।" बना हुआ है। तुम खाते हो, तो अस्तित्व तो, तुम्हारी पूरी दृष्टि ही उलटी हो जाती एक बार 'मेरा' प्रवेश कर जाए तो तुम तुममें प्रवेश करता है; तुम मल-त्याग है।. सबके प्रतिस्पर्धी बन जाते हो। एक बार करते हो, वह खाद बन जाता है-वृक्ष पर पहले 'मुझ' फिर 'तू', और तब फिर 'मेरा' प्रवेश कर जाए, तो तुम्हारा जीवन लगा हुआ सेब कल तुम्हारे शरीर का एक प्रतिबिंब की भांति 'मैं' उठता है। "मैं' प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, द्वंद्व, हिंसा और हिस्सा बन जाएगा, और तुम्हारे शरीर का मालकियत का सबसे सूक्ष्मतम और आक्रमण का जीवन हो जाएगा। कुछ हिस्सा बाहर निकलेगा और खाद बन सुगठित रूप है। एक बार तुमने 'मैं' कह __'मेरे' के बाद का चरण है 'मुझ' का। जाएगा, वृक्ष के लिए भोजन बन दिया तो समझो पाप कर दिया। एक बार जब तुम्हारे पास ऐसा कुछ हो जिस पर तुम जाएगा...एक सतत आदान-प्रदान है। तुमने 'मैं' कह दिया तो तुम अस्तित्व से अपना दावा कर सको, तो अचानक यह यह एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता। जब पूरी तरह टूट गए–वास्तव में टूटोगे नहीं, विचार खड़ा होता है कि तुम अपनी सारी यह रुकता है, तो तुम मर जाते हो। वरना तो तुम मर ही जाओगे; लेकिन मालकियत के केंद्र हो। तुम्हारी मालकियत मृत्यु क्या है? -विभाजन है मृत्यु। अपने विचारों में तुम सत्य से बिलकुल टूट तुम्हारा साम्राज्य बन जाती है, और उस एकात्मता में होना जीवन है, और चुके हो। अब तुम सत्य के साथ सदा एक मालकियत के द्वारा 'मुझ' का एक नया एकात्मता में से बाहर निकल जाना मृत्यु संघर्ष में रहोगे। तुम अपनी ही जड़ों से विचार खड़ा होता है। है। तो जितना तुम सोचते हो,“मैं अलग लड़ने लगोगे। तुम अपने ही साथ लड़ने एक बार तुम 'मुझ' में व्यवस्थित हो हूं," उतने ही तुम कम संवेदनशील और लगोगे। जाओ, तो तुम स्पष्ट देख सकते हो कि अधिक मृत, मंद व दीन हो जाओगे। इसीलिए बुद्ध कहते हैं: “बहते हुए तुम्हारी एक सीमा है, और जो उस सीमा से जितना तुम भाव करो कि तुम संबंधित हो, तिनके की भांति हो जाओ।" बहता हुआ 225 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिनका तो तुम तभी हो सकते हो जब 'मैं' के विचार को बिलकुल छोड़ दोअन्यथा तुम बहता हुआ तिनका नहीं हो सकते; संघर्ष चलता रहेगा। यही कारण है कि जब तुम ध्यान के लिए आते हो तो बहुत कठिनाई होती है। यदि मैं शांत बैठने के लिए कहूं, तो तुम नहीं बैठ सकते — और कितनी सरल बात है । कोई सोचेगा, यह तो सबसे सरल काम है; इसको तो सिखाने की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए। बस व्यक्ति बैठे और बना रहे। लेकिन तुम बैठ नहीं रह सकते क्योंकि 'मैं' तुम्हें विश्राम का एक क्षण भी नहीं दे सकता। एक बार विश्राम का एक क्षण मिल जाए तो तुम सत्य को देख पाओगे। एक बार सत्य जान लिया गया, तो 'मैं' को गिरा दिया जाना होगा। तब वह बना नहीं रह सकता। तो 'मैं' तुम्हें कभी छुट्टी नहीं देता। तुम किसी पहाड़ पर, किसी ग्रीष्म सैरगाह पर चले जाओ तो वहां भी 'मैं' तुम्हें छुट्टी नहीं लेने देगा। तुम अपना रेडियो ले जाते हो, अपना टी वी सेट ले जाते हो; अपनी सभी समस्याएं तुम ले जाते हो और तुम व्यस्त बने रहते हो। वहां तुम विश्राम करने गए थे, लेकिन अपना ढर्रा वैसा का वैसा जारी रखते हो। तुम विश्राम नहीं करते। 'मैं' विश्राम नहीं कर सकता। वह जीता ही तनाव पर है। वह नए-नए तनाव निर्मित कर लेगा, नई-नई चिंताएं खड़ी कर लेगा; लगातार नई से नई परेशानियां पैदा करता रहेगा, वह तुम्हें विश्राम नहीं करने देगा। विश्राम का एक क्षण भर मिल जाए ध्यान में बाधाएं और 'मैं' का पूरा भवन ढहने लगता है— क्योंकि वास्तविकता इतनी सुंदर है और 'मैं' इतना असुंदर । व्यक्ति व्यर्थ ही संघर्ष किए चला जाता है। तुम उन चीजों के लिए लड़ रहे हो जो अपने आप से होने ही वाली हैं। व्यर्थ ही तुम लड़ रहे हो। तुम ऐसी चीजों की चाह कर रहे हो जो बिना चाहे भी तुम्हारी होने वाली हैं। वास्तव में, चाहने से तो तुम उनको खो दोगे। इसीलिए तो बुद्ध कहते हैं: “धारा के साथ बहो । उसे तुम्हें सागर की ओर ले जाने दो।” ‘मेरा', 'मुझ’, 'तू', 'मैं’– यह जाल है । और यह जाल दुख, विक्षिप्तता और पागलपन पैदा करता है। अब समस्या यह है कि बच्चे को इससे गुजरना होगा, क्योंकि वह कौन है, यह उसको पता नहीं और उसे कुछ पहचान चाहिए - चाहे झूठी पहचान ही सही, पर वह भी पहचान न होने से तो बेहतर है। उसे कोई पहचान चाहिए। उसे जानना है कि ठीक-ठीक वह है कौन, तो एक झूठा केंद्र निर्मित हो जाता है। 'मैं' तुम्हारा वास्तविक केंद्र नहीं है। वह एक झूठा केंद्र है— उपयोगी है, लेकिन काल्पनिक, तुम्हारे द्वारा ही बनाया हुआ । उसका तुम्हारे वास्तविक केंद्र से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारा जो वास्तविक केंद्र है वही समष्टि का भी केंद्र है। तुम्हारा वास्तविक स्व सभी का स्व है। केंद्र पर पूरा अस्तित्व एक है-ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश के स्त्रोत पर, सूर्य में, सभी किरणें एक हैं। वे जितनी दूर चली जाती हैं, उतनी ही एक-दूसरे से भी दूर हो जाती हैं। तुम्हारा वास्तविक केंद्र केवल तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, वह समस्त का केंद्र भी है। लेकिन हमने अपने स्वयं के छोटे-छोटे केंद्र बना लिए हैं - होममेड, स्वनिर्मित | उनकी जरूरत है, क्योंकि बच्चा पैदा होता है बिना किसी सीमा के, बिना किसी खयाल के कि वह है कौन। यह जिंदा रहने के लिए एक अनिवार्यता है। वह जिंदा कैसे रहेगा? उसे कोई नाम देना होगा; वह कौन है— इस बात का उसे खयाल देना होगा । निश्चित ही यह खयाल बाहर से आता है : कोई कहता है तुम सुंदर हो, कोई कहता है तुम बुद्धिमान हो, कोई कहता है तुम कितने जीवंत हो। लोग जो कहते हैं, वे खबरें तुम इकट्ठी कर लेते हो । लोग तुम्हारे बारे में जो कहते हैं, उस सबको इकट्ठा करके तुम एक निश्चित छवि बना लेते हो। तुम कभी अपने भीतर, उसकी ओर नहीं झांकते जो तुम हो । यह छवि तो झूठी होने ही वाली है— क्योंकि कोई और नहीं जान सकता कि तुम कौन हो, कोई और नहीं बता सकता कि तुम कौन हो। तुम्हारी अंतर्वास्तविकता तुम्हारे अतिरिक्त किसी और के लिए उपलब्ध नहीं है। तुम्हारी अंतर्वास्तविकता तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी के लिए अभेद्य है। वहां बस तुम ही जा सकते हो। जिस दिन तुम्हें बोध होता है कि तुम्हारी पहचान झूठी है, जोड़-जाड़ कर इकट्ठी की हुई है, कि तुमने लोगों की धारणाएं इकट्ठी कर ली हैं... कभी जरा सोचो; बस शांत 226 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं बैठ जाओ और सोचो कि तुम कौन हो। जानते, तुम्हें किस तरह जान सकते हैं? वैयक्तिकता वास्तविक है। व्यक्तित्व कई खयाल उठेगे। बस उन्हें देखते रहो कि जरा देखो सब कैसे चल रहा है, कैसे उधार है; वास्तविकता, वैयक्तिकता, वे कहां से आ रहे हैं और तुम स्रोत को सब चलता रहता है, कैसे चीजें घटती तुम्हारी प्रामाणिकता कभी उधार नहीं हो खोज ले पाओगे। कुछ बातें तुम्हारी मां से रहती हैं : एक झूठ दूसरे झूठ की ओर ले सकती। कोई नहीं बता सकता कि तुम आई हैं काफी बातें, लगभग अस्सी से जाता है। तुम करीब-करीब ठगे जाते हो, कौन हो। नब्बे प्रतिशत। कुछ तुम्हारे पिता से आता ‘छले जाते हो। तुम ठगे जाते हो और कम से कम एक काम कोई दूसरा नहीं है, कुछ तुम्हारे स्कूल के शिक्षकों से आता जिन्होंने तुम्हें ठगा है उन्होंने शायद जानकर कर सकता कि तुम्हें इस बात का उत्तर दे है, कुछ तुम्हारे मित्रों से आता है, कुछ ऐसा न किया हो। शायद वे दूसरों द्वारा दे, कि तुम कौन हो। नहीं, तुम्हें, ही जाना समाज से आता है। बस देखो: तुम सब ठगे गए हों। तुम्हारे पिता, तुम्हारी मां, होगा, तुम्हें ही अपनी अंतस-सत्ता में गहरे चीजों को अलग-अलग कर पाओगे कि तुम्हारे शिक्षक दूसरों के द्वारा छले गए खोदना होगा। पहचान की, झूठी पहचान वे कहां से आ रही हैं। कुछ भी तुम से नहीं हैं-अपने पिताओं, अपनी माताओं, की पर्त-दर-पर्त को तोड़ना होगा। आता, एक प्रतिशत भी तुम से नहीं अपने शिक्षकों के द्वारा। और बदले में जब व्यक्ति स्वयं में प्रवेश करता है तो आता। यह कैसी पहचान है, जिसमें उन्होंने तुम्हें छला है। क्या तुम अपने भय लगता है, क्योंकि भीतर दुर्व्यवस्था तुम्हारा जरा भी योगदान नहीं? और एक बच्चों के साथ भी यही करने वाले हो? मच जाती है। किसी तरह तो तुम अपनी तुम ही हो जो योगदान कर सकते एक बेहतर संसार में जहां लोग अधिक झूठी पहचान बना पाए हो; उसके साथ थे–वास्तव में, सौ का सौ प्रतिशत। प्रतिभाशाली और अधिक सजग होंगे, वे तालमेल बिठाया है। तुम जानते हो तुम्हारा जिस दिन तुम यह समझ जाते हो, धर्म अपने बच्चों को बताएंगे कि पहचान नाम यह है कि वह है; तुम्हारे पास कुछ महत्वपूर्ण हो जाता है। जिस दिन तुम्हें यह बनाने का खयाल झूठा है: “उसकी प्रतिष्ठापत्र हैं, यूनिवर्सिटी के, कॉलेज के बोध होता है तुम अपनी स्व-सत्ता में प्रवेश जरूरत है, और हम तुम्हें दे रहे हैं, लेकिन प्रमाणपत्र हैं, मान-मर्यादा है, धन है, करने की कोई विधि, कोई उपाय खोजने यह तब तक के ही लिए है, जब तक तुम जायदाद है। स्वयं को परिभाषित करने के लगते हो, कि कैसे पता चले ठीक-ठीक, स्वयं ही न खोज लो कि तुम कौन हो।" कुछ उपाय हैं तुम्हारे पास। तुम्हारी एक वास्तव में अस्तित्वगत रूप से कि तुम . वह तुम्हारी वास्तविकता होगी। और निश्चित परिभाषा है-भले कुछ ही काम . कौन हो। अब बाहर से कोई छवि तुम जमा जितनी जल्दी तुम खोज लो कि तुम कौन की हो, लेकिन काम करती है। भीतर जाने नहीं करते, दूसरों से अपनी वास्तविकता हो, उतना ही अच्छा। इस विचार को तुम का अर्थ है: इस कारगर परिभाषा को को प्रतिबिंबित करने की मांग नहीं जितनी जल्दी गिरा दो, उतना ही अच्छा छोड़ना...तो अराजकता होगी। करते-बल्कि सीधे ही, तत्क्षण उससे क्योंकि उसी क्षण से तुम सच में जन्मोगे, इससे पहले कि तुम अपने केंद्र पर साक्षात्कार करने के, अपने स्वभाव में और सच में ही तुम वास्तविक व पहुंच सको, तुम्हें बड़ी अराजक दशा से प्रवेश करके वहां उसे अनुभव करने के प्रामाणिक होओगे। तुम एक स्वतंत्र व्यक्ति गुजरना होगा। इसीलिए भय उठता है। उपाय खोजने लगते हो। हो जाओगे। कोई भी भीतर नहीं जाना चाहता। लोग किसी को पूछने की क्या जरूरत है? जो खयाल हम दूसरों से इकट्ठे कर लेते सिखाते चले जाते हैं : “स्वयं को जानो;" और किससे तुम पूछ रहे हो ? वे अपने हैं वे हमें एक व्यक्तित्व देते हैं, और अपने हम सुनते हैं, लेकिन फिर भी कभी नहीं विषय में उतने ही अज्ञानी हैं जितने कि भीतर से जो जानना हमें मिलता है वह हमें सुनते। हम इसकी कोई परवाह नहीं लेते। अपने विषय में तुम। वे स्वयं को ही नहीं वैयक्तिकता देता है। व्यक्तित्व झूठ है, मन में एक खयाल-सा है कि एक 227 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं दुर्व्यव्यवस्था हो जाएगी और तुम उसमें होना। चीजों को बस देखो; उन्हें शब्द मत बन जाती हैं। ध्यान का अर्थ है: शब्दों के खो जाओगे, तुम उसमें फंस जाओगे। दो। उनकी उपस्थिति के प्रति सजग होओ, बिना जीना, किसी परिस्थिति में भाषारहित अराजकता के भय से हम बाहर की किसी लेकिन उन्हें शब्दों में मत बदलो। होकर जीना। कई बार सहज ही ऐसा हो भी चीज को पकड़े रहते हैं। लेकिन यह चीजों को बिना भाषा के रहने दो लोगों जाता है। जब तुम किसी के प्रेम में होते हो अपने जीवन को व्यर्थ करना ही है। 2 को बिना भाषा के रहने दो, परिस्थितियों तो ऐसा होता है। यदि तुम सच ही प्रेम में को बिना भाषा के रहने दो। यह असंभव हो, तो उपस्थिति महसूस होती है-कोई नहीं है; यह संभव और स्वाभाविक है। भाषा नहीं होती। जब भी दो प्रेमी वाचाल मन परिस्थिति जैसी अब है नकली है, बनाई एक-दूसरे के साथ बहुत घनिष्ठता में होते हुई है, लेकिन हम उसके इतने आदी हो हैं तो वे बहुत शांत हो जाते हैं। ऐसा नहीं है यान के मार्ग पर दूसरी बाधा गए हैं, वह इतनी यांत्रिक हो गई है कि कि अभिव्यक्त करने को कुछ है नहीं; । है-तुम्हारा लगातार अनुभव का शब्दों में जो रूपांतरण है, जो बल्कि अभिव्यक्त करने को तो अतिरेक में बड़बड़ाने वाला मन। तुम एक मिनट के अनुवाद है उसका हमें पता भी नहीं भाव हैं। लेकिन वहां कभी भी शब्द नहीं लिए भी चुप नहीं बैठ सकते, मन चलता। होते; और हो भी नहीं सकते। शब्द तभी बोलता चला जाता है: संगत-असंगत, जैसे सूर्योदय है। उसे देखने और उसे आते हैं जब प्रेम जा चुकता है। अर्थपूर्ण-अर्थहीन विचार चलते रहते हैं। शब्द देने के बीच का जो अंतराल है यदि दो प्रेमी कभी शांत न हों, यदि वे यह ट्रैफिक लगातार चलता रहता है और उसका तुम्हें कभी बोध नहीं होता। तुम सूर्य सदा बात ही कर रहे हों, तो यह इस बात सदा ही भीड़-भाड़ बनी रहती है। 3 को देखते हो, उसको अनुभव करते हो, का संकेत है कि प्रेम मर चुका। अब वे और तत्क्षण उसको शब्द दे देते हो। देखने शब्दों से उस रिक्तता को भर रहे हैं। जब म एक फूल को देखते हो और उसे और शब्द देने के बीच का जो भेद है वह प्रेम जीवित होता है तो शब्द नहीं होते, शब्द दे देते हो। तुम किसी व्यक्ति खो जाता है; उसका कभी अनुभव ही नहीं क्योंकि प्रेम की उपस्थिति ही इतनी को सड़क पार करते देखते हो और होता। उस अंतराल में, उस भेद में व्यक्ति अभिभूत करने वाली, और इतनी भेदक इस घटना को शब्द दे देते हो। मन हर को सजग हो जाना चाहिए। उसे इस तथ्य होती है कि भाषा और शब्दों के सभी बंध अस्तित्वगत चीज को एक शब्द में के प्रति सजग होना चाहिए कि सूर्योदय पार हो जाते हैं। और साधारणतया वे प्रेम अनुवादित कर लेता है, हर चीज शब्द में कोई शब्द नहीं है। यह एक तथ्य है, एक में ही पार होते हैं। बदल दी जाती है। ये शब्द अवरोध खड़ा उपस्थिति है, एक परिस्थिति है। मन ध्यान प्रेम का शिखर है : वह प्रेम है करते हैं, ये शब्द एक कारागृह बन जाते अनुभवों को यांत्रिक रूप से ही शब्दों में एक व्यक्ति की बजाय समस्त अस्तित्व के हैं। चीजों को, अस्तित्व को शब्दों में बदल लेता है। ये शब्द इकट्ठे हो जाते हैं प्रति। मेरे देखे, ध्यान उस अस्तित्व के रूपांतरित करने की ओर का यह जो प्रवाह और फिर अस्तित्व और चेतना के बीच साथ तुम्हारा जीवंत संबंध है जो तुम्हें चारों है, यही अवरोध है। ध्यानपूर्ण चित्त के अवरोध की तरह आते हैं। ओर से घेरे है। यदि तुम किसी भी लिए यह बाधा है। ध्यान का अर्थ है: शब्दों के बिना परिस्थिति के साथ प्रेम में हो सको, तो तुम तो ध्यानपूर्ण विकास की ओर पहली जीना, भाषारहित होकर जीना। फिर ये जो ध्यान में हो।... .. अनिवार्यता है अपने सतत शब्दीकरण के इकट्ठी की हुई स्मृतियां हैं, भाषागत समाज तुम्हें भाषा देता है, वह भाषा के प्रति सजग होना, और उसे रोकने में सक्षम स्मृतियां हैं, ये ध्यानपूर्ण विकास में बाधा बिना नहीं रह सकता; उसको भाषा की 228 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं जरूरत है। लेकिन अस्तित्व को भाषा की चेतना और अस्तित्व के मिलन को ध्यान फैलती है। जरूरत नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कहते हैं। भाषा की जरूरत है, वह अनिवार्य है, तुम भाषा के बिना जिओ। उसका उपयोग भाषा तो छोड़नी ही होगी। मेरा यह अर्थ लेकिन फिर तुम्हें हमेशा उसी में नहीं बने तो तुम्हें करना ही पड़ेगा, लेकिन शब्द देने नहीं कि तुम्हें उसे धकेल कर एक ओर कर रहना चाहिए। ऐसे क्षण भी होने चाहिए की जो प्रक्रिया है, उसका जो मैकेनिज्म है देना है, कि तुम्हें उसका दमन करना है या जब तुम बस अस्तित्वगत हो रहो और वह ऐसा होना चाहिए जिसे तुम शुरू भी उसका निषेध करना है। मेरा यह अभिप्राय भीतर कोई शब्द न सरक रहे हों। जब तुम कर सको और बंद भी कर सको। है कि समाज में जिस चीज की जरूरत है, बस होते हो-और इसका यह अर्थ नहीं - जब तुम सामाजिक प्राणी की तरह वह तुम्हारी चौबीस घंटे की आदत बन गई कि तुम्हारा जीवन निष्प्राण हो जाए तो जिओ, तो भाषा के मैकेनिज़म की जरूरत है और वैसे उसकी कोई जरूरत नहीं है। चेतना होती है, और वह अधिक तीव्र, है; उसके बिना तुम समाज में नहीं जी जब तुम चलते हो, तो तुम्हें पांव हिलाने अधिक जीवंत हो जाती है, क्योंकि भाषा सकते। लेकिन जब तुम अस्तित्व के साथ की जरूरत होती है लेकिन बैठे हुए तुम्हें चेतना को मंद कर देती है। भाषा तो अकेले हो, तो मैकेनिज्म को बंद कर देना अपने पांव नहीं हिलाने चाहिए। यदि बैठे पुनरुक्तिपूर्ण होने को बाध्य है लेकिन चाहिए; उसको बंद करने की तुम्हारी हुए भी तुम्हारे पांव चलते रहें तो तुम अस्तित्व में कोई पुनरुक्ति नहीं है। तो क्षमता होनी चाहिए। यदि तुम उसे बंद न पागल हो, तो पांव विक्षिप्त हो गए हैं। भाषा ऊब पैदा करती है। भाषा तुम्हारे लिए कर सको तो मैकेनिज्म विक्षिप्त हो तुममें उन्हें रोकने की क्षमता होनी चाहिए। जितनी महत्वपूर्ण होगी, तुम्हारा मन जितना गया–यदि वह चालू ही रहे, चालू ही रहे उसी तरह, जब तुम किसी से भी बोल नहीं ज्यादा भाषा-उन्मुख होगा, उतने ही तुम और तुम उसे बंद न कर सको, तो रहे, तो भीतर भाषा नहीं होनी चाहिए। वह ज्यादा ऊबोगे। भाषा एक पुनरुक्ति है, मैकेनिज़म ने तुम्हारी डोर संभाल ली। तुम बात करने का एक यंत्र है, बात करने के अस्तित्व पुनरुक्ति नहीं है। उसके गुलाम हो गए। मन तो एक यंत्र ही लिए एक विधि है; जब तुम कोई बात कर जब तुम एक गुलाब को देखते हो, तो होना चाहिए, मालिक नहीं। लेकिन वह रहे हो तो भाषा का उपयोग होना चाहिए। वह कोई पुनरुक्ति नहीं है। वह एक नया, मालिक बन गया है। लेकिन जब तुम किसी से भी बात नहीं कर एक बिलकुल नया गुलाब है। न तो वह जब मन मालिक होता है, तो गैर-ध्यान रहे, तब भीतर भाषा नहीं होनी चाहिए। पहले कभी हुआ और न फिर कभी होगा। की एक अवस्था होती है। जब तुम मालिक यदि तुम यह कर सको-और यह तभी वह पहली बार और अंतिम बार मौजूद है। होते हो, तुम्हारी चेतना मालिक होती है तो संभव है जब तुम इसे समझते होओ-तब लेकिन जब हम कहते हैं कि यह एक एक ध्यानपूर्ण अवस्था होती है। तो ध्यान तुम ध्यान में विकसित हो सकते हो। मैं गुलाब है, तो 'गुलाब' शब्द एक पुनरुक्ति का अर्थ है: मैकेनिज्म पर मालकियत, कहता हूँ "तुम विकसित हो सकते हो" है वह सदा से है और सदा रहेगा। तुमने मैकेनिज़्म का मालिक हो जाना। क्योंकि जीवन की प्रक्रियाएं कभी मृत पुराने शब्द से नए को मार डाला। संकलन नहीं होती, वे सदा ही विकासमान अस्तित्व सदा युवा है, और भाषा सदा नहीं है। तुम उसके पार हो और अस्तित्व प्रक्रियाएं होती हैं। तो ध्यान एक बूढ़ी। भाषा के कारण तुम अस्तित्व को उसके पार है। चेतना भाषा के पार है। विकासमान प्रक्रिया है, कोई विधि नहीं। चूक जाते हो, भाषा के कारण तुम जीवन अस्तित्व भाषा के पार है। जब चेतना और विधि सदा मृत होती है; वह तुममें जोड़ी को चूक जाते हो, क्योंकि भाषा मृत है। अस्तित्व एक हो जाते हैं, तो उनका मिलन जा सकती है, लेकिन प्रक्रिया सदा जीवंत भाषा में तुम जितने ग्रसित होओगे उतने ही होता है। इसी अवस्था को ध्यान कहते हैं। होती है। वह विकसित होती है, वह तुम ज्यादा निर्जीव होते जाओगे। पंडित 229 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं बिलकुल मुरदा होता है क्योंकि भाषा और सर्वश्रेष्ठ है-बहुत जटिल है, बहुत उन चालों को देखो जो मन खेलता चला शब्द के अतिरिक्त वह और कुछ भी नहीं शक्तिशाली है, और जिसमें बड़ी जाता है, सपने जो वह बुनता होता। सात्र ने अपनी आत्मकथा लिखी है। संभावनाएं हैं। उसे देखो! उसका आनंद है-कल्पना, स्मृति; हजारों प्रक्षेपण जो उसका नाम उसने दिया है: “वर्ड्स", लो! और किसी शत्रु की भांति मत देखो, मन निर्मित करता है-देखो-अलग से, शब्द। क्योंकि मन को यदि तुम शत्रु की भांति दूर खड़े होकर, बिना उसमें सम्मिलित ___ ध्यान का अर्थ है: जीना, समग्रता से देखो, तो नहीं देख सकोगे। तुम पहले ही हुए; और धीरे-धीरे तुम्हें लगने जीना, और समग्रता से तुम तभी जी सकते पूर्वाग्रह से भर गए; तुम पहले से ही उसके लगेगा...। हो जब शांत होओ। शांत होने से मेरा अर्थ खिलाफ हो गए। तुमने पहले से ही निर्णय जैसे-जैसे तुम्हारा साक्षीभाव गहराता बेहोश होना नहीं है। तुम शांत और बेहोश ले लिया कि मन में कुछ गड़बड़ है, तुम्हारा होश गहरा होता है, तो दूरी हो सकते हो लेकिन वह शांति जीवंत नहीं है-तुमने पहले ही निष्कर्ष निकाल बनने लगती है, अंतराल आने लगते हैं। होगी-और तुम फिर से चूक जाओगे। लिया। और जब भी तुम किसी की ओर एक विचार गया, दूसरा अभी आया नहीं; शत्रु की तरह देखते हो तो बहुत गहरे नहीं एक अंतराल है, एक बादल गुजर गया, क्या करना है? प्रश्न संगत है। देखते। फिर तुम कभी आंखों में नहीं दूसरा आ रहा है; बीच में अंतराल है। ।। देखते रहो-रोकने की कोशिश झांकते, तुम बचते हो। उन अंतरालों में पहली बार तुम्हें मत करो। मन के विरुद्ध कुछ भी करने की मन को देखने का अर्थ है: उसकी ओर अ-मन की झलकें मिलेंगी, अ-मन का जरूरत नहीं है। पहली बात, यह काम गहन प्रेम से, गहन सम्मान से, श्रद्धा से स्वाद मिलेगा। इसे झेन का स्वाद कह लो, करेगा कौन? यह तो मन ही मन के साथ देखो-वह परमात्मा का उपहार है तुम्हें! या ताओ का स्वाद कह लो, या योग का संघर्ष करेगा। तुम अपने मन को दो खंडों स्वयं मन में तो कुछ भी गड़बड़ नहीं है। स्वाद कह लो। उन छोटे-छोटे अंतरालों में में बांट लोगेः एक तो वह जो धाक जमाने स्वयं विचार में कुछ गलत नहीं है। अन्य आकाश अचानक स्पष्ट हो जाता है और की, ऊपर चढ़ने की चेष्टा कर रहा है, प्रक्रियाओं की तरह यह भी एक सुंदर सूर्य चमकने लगता है। संसार अचानक अपने ही दूसरे खंड को मारने का प्रयास प्रक्रिया है। आकाश में विचरते हुए बादल चमत्कार से भर उठता है क्योंकि सभी कर रहा है जो कि अर्थहीन है, यह एक सुंदर होते हैं तो अंतआकाश में विचरते अवरोध छुट गए। तुम्हारी आंखों पर परदा मूढ़तापूर्ण खेल है। यह तुम्हें विक्षिप्त कर हुए विचार क्यों नहीं? वृक्षों पर उगते हुए न रहा। तुम स्पष्ट देखते हो, आर-पार देगा। मन को या सोच-विचार को रोकने फूल सुंदर होते हैं तो तुम्हारे प्राणों में देखते हो, पूरा अस्तित्व पारदर्शी हो उठता की चेष्टा मत करो-उसे बस देखो, उसे खिलते हुए विचार क्यों नहीं? सागर की है। होने दो। उसे पूरी स्वतंत्रता दो। जितनी तेज ओर दौड़ती हुई नदी सुंदर होती है तो शुरू में तो ये क्षण विरले ही होंगे, वह दौड़ना चाहे उसे दौड़ने दो। तुम किसी कहीं अज्ञात नियति की ओर दौड़ती यह बीच-बीच में कभी-कभार आ जाएंगे। भी तरह उसे नियंत्रित करने की कोशिश विचारों की धारा क्यों नहीं? क्या यह सुंदर लेकिन वे तुम्हें इसकी झलक दे देंगे कि मत करो। तुम तो बस एक साक्षी हो नहीं है ? समाधि क्या है। मौन के छोटे-छोटे कुंड जाओ। यह सुंदर है! गहन श्रद्धा से भरकर देखो। योद्धा मत आएंगे और विलीन हो जाएंगे। लेकिन मन सुंदरतम यंत्रों में से एक है। विज्ञान बनो, प्रेमी बनो। मन के सूक्ष्म संवेगों को अब तुम जानते हो कि तुम ठीक रास्ते पर अभी भी मन के समानांतर कुछ बना पाने देखो, उसके अकस्मात और सुंदर हो-तुम फिर से देखने लगते हो। में सक्षम नहीं हुआ है। मन अभी भी परिवर्तनों को, उसकी छलांगों को देखो जब एक विचार गुजरता है, तो तुम 230 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं उसको देखते हो; जब एक अंतराल निर्विघ्न मौन होगा। रोकने का उपाय है। और जब तुम उन गुजरता है, तो तुम उसको भी देखते हो। जब बड़े अंतराल आएंगे, तो तुम्हारे आनंदपूर्ण क्षणों का आनंद लेने लगते हो, बादल सुंदर हैं, सूर्य की रोशनी भी सुंदर पास बस संसार में झांकने की ही तो तुममें लंबे समय तक उनको बनाए है। अब तुम चुनाव करने वाले न रहे। अब सुस्पष्टता नहीं होगी-बड़े अंतरालों के रखने की क्षमता आ जाती है। तुम्हारे पास एक जड़ मन नहीं है। तुम यह साथ तुममें एक नई सुस्पष्टता का प्रादुर्भाव अंत में, अंततः, एक दिन तुम मालिक नहीं कहते कि "मैं तो केवल अंतराल होगा; तुम अंतर्जगत में भी झांक पाओगे। हो जाते हो। फिर जब तुम सोचना चाहते हो पसंद करूंगा"। वह मूढ़ता पहले अंतरालों से तुम संसार में झांक तो सोचते हो; यदि विचार की जरूरत है तो होगी क्योंकि एक बार तुम अंतराल की पाओगेः वृक्ष अभी जैसे दिखाई पड़ते हैं तुम उसका उपयोग करते हो; यदि विचार चाह से ही आसक्त हो गए, तो तुमने फिर उससे ज्यादा हरे हो जाएंगे। तुम एक अनंत की जरूरत न हो तो तुम उसको विश्राम से विचार के विरुद्ध निर्णय ले लिया। और संगीत से, अलौकिक संगीत से घिर करने देते हो। ऐसा नहीं कि अब मन नहीं फिर वे अंतराल खो जाएंगे। वे तभी घटते जाओगे। अचानक तुम परमात्मा की रहता-मन तो रहता है, लेकिन तुम हैं जब तुम बहुत दूर और तटस्थ होते हो। उपस्थिति में होओगे-अकथनीय, उसका उपयोग कर भी सकते हो, और वे घटते हैं, उन्हें लाया नहीं जा सकता। वे रहस्यमय, तुम्हें छूती हुई, फिर भी तुम उसे उपयोग नहीं भी कर सकते। अब यह घटते हैं, तुम उन्हें घटाने को मजबूर नहीं पकड़ न पाओगे; तुम्हारी पहुंच में होते हुए तुम्हारा निर्णय है। बिलकुल पांवों की तरह; कर सकते। वे स्वस्फूर्त घटनाएं हैं। भी जो तुम्हारी पहुंच से पार होगी। बड़े तुम दौड़ना चाहो तो उनका उपयोग कर . देखते रहो। विचारों को आने-जाने अंतरालों के साथ भीतर भी ऐसा ही होगा। सकते हो; यदि तुम दौड़ना नहीं चाहते तो दो-जहां भी वे जाना चाहें-कोई गलती परमात्मा केवल बाहर ही नहीं होगा, तुम बस विश्राम करते हो-पांव तो अब भी नहीं है! नियंत्रित करने की और दिशा देने अचानक चकित रह जाओगे कि वह हैं। ठीक उसी तरह मन भी हमेशा रहता है। की चेष्टा मत करो; विचारों को पूरी तुम्हारे भीतर भी है। वह केवल दृश्य में ही अ-मन मन के विपरीत नहीं है; अ-मन स्वतंत्रता से चलने दो। फिर और बड़े-बड़े नहीं है; वह द्रष्टा में भी है-भीतर भी मन के पार है। अ-मन मन को मारकर अंतराल आएंगे। तुम छोटी-छोटी और बाहर भी। लेकिन उसके साथ भी और नष्ट करके पैदा नहीं होता; अ-मन सतोरियों के, लघु सतोरियों के आशीष से आसक्त मत हो जाओ। तो तब जन्मता है जब तुम मन को इतनी धन्य हो जाओगे। कई बार तो मिनटों बीत आसक्ति मन के लिए भोजन है कि वह समग्रता से समझ लेते हो कि सोच-विचार जाएंगे और कोई विचार नहीं आएगा; कोई चलता रह सके। अनासक्त साक्षीभाव की कोई जरूरत नहीं रहती। तुम्हारी समझ ट्रैफिक नहीं होगी-एक परिपूर्ण और बिना उसे रोकने का प्रयास किए उसको उसका स्थान ले लेती है। 5 231 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं झूठी विधियां ___ "मैं एक मेंढक लाया हूं,” उत्साह से भरे जीवशास्त्र के एक प्रोफेसर ने अपनी कक्षा में घोषित किया। "इसे तालाब से ताजा-ताजा निकाल लाया हूं ताकि हम इसकी बाहरी बनावट का अध्ययन करके फिर इसकी शल्यक्रिया कर सकें।" ध्यान एकाग्रता नहीं है उसने साथ लाए पैकेट को सावधानी से ध्यान गलत हो सकता है। उदाहरण के लिए कोई भी ध्यान की विधि जो तम्हें खोला और भीतर से निकला सफाई से बनाया गया एक हैम सेंडविच! प्रोफेसर गहरी एकाग्रता में ले जाती हो, वह गलत है। इससे तो तुम खुले हुए होने के बदले महाशय ने आश्चर्य से भर कर उसे देखा। अधिकाधिक बंद हो जाओगे। यदि तुम अपनी चेतना को संकरा करके किसी चीज “गजब हो गया!" वह बोला, "मुझे पर एकाग्र करते हो, यदि तुम शेष सारे अस्तित्व से संबंध तोड़ कर एक बिंदु पर अच्छी तरह याद है कि मैंने अपना लंच ले एकाग्र हो जाते हो तो यह तुम्हारे भीतर ज्यादा से ज्यादा तनाव निर्मित करेगा। लिया, इसलिए अंग्रेजी का शब्द है 'अटेंशन'। इसका दूसरा अर्थ 'एट-टेंशन' होता है। एकाग्रता-कंसेंट्रेशन-इस शब्द की ध्वनि भी तुम्हें तनाव का भाव देती है। वैज्ञानिकों के साथ ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं। वे एक बिंदु पर एकाग्र हो TT काग्रता के अपने उपयोग हैं लेकिन मूर्छित ही हो जाते हो। जिस विषय पर जाते हैं और उनका पूरा मन बहुत सीमित वह ध्यान नहीं है। वैज्ञानिक शोध तुम एकाग्र हो रहे हो वही तुम्हारा एक मात्र क्षेत्र में फोकस हो जाता है। निश्चित ही के लिए प्रयोगशाला में तुम्हें संसार रह जाता है। यही कारण है कि एकाग्रता में बंध गए मन की अपनी एकाग्रता की जरूरत होगी। तुम्हें एक खास वैज्ञानिक अधिकतर भुलक्कड़ हो जाते हैं। उपयोगिताएं हैं : वह ज्यादा बेधक हो जाता समस्या पर एकाग्र होने के लिए शेष सब अधिक एकाग्रता साधने वाले लोग है, वह एक सुई जैसा नोकीला हो जाता है, संसार से संबंध तोड़ लेना होगा-यह भुलक्कड़ हो जाते हैं क्योंकि वे नहीं जानते वह ठीक लक्ष्य-बिंदु पर चोट करता है, संबंध विच्छेद इतना गहरा हो सकता है कि कि समग्र अस्तित्व के प्रति कैसे लेकिन अपने चारों ओर फैले हुए विराट शेष सारे वातावरण के प्रति तुम लगभग संवेदनशील और खुले रहा जाए। जीवन से वह वंचित ही रह जाता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं बुद्धपुरुष एकाग्रता वाले व्यक्ति नहीं परमात्मा को कभी जान न पाएगा। विज्ञान नहीं—विश्राम है; व्यक्ति बस स्वयं में हैं; वे होश वाले व्यक्ति हैं। वे अपनी की मूल प्रक्रिया है एकाग्रता और इसी विश्राम करता है। जितने तुम विश्रामपूर्ण चेतना को संकीर्ण बनाने का प्रयास नहीं विधि के कारण विज्ञान कभी भी परमात्मा होते हो उतने ही तुम अपने को खुला हुआ करते रहे हैं, इसके विपरीत वे सभी को नहीं जान पाएगा। और ग्रहणशील पाते हो-उतनी ही कम बाधाओं को गिरा देने का प्रयास करते रहे फिर क्या किया जाए? किसी मंत्र का जड़ता तुममें होती है। तुम बहुत तरल हो हैं ताकि वे अस्तित्व के प्रति परिपूर्ण रूप जप या ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन आदि जाते हो और अचानक अस्तित्व तुममें से खुले हो सकें। कोई सहायता न देंगे। भावातीत ध्यान प्रवेश करने लगता है। अब तुम पत्थर की देखो, अस्तित्व में सब कुछ एक साथ (ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन) अमेरिका में बहुत तरह ठोस न रहे सब ओर से तुम एक उपस्थित है। मैं यहां बोल रहा हूं साथ ही महत्वपूर्ण बन गया है-वस्तुगत पद्धति खुलापन हो गए हो। साथ ट्रैफिक की आवाज भी गूंज रही है। होने के कारण-वैज्ञानिक बुद्धि को जंचने विश्राम का अर्थ है : स्वयं को एक ऐसी ट्रेन की आवाज, पक्षियों के गीत, वृक्षों से के कारण। यही एक प्रक्रिया है जिस पर अवस्था में उतरने देना जहां तुम कुछ भी गुजरती हुई हवा-इस क्षण सारा अस्तित्व वैज्ञानिक शोध की जा सकती है। वह नहीं कर रहे हो क्योंकि यदि तुम कुछ कर घुल-मिल रहा है। मेरा तुमसे कुछ कहना, ध्यान नहीं है; वह पूर्णतः एकाग्रता है, इसी रहे हो तो तनाव जारी रहेगा। यह कुछ न तुम्हारा मुझे सुनना-और लाखों घटनाओं कारण वह वैज्ञानिक चित्त के लिए सुबोध करने की एक दशा है; तुम बस विश्रामपूर्ण का चारों ओर होना-यह सब कितना है। विश्वविद्यालयों में, वैज्ञानिक होते हो और तुम विश्राम के अनुभव का ऐश्वर्यशाली है! प्रयोगशालाओं में, मनोवैज्ञानिक शोधों में आनंद लेते हो। एकाग्रता तुम्हें एक स्थान में आबद्ध कर टी एम के बारे में अनेक अनुसंधान कार्य स्वयं में विश्रामपूर्ण हो जाओ; आंखें देती है लेकिन एक बहुत बड़ी कीमत परः हो रहे हैं, क्योंकि टी एम ध्यान नहीं है। . बंद कर लो और चारों ओर जो हो रहा है जीवन का निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा यह एकाग्रता है; यह एकाग्रता की एक उसकी आवाजें सुनते रहो। किसी भी बात छोड़कर। यदि तुम गणित का एक सवाल विधि है। टी एम वैज्ञानिक एकाग्रता की को विक्षेप की तरह मत देखो। जिस क्षण हल कर रहे हो तो पक्षियों की आवाजों को श्रेणी में ही आता है। उन दोनों के बीच तुम किसी बात को विक्षेप मानते हो, तुम सुनना एक बाधा होगी, एक विक्षेप होगा। एक सेतु है। लेकिन ध्यान से इसका परमात्मा का इनकार कर रहे हो। आसपास खेलते हुए बच्चे, सड़क पर कोई संबंध नहीं है। इस क्षण में परमात्मा एक पक्षी की तरह भौंकते हुए कुत्ते-वे सब विक्षेपजनक ध्यान इतना विशाल है, अनंत है कि तुम्हारे पास आया है उसका इनकार मत उस पर वैज्ञानिक शोध संभव नहीं है। जब करो। उसने एक पक्षी की तरह तुम्हारे द्वार एकाग्रता की साधना के कारण ही लोगों __ व्यक्ति स्वयं करुणा का सागर बन जाता है पर दस्तक दी है। दूसरे क्षण वह एक ने जीवन से पलायन किया–हिमालय तभी यह पता चलता है कि वह ध्यान को भौंकते हुए कुत्ते की तरह आया है, या एक जाने के लिए, किसी गुफा में जाने के उपलब्ध हुआ है या नहीं। अल्फा तरंग की रोते और चीखते हुए बच्चे की तरह आया लिए, एकांत में रहने के लिए-ताकि वे उत्पत्ति ज्यादा सहायक न होगी क्योंकि वे है, या एक हंसते हुए पागल आदमी की परमात्मा पर चित्त को एकाग्र कर सकें। मन के ही अंग हैं और ध्यान मन की घटना तरह आया है। इनकार मत करो; निषेध लेकिन परमात्मा कोई विषयवस्तु नहीं है; नहीं है; ध्यान मन के पार का रहस्य है। मत करो स्वीकार करो, क्योंकि यदि परमात्मा है यह समग्र अस्तित्व, यह क्षण; इसलिए मैं तुम्हें कुछ मूलभूत बातें तुमने इनकार किया तो तुम तनावपूर्ण हो परमात्मा है समष्टि। इस कारण ही विज्ञान कहता हूं। एकः ध्यान एकाग्रता जाओगे। सभी अस्वीकार तनाव निर्मित होंगे। 233 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं करते हैं। स्वीकार करो। ऊर्जा उठती हुई अनुभव करोगे। हुए क्योंकि परिस्थिति ही ऐसी थी। तुम यदि तुम विश्रामपूर्ण होना चाहते हो तो और जब मैं कहता हूं कि देखो, तब तुम क्रोध का चिंतन करते हो, तुम क्रोध का स्वीकार मार्ग है। चारों ओर जो कुछ घटित देखने का प्रयास मत करना अन्यथा तुम विश्लेषण करते हो, लेकिन चेतना का हो रहा है उसे स्वीकार करो; उन्हें एक फिर से तनावपूर्ण हो जाओगे और तुम फोकस क्रोध पर है, स्व पर नहीं। तुम्हारी जीवंत समग्रता बनने दो। वह ऐसा एकाग्रता शुरू कर दोगे। बस शिथिल हो सारी चेतना का फोकस क्रोध पर है : तुम है-तुम जानो या न जानो-सब कुछ जाओ, विश्रामपूर्ण और ढीले बने रहो और निरीक्षण कर रहे, विश्लेषण कर रहे, अंतर्संबंधित है। ये पक्षी, ये वृक्ष, यह देखो...क्योंकि तुम और क्या कर सकते तालमेल बिठा रहे, उसके बारे में विचार आकाश, यह सूर्य, यह पृथ्वी, तुम, हो? तुम बस यहां हो; करने के लिए कुछ कर रहे; तुम यह पता लगाने की कोशिश मैं सब परस्पर जुड़े हैं। यह एक जीवंत नहीं है; सब कुछ स्वीकृत है; कुछ भी कर रहे हो कि क्रोध से कैसे बचा जाए, एकत्व है। निषेध के लिए, इनकारने के लिए नहीं है। उससे कैसे मुक्त हुआ जाए, कैसे यदि सूर्य नष्ट हो जाए तो वृक्ष खो कोई संघर्ष नहीं, कोई लड़ाई नहीं, कोई वह दोबारा न आए। यह विचार की जाएंगे, पक्षी खो जाएंगें; यदि पक्षी और द्वंद्व नहीं। तुम बस देखो। स्मरण रहे : बस प्रक्रिया है। तुम निर्णय लोगे कि यह बुरा वृक्ष खो जाएं, तो तुम भी यहां नहीं हो देखो। 6 है, क्योंकि यह विश्वंसात्मक है। तुम सकते, तुम भी खो जाओगे। यह पर्यावरण शपथ लोगे कि “अब दूसरी बार मैं विज्ञान है। हर चीज आपस में गहराई से यह गलती न करूंगा।" तुम क्रोध को जुड़ी हुई है। ध्यान आत्मपरीक्षण नहीं है संकल्प से नियंत्रित करने का प्रयास इसलिए किसी चीज का इनकार मत करोगे। यही कारण है कि पश्चिमी करो, क्योंकि जिस क्षण तुम इनकार करते यात्मपरीक्षण है स्वयं के बारे में मनोविज्ञान विश्लेषणात्मक बन गया हो, तुम स्वयं के भीतर की ही किसी चीज सोचना। आत्मस्मरण सोचना है-विश्लेषण करना, काटना-छांटना। का इनकार कर रहे हो। यदि तुम इन बिलकुल ही नहीं है; यह है स्वयं के प्रति पूरब का मनोविज्ञान कहता है: चहकते हुए पक्षियों का इनकार करते हो, बोधपूर्ण होना। फर्क बारीक है, लेकिन “होशपूर्ण रहो। क्रोध के विश्लेषण का तो तुम्हारे भीतर भी कुछ इनकार कर दिया बहुत बड़ा है। . प्रयास मत करो; उसकी कोई जरूरत नहीं गया। पश्चिमी मनोविज्ञान आत्मपरीक्षण पर है। उसे बस देखो, लेकिन होश से भर कर यदि तुम शिथिल होते हो तो तुम जोर देता है और पूर्वी मनोविज्ञान देखो। सोचना शुरू मत करो।" वास्तव में स्वीकार के भाव में होते हो। अस्तित्व का आत्मस्मरण पर जोर देता है। आत्मपरीक्षण यदि तुमने सोचना शुरू कर दिया, तो यह स्वीकार विश्रामपूर्ण होने का एक मात्र करते समय तुम करते क्या हो? उदाहरण सोचना क्रोध को देखने में एक बाधा बन उपाय है। यदि छोटी-छोटी बातें तुम्हें क्षुब्ध के लिए, तुम क्रोधित हो, तो तुम क्रोध आएगा। तब सोचना क्रोध पर हावी करती हैं तो वास्तव में यह तुम्हारा के बारे में सोचना शुरू कर देते हो कि हो जाएगा तब सोचना एक बादल की तरह दृष्टिकोण है जो तुम्हें क्षुब्ध करता है। क्रोध किस कारण निर्मित हुआ। तुम क्रोध को आच्छादित कर लेगा; स्पष्टता ___मौन बैठो; चारों ओर जो घटित हो रहा विश्लेषण करने लगते हो कि क्रोध का खो जाएगी। सोचो बिलकुल ही मत। है उसे सुनो और शिथिल हो जाओ। कारण क्या है। तुम निर्णय लेने लगते निर्विचार दशा में रहो, और देखो। स्वीकार करो, शिथिल हो जाओ और हो कि क्रोध अच्छा है कि बुरा। तुम जब क्रोध और तुम्हारे बीच विचार अचानक तुम अपने भीतर एक विराट व्याख्या करने लगते हो कि तुम क्रोधित की एक तरंग भी नहीं है, तब क्रोध का 234 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामना हुआ, क्रोध से साक्षात्कार हुआ। तुम क्रोध की चीर-फाड़ नहीं करते। तुम उसके स्रोत तक जाने की चिंता नहीं लेते, क्योंकि स्रोत तो अतीत में है। तुम उसके संबंध में कोई निर्णय नहीं लेते, क्योंकि निर्णय लेने के क्षण से ही सोच-विचार शुरू हो जाता है। तुम कोई शपथ भी नहीं लेते कि "मैं अब क्रोध नहीं करूंगा । " क्योंकि शपथ लेना तुम्हें भविष्य में ले जाता है। होशपूर्ण होने में तुम क्रोध की घटना के साथ होते हो – अभी और यहां । क्रोध को बदलने में तुम्हारी कोई रुचि नहीं है, उसके बारे में सोच-विचार करने में तुम्हारी कोई रुचि नहीं है। तुम्हारी तो रुचि है कि तुम क्रोध को सीधे, तत्काल, आमने-सामने देख भर लो । तब यह है आत्मस्मरण । और इसका यह सौंदर्य है कि यदि तुम क्रोध को देख भर सको तो क्रोध विलीन हो जाता है। न केवल क्रोध उस क्षण विलीन हो जाता है - वरन् तुम्हारे गहरे देखने से 235 ध्यान में बाधाएं उसका विलीन हो जाना तुम्हें एक कुंजी दे देता है कि संकल्प का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं है; भविष्य के लिए कोई निर्णय लेने की जरूरत नहीं है और न ही क्रोध के मूल स्रोत तक जाने की कोई जरूरत है। यह सब अनावश्यक है । अब तो तुम्हारे पास कुंजी है: क्रोध को देखो और क्रोध विलीन हो जाता है। यह देखना सदा उपलब्ध है। जब कभी क्रोध आए, तुम उसे देख सकते हो। फिर यह देखना गहराता जाता है। होशपूर्वक देखने के तीन चरण हैं। पहला : जब क्रोध घटित हो कर जा चुका है, जैसे तुम क्रमशः विलीन होती पूंछ को देखते हो - हाथी जा चुका है, केवल पूंछ दिख रही है। जब क्रोध घटित हो रहा था, तब तुम उसमें इतनी गहराई से ग्रस्त हो गए थे कि तुम होशपूर्ण हो ही न सके थे। जब क्रोध करीब-करीब विलीन हो चुका है, निन्यानबे प्रतिशत जा चुका है— केवल एक प्रतिशत, क्रोध का आखिरी हिस्सा अभी-अभी जा रहा है, दूर क्षितिज में विलीन हो रहा है - तब तुम होशपूर्ण हो जाते हो। यह है होशपूर्ण होने का पहला चरण । यह अच्छा है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। दूसरा चरण है— जब पूरा हाथी ही सामने है, पूंछ मात्र नहीं — जब क्रोध की घटना पकी हुई है; तुम क्रोध के शिखर पर हो - उबलते हुए, जलते हुए - तब तुम सजग हो जाते हो। तब फिर एक तीसरा चरण भी है : क्रोध पूरा प्रकट नहीं हुआ है, प्रकट होना शुरू हो रहा है- हाथी का सिर प्रकट हो रहा है, पूंछ नहीं। क्रोध बस तुम्हारी चेतना के दायरे में प्रविष्ट हो रहा है-और तुम सजग हो जाते हो, तब क्रोध का हाथी कभी घटित ही नहीं होता । तुमने उसे जन्म के पहले ही मार डाला। यह है जन्म-निरोध । क्रोध की घटना घटी ही नहीं; फिर यह पीछे कोई निशान भी नहीं छोड़ती है। 7 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं मन की चालबाजियां चेतना का विषय हुआ। मुझमें ऊब उठे तो ऊब विषय हो गई। तुम्हें मौन का भी अनुभव हो सकता है, तब मौन एक विषय बन जाएगा। तुम्हें आनंद का अनुभव हो सकता है, तब आनंद एक विषय होगा। तो तुम विषय बदलते चले जा सकते हो-अनंत रूप से यह क्रम चल सकता है लेकिन यह असली बात नहीं है। __ वास्तविक तो वह है जिसको ये सारे अनुभव होते हैं जिसे ऊब होती है, जिसे आनंद होता है। आध्यात्मिक खोज 'क्या होता है' के लिए नहीं, 'किसे होता है' के लिए है। फिर अहंकार के उठने की कोई संभावना नहीं है। अनुभूतियों के द्वारा मत ठगे जाओ सभी अनुभूतियां मन की ही चालबाजियां हैं, हर अनुभव एक पलायन है। ध्यान कोई अनुभूति नहीं, एक बोध है। ध्यान कोई अनुभूति नहीं, वरन, सब अनुभूतियों का समाप्त हो जाना है। 27नुभव तुमसे बाहर है। अनुभोक्ता तुम्हारा रस उनमें नहीं होगा, तुम इन। तुम्हारी अंतस सत्ता है। और पगडंडियों पर भटक न जाओगे। तुम तो वास्तविक तथा मिथ्या आध्यात्मिकता में उस अंतर्केद्र की ओर बढ़ते चले जाओगे यही भेद है : यदि तुम अनुभूतियों के पीछे जहां तुम्हारे एकांत को छोड़कर और कुछ ध्यान में कभी-कभी तुम्हें एक दौड़ रहे हो, तो आध्यात्मिकता झूठी है; भी शेष नहीं रहता। केवल चेतना बच ना प्रकार की शून्यता का अनुभव यदि अनुभोक्ता में तुम्हारा रस है, तो फिर रहती है बिना किसी विषय के। होता है जो कि वास्तव में शून्यता नहीं है। तुम्हारी आध्यात्मिकता वास्तविक है। फिर विषय है अनुभव; अनुभव जो भी हो, मैं इसे “एक प्रकार की शून्यता" कहता हूं। न तो तुम्हारा रस कुंडलिनी में होगा, न वह विषय है। मुझे दुख का अनुभव होता जब तुम ध्यान में होते हो तो किन्हीं क्षणों में चक्रों में होगा; इन सब बातों में कोई रस है तो दुख मेरी चेतना का विषय हुआ। कुछ पल के लिए तुम्हें लगेगा कि विचार ही नहीं होगा। वह सब घटेगा तो, लेकिन फिर मुझे सुख का अनुभव होता है तो सुख की धारा रुक गई है। शुरू-शुरू में ये 236 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं अंतराल उभरेंगे। लेकिन क्योंकि तुम्हें ऐसा तो उसकी विशेषता है। ऐसा फिर-फिर, बहुत बार हो सकता 'लग' रहा है कि विचार की प्रक्रिया रुक एक बार तुमने भीतर की संपदा का है। और शिष्य गुरु से बहुत विक्षुब्ध हो गई, तो यह भी एक विचार हो गया, एक अनुभव कर लिया, एक बार तुम अपने सकता है कि जब भी उसे लगे कि उसे बहुत ही सूक्ष्म विचार हो गया। तुम क्या अंतर्तम के संपर्क में आ गए, फिर तुम मिल गया है, तो गुरु वह सब उससे वापस कर रहे हो? तुम भीतर कह रहे हो, कृत्य में जा सकते हो, फिर तुम जो चाहो छीन लेता है और उसको अज्ञानी अवस्था "विचार की प्रक्रिया रुक गई है।" लेकिन कर सकते हो, फिर तुम साधारण में वापस फेंक देता है। यह क्या है? यह तो दूसरी विचार प्रक्रिया सांसारिक जीवन जी सकते हो, लेकिन उदाहरण के लिए एक जर्मन संन्यासी के शुरू हो गई। और तुम कहते हो, “यह शून्यता बनी रहेगी। उसे तुम भूल नहीं साथ लगातार ऐसा हो रहा था उसे शून्यता है।" तुम कहते हो, “अब कुछ सकते। वह भीतर बनी रहेगी। उसका बार-बार लगता कि वह बुद्धत्व को होने वाला है।" यह क्या है? फिर से एक संगीत सुनाई देता रहेगा। तुम जो भी उपलब्ध हो गया है। और भ्रम की प्रगाढ़ता विचार प्रक्रिया शुरू हो गई। करोगे, वह करना परिधि पर ही रहेगा, ऐसी थी कि वह उसे अपने तक ही नहीं फिर कभी ऐसा हो तो इसके शिकार मत __ भीतर तो तुम शून्य रहोगे। रख सकता था, वह दूसरों को भी बताता। होना। जब तुम्हें लगे कि एक मौन उतर वह बहुत निश्चयात्मक था। तीन बार रहा है, तो उसका शब्दीकरण शुरू मत मन तुम्हें छल सकता है ऐसा हुआ, और अपनी निश्चयात्मकता के करना, क्योंकि उससे तुम मौन को नष्ट कारण ही मेरे आशीष लेने के लिए वह कर दोगे। प्रतीक्षा करो-किसी के लिए भारत आया। अब इससे पता चलता है कि नहीं-बस प्रतीक्षा मात्र करो। कुछ करो से ढांचे हैं जिनमें साधक फंस उसे कितना विश्वास था—वह मेरे मत। मत कहो कि “यह शून्यता है।" जिस जाता है। , आशीष तक लेने के लिए आ गया। क्षण तुमने यह कहा, तुमने उसे नष्ट कर पहली बातः अधिकांश साधक हर बार मुझे उससे कहना पड़ता, “तुम दिया। बस इसे देखो, इसमें प्रवेश करो, इस भ्रामक धारणा में भटक जाते हैं कि वे स्वयं के मन द्वारा ही छले जा रहे हो। कुछ इसका साक्षात्कार करो-लेकिन रुको, पहुंच गए। यह ऐसे स्वप्न की तरह है भी तुम्हें हुआ नहीं है, तुम वही पुराने इसको शब्द मत दे देना। ऐसी जल्दी भी जिसमें तुम्हें लगे कि तुम जागे हुए हो। मनुष्य हो–नया मनुष्य अभी प्रकट नहीं क्या है? शब्द देकर मन दूसरे दरवाजे से अभी भी तुम सपना देख रहे हो-जागे हुआ है। और जो भी तुम कर रहे प्रवेश कर गया, और तुम छल लिए गए। हुए होने का यह भाव तुम्हारे स्वप्न का हो-सरकारों को, संयुक्तराष्ट्र को जो पत्र मन की इस चाल के प्रति जागे रहो। हिस्सा है। ऐसा ही साधक के साथ होता लिख रहे हो-ये सब अहंकार के उपाय शुरू-शुरू में तो यह होगा ही, तो जब है। हैं। तुम अहंकार की पकड़ में हो।" । भी ऐसा हो, प्रतीक्षा करो। जाल में मत मन यह भ्रम खड़ा करने में सक्षम है कि सुंदर स्वप्न में जीना बहुत सरल है। फंसो। कुछ भी मत कहो, मौन रह जाओ। ___ “अब तो कहीं और जाने को नहीं रहा, मैं वास्तविकता से अपने सपनों को चकनाचूर फिर तुम शून्यता में प्रवेश करोगे, और पहुंच गया।" मन धोखेबाज है। और ऐसी होते देख पाना बहुत कठिन है। फिर यह घटना क्षणिक नहीं होगी, क्योंकि परिस्थिति में सद्गुरु का कार्य यह है कि पूर्व के प्राचीन ग्रंथों में इसे माया की एक बार तुम्हें वास्तविक शून्यता का पता तुम्हें सचेत करे कि यह वास्तविकता नहीं शक्ति कहते हैं। मन के पास कोई भी भ्रम चल जाए तो फिर उसे खो नहीं सकते। है; यह सपना भर है और अभी तुम कहीं पैदा कर लेने की सम्मोहन शक्ति है। यदि वास्तविक को खोया नहीं जा सकता; यही पहुंचे नहीं हो। बड़ी उत्कट आकांक्षा से तुम किसी चीज 237 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में बाधाएं के पीछे भाग रहे हो तो यह मन का कार्य है जाती है। नींद में तुम्हें लगता है कि तुम्हें है-मन तो एक यंत्र है। यह बिना कोई कि वह तुम्हारे उद्वेग को रोके। स्वप्न में पेशाब आ रही है। यदि मन यह सपना चिंता किए अपना काम करता है, क्योंकि लगभग रोज यह सबके साथ होता है, पैदा न करे कि तुम उठकर पेशाब करने इसके सामने यह जानने का तो उपाय ही लेकिन लोग कुछ सीखते ही नहीं। गए, फिर वापस आए और सो गए, तो नहीं है कि यह नींद साधारण नींद है या यदि रात तुम भूखे सो जाओ, तो उस तुम्हारी नींद टूट जाएगी-और नींद तो आध्यात्मिक नींद है, साधारण जागरण है रात तुम्हें स्वादिष्ट भोजन करने के सपने शरीर की बड़ी जरूरत है। मन इस बात का या आध्यात्मिक जागरण है। आएंगे। मन तुम्हारी मदद करने की खयाल रख रहा है कि बार-बार तुम्हारी मन के लिए तो सब बराबर है। इसका कोशिश कर रहा है ताकि तुम्हारी नींद में नींद न टूटे, कि तुम आराम से देर तक सो प्रयोजन ही यह है कि तुम्हारी नींद को बाधा न पड़े, वरना तो तुम भूखे हो और सको, ताकि सुबह तुम तरोताजा होकर उठ बनाए रखे और तुम्हारी नींद में बाधा भूख से तुम्हारी नींद टूट जाएगी-मन सको। . डालने वाली हर चीज का प्रतिरोध करे। तुम्हें एक स्वप्न देता है कि तुम अपनी यह मन की सामान्य प्रक्रिया है। फिर तुम भूखे हो तो मन तुम्हें भोजन दे देता है; पसंद का कोई स्वादिष्ट भोजन कर रहे हो, ऊंचे तल पर भी यही बात होती है। एक तो तुम सत्य की तीव्र खोज में हो, तो वह तुम्हें जो तुम्हारे मन को तृप्त कर देता है। भूख है साधारण नींद, और दूसरा है साधारण बुद्धत्व तक दे देता है। तुम कुछ भी मांगो, तो बनी रहती है लेकिन नींद में कोई बाधा जागरण जिसकी मन रक्षा करता है। और मन तुम्हें वह देने को तैयार है। मन नहीं पड़ती। भूख स्वप्न के भ्रम में दब साधना के पथ पर महानिद्रा और किसी भी वास्तविकता का भ्रम पैदा कर जाती है; इससे तुम्हारी नींद की रक्षा हो महाजागरण हैं। लेकिन मन तो प्रशिक्षित सकता है-यही इसकी शक्ति है। 10 238 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान तुम्हारा 'मास्टर-कार्ड' है थो शो का एक यहूदी शिष्य एक शानदार स्त्री को रात्रि-भोज के ।। लिए बाहर ले जाता है। वे पूना के सबसे ज्यादा खर्चीले रेस्तरां में जाते हैं और भोजन में इटालियन स्पैगेटी, जापानीज सूसी तथा फ्रेंच शराब लेते हैं। पूर्णाहुति के मिष्ठान्न के लिए वे जर्मन चाकलेट केक चुनते हैं और ब्राजीलियन कॉफी से रात्रि-भोज की समाप्ति करते हैं। जब वेटर उन्हें बिल लाकर देता है, तब गोल्डस्टीन महाशय को पता लगता है कि वह अपना पर्स तो घर पर भूल आया है। इसलिए वह अपनी जेब से ओशो का चित्र निकाल कर वेटर को थमा देता है। "यह क्या है?" वेटर ने मांग की। "मेरा मास्टरकार्ड–मेरी जीवन-संपदा!" गोल्डस्टीन उत्तर . देता है। 239 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर 240 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 पांचवां खंड ओशो से प्रश्नोत्तर Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर केवल साक्षी ही नृत्य कर सकता है आप हमें सतत समझाते हैं कि 1 न यह प्रश्न देर-अबेर उठाने ही प्रवाह है और सपने नींद में ही "होशपर्ण होओ." न वाला है क्योंकि तुम्हारे साक्षी होने अस्तित्ववान हो सकते हैं। कि"साक्षी बनो।" की संभावना से मन बहुत ही भयभीत होता एक साक्षी होकर तुम निद्रा में नहीं लेकिन साक्षी चेतना क्या है। तुम्हारे साक्षी होने से मन क्यों इतना रहते; तुम जाग जाते हो। तुम जागरूकता वास्तव में गीत गा सकती है, ज्यादा भयभीत होता है? क्योंकि साक्षी ही हो जाते हो-स्फटिकवत स्पष्ट, बहुत नृत्य कर सकती है और जीवन का आना मन की मृत्यु है। युवा, बहुत ताजे, बहुत प्राणवान और ___ मन एक कर्ता है-वह कुछ न कुछ सक्षम। तुम एक प्रचंड लपट बन जाते हो का स्वाद ले सकती है? करते ही रहना चाहता है और साक्षी है जैसे मशाल दोनों छोरों से जल रही हो। या कि साक्षी चेतना कभी भी न-करने की अवस्था। मन भयभीत है कि प्रगाढ़ता की उस अवस्था में, उस प्रकाश जीवन में सहभागी नहीं बन पाती त “यदि तुम साक्षी हो गए, तो मेरी कोई और चैतन्य में मन मर जाता है, मन और वह मात्र एक तमाशबीन, जरूरत ही न रह जाएगी!" और एक अर्थ आत्मघात कर लेता है। एकदर्शक बनी रहती है? में मन ठीक ही सोचता है। यही कारण है कि मन भयभीत है. और जैसे ही तुम्हारे भीतर साक्षी का मन तुम्हारे लिए कई समस्याएं खड़ी आविर्भाव होता है, मन को विलीन हो करेगा। वह अनेक प्रश्न उठाएगा। अज्ञात जाना पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे कि में छलांग लगाने के प्रति वह तुम में एक अपने अंधेरे कमरे में रोशनी लाओ और दुविधा, एक हिचक पैदा करेगा; वह तुम्हें अंधेरे को विदा लेनी पड़े। यह अपरिहार्य वापस ज्ञात में खींचने की कोशिश करेगा। है। मन जी सकता है यदि तुम गहरी मूर्छा वह तुम्हें विश्वास दिलाएगा: “मेरे साथ में बने रहो क्योंकि मन सपनों का एक होने में रक्षा है, सुरक्षा है; मेरे साथ होकर 242 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम पूर्णतः आरक्षित हो और सुरक्षा की छायातले जी रहे हो। मैं तुम्हारी पूरी देखभाल रखता हूं। मेरे साथ तुम सक्षम और कुशल बनते हो। जिस क्षण तुम मुझे छोड़ते हो, तुम्हें अपनी समस्त जानकारियां छोड़नी पड़ेंगी, अपनी सभी सुरक्षाएं खोनी होंगी। तुम्हें अपने सुरक्षा कवच छोड़ देने होंगे और तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे होओगे । बिना किसी भी कारण के अनावश्यक ही तुम खतरा मोल ले रहे हो ।” मन सुंदर-सुंदर तर्काभास देने की कोशिश करेगा। यह प्रश्न भी मन द्वारा दिए गए तर्काभासों में से एक है। यह तुम नहीं हो - यह, जो प्रश्न पूछ रहा है; यह तुम्हारा मन है— तुम्हारा दुश्मन – जो तुम्हारे माध्यम से प्रश्न पैदा कर रहा है। अब यह मन ही है जो पूछ रहा है: “भगवान, आप हमें सतत समझाते हैं कि 'होशपूर्ण होओ,' कि 'साक्षी बनो' लेकिन साक्षी चेतना क्या वास्तव में गीत गा सकती है, नृत्य कर सकती है और जीवन का स्वाद ले सकती है ?" हां! वास्तव में, केवल साक्षी चेतना ही गीत गा सकती है, नृत्य कर सकती है और जीवन का स्वाद ले सकती है। यह विरोधाभासी प्रतीत होगा - यह है ! — लेकिन वह सब जो सत्य है वह हमेशा विरोधाभासी है। स्मरण रखो : यदि सत्य विरोधाभासी नहीं है तो वह बिलकुल ही सत्य नहीं है, तब वह कुछ और ही है। विरोधाभास सत्य का एक आधारभूत और अंतरस्थ गुण है। इस बात को अपने 243 ओशो से प्रश्नोत्तर हृदय में हमेशा के लिए उतर जाने दो कि सत्य मात्र ही विरोधाभासी है। यद्यपि सभी विरोधाभास सत्य नहीं हैं, लेकिन सभी सत्य विरोधाभास हैं। सत्य को एक विरोधाभास होना ही है क्योंकि उसे निगेटिव और पाजिटिव दोनों ध्रुव एक साथ होना है- फिर भी वह एक अतिक्रमण है। सत्य को जीवन भी होना है और मृत्यु भी और भी कुछ अधिक — 'प्लस' । 'कुछ और अधिक' – 'प्लस' से मेरा अर्थ है: दोनों का अतिक्रमण – दोनों, और दोनों नहीं। यह है परम विरोधाभास । जब तुम मन से ग्रसित हो, तब तुम कैसे गीत गा सकते हो ? मन दुख निर्मित करता है, और दुख से गीत नहीं उठ सकते। जब तुम मन से बंधे हो, तब तुम कैसे नृत्य कर सकते हो ? हां, तुम कुछ खाली खाली मुद्राओं से गुजर कर उसे नृत्य कह सकते हो, लेकिन वह वास्तविक नृत्य नहीं है। केवल मीरा जानती है कि वास्तविक नृत्य क्या है— या कृष्ण, या चैतन्य; ये हैं वे लोग जो जानते हैं वास्तविक नृत्य । अन्य दूसरे तो नृत्य की टेकनीक मात्र ही जानते हैं, लेकिन उनमें कुछ भी अतिरेक से नहीं बहता; उनकी ऊर्जाएं अप्रवाहित डबरा बन गई हैं। जो लोग मन में जीते हैं. वे अहंकार में जी रहे हैं, और अहंकार नृत्य नहीं कर सकता। वह एक प्रदर्शन या दिखावा कर सकता है, लेकिन नृत्य नहीं । वास्तविक नृत्य तो केवल तभी घटता है जब तुम साक्षी बन जाते हो। तब तुम इतने आनंदित हो उठते हो कि स्वयं आनंद ही तुमसे अतिरेक में बहने लगता है—यही नृत्य है। यह आनंद ही गीत गा उठता है; अपने आप ही एक गीत का आविर्भाव होता है। और जब तुम साक्षी होते हो तभी तुम जीवन का स्वाद ले सकते हो । मैं तुम्हारे प्रश्न को समझ सकता हूं। तुम चिंतत हो कि एक साक्षी बन कर तुम शायद जीवन के एक तमाशबीन, एक दर्शक मात्र बन जाओगे। नहीं, तमाशबीन होना एक बात है और साक्षी होना बिलकुल ही अलग बात है, वह गुणात्मक रूप से भिन्न है । तमाशबीन व्यक्ति तटस्थ और निष्क्रिय होता है; वह ढीला होता है, वह एक प्रकार की नींद में है। वह जीवन में भागीदार नहीं होता। वह भयभीत है; वह एक कायर है। वह किनारे पर खड़ा रहता है और दूसरों को जीवन जीते हुए देखता रहता है। यही तो तुम पूरे जीवन कर रहे हो - चलचित्र में दूसरा अभिनय करता है और तुम देखते हो। तुम एक तमाशबीन भर हो ! लोग लगातार घंटों तक टेलीविजन के सामने चिपके हुए हैं - तमाशबीन ! कोई दूसरा व्यक्ति गा रहा है - तुम सुन रहे हो। कोई दूसरा व्यक्ति नृत्य कर रहा है - तुम मात्र एक दर्शक हो। कोई दूसरा प्रेम कर रहा है - और तुम बस देख रहे हो; तुम भागीदार नहीं हो। तुम्हें जो स्वयं करना चाहिए था उसे व्यवसायी लोग कर रहे हैं। एक साक्षी हुआ व्यक्ति तमाशबीन नहीं है। तब साक्षी क्या है? वह व्यक्ति साक्षी है, जो भागीदार होता है, लेकिन फिर भी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर सजग बना रहता है। साक्षी हुआ व्यक्ति लेकिन संसार के न होनाः यह है साक्षी तुम तुरंत प्रतिक्रिया करते हो। तुम बुद्ध का वेई-वू-वेई की अवस्था में है। यह चेतना का अर्थ। अपमान करो-वे प्रतिक्रिया नहीं करते, वे लाओत्सू का शब्द है। इसका अर्थ यही है मेरा अर्थ तुम्हें बार-बार यह कृत्य करते हैं। प्रतिक्रिया दूसरे पर है-अक्रिया से निकली हुई क्रिया। साक्षी कहने का कि जागरूक रहो। मैं कृत्य के आधारित है : कोई दूसरा तुम्हारा एक बटन वह व्यक्ति नहीं है जिसने जीवन से विरोध में नहीं हूं लेकिन तुम्हारे कृत्य होश दबाता है और तुम बस एक शिकार हो, पलायन किया है। वह जीवन को जीता से आलोकित होने चाहिए। वे लोग जो एक गुलाम; तुम एक मशीन की तरह है-कहीं अधिक समग्रता से, कहीं कर्म के विरोध में है, वे दमनकारी ही होने व्यवहार करते हो। अधिक सप्राण, लेकिन कहीं गहरे में एक वाले हैं, और सब प्रकार के दमन तुम्हें एक सच्चा व्यक्ति जो जानता है कि साक्षी बना रहता है, वह सतत स्मरण रुग्ण बनाते हैं-स्वस्थ नहीं, संपूर्ण नहीं। होश क्या है, वह प्रतिक्रिया कभी नहीं रखता है : “मैं चैतन्य हूं।" मठों में रहने वाले भिक्षु–चाहे वे : करता है; वह अपने स्वयं के होश के इसका प्रयोग करो। सड़क पर चलते कैथोलिक हों या हिंदू, जैन साधु हों या आधार पर कृत्य करता है। उसका कृत्य हुए स्मरण रखो कि तुम चैतन्य हो। चलना बौद्ध भिक्षु-जो जीवन को छोड़कर उससे दूसरे के कर्म पर आधारित नहीं होता; कोई तो जारी रहता है और एक नई बात जुड़ पलायन कर गए हैं-वे सच्चे संन्यासी दूसरा व्यक्ति उसका बटन नहीं दबा जाती है-एक नया सौंदर्य, एक नया नहीं हैं। उन्होंने अपनी इच्छाओं का दमन सकता। यदि उसे सहजता से लगता है कि ऐश्वर्य जुड़ जाता है। बाह्य कृत्य में एक कर लिया है, और वे संसार से, कर्म के यह करना सही है तो वह उसे करता है; आंतरिक गुणवत्ता जुड़ जाती है। तुम चेतना संसार से दूर हट गए हैं। यदि तुम कर्म यदि उसे लगता है कि यह अनावश्यक है, की एक लपट बन जाते हो, और तब के संसार से ही दूर हट गए हो, तो तुम तो वह शांत और निष्क्रिय बना रहता है। चलने में एक नया ही आनंद आ जाता है। फिर कहां साक्षी बन पाओगे। होशपूर्ण वह दमनकारी वृत्ति का नहीं है; वह हमेशा तुम पृथ्वी पर हो लेकिन तुम्हारे पैर पृथ्वी होने के लिए कर्म का संसार ही सबसे खुला हुआ और अभिव्यक्ति-उन्मुख है। को बिलकुल नहीं छूते। अच्छा अवसर है। वह तुम्हें चुनौती देता उसकी अभिव्यक्ति बहु-आयामी है। गीत यही तो बुद्ध ने कहा है : नदी से गुजरो, है; वह सतत एक चुनौती बना रहता में, काव्य में, नृत्य में, प्रेम में, प्रार्थना में, लेकिन पानी तुम्हारे पैरों को न छुए। है। या तो तुम मूर्छा में पड़ जाओ और करुणा में वह बहता है। पूरब के प्रतीक कमल का यही अर्थ है। एक कर्ता बन जाओ-तब तुम एक यदि तुम होशपूर्ण नहीं होते, तब केवल तुमने बुद्ध की मूर्तियां या चित्र देखे संसारी व्यक्ति, एक स्वप्न देखने वाले, दो संभावनाएं रहती हैं: या तो तुम होंगे-कमल के फूल पर विराजमान; यह भ्रांतियों के एक शिकार हो-और या तुम दमनात्मक होते हो, या फिर अति-भोग में एक रूपक है। कमल एक ऐसा फूल है जो साक्षी बन जाओ और संसार में रहना जारी रत होते हो। दोनों ही हालत में तुम बंधन में पानी में रहता है, लेकिन पानी उसे स्पर्श रखो।. तब तुम्हारे कर्म की एक अलग बने रहते हो। नहीं कर सकता। कमल किसी हिमालय ही गुणवत्ता होती है-वह सच में ही कृत्य की गुफा में पलायन नहीं करता; वह पानी होता है। जो होशपूर्ण नहीं हैं, उनके कृत्य मठ के बाहर ही एक भिक्षुणी पर में रहता है और फिर भी पानी से वास्तव में क्रियाएं नहीं हैं लेकिन बलात्कार कर दिया गया था। अंततः जब बहुत-बहुत दूर बना रहता है। बीच बाजार प्रतिक्रियाएं हैं। वे केवल प्रतिक्रियाएं इस घटना का पता चला, तब वह भिक्षुणी में रहना लेकिन बाजार को अपने अंतस में करते रहते हैं। मठ के अंदर ले जाई गई और पास के एक प्रविष्ट न होने देना; संसार में होना, कोई तुम्हारा अपमान कर देता है और डॉक्टर को बुलाया गया। 244 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर डॉक्टर आया, देखा, हाथ उठाया और उसने उस बेचारी भिक्षुणी को देखा तो दया मदर सुपीरियर ने उत्तर दिया, " ओह, बोला, "इस काम के लिए तो प्लास्टिक से बोला, "हे परमात्मा! सब कितना यह सरल है। लेकिन सबसे पहले तुम सर्जन की जरूरत है!" छिन्न-भिन्न है! मुझे कहां से शुरू करना उसके चेहरे पर अंकित मुस्कुराहट को प्लास्टिक सर्जन बुलाया गया। जब चाहिए?" हटाओ!"1 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर स्वीकार और साक्षी से मन का अतिक्रमण जब कभी मेरे मन का स मझने के लिए आधारभूत बात यह का अर्थ है : स्वयं के लिए मुसीबतें निर्मित अंधेरा हिस्सा ऊपर आता है. है कि तुम मन नहीं हो-न तो करना। तो वह मझे बहत डरा देता है। उजले हिस्से और न अंधरे हिस्से। यदि तुम चुनावरहित होने का अर्थ है: तम्हारे मेरे लिए यह स्वीकार करना बहुत मन के सुंदर हिस्से से तादात्म्य कर लेते पास मन है और उसका एक हिस्सा कठिन है कि यह मेरे मन के हो, तो फिर मन के कुरूप हिस्से से अपना अंधकारपूर्ण है और दूसरा हिस्सा उज्ज्वल उजले हिस्से का एक दूसरा ध्रुव तादात्म्य तोड़ लेना तुम्हारे लिए असंभव है-ऐसा है-इसमें समस्या क्या है? है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम इसका तुमसे क्या लेना-देना है? इसके मात्र है। मैं अपने आपको गंदा पूरा सिक्का फेंक सकते हो या पूरा सिक्का लिए तुम्हें क्यों चिंतित होना चाहिए? और अपराधी अनुभव करता हूँ रख सकते हो. लेकिन तम उसे दो हिस्सों जिस क्षण तुम चुनाव नहीं कर रहे होते, और आपकी निर्मल और पावन र पावन में विभाजित नहीं कर सकते। सब चिंताएं विलीन हो जाती हैं; एक गहन उपस्थिति में आपके निकट बैठने और मनुष्य की सारी चिंता यह है कि स्वीकारभाव का उदय होता है कि मन का के लिए मैं स्वयं को सुपात्र नहीं वह उन सब बातों को चुन लेना चाहता है ऐसा स्वभाव ही है कि मन को ऐसा ही लगता। मैं अपने मन के जो सुंदर और उजली लगती हैं। वह काले होना है। और वास्तव में यह तुम्हारी सभी पहलुओं का साक्षात्कार बादलों को छोड़कर सभी चमकीली समस्या नहीं है क्योंकि तुम मन नहीं हो। करना चाहता हूं क्योंकि रेखाओं को चुन लेना चाहता है। लेकिन यदि तुम मन मात्र ही होते तो भी कोई मैं आपको बहुधा यह कहते हए वह नहीं जानता कि काले बादलों के बिना समस्या न हुई होती, क्योंकि तब कौन सनता है कि मन का अतिक्रमण चमकीली रेखाओं का अस्तित्व ही नहीं हो चुनता और अतिक्रमण के लिए कौन करने का सत्र है। उसका स्वीकार सकता। काले बादल तो पृष्ठभूमि निर्मित अभीप्सा करता? फिर कौन स्वीकार करने करना। कृपया क्या आप करते हैं और वे अनिवार्यरूपेण जरूरी हैं का या स्वीकार को समझने का प्रयास स्वीकारभाव पर बोलेंगे? ताकि चमकीली रेखा दिखाई पड़ सके। करता? चुनाव करना ही चिंता है। चुनाव करने तुम भिन्न हो, बिलकुल भिन्न हो। तुम 246 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर साक्षी हो और कुछ भी नहीं। तुम एक रात, जागते-सोते वह सदा सक्रिय रहा खिलाया-पिलाया जाता है। वह बच्चा देखने वाले हो जो किसी भी सुखद बात से है-अचानक वह विलीन हो जाता है। धीरे-धीरे बड़ा होता चला जाता है और तादात्म्य कर लेता है और भूल जाता है कि तुम चारों ओर देखते हो और सब अंततः पूरे बोतल को अपनी आकृति से सुखद के पीछे उसकी छाया की तरह दुखद खाली है, सब शून्य है। और मन के साथ भर डालता है। अब वह इतना बड़ा हो भी चला आ रहा है। ही अहंकार भी विलीन हो जाता है। गया है कि वह बोतल के मुंह से बाहर नहीं तुम मन के सुखद हिस्से से तकलीफ फिर बच रहती है चैतन्य की एक निकल सकता; बोतल का मुंह अब छोटा नहीं पाते-तुम तो उसका मजा लेते हो। गुणवत्ता जिसमें कोई 'मैं नहीं होता। ज्यादा पड़ गया है। और पहेली यह कहती है कि तकलीफ आती है जब विपरीत ध्रुव सक्रिय से ज्यादा तुम उसे “हूं-पन" से मिलता तुम्हें हंस को बाहर निकालना है—बिना हो जाता है; तब तुम टूट-फूट जाते हो। हुआ कह सकते हो, लेकिन “मैं-पन" बोतल को तोड़े और बिना हंस को मारे। लेकिन तुमने ही सारे तकलीफ की नहीं कह सकते। इसे "है-पन" कहना अब यह बुद्धि चकराने वाली बात है। शुरुआत की थी। एक साक्षी होने से गिर और भी ज्यादा सही होगा, क्योंकि तुम क्या कर सकते हो? हंस बहुत बड़ा हो कर तुमने तादात्म्य बना लिया। "हूं-पन" में भी "मैं" की कुछ न कुछ गया है, और तुम उसे बिना बोतल को तोड़े __ अदम और ईव के पतन की बाइबिल छाया बनी ही रहती है। जिस क्षण तुम बाहर नहीं निकाल सकते, लेकिन तुम्हें वाली कहानी मात्र एक कल्पना है, लेकिन इसके “है-पन" को जान लेते हो, उस ऐसा करने की अनुमति नहीं है। या तुम यह है वास्तविक पतन : साक्षी होने की क्षण यह ब्रह्मांडीय हो जाता है। उसे मार कर बाहर निकाल सकते हो; तब अवस्था से नीचे गिर कर किसी चीज से मन के विलीन होते ही "मैं" भी विलीन तुम इस बात की चिंता नहीं करते कि हंस तादात्म्य कर लेना और अपना साक्षित्व हो जाता है। साथ ही और भी अनेक चीजें मर गया है। लेकिन उसे मारने की भी खो बैठना। विलीन हो जाती हैं, जो तुम्हारे लिए बहुत अनुमति नहीं है। कभी प्रयोग करके देखोः मन जो भी है महत्वपूर्ण थीं, जो तुम्हारे लिए बहुत दिन-ब-दिन शिष्य इस पहेली पर उसे वैसा ही रहने दो। स्मरण रखोः तुम तकलीफदेह थीं। तुम उन्हें हल करने की ध्यान करता है; कोई रास्ता नहीं निकाल मन नहीं हो। और तुम एक बड़े आश्चर्य कोशिश कर रहे थे और वे अधिक से पाता। हर पहलू से विचार करता है, का सामना करने वाले हो। जैसे-जैसे अधिक जटिल बनती जा रही थीं; हर बात लेकिन वास्तव में इसका कोई हल नहीं है। तुम्हारा मन से तादात्म्य कम होने लगता एक समस्या थी, एक चिंता थी, और उससे थक गया, बिलकुल निर्जीव-सा हो है, मन कम शक्तिशाली होने लगता है छुटकारे का कोई रास्ता नहीं दिखता था। गया-अचानक एक अंतर्दृष्टि घटित क्योंकि उसकी शक्ति तुम्हारे तादात्म्य से मैं तुम्हें एक बोधकथा का स्मरण होती है। अचानक वह समझ पाता है कि आती है; वह तुम्हारा खून चूसता है। दिलाऊंगा जिसका शीर्षक है-"हंस सद्गुरु की रुचि बोतल में या हंस में नहीं लेकिन जब तुम दूर और तटस्थ खड़े होने मुक्त हो गया है।" इसका संबंध तुम्हारे हो सकती; शायद ये किसी दूसरी चीज के लगते हो, मन छोटा होने लगता है। मन और तुम्हारे 'है-पन' से है। प्रतीक हैं। जिस दिन मन से तुम्हारा तादात्म्य टूटता एक झेन सद्गुरु अपने शिष्य से एक मन बोतल है और तुम हंस है-एक क्षण के लिए भी-तब एक कोआन, एक पहेली पर ध्यान करने को हो...लेकिन साक्षी की साधना से इस रहस्योदघाटन होता है : मन मर जाता है, कहते हैं। हंस का एक छोटा-सा बच्चा पहेली का हल हो जाता है। तुम मन से मन बच नहीं रहता। जहां वह इतना भरपूर एक बोतल के अंदर डाल दिया जाता है, इतना ज्यादा तादात्म्य कर सकते हो कि था, इतना सतत चल ही रहा था—दिन फिर उसे बोतल के भीतर ही तुम अनुभव करना शुरू कर दो कि तुम 247 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में कैद हो, जबकि वास्तव में तुम मन में कैद हो नहीं। वह शिष्य दौड़ता हुआ सद्गुरु के पास आता है - यह कहने के लिए कि हंस बाहर आ गया है। और सद्गुरु कहते हैं : " तुमने बात समझ ली है। अब हंस को बाहर ही रखो। वह कभी बोतल में बंद रहा ही नहीं है। " यदि तुम हंस और बोतल से संघर्ष करते ही रहे, तो तुम्हारे लिए इस पहेली को हल करने की कोई संभावना नहीं है। यह एक अंतर्बोध है कि "हंस और बोतल किसी दूसरी बात के प्रतीक होने चाहिए अन्यथा सद्गुरु मुझे यह पहेली न देते। और ये प्रतीक क्या हैं? " क्योंकि सद्गुरु और शिष्य के बीच की सारी प्रक्रिया, सारा व्यवहार मन और सजगता के संबंध में ही है। सजगता है वह हंस जो मन की बोतल में बंद नहीं है। लेकिन तुम सोच रहे हो कि हंस बोतल में बंद है और हर किसी से पूछ रहे हो कि उसे कैसे बाहर निकाला जाए। और ऐसे मूढ़ मौजूद हैं जो तुम्हें विधियों से सहायता करने को तैयार हैं- कि तुम कैसे बाहर निकलो। मैं उन्हें मूढ़ कहता हूं क्योंकि वे इस बात को बिलकुल ही नहीं समझते। हंस मुक्त ही है और कभी भी बोतल के भीतर नहीं रहा, इसलिए उसे बाहर लाने का प्रश्न ही नहीं उठता। मन विचारों का एक काफिला भर है जो मस्तिष्क के परदे पर तुम्हारे सामने से ता है। तुम एक द्रष्टा हो । लेकिन तुम सुंदर बातों से तादात्म्य बनाने लगते ओशो से प्रश्नोत्तर हो — वे घूंस की तरह हैं। एक बार तुम सुंदर चीजों द्वारा पकड़ लिए गए, तो फिर तुम कुरूप चीजों से भी पकड़ लिए जाओगे, क्योंकि बिना द्वैत के मन जी ही नहीं सकता है । द्वैत में सजगता जी नहीं सकती और मन नहीं जी सकता द्वैत के बिना । "लेकिन, ” मैंने कहा, “वहां तो केवल एक परदा है और कुछ भी नहीं । कोई भी मारा नहीं गया; कोई दुखद घटना नहीं घट रही है—बस एक फिल्म का प्रक्षेपण है। बस कुछ चित्र परदे पर गुजर रहे हैं- और लोग हंसते हैं, लोग रोते हैं और तीन घंटों के लिए वे करीब-करीब खो जाते हैं। वे सजगता है अद्वंद्वात्मक, और मन है चलचित्र के ही हिस्से ही हो जाते हैं; वे द्वंद्व । इसलिए बस देखो। किसी अभिनेता से तादात्म्य कर लेते हैं। " मैं तुम्हें "कोई हल नहीं सिखाता। मैं मेरे पिताजी ने मुझसे कहा, “यदि तुम तुम्हें “एक मात्र हल" सिखाता हूं। बस लोगों की प्रतिक्रियाओं पर प्रश्न उठाते थोड़ा पीछे हट जाओ और देखो। अपने रहोगे, तो तुम चलचित्र का आनंद ही नहीं मन और स्वयं के बीच एक दूरी निर्मित उठा सकते।" करो। चाहे वह अच्छा हो - सुंदर हो, सुस्वादु हो, ऐसा कुछ हो जिसका तुम गहराई से मजा लेना चाहते हो— या वह कुरूप हो तुम हमेशा मन से जितने दूर रह सको, रहो। उन्हें उसी तरह देखो जैसे तुम एक चलचित्र देखते हो। लेकिन लोग तो चलचित्रों में भी तादात्म्य कर लेते हैं! मैंने देखा है, जब मैं युवा था – पिछले बहुत समय से मैंने कोई चलचित्र नहीं देखा है— लेकिन मैंने देखा है लोगों को रोते हुए... आंसू बह रहा है...। यह अच्छा है कि सिनेमागृहों में अंधेरा होता है; यह उन्हें सहायक होता है ताकि वे कोई उलझन अनुभव न करें—और यथार्थ में कुछ भी नहीं घट रहा है ! मैं अपने पिताजी से पूछता था, “क्या आपने देखा? वह व्यक्ति जो आपके बाजू में बैठा था, वह रो रहा था!” वे बोले, “पूरा हॉल रो रहा था । दृश्य ही कुछ ऐसा था । " मैंने कहा, "मैं फिल्म का आनंद ले सकता हूं, लेकिन मैं रोना नहीं चाहता। मैं उसमें कोई हर्ष नहीं देखता । मैं इसे एक फिल्म की तरह देख सकता हूं, लेकिन मैं उसका एक अंग नहीं बन सकता। ये सब लोग तो चलचित्र के अंग ही बने जा रहे हैं । " तुम किसी भी बात से तादात्म्य बना लेते हो। लोग दूसरे व्यक्तियों से तादात्म्य बना लेते हैं फिर वे स्वयं के लिए दुख निर्मित कर लेते हैं। वे चीजों से तादात्म्य कर लेते हैं, फिर यदि वह वस्तु खो जाए तो वे दुखी हो जाते हैं। तुम्हारे दुख का मूल कारण तादात्म्य है। और प्रत्येक तादात्म्य मन से तादात्म्य है। मन से किनारे हट जाओ; मन को गुजर जाने दो। फिर शीघ्र ही तुम देख पाओगे कि कोई समस्या ही नहीं है— हंस मुक्त ही है। तुम्हें बोतल तोड़नी नहीं है और न ही तुम्हें हंस को मार डालना है। 2 248 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर शिखर पर खड़ा द्रष्टा लगता है कि ता होना चाहिए। किए चले जाते : हो जा लगता है कि वो ठीक वही स्थान है, जहां तुम्हें द्रष्टा बन जाते हो। नरक में भी, यदि तुम मैं न तो बिलकुल पूरी तरह सा होना चाहिए। . उसको स्वीकार कर लो, तो नरक समाप्त संसार में हं. और न ही तुम समस्याएं ही खड़ी किए चले जाते हो जाता है। क्योंकि नरक केवल तुम्हारी पर्वत शिखर पर हो। जहां भी तुम हो, वहीं रहो। शिखर पर अस्वीकृति में ही बना रह सकता है। नरक द्रष्टा की तरह खड़ा हूं। द्रष्टा बन कर खड़े होने की कोई जरूरत विलीन हो जाता है और स्वर्ग प्रकट होता नहीं है। कोई 'चाहिए' नहीं होना चाहिए। है। जो कुछ भी तुम स्वीकार कर लेते हो एक ही जगह . एक बार 'चाहिए' जीवन में प्रवेश कर गया वह स्वार्गिक हो जाता है, और जो कुछ भी किस प्रकार हुआ जाए? तो तुम विषाक्त हो ही गए। कोई लक्ष्य तुम अस्वीकृत कर देते हो वह नरक बन मुझे लगता है नहीं होना चाहिए। कोई सही-गलत नहीं जाता है। मैं जो कुछ भी करता हूं होना चाहिए। यही एक पाप है: विभाजन ऐसा कहा जाता है कि किसी संत को उसके बीच मझधार में ही होता हूं। की, मूल्यों की, निंदा और प्रशंसा की नरक में नहीं डाला जा सकता क्योंकि वह भाषा में सोचना। उसे रूपांतरित कर लेने की कीमिया जानता जहां भी तुम हो...शिखर पर खड़े द्रष्टा है। तुमने सुना है कि पापी नरक जाते हैं और सांसारिक मनुष्य के बीच की दशा में और संत स्वर्ग जाते हैं लेकिन तुमने कोई गलत बात नहीं है। ठीक वहीं तुम्हें गलत सुना है। बात इससे ठीक उलटी है: होना चाहिए। और मैं कहता हूं : तुम जहां पापी जहां भी जाते हैं वहां नरक बना लेते भी हो, यदि उसको स्वीकार कर सको, तो हैं, और संत जहां भी जाते हैं वहां स्वर्ग तभी और वहीं तत्क्षण तुम शिखर पर खड़े बना लेते हैं। संतों को स्वर्ग भेजा नहीं 249 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर जाता। भेजने-करने के लिए कोई बैठा चारों ओर का संसार रूपांतरित हो जाता भीतर झांको। सीधे ही भीतर देखो। किस हुआ नहीं है कोई भी नहीं है। लेकिन है। तुम एक रूपांतरणकारी शक्ति बन चीज की जरूरत है? सब कुछ परिपूर्ण जहां भी वे जाते हैं, यह उनके होने का ढंग गए। ___ और सुंदर है। मैं एक बादल भी वहां नहीं है: वे अपना स्वर्ग बना लेते हैं। अपना स्वीकार-एक गहन और समग्र देख सकता। बस अपने भीतर स्वर्ग वे अपने साथ, अपने भीतर लेकर स्वीकारभाव ही सारा का सारा धर्म है। झांको-तुम्हारे अंतआकाश में एक बादल चलते हैं। और पापी? -तुम उन्हें स्वर्ग अ चाहता है ब बनना; ब चाहता है स भी नहीं है। सब कुछ प्रकाश से परिपूर्ण में भेज सकते होः वे नरक बना लेंगे। बनना। फिर बनने का रोग पैदा होता है। है। वे और कुछ कर भी नहीं सकते। तुम एक बनने की प्रक्रिया नहीं हो; तुम लेकिन देर-अबेर मन कुछ और होने __ तो एक संत या पापी की परिभाषा क्या एक होना हो। तुम पहले से ही वही हो जो को, कहीं और चलने को, बनने को है? मेरी परिभाषा है : संत वह है जो हर तुम हो सकते हो, जो तुम कभी भी हो कहेगा। मन तुम्हें 'होने' की आज्ञा नहीं चीज को स्वर्ग में बदल लेने की कीमिया सकते हो-तुम पहले से ही वही हो। देता। मन है 'बनना', और तुम्हारी आत्मा का राज जानता है। और पापी वह है जो तुम्हारे बाबत और ज्यादा कुछ भी नहीं है 'होना'। इसलिए बुद्धपुरुष कहे चले चीजों को सुंदर अस्तित्व में रूपांतरित कर किया जा सकता। तुम एक पूर्ण निर्मित जाते हैं, “जब तक तुम सब इच्छाओं को लेने का राज नहीं जानता। बल्कि वह घटना हो।। नहीं त्याग देते, तब तक उपलब्ध नहीं हो चीजों को असुंदर ही करता चला जाता है। इस कहानी को, कि परमात्मा ने संसार सकते!" तुम जो भी हो तुम्हारे चारों ओर वही का सृजन किया, मैं यही अर्थ देता हूं: इच्छा का अर्थ है बनना। इच्छा का अर्थ प्रतिबिंबित होगा। तो कुछ और होने की जब पूर्ण सृजन करता है तो सृष्टि भी है कुछ और होना। इच्छा का अर्थ है अपने चेष्टा मत करो। और न ही किसी और परिपूर्ण होती है। जब परमात्मा सृजन को जैसे हो वैसा स्वीकार न करना, एक स्थान पर होने की चेष्टा करो। यही वह करता है, तो तुम उसमें सुधार कैसे कर पूर्ण 'हां' की दशा में न होना-चाहे कैसे रोग है जिसे मनुष्य कहते हैं: उसे हमेशा सकते हो? जरा इस बात की पूरी मूढ़ता भी परिस्थिति क्यों न हो। कुछ और बनना है, कहीं और होना है; जो पर विचार तो करो; पूरी बात ही मूढ़तापूर्ण जीवन को "हां" कहना ही धार्मिक होना है उसे वह सदा अस्वीकृत करेगा, और जो है। है; जीवन को "न" कहने का अर्थ है नहीं है उसके पीछे दौड़ेगा। यही वह रोग है तुम परमात्मा के किए पर सुधार करने अधार्मिक होना। और जब भी तुम किसी जिसे मनुष्य कहते हैं। की चेष्टा कर रहे हो; तुम सुधार नहीं कर चीज की इच्छा करते हो तो तुम “न” कह सचेत हो जाओ! क्या तुम्हें यह दिखाई सकते। तब बस इतना ही है कि तुम दुखी रहे हो। तुम कह रहे हो कि इससे कुछ पड़ता है? यह तो सीधी-सी देखने की बात हो सकते हो। और व्यर्थ ही पीड़ित हो बेहतर संभव है। है। मैं इसके बारे में कोई सैद्धांतिक सकते हो। और ऐसी बीमारियां तुम्हें वृक्ष खुश हैं, पक्षी खुश हैं और बादल व्याख्या नहीं कर रहा हूं; मैं कोई दार्शनिक झेलनी पड़ेंगी जो तुम्हारी कल्पना के खुश हैं क्योंकि उनमें कुछ बनने की नहीं हूं। मैं तो एक स्पष्ट और नग्न सत्य अतिरिक्त और कहीं नहीं हैं। परमात्मा के कामना नहीं है। वे जो हैं, सो हैं। की ओर संकेत कर रहा हूं कि तुम चाहे सृजन करने का अर्थ है: पूर्णता से पूर्णता गुलाब की झाड़ी कमल होने की चेष्टा जहां भी हो, यदि इस क्षण में जी सको और आती है। नहीं कर रही है। नहीं, गुलाब की झाड़ी भविष्य को, लक्ष्यों को, कुछ और बनने तुम परिपूर्ण हो! और कुछ भी नहीं गुलाब की झाड़ी होने में ही बिलकुल प्रसन्न के खयाल को भूल सको तो तत्क्षण तुम्हारे चाहिए। ठीक अभी, इसी क्षण अपने है। गुलाब की झाड़ी को तुम फुसला नहीं 250 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते। कमल का तुम कितना ही विज्ञापन क्यों न करो, तुम गुलाब की झाड़ी की बुद्धि भ्रष्ट नहीं कर सकते कि वह कमल बन जाए। वह तो हंस पड़ेगी — क्योंकि गुलाब की झाड़ी गुलाब की झाड़ी है। वह अपने होने में थिर और केंद्रित है। यही कारण है कि पूरी प्रकृति किसी भी तरह रोग से मुक्त है : शांत और मौन और निश्चल | और स्थिर ! केवल मानव मन ही अराजकता में है, क्योंकि हर व्यक्ति कुछ और बनने की लालसा से भरा हुआ है। हजारों जन्मों से तुम यही कर रहे हो। और यदि तुम अब नहीं जागते, तो तुम कब सोचते हो कि 251 ओशो से प्रश्नोत्तर जागोगे ? जागने के लिए तुम परिपक्व हो । इसी क्षण से जीना, आनंदित होना और आह्लादित होना शुरू करो। चाहना छोड़ो ! जो तुम हो, उसका आनंद लो। अपने होने में आह्लादित होओ। और फिर अचानक समय मिट जाता है, क्योंकि समय इच्छा के कारण ही होता है। भविष्य इच्छा के कारण ही होता है। फिर तुम पक्षियों की भांति हो जाओगे; सुनो उनको । फिर तुम वृक्षों की भांति हो जाओगे; ताजगी को, हरियाली को, फूलों को देखो। जहां हो कृपया वहीं हो रहो। मैं यहां तुममें कोई नई इच्छा पैदा करने के लिए नहीं हूं; मैं तो यहां तुम्हें इच्छा की पूरी निरर्थकता का बोध दिलाने के लिए हूं। इच्छा संसार है। इच्छा की निरर्थकता को समझ लेना ही संबुद्ध होना है। जिसने यह खोज लिया कि जो वह सदा से होना चाहता था वह पहले से ही है, तो वह बुद्ध हुआ। और तुम सब बुद्ध हो, चाहे कितनी ही गहरी नींद में क्यों न सोए होओ। और खर्राटे भर रहे होओ उससे कोई भेद नहीं पड़ता । मुझे अपना अलार्म बन जाने दो। अपनी आंखें खोलो। बहुत देर तुम सो लिए | अब जागने का समय हुआ। सुबह तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है। 3 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर - मन को भटकने दोः • तुम बस देखो ध्यान करते समय भी मेरा मन पांच सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से दौडता रहता है। अनुभव नहीं होता, और जो भी साक्षीभाव घटता वह एक चौंध के जैसा क्षणिक होता है। क्या मैं अपना समय व्यर्थ कर रहा हूं? - म्हारा मन तो बहुत मंद-गति है। ओर दौड़ता हुआ देखते रहो। इसका आनंद पांच सौ मील प्रति घंटा, बस? लो! मन के इस खेल का आनंद लो। और इसे तुम रफ्तार मानते हो? तुम इसके लिए संस्कृत में हमारे पास एक तो बहुत ही मंदगति हो। मन तो इतनी तेज विशेष शब्द है; इसे हम कहते हैं दौड़ता है कि कोई गति नहीं जानता। वह चिद्विलास-चेतना का खेल। इसका तो प्रकाश से भी तेज है। प्रकाश एक आनंद लो!-सितारों की ओर दौडते. सैकेंड में एक लाख छियासी हजार मील तेजी से इधर-उधर डोलते और अस्तित्व की दूरी तय कर लेता है। मन उससे भी भर में कूदते-फांदते मन के इस खेल का तेज है। लेकिन चिंता करने की कोई बात आनंद लो। इसमें गलत क्या है? इसे एक नहीं है-यही तो मन का सौंदर्य है, एक सुंदर नृत्य बन जाने दो। इसे स्वीकार करो। महान गुण है! इसे नकारात्मक रूप से मुझे लगता है कि तुम इसे रोकने की लेने, या इससे लड़ने की अपेक्षा मन से चेष्टा कर रहे हो–यह तुम नहीं कर मित्रता बनाओ। सकते। मन को कोई नहीं रोक सकता! हां, तुम कहते होः “ध्यान करते समय भी मन एक दिन रुक जाता है, लेकिन उसे मेरा मन पांच सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार कोई रोक नहीं सकता। हां, मन एक दिन से दौड़ता रहता है!"-उसे दौड़ने दो। और रुक जाता है, लेकिन वह तुम्हारे प्रयास से भी तेज दौड़ने दो। तुम द्रष्टा बने रहो। तुम नहीं होता। मन तुम्हारी समझ से ही रुक मन को इतनी तेजी से, इतनी गति से चारों जाता है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम बस देखते रहो और यह देखने की चेष्टा करो कि क्या हो रहा है, यह मन क्यों दौड़ रहा है। यह बिना किसी कारण के नहीं दौड़ रहा है। यह देखने की चेष्टा करो कि यह मन क्यों दौड़ रहा है, किस ओर दौड़ रहा है— जरूर तुम महत्वाकांक्षी होओगे । यदि यह धन के विषय में सोचता है, तो समझने की कोशिश करो। सवाल मन का नहीं है। तुम धन का सपना लेने लगते हो, कि तुम्हारी कोई लाटरी निकल गई है या 'यह' हो गया और 'वह' हो गया, और फिर तुम योजना भी बनाने लगते हो कि उसे खर्च कैसे करना, क्या खरीदना है और क्या नहीं खरीदना । या, मन सोचने लगता है कि तुम कहीं के राष्ट्रपति बन गए, प्रधानमंत्री बन गए, और फिर तुम सोचने लगते हो कि अब क्या करना है, देश को या संसार को कैसे चलाना है। मन को बस देखो ! — कि किस ओर जा रहा है। तुममें जरूर कोई बहुत गहरा बीज होगा। जब तक वह बीज न मिट जाए तब तक तुम मन को नहीं रोक सकते। मन तो बस तुम्हारे अंतर्तम बीज के आदेश का अनुसरण कर रहा है। कोई सेक्स के, काम के विषय में सोच रहा है; तो जरूर कहीं दमित कामुकता होगी। देखो कि मन किस ओर दौड़ रहा है। अपने भीतर गहरे झांको और खोजो कि बीज कहां हैं। मैंने सुना है: एक पादरी बड़ा घबड़ाया हुआ था । "सुनो,” उसने अपने चर्च के चौकीदार से कहा, “किसी ने मेरी साइकिल चुरा ली है।" 253 ओशो से प्रश्नोत्तर "आप उस पर बैठ कर कहां-कहां गए तुम मंद हो जाओगे। इससे कोई सतोरी थे?" चौकीदार ने पूछा। नहीं होगी। “बस गांव में लोगों के यहां पूजा इत्यादि करवाने गया था। " चौकीदार ने सलाह दी कि सबसे अच्छा उपाय यह होगा कि रविवार को पादरी टेन कमांडमेंट्स पर उपदेश दे। “जब आप 'चोरी नहीं करनी चाहिए' पर पहुंचेंगे तो हम दोनों मिल कर लोगों के चेहरों को देखेंगे — और जल्दी ही हमें पता चल जाएगा।" रविवार आया, पादरी बड़े जोर-शोर से कमांडमेंट्स पर उपदेश देने लगा, और फिर बोलते-बोलते बीच में ही अटक गया और अपनी बात बदल ली। चौकीदार बोला, “श्रीमान, मैं सोचता था आप 'वह' बात भी करेंगे...।” “अरे, जानता हूं; जानता हूं। लेकिन देखो जब मैं, 'व्यभिचार नहीं करना चाहिए' पर पहुंचा तो मुझे याद आ गया कि मैंने अपनी साइकिल कहां छोड़ी है।" बस इतना ही देख लो कि तुम अपनी 'साइकिल' कहां छोड़ आए हो। मन कुछ विशेष कारणों से दौड़ रहा है। मन को समझ की, होश की जरूरत है। उसे रोकने की कोशिश मत करो। यदि तुम उसे रोकने की कोशिश करते हो, तो पहली बात तो तुम सफल हो ही नहीं सकते; दूसरी बात, यदि तुम सफल हो सके- यदि वर्षों तक कोई कठोर और सतत प्रयास करता रहे तो सफल हो भी सकता है – यदि तुम सफल हो गए, तो पहली बात, तुम सफल नहीं हो सकते; और यह अच्छा ही है कि तुम इसमें सफल नहीं हो सकते। यदि तुम सफल हो सकते, यदि तुम किसी तरह सफल हो जाते, तो बड़े दुर्भाग्य की बात होती - तुम मंद हो जाते, प्रतिभा खो देते। उस रफ्तार के कारण ही प्रतिभा है, उस रफ्तार के कारण ही विचार, तर्क और प्रतिभा की तलवार पर सतत धार पड़ रही है। कृपया उसको रोकने की कोशिश मत करो। मैं मंदबुद्धियों के पक्ष में नहीं हूं, और न ही मैं यहां किसी को मूढ़ बनने में सहयोग देने के लिए हूं। धर्म के नाम पर बहुत से लोग मूढ़ हो गए हैं, वे बिलकुल जड़बुद्धि ही हो गए हैं— बिना इस बात को समझे कि मन इतनी तेज क्यों दौड़ रहा है, वे उसे रोकने के प्रयास में लगे हुए हैं। मन बिना किसी कारण के तो नहीं दौड़ सकता। उसके कारण में, उसकी तह में, अचेतन की गहरी तहों में जाए बिना ही वे मन को रोकने की कोशिश करते हैं। रोक तो वे सकते हैं, लेकिन उन्हें एक मूल्य चुकाना होगा, और मूल्य यह होगा कि उनकी प्रतिभा खो जाएगी। भारत में चारों और घूमो, तुम्हें हजारों संन्यासी और महात्मा मिलेंगे; उनकी आंखों में झांको— हां, वे अच्छे लोग हैं, भले हैं, लेकिन मूढ़ हैं। यदि तुम उनकी आंखों में झांको तो वहां कोई प्रतिभा नजर नहीं आएगी, कोई चमक नजर नहीं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर आएगी। वे अरचनात्मक लोग हैं; उन्होंने रहे हो। जाएगा। और उस स्वाद के कारण, कुछ भी सृजन नहीं किया। वे बस बैठे तुममें महत्वाकांक्षा है और मन को धीरे-धीरे तुम अधिकाधिक परिस्थितियां रहते हैं। वे बस किसी तरह घिसट रहे हैं; रोकने की कोशिश करते हो? महत्वाकांक्षा निर्मित करोगे जिनमें वह और-और घटे। वे जिंदा लोग नहीं हैं। उन्होंने संसार की गति पैदा करती है, तो तुम गति को बढ़ा “क्या मैं अपना समय व्यर्थ कर रहा किसी भी तरह कोई मदद नहीं की है। रहे हो-और फिर मन पर ब्रेक लगाते हूं?" उन्होंने तो कोई चित्र या कोई कविता या हो। तुम मन के पूरे सूक्ष्म मैकेनिज्म को समय तो तुम व्यर्थ कर ही नहीं सकते, कोई गीत तक नहीं रचा, क्योंकि कविता नष्ट कर दोगे, और मन बड़ी नाजुक घटना क्योंकि समय पर तुम्हारा अधिकार नहीं रचने के लिए भी तुम्हें प्रतिभा चाहिए, है, पूरे अस्तित्व में सबसे नाजुक घटना है। है। तुम वही चीज व्यर्थ कर सकते हो जिस बुद्धि के गुण चाहिए। तो इस बारे में कोई मूढ़ता मत करो। पर तुम्हारा अधिकार हो। समय पर तुम्हारा ___ मैं यह सलाह नहीं दूंगा कि तुम मन को मन को रोकने की कोई जरूरत नहीं है। अधिकार नहीं है। समय तो व्यर्थ होगा ही, रोको, बल्कि उसे समझो। समझने से एक तुम कहते होः “मुझे कभी मौन का चाहे तुम ध्यान करो या न करो-समय तो चमत्कार घटता है। चमत्कार यह होता है अनुभव नहीं होता, और जो भी साक्षीभाव व्यर्थ होगा। समय दौड़ा जा रहा है। तुम कि समझने के कारण, धीरे-धीरे, जब घटता है वह एक चौंध के जैसा क्षणिक कुछ भी करो, कुछ करो या कुछ न भी कारण तुम्हें समझ में आ जाते हैं और तुम होता है।" प्रसन्न होओ! इसका भी बड़ा करो, समय चला जा रहा है। समय को उन कारणों में गहरे झांक लेते हो, तो उन मूल्य है। ये झलकें साधारण झलकें नहीं तुम बचा नहीं सकते तो व्यर्थ किस तरह कारणों में गहरे झांकने से ही, वे कारण हैं। उन्हें ऐसे ही मत लो! लाखों लोग हैं कर सकते हो? व्यर्थ तुम उसी चीज को मिट जाते हैं, और मन धीमा पड़ जाता है। जिन्हें वे छोटी-छोटी झलकें भी नहीं मिली कर सकते हो जिसको बचा सको। समय लेकिन प्रतिभा नहीं खोती, क्योंकि इसमें हैं। वे जिएंगे और मर जाएंगे और उन्हें पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। इस बारे में मन पर जोर नहीं डाला जाता। कभी पता भी नहीं चलेगा कि साक्षी क्या भूल जाओ! यदि तुम समझ के द्वारा कारणों को नहीं है-एक क्षण के लिए भी। तुम प्रसन्न और समय का सबसे अच्छा उपयोग मिटाते तो तुम क्या कर रहे हो? उदाहरण होओ, तुम भाग्यशाली हो। तुम ये छोटी-छोटी झलकें लेने में कर के लिए, जैसे तुम एक कार चला रहे हो, लेकिन तुम अनुगृहीत नहीं हो रहे हो। सकते हो क्योंकि अंततः तुम पाओगे कि उसका एक्सेलरेटर दबाते चले जाओ और यदि तुम अनुगृहीत नहीं होओगे तो वे वे क्षण ही बचे जो साक्षी के क्षण थे और साथ ही साथ उसकी ब्रेक भी लगाते रहो। झलकें भी विलीन हो जाएंगी। अनुगृहीत बाकी सबकुछ व्यर्थ गया। जो धन तुमने तुम कार का पूरा मैकेनिज्म खराब कर होओ, और वे बढ़ेगी। अनुग्रह से सब कमाया, जो प्रतिष्ठा तुमने अर्जित की, जो दोगे। और हर संभावना है कि तुम्हारी कोई कुछ बढ़ता है। प्रसन्न होओ कि तुम धन्य आदर-सम्मान कमाया, वह सब व्यर्थ दुर्घटना होगी। दोनों काम एक साथ नहीं हो-और वे झलकें बढ़ जाएंगी। उस गया। वही क्षण, केवल वही थोड़े से क्षण किए जा सकते। यदि ब्रेक लगा रहे हो तो विधायकता से चीजें विकसित होंगी। बचे जिनमें तुम्हें साक्षीभाव की झलकें एक्सेलरेटर को मत छेड़ो; उसे दबाओ “और जो भी साक्षीभाव घटता है वह मिलीं। जब तुम यह जीवन छोड़ोगे तो यही मत। और यदि एक्सेलेरेटर दबा रहे हो, तो क्षणिक होता है।"... क्षण तुम्हारे साथ जाएंगे-केवल वे ही ब्रेक मत लगाओ। दोनों काम एक साथ तो क्षणिक होने दो! यदि एक क्षण के क्षण जा सकते हैं, क्योंकि वे क्षण शाश्वत मत करो, वरना तुम पूरा मैकेनिज़्म खराब छोटे से हिस्से के लिए भी साक्षीभाव घट के हैं, उनका संबंध समय से नहीं है। कर दोगे। तुम दो विरोधाभासी चीजें कर सके, तो वह घटा; तुम्हें उसका स्वाद मिल आह्लादित होओ कि ऐसा घट रहा है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर यह सदा धीरे-धीरे ही घटता है। एक-एक बूंद करके पूरा सागर भर सकता है। यह बूंद-बूंद करके ही होता है। बूंदों में महा सागर चला आ रहा है। तुम तो बस अनुग्रह से, उत्सव से, धन्यवाद से भरकर उसे ग्रहण करो। और मन को रोकने की कोशिश मत करो। मन को उसकी गति से चलने दो-तुम देखते रहो। 255 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो पोलक आगे की सीट पर बैठकर कार में चले जा रहे थे। जब वे एक मोड़ के पास पहुंचे, तो जो कार चला रहा था उसने अपने मित्र से कहा, "बाहर देखकर बताओगे इंडिकेटर काम कर रहा है या नहीं ?" उसने झट से सिर बाहर निकाला और इंडिकेटर लाइट को देखकर अपने मित्र से बोला, “हां कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा; हां कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा; हां, कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा।" भगवान, यदि मुझसे कोई पूछे कि मेरा साक्षित्व हो रहा है कि नहीं, तो मेरा उत्तर भी यही होगा : हां, हो रहा है; नहीं, नहीं हो रहा; हां, हो रहा है; नहीं, नहीं हो रहा। क्या परम घर तक की परी यात्रा ऐसी ही है? ओशो से प्रश्नोत्तर द्वंद्वों का निर्द्वद्व साक्षी दे सको: “हां, मैं साक्षीभाव में हूं; नहीं, साक्षीभाव में नहीं हूं; हां, साक्षीभाव में हूं: नहीं, साक्षीभाव में नहीं हूं,” तो तुम्हें स्मरण रखना होगा कि साक्षीभाव के इन क्षणों के पीछे भी कुछ है जो इस पूरी प्रक्रिया को देख रहा है। इसका साक्षी कौन हो रहा है— कि कभी तुम साक्षीभाव में हो और कभी साक्षीभाव में नहीं हो ? कुछ है जो अचल है। नहीं, ऐसी नहीं है, क्योंकि जहां तक तुम्हारे साक्षित्व का संबंध है, वह आता-जाता रह सकता है, और तुम्हारा उत्तर बिलकुल उस पोलक की तरह हो सकता है जो बोला, “इंडिकेटर काम कर रहा है, नहीं कर रहा है।" फिर बोला, "कर रहा है।" इंडिकेटर का तो यही काम है— होना, पोलक पर मत हंसो। जहां तक उसके होश न होना; होना, न होना। लेकिन बेचारे का सवाल है वह पूरी तरह से होश में है। जब भी इंडिकेटर काम करता है तो वह कहता है "हां"; जब काम नहीं करता तो वह “नहीं” कहता है। इंडिकेटर के प्रति उसका होश सतत चल रहा है। इंडिकेटर बदलता रहता है लेकिन पोलक को पूरा होश है कि कब वह काम कर रहा है, कब नहीं कर रहा है; कब वह चालू है, कब बंद है। उसका होश सतत चल रहा है। यदि तुम साक्षित्व के विषय में यही उत्तर तुम्हारा साक्षीभाव तो बस एक इंडिकेटर बन गया है; उसकी परवाह मत करो। तुम्हारा जोर होना चाहिए सनातन पर, शाश्वत पर, अहर्निश पर — और वह मौजूद है। और वह सबके भीतर है, हम बस उसको भूल गए हैं। लेकिन जिस समय हम उसे भूल भी जाते हैं, तब भी वह अपनी परम संपूर्णता में मौजूद रहता है। वह एक दर्पण की भांति है जो सब कुछ प्रतिबिंबित कर सकता है, अभी ही सब कुछ प्रतिबिंबित कर रहा है, 256 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन तुम दर्पण की ओर पीठ किए हुए खड़े हो । बेचारा दर्पण तुम्हारी पीठ को प्रतिबिंबित कर रहा है। पीछे मुड़ो, और वह तुम्हारे चेहरे को प्रतिबिंबित करेगा। अपना हृदय खोलो, वह तुम्हारे हृदय को प्रतिबिंबित कर देगा। सब कुछ मेज पर बिछा दो, एक पत्ता भी मत छिपाओ और वह तुम्हारी पूरी वास्तविकता को प्रतिबिंबित कर देगा । लेकिन तुम यदि दर्पण की ओर पीठ किए खड़े रहो और संसार में चारों ओर देख देख कर लोगों से पूछते रहो, “मैं कौन हूं?” तो यह तुम्हारे ऊपर है। क्योंकि ऐसे मूढ़ हैं जो आकर तुम्हें सिखाने लगेंगे कि "यह उपाय है। यह करो और तुम्हें पता लग जाएगा कि तुम कौन हो। " किसी विधि की जरूरत नहीं है, बस 180 डिग्री के कोण पर पीछे मुड़ना है — और वह कोई विधि नहीं है। 257 ओशो से प्रश्नोत्तर और दर्पण तुम्हारी अंतस - सत्ता है। शायद इस मजाक को तुमने इस कोण से न देखा हो। तुम किसी को यह मजाक सुनाओ तो वह हंसेगा कि पोलक कितना मूर्ख है, क्योंकि इंडिकेटर का तो काम ही यही है — जलना, बुझना, जलना, बुझना। लेकिन तुम मेरे पास यह चुटकुला ले आए हो - मैं बस इस पर हंस कर नहीं रह सकता क्योंकि मैं इसमें कुछ और भी देखता हूं जो शायद कोई और न देखे । पोलक निरंतर सजग है। वह एक भी बात, एक भी क्षण चूकता नहीं । और जब भी तुम कहते हो “साक्षीभाव, हां" और फिर वह अदृश्य हो जाता है तो तुम कहते हो, “नहीं” – फिर वह दोबारा प्रकट होता है, तुम कहते हो, “हां”... । इससे पता चलता है कि साक्षीभाव के होने और न होने के इन सारे क्षणों के पीछे कुछ है— असली साक्षी, जो उस पूरी प्रक्रिया को प्रतिबिंबित कर रहा है जिसे तुम मानते हो कि साक्षीभाव है। यह असली साक्षी नहीं है, यह तो बस इंडिकेटर है। इंडिकेटर को भूल जाओ। प्रतिबिंबित करने की सतत प्रक्रिया को याद रखो जो चौबीस घंटे तुम्हारे भीतर चल रही है, चुपचाप सब कुछ देखती हुई । धीरे-धीरे उसे साफ करो—उस पर बहुत-सी धूल जम गई है, सदियों की धूल गई है। धूल को पोंछो। और एक दिन, जब दर्पण पूरी तरह साफ हो जाएगा, तो साक्षी की उपस्थिति और अनुपस्थिति के वे क्षण समाप्त हो जाएंगे; तुम बस एक साक्षी रह जाओगे । और जब तक तुम साक्षी की शाश्वतता को न जान लो, तब तक बाकी सब साक्षी मन के ही हिस्से हैं। उनका कोई मूल्य नहीं । 5 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर सब मार्ग पर्वत शिखर पर मिल जाते हैं क्या होश प्रेम से उच्चतर मूल्य है? मच्चतर शिखर सत्य, प्रेम, होश, काम-वासना में, प्रेम केवल एक 0 प्रामाणिकता, समग्रता इन सब प्रतिशत होता है : निन्यानबे प्रतिशत दूसरी मूल्यों की पराकाष्ठा है। उच्चतम शिखर चीजें होती हैं: ईर्ष्याएं, अहंकार के पर वे सब अविभाज्य हैं। हमारे अचेतन खेल, मालकियत, क्रोध, कामुकता। की अंधेरी खाइयों में ही वे भिन्न होते हैं। वे काम-वासना अधिक शारीरिक, अधिक तभी भिन्न होते हैं जब प्रदूषित होते हैं, रासायनिक होती है; इससे गहरा उसमें दूसरी चीजों के साथ मिश्रित होते हैं। जिस और कुछ भी नहीं होता। वह बहुत ही क्षण वे विशुद्ध होते हैं, वे एक हो जाते हैं; उथली होती है, चमड़ी जितनी गहरी जितने विशुद्ध होते जाएंगे, उतने ही भी नहीं। एक-दूसरे के करीब आएंगे। जैसे-जैसे तुम ऊपर जाते हो, चीजें जैसे, हर मूल्य कई-कई आयामों में गहरी होने लगती हैं; उनमें नए आयाम मौजूद होता है; हर मूल्य बहुत से सोपानों जुड़ने लगते हैं। जो चीज केवल शारीरिक वाली एक सीढ़ी है। प्रेम काम-वासना भी थी, उसमें मानसिक आयाम जुड़ने लगता होता है-वह उसका निम्नतम सोपान है, है। जो शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं जो नरक को छूता है; और प्रेम प्रार्थना भी था वह मानसिकता बनने लगता है। शरीर है-उच्चतम सोपान, जो स्वर्ग को छूता तो हमारी तरह सब जानवरों के पास है; है। और इन दो के बीच बहुत से आयाम हैं लेकिन मानसिकता हमारी तरह सब जिनमें सरलता से भेद किया जा सकता है। जानवरों के पास नहीं है। 258 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर जब प्रेम और ऊपर उठता है, या और शिखर की झलक मिल गई हो, तो यह पहलू हैं। गहरा जाता है जो कि एक ही बात प्रश्न असंगत हो जाता है। और स्मरण रखोः यदि तुम्हारे होश में है तो उसमें कुछ-कुछ अध्यात्म आने तुम पूछते होः "क्या प्रेम होश से प्रेम नहीं है तो वह अभी अशुद्ध है; अभी लगता है। वह आत्मविज्ञान बन जाता है। उच्चतर मूल्य है?" तक उसने सौ प्रतिशत शुद्धता नहीं जानी। केवल बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट और उन कुछ ऊपर और कुछ नीचे नहीं है। वह अभी तक वास्तव में होश नहीं है; जैसे अन्य लोग ही प्रेम के इस गुण से वास्तव में, मूल्य दो हैं ही नहीं। घाटी से अभी जरूर उसमें बेहोशी मिली हुई होगी। परिचित हैं। दो मार्ग शिखर की ओर जाते हैं। एक मार्ग वह शुद्ध प्रकाश नहीं है; जरूर तुम्हारे प्रेम पूरे मार्ग पर फैला हुआ है, और होश का, ध्यान का है: झेन का मार्ग। भीतर अभी अंधकार काम करता होगा, यही बात दूसरे मूल्यों के विषय में है। जब दूसरा मार्ग है-प्रेम का, भक्तों का, सक्रिय होगा, तुम्हें प्रभावित करता होगा, प्रेम सौ प्रतिशत शुद्ध हो जाता है तो तुम सूफियों का। जब तुम यात्रा शुरू करते हो नियंत्रित करता होगा। यदि तुम्हारा प्रेम प्रेम और होश में कोई भेद नहीं कर सकते; तो दोनों मार्ग भिन्न होते हैं; तुम्हें चुनाव होश से रिक्त है, तो वह अभी प्रेम नहीं है। फिर वे दो नहीं रहते। तब तो तुम प्रेम और करना होता है। जो भी मार्ग तुम चुनो, वह वह जरूर कुछ निम्न घटना होगी, कुछ जो परमात्मा के बीच भी भेद नहीं कर सकते; उसी शिखर पर ले जाएगा। और जब तुम प्रार्थना की अपेक्षा वासना के अधिक वे अब दो नहीं रहते। इसीलिए जीसस शिखर के करीब आओगे तो हैरान करीब है। का कथन है कि परमात्मा प्रेम है। वे होओगेः दूसरे मार्ग के यात्री भी तुम्हारे तो इसे एक कसौटी बन जाने दोः यदि दोनों को समानार्थी बना देते हैं। इसमें करीब आ रहे हैं। धीरे-धीरे मार्ग एक दूसरे तुम होश के मार्ग पर चलते हो, तो प्रेम विराट अंतर्दृष्टि है। में समाहित होने लगते हैं। जब तक तुम को कसौटी बन जाने दो। जब तुम्हारा होश परिधि पर तो सब कुछ एक-दूसरे से परम बिंदु पर पहुंचते हो वे एक हो चुकते अचानक प्रेम में खिल उठे, तो भली-भांति भिन्न लगता है, परिधि पर अस्तित्व अनेक हैं। जानना कि होश घटा, समाधि उपलब्ध है। जब तुम केंद्र के निकट आते हो, . जो व्यक्ति होश के मार्ग पर चलता है हुई। यदि तुम प्रेम के मार्ग पर चलते अनेकता पिघलने लगती है, तिरोहित होने वह प्रेम को अपने होश के परिणाम की हो, तो होश को कसौटी का काम करने लगती है, और एकता का प्रादुर्भाव होने तरह, उप-उत्पत्ति की तरह, छाया की तरह दो। जब अचानक, शून्य में से, तुम्हारे लगता है। केंद्र पर सब कुछ एक है। तो पाता है। और जो व्यक्ति प्रेम के मार्ग पर प्रेम के केंद्र पर से होश की एक तुम्हारा प्रश्न तभी ठीक होगा यदि तुम प्रेम चलता है वह होश को प्रेम के परिणाम की ज्योति उठने लगती है, तो भली-भांति और होश के उच्चतम गुण को न जानते तरह, उप-उत्पत्ति की तरह, छाया की तरह जानो...आह्लादित होओ! तुम घर आ होओ। यदि तुम्हें एवरेस्ट की, उच्चतम पाता है। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहुंचे। 6 259 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर रेचन के बाद सहज मौन और सृजन कुछ वर्षों तक जाहली बातः हजारों जन्मों से तुम पहले से ही बाहर फेंका जा रहा होता है। रेचन ध्यान विधियों पर 1 अराजकता में रहते रहे हो। यह वह विधि में ही अंतर्गठित होता है। कार्य करने के बाद कोई नई बात नहीं है। यह बहुत पुरानी बात जैसे पतंजलि सुझाएंगे, तुम वैसे शांत मैं अनुभव करता हं है। दूसरी बात ः ध्यान की सक्रिय विधियां नहीं बैठ सकते। पतंजलि के पास कोई मझमें एक गहन आंतरिक जिनका कि आधार रेचन है, तुम्हारे भीतर रेचक विधि नहीं है। ऐसा लगता है उसकी की अराजकता को बाहर निकल आने देती कोई जरूरत ही न थी, उनके समय में। सुव्यवस्था, संतुलन और हैं। इन विधियों का यही सौंदर्य है। तुम लोग स्वभावतया ही बहुत मौन थे, शांत केंद्रण घट रहा है। चुपचाप नहीं बैठ सकते, तो भी तुम थे, आदिम थे। मन अभी भी बहुत ज्यादा लेकिन आपने कहा कि सक्रिय या अव्यवस्थित ध्यान बहुत क्रियाशील नहीं हुआ था। लोग ठीक से समाधि की अंतिम अवस्था में आसानी से कर सकते हो। एक बार सोते थे, पशुओं की भांति जीते थे; वे बहुत जाने से पहले व्यक्ति एक बड़ी अराजकता बाहर निकाल दी जाती है, तो सोच-विचार वाले, तार्किक, बौद्धिक न अराजकता में से गुजरता है। तुममें एक मौन घटना शुरू होता है। फिर थे; वे हृदय में केन्द्रस्थ थे, जैसे कि अभी मुझे कैसे पता चले कि तम मौनपूर्ण ढंग से बैठ सकते हो। यदि भी असभ्य लोग होते हैं। और जीवन ऐसा मैंने अराजक अवस्था ध्यान की रेचक विधियां ठीक से की गयी था कि वह बहुत सारे रेचन स्वचालित रूप पार कर ली है या नहीं? हों, निरंतर की गई हों, तो वे तुम्हारी से घटने देता था। अराजकता को एकदम विसर्जित कर देंगी उदाहरण के लिए, एक लकड़हारे को बाहरी आकाश में। तुम्हें पागल अवस्था में किसी रेचन की कोई जरूरत नहीं होती गुजरने की जरूरत न रहेगी। यही तो इन क्योंकि लकड़ियां काटने भर से ही, उसकी विधियों का सौंदर्य होता है। पागलपन तो सारी हत्यारी प्रवृत्तियां बाहर निकल जाती 260 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। लकड़ी काटना पेड़ की हत्या करने जैसा ही है। पत्थर तोड़ने वाले को रेचनपूर्ण ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं होती। सारा दिन वह यही कर रहा होता है। लेकिन आधुनिक व्यक्ति के लिए चीजें बदल गयी हैं। अब तुम इतनी सुख-सुविधा में रहते हो कि तुम्हारे जीवन में रेचन की कहीं कोई संभावना नहीं है, सिवाय इसके कि तुम पागल ढंग से ड्राइव कर सको । इसीलिए पश्चिम में हर साल किसी और चीज की अपेक्षा कार दुर्घटनाओं द्वारा ज्यादा लोग मरते हैं। वही है सबसे बड़ा रोग। न तो कैंसर, न ही तपेदिक और न ही कोई और रोग इतनी मृत्यु देता है जिन्दगियों को जितना कि कार चलाना । दूसरे विश्वयुद्ध में, एक वर्ष में लाखों व्यक्ति मर गये थे। लेकिन सारी पृथ्वी पर हर साल उससे ज्यादा लोग मरते हैं पागल कार ड्राइवरों द्वारा । यदि तुम कार चलाते हो तो तुमने ध्यान दिया होगा कि जब तुम क्रोधित होते हो तब तुम कार स्पीड से चलाते हो। तुम एक्सेलेरेटर को दबाते जाते हो, तुम बिलकुल भूल ही जाते हो ब्रेक के बारे में। जब तुम बहुत घृणा में होते, चिढ़े हुए होते तब कार एक माध्यम बन जाती है अभिव्यक्ति का । अन्यथा तुम इतने आराम में रहते हो : किसी चीज के लिए शरीर द्वारा कम से कम काम लेते हो, मन में ही ज्यादा और ज्यादा रहते हो । वे जो मस्तिष्क के ज्यादा गहरे केंद्रों के बारे में जानते हैं, कहते हैं कि जो लोग 261 ओशो से प्रश्नोत्तर अपने हाथों द्वारा कार्य करते हैं उनमें कम चिंता होती है, कम तनाव होता है। तब तुम ठीक से सोते हो क्योंकि तुम्हारे हाथ संबंधित हैं, गहनतम मन से, मस्तिष्क के गहनतम केंद्र से । तुम्हारा दायां हाथ संबंधित है बाएं मस्तिष्क से, तुम्हारा बायां हाथ संबंधित है दाएं मस्तिष्क से । जब तुम काम करते हो हाथों द्वारा, तब ऊर्जा मस्तिष्क से हाथों तक बह रही होती है और निर्मुक्त हो रही होती है। लोग जो अपने हाथों द्वारा कार्य करते हैं उन्हें रेचन की जरूरत नहीं होती है। लेकिन जो लोग मस्तिष्क द्वारा कार्य करते हैं, उन्हें ज्यादा रेचन की जरूरत होती है। क्योंकि वे ज्यादा ऊर्जा इकट्ठी कर लेते हैं और उनके शरीरों में कोई मार्ग नहीं होता, उसके बाहर जाने के लिए कोई द्वार नहीं होता। वह मन के भीतर ही चलती चली जाती है। मन पागल हो जाता है। लेकिन हमारी संस्कृति और समाज में- ऑफिस में, फैक्टरी में, बाजार में लोग जो सिर के द्वारा यानी 'हेड' के द्वारा कार्य करते हैं 'हेड्ज' कहलाते हैं: हेड क्लर्क, या हेड - सुपरिन्टेंडेंट और लोग जो हाथों द्वारा कार्य करते हैं, वे 'हेंड्ज' कहलाते हैं। यह बात निंदात्मक हो जाती है। यह हेंड्स शब्द ही निंदात्मक बन गया है। जब पतंजलि कार्य कर रहे थे इन सूत्रों पर, तो संसार पूर्णतया अलग था। लोग थे 'हेंड्ज' । विशेष रूप से रेचन की कोई जरूरत नहीं थी । जीवन स्वयं ही एक रेचन था। तब वे बड़ी आसानी से शांत होकर बैठ सकते थे। लेकिन तुम नहीं बैठ सकते । इसीलिए मैं रेचक विधियों का आविष्कार करता रहा हूं। केवल उन्हीं के बाद तुम शांति से बैठ सकते हो, उससे पहले नहीं । 'कुछ वर्षों तक रेचक विधियों पर कार्य करने के बाद, मैं अनुभव करता हूं कि एक गहन आंतरिक सुव्यवस्था, संतुलन और केंद्रण मुझ में घट रहा है। ' अब झंझट मत खड़ी कर लेना; इसे होने देना। अब वही मन अपनी टांग अड़ा रहा है। मन कहता है, 'ऐसा कैसे घट सकता है? पहले मेरा अराजकता से गुजरना जरूरी है।' यह विचार अराजकता निर्मित कर सकता है। यही मेरे देखने में आता रहा है : लोग ललकते रहते हैं शांति के लिए, और जब वह घटने लगती है तो वे विश्वास नहीं कर सकते उस पर। यह इतना अच्छा होता है कि इस पर विश्वास ही नहीं आता। खास करके वे लोग जिन्होंने सदा निंदा की होती है अपनी, वे विश्वास नहीं कर सकते कि उन्हें वह सब घटित हो रहा है। 'असंभव ! ऐसा घटा होगा बुद्ध को या कि जीसस को, लेकिन मुझको ? नहीं, यह तो संभव नहीं है।' वे शांति द्वारा, मौन द्वारा, वैसा घटने द्वारा अशांत होकर मेरे पास चले आते हैं। 'यह सच है, या कि मैं कल्पना कर रहा हूं इसकी ?' क्यों चिंता करनी ? यदि यह कल्पना भी है, तो क्रोध के बारे में कल्पना करने से यह बेहतर है; यह कामवासना के बारे में कल्पना करने से तो बेहतर है। और मैं कहता हूं तुमसे, कोई कल्पना Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर नहीं कर सकता शांति की। कल्पना को होती है। उत्सव मनाते, इसे बांटते, इससे आनंदित जरूरत रहती है किसी रूपाकार की; मौन चिंता मत करना कि यह वास्तविक है होते? इसे बनने दो एक गान, एक नृत्य, के पास कोई आकार नहीं होता। कल्पना या अवास्तविक है, या कि इसके बाद एक कविता। इसे बनने दो सृजनात्मक। का अर्थ होता है बिम्ब में सोचना, और अराजकता आएगी या नहीं। इस ढंग से तुम्हारे मौन को होने दो सृजनात्मक; कुछ मौन का कोई प्रतिबिम्ब नहीं होता। तुम सोचने द्वारा अराजकता तो तुम ले ही आए न कुछ करो इसका। कल्पना नहीं कर सकते संबोधि की, सतोरी हो। यह तुम्हारा विचार होता है जो कि लाखों चीजें संभव होती हैं क्योंकि मौन की, समाधि की, मौन की। नहीं। कल्पना निर्मित कर सकता है अराजकता। और जब से ज्यादा सृजनात्मक तो कुछ और नहीं को चाहिए कोई आधार, कोई आकार, वह निर्मित हो जाती है, तो मन कहेगा, होता। कोई जरूरत नहीं बहुत बड़ा और मौन होता है आकारविहीन, 'अब सोच लो, मैंने तो ऐसा पहले ही कह चित्रकार बनने की, पिकासो की भांति अनिर्वचनीय। किसी ने कभी नहीं बनाया दिया था तुमसे।' संसार प्रसिद्ध होने की। कोई जरूरत नहीं इसका कोई चित्र; कोई नहीं बना सकता। मन बहुत स्वतः आपूरक होता है। पहले हेनरी मूर बनने की; कोई जरूरत नहीं किसी ने नहीं गढ़ी इसकी कोई मूरत; कोई यह तुम्हें दे देता है बीज, और जब वह महान कवि बनने की। महान बनने की वे कर नहीं सकता ऐसा। प्रस्फुटित होता है तो मन कहता है, 'देख महत्वाकांक्षाएं मन की होती हैं, मौन की तुम मौन की कल्पना नहीं कर सकते। लिया, मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था नहीं। मन चालाकियां चल रहा है। मन तों कि तुम्हें धोखा हुआ है।' अराजकता पहुंच अपने ढंग से चित्र बनाना, चाहे कितना कहेगा, 'यह जरूर कल्पना ही होगी। ऐसा चुकी और यह विचार द्वारा लायी गयी है। ही मामूली हो। तुम्हारे अपने ढंग से हाइकू संभव कैसे हो सकता है तुम्हारे लिए? तो इस बारे में क्यों चिंता करनी कि भविष्य रचना, चाहे वह कितना ही साधारण हो। तुम्हारे जैसा इतना मूढ़ व्यक्ति और मौन में अभी अराजकता आने को है या नहीं? कितना ही सामान्य हो-तुम्हारे अपने ढंग घट रहा है तुमको? जरूर यही होगा कि कि वह गुजर गई है या नहीं? बिलकुल से गीत गाना; थोड़ा नृत्य करना, उत्सव तुम कल्पना कर रहे हो।' या, 'इस आदमी इसी घड़ी तुम मौन हो, क्यों उत्सव नहीं मनाना। तुम पाओगे कि अगला ही क्षण ले ओशो ने सम्मोहित कर दिया है तुम्हें। मनाते इस बात पर? और मैं कहता हूं आता है ज्यादा मौन। तुम जान जाओगे कि कहीं कुछ तुम्हें धोखा हो रहा होगा।' ऐसी तुमसे, यदि तुम उत्सव मनाते हो, तो वह जितना ज्यादा तुम उत्सव मनाते हो, उतना समस्याएं मत खड़ी कर लेना। ऐसे ही बढ़ता है। ज्यादा तुम्हें दिया जाता है; जितना ज्यादा जीवन में काफी समस्याएं हैं। जब मौन चेतना के इस संसार में और कुछ इतना तुम बांटते हो, उतने ज्यादा तुम ग्रहण करने घट रहा हो, तो उसमें आनंदित होना, सहायक नहीं है जितना कि उत्सव। उत्सव में सक्षम हो जाते हो। हर क्षण वह बढ़ता उसका उत्सव मनाना। इसका अर्थ हुआ पौधों को पानी देने जैसी बात है। चिंता है, बढ़ता ही चला जाता है। कि अराजक शक्तियां बाहर निकाली जा ठीक विपरीत है उत्सव के यह जड़ों को और अगला क्षण सदा ही इस क्षण से चुकी हैं। मन अपना अंतिम खेल खेल काट देने जैसी बात है। प्रसन्नता अनुभव उत्पन्न होता है, तो फिक्र क्यों करनी रहा है। वह बिलकुल अंत तक खेलता है; करो! मौन के साथ नृत्य करो! इस क्षण उसकी! यदि यह वर्तमान क्षण शांतिपूर्ण सर्वथा, पूर्णतया अंत तक वह खेलता ही वह मौजूद है-पर्याप्त है। मांग क्यों है, तो अगला क्षण कैसे अराजक हो जाता है, अंतिम घड़ी में जब संबोधि घटने करनी ज्यादा की? कल अपनी फिक्र अपने सकता है? कहां से आएगा वह ? उसे इसी को ही होती है, तब भी मन अंतिम आप कर लेगा। यह क्षण ही बहुत काफी क्षण से ही उत्पन्न होना होता है। यदि मैं चालाकी चलता है। यह अंतिम लड़ाई है; इसे क्यों नहीं जी लेते! क्यों नहीं इसका प्रसन्न हूं इस क्षण, तो कैसे मैं अप्रसन्न हो 262 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर सकता हूं अगले क्षण में? किया जाता है, वह वास्तविक हो जाता है। तुम्हारा समय निर्मित होता है तुम्हारे यदि तुम चाहते हो कि अगला क्षण जो कुछ अवास्तविकता के रूप में धारण भीतर। तुम्हारा समय मेरा समय नहीं है। अप्रसन्नता वाला हो, तो तुम्हें इसी क्षण किया जाता है, वह हो जाता है उतने ही समानांतर समय अस्तित्व रखते हैं अप्रसन्न होना होगा, क्योंकि अप्रसन्नता में अवास्तविक। तुम्ही हो निर्माता तुम्हारे जितने कि मन होते हैं। कोई एक समय से उत्पन्न होती है प्रसन्नता। जो कुछ तुम चारों ओर के सारे संसार के इस बात को नहीं है। यदि एक समय होता, तो कठिनाई प्राप्त करना चाहते हो अगले क्षण में, तुम्हें खयाल में ले लेना। प्रसन्नता की, आनंद हो गई होती। तब सारी दुखी मानव-जाति उसे बोना होगा बिलकुल अभी। एक बार की घड़ी को पा लेना बहुत दुर्लभ होता है। के बीच, कोई बुद्ध नहीं हो सकता था, चिंता को आने दिया जाता है और तुम इसे मत गंवा देना सोचने-विचारने में ही। क्योंकि हम संबंधित होते एक ही समय सोचने लगते कि अराजकता आएगी, तो लेकिन यदि तुम कुछ नहीं करते, तो चिंता से। नहीं, वह एक ही नहीं होता है। मेरा वह आएगी ही। तुम उसे ले ही आए हो। के आने की संभावना है। यदि तुम कुछ समय आता है मुझसे-वह मेरा सृजन है। अब तुम्हें उसे पास रखना ही होगा; वह नहीं करते-यदि तुम नृत्य नहीं करते, यदि यह क्षण सुन्दर है, तो अगला क्षण आ ही पहुंचती है! अगली घड़ी की प्रतीक्षा यदि तुम गीत नहीं गाते, यदि तुम बांटते जन्मता है ज्यादा सुन्दर-यह है मेरा करने की कोई जरूरत नहीं; वह पहले से नहीं, तो वैसी संभावना होती है। वही समय। यदि यह क्षण उदास होता है तुम्हारे वहां है ही। ऊर्जा जो सृजनात्मक हो सकती है, वह लिए, तो और ज्यादा उदास क्षण जन्मता है · इसे जरा खयाल में ले लेना, और यह सृजन कर देगी चिंता का। वह भीतर नए तुममें से—यह है तुम्हारा समय। सचमुच ही कुछ अजीब बात है : जब तुम तनाव बनाना शुरू कर देगी। समय की लाखों समानांतर रेखाएं उदास होते हो तो तुम कभी नहीं सोचते कि ऊर्जा को होना है सृजनात्मक। यदि तुम अस्तित्व रखती हैं। और कुछ लोग हैं जो यह बात काल्पनिक हो सकती है। कभी उसका उपयोग प्रसन्नता के लिए नहीं अस्तित्व रखते हैं बिना समय के, वे मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा जो कि उदास करते, तो वही ऊर्जा प्रयुक्त हो जाएगी जिन्होंने पा लिया है अ-मन। उनके पास हो और कहता हो मुझसे कि शायद यह अप्रसन्नता के लिए। और अप्रसन्नता के कोई समय नहीं क्योंकि वे नहीं सोचते हैं बात काल्पनिक ही है। उदासी संपूर्णतया लिए तुम्हारे पास इतने गहरे रूप से अतीत के बारे में, अतीत तो जा चुका; वास्तविक होती है। लेकिन बद्धमूल हुई आदतें हैं कि उसके लिए केवल मूढ़ सोचते हैं उसके विषय में। जब प्रसन्नता?-तुरंत कुछ गलत हो जाता है ऊर्जा-प्रवाह बहुत मुक्त और स्वाभाविक कोई चीज जा चुकी होती है, तो वह जा और तुम सोचने लगते हो, 'शायद यह होता है। प्रसन्नता लाने के लिए यह एक चुकी होती है। बात काल्पनिक ही है।' जब कभी तुम श्रमसाध्य कार्य होता है। ____ एक बौद्ध मंत्र है : 'गते, गते, परा तनावपूर्ण होते हो, तो तुम कभी नहीं तो पहले कुछ दिन तुम्हें निरंतर रूप से गते–स्वाहा!' 'जा चुका, जा चुका, परम सोचते कि यह काल्पनिक बात है। यदि जागरूक रहना होगा। जब कभी कोई रूप से जा चुका; उसे अग्नि में स्वाहा हो तुम सोच सकते हो कि तुम्हारा तनाव और प्रसन्नता की घड़ी आए, तो होने दो उसकी जाने दो।' अतीत जा चुका है, भविष्य पीड़ा काल्पनिक है, तो वह तिरोहित हो पकड़ तुम पर, करने दो तुम्हें वशीभूत। अभी आया नहीं है। उसकी चिंता क्यों जाएगी। और यदि तुम सोचते हो कि इतनी समग्रता से उसका आनंद मनाओ करनी? जब वह आएगा, हम देख लेंगे। तुम्हारी शांति और प्रसन्नता काल्पनिक हैं, कि अगली घड़ी कुछ अलग तरह की न हो तुम मौजूद होओगे उसका सामना करने तो वे तिरोहित हो जाएंगी। सके। कहां से होगी वह अलग? कहां से को, क्यों चिंता करनी उसकी? जो चला जो कुछ वास्तविकता के रूप में धारण आएगी वह? गया वह चला गया है, नहीं आया हुआ 263 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर अभी तक आया नहीं। केवल यही क्षण अनुग्रहीत होओ। यदि यह आनंदपूर्ण है, हो, तो यह विकसित होगी। यदि तुम बचा हुआ है, शुद्ध प्रगाढ़ ऊर्जा सहित। तो धन्यवाद दो परमात्मा को, आस्था रखो अनास्था रखते हो, तो तुमने पहले से ही इसे जियो! यदि यह शांतिपूर्ण है, तो इस पर। और यदि तुम आस्था रख सकते इसे विषाक्त कर दिया।। 264 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 265 ओशो से प्रश्नोत्तर संक्रमणकालीन अनिश्चितता और असुरक्षा - जितना ज्यादा मैं स्वयं को देखता हूं, उतना ज्यादा मैं अपने अहंकार झूठेपन को अनुभव करता हूं। मैं स्वयं को ही अजनबी लगने लगा हूं, अब नहीं जानता कि क्या झूठ है। यह बात मुझे एक बेचैन अनुभूति के बीच छोड़ देती है कि जीवन-मार्ग की कोई रूपरेखाएं नहीं हैं, जो कि मुझे लगता था पहले मेरे पास थीं। सा होता है, ऐसा होगा ही । और ध्यान रहे कि तुम्हें खुश होना चाहिए कि ऐसा हुआ। यह अच्छा लक्षण है। जब कोई चलना शुरू करता है अंतर्यात्रा पर तो हर चीज सीधी-साफ, बद्धमूल जान पड़ती है; क्योंकि अहंकार नियंत्रण में होता है और अहंकार के पास सारी रूपरेखाएँ होती हैं, अहंकार के पास सारे नक्शे होते हैं, अहंकार मालिक होता है। जब तुम कुछ और आगे बढ़ते हो इस यात्रा में, तो अहंकार वाष्पित होने लगता है; और और झूठा जान पड़ने लगता है और अधिक धोखा मालूम पड़ने लगता है – एक भ्रम । तुम स्वप्न में से जागने लगते हो, तब सारे नक्शे ढांचे खो जाते हैं। अब वह पुराना मालिक कोई मालिक नहीं रहता, और नया मालिक अभी तक आया नहीं होता। एक उलझन होती है, एक अराजकता। यह एक अच्छा लक्षण होता है। आधी यात्रा पूरी हुई, लेकिन एक बेचैन अनुभूति तो आ बनेगी, एक घबड़ाहट, क्योंकि तुम खोया हुआ अनुभव करते हो— स्वयं के प्रति अजनबी, न जानते हुए कि तुम कौन हो। इससे पहले, तुम जानते थे कि तुम कौन हो तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा पता, तुम्हारा बैंक खाता- हर चीज निश्चित थी, इस तरह तुम थे। । तुम्हारा तादात्म्य था अहंकार के साथ। अब अहंकार विलीन हो रहा है, पुराना घर गिर रहा है और तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो, कि तुम कहां हो। हर चीज अंधेरे में घिरी होती है, धुंधली होती है और पुरानी सुनिश्चितता खो जाती है। यह अच्छा है क्योंकि पुरानी निश्चितता Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर एक झूठी निश्चितता थी। वस्तुतः वह जाएगी। वह वहां होती है निश्चितता की उसका। थोड़ा साहस रखो और पीछे मत निश्चितता थी ही नहीं। इसके पीछे गहरे में पुरानी आदत होने से ही। तुम नहीं जानते देखो, आगे देखो; और जल्दी ही अनिश्चितता ही थी। इसीलिए, जब कि अनिश्चित जगत में कैसे जिया जाता अनिश्चितता स्वयं सौंदर्य बन जाएगी, अहंकार विलीन होता है, तुम अनिश्चित है। तुम नहीं जानते कि असुरक्षा में कैसे असुरक्षा सुंदर हो उठेगी। अनुभव करते हो। अब तुम्हारे अस्तित्व जिया जाता है। बेचैनी होती है पुरानी वस्तुतः केवल असुरक्षा ही सुंदर होती की ज्यादा गहरी परतें उद्घाटित हो जाती हैं सरक्षा के कारण। वह होती है केवल है, क्योंकि असुरक्षा ही जीवन है। सुरक्षा तुम्हारे सामने-तुम अजनबी अनुभव पुरानी आदत, पुराने प्रभाव के कारण। वह असुंदर है, वह एक हिस्सा है मृत्यु करते हो। तुम सदा अजनबी थे। केवल चली जाएगी। तुम्हें बस प्रतीक्षा करनी है, का-इसीलिए वह सुरक्षित होती है। बिना अहंकार ही इस अनुभूति के धोखे में ले देखना है, आराम करना है, और प्रसन्नता किन्हीं तैयार नक्शों के जीना ही एकमात्र गया कि तुम जानते थे कि तुम कौन हो। अनुभव करनी है कि कुछ घटित हुआ है। ढंग है जीने का। जब तुम तैयार निर्देशों के स्वप्न बहुत ज्यादा था, वह एकदम सत्य और मैं कहता हूं तुमसे—यह अच्छा साथ जीते हो, तो तुम जीते हो एक झूठी जान पड़ता था। लक्षण है। जिंदगी। आदर्श, मार्ग-निर्देश, सुबह जब तुम स्वप्न से जाग रहे होते बहुत लौट गए इस स्थल से, केवल अनुशासन-तुम लाद देते हो कोई चीज हो, अचानक, तो तुम नहीं जानते कि तुम फिर से सुविधापूर्ण होने को, आराम में, अपने जीवन पर; तुम सांचे में ढाल लेते हो कौन हो और कहां हो। क्या तुमने इस सुख-चैन में होने को ही। वे चूक गए हैं। अपना जीवन। तुम उसे उस जैसा होने नहीं अनुभूति को अनुभव किया किसी मंजिल के बिलकुल करीब आ ही रहे थे, देते, तुम कोशिश करते हो उसमें से कुछ सुबह?-जब अचानक, तुम स्वप्न से और उन्होंने पीठ फेर ली। वैसा मत बना लेने की। मार्ग निर्देशन की तैयार जागते हो और कुछ पलों तक तुम नहीं करना-आगे बढ़ना। अनिश्चितता रूपरेखाएं आक्रामक होती हैं, और सारे जानते कि तुम कहां हो, तुम कौन हो और अच्छी होती है, उसमें कुछ बुरा नहीं है। आदर्श असुन्दर होते हैं। उनसे तो तुम चूक क्या हो रहा है? ऐसा ही होता है जब कोई तुम्हारा तो केवल ताल-मेल बैठना है, बस जाओगे स्वयं को। तुम अपने स्वरूप को अहंकार के स्वप्न से बाहर आता है। इतना ही। कभी उपलब्ध न होओगे। असुविधा, बेचैनी, उखड़ाव महसूस होगा, अहंकार के निश्चित संसार के साथ, कुछ हो जाना वास्तविक सत्ता नहीं है। लेकिन इससे तो प्रफुल्लित होना चाहिए। अहंकार की सुरक्षित दुनिया के साथ होने के सारे ढंग, और कुछ होने के सारे यदि तुम इससे दुखी हो जाते हो, जो तुम तुम्हारा ताल-मेल बैठ जाता है। कितना ही प्रयास, तुम पर कोई चीज लाद देंगे। यह उन्हीं पुराने ढरों में जा पड़ोगे जहां कि चीजें झूठ क्यों न हो सतह पर, हर चीज एक आक्रामक प्रयास होता है। तुम हो निश्चित थीं, जहां हर चीज का नक्शा बना बिलकुल ठीक जान पड़ती है, जैसा कि सकते हो संत, लेकिन तुम्हारे संतत्व में था, खाका खिंचा था, जहां कि पहचानते उसे होना चाहिए। जरूरत है कि असौंदर्य होगा। मैं कहता हूं तुमसे और मैं थे हर चीज, जहां जीवन-मार्ग की अनिश्चित अस्तित्व के साथ तुम्हारा जोर देता हूं इस बात परः बिना किन्हीं रूपरेखाएं स्पष्ट थीं। ताल-मेल थोड़ा बैठ जाए। निर्देशों के जीवन जीना एक मात्र संभव बेचैनी गिरा दो। यदि वह हो भी तो अस्तित्व अनिश्चित है, असुरक्षित है, संतत्व है। फिर तुम शायद पापी हो जाओ; उससे ज्यादा प्रभावित मत हो जाना। रहने खतरनाक है। वह एक प्रवाह है-चीजें पर तुम्हारे पापी होने में एक पवित्रता होगी, दो उसे, ध्यानपूर्वक देखो और वह भी सरक रही हैं, बदल रही हैं। यह एक एक संतत्व होगा।। चली जाएगी। बेचैनी जल्दी ही तिरोहित हो अपरिचित संसार है; परिचय पा लो जीवन पवित्र है : तुम्हें कोई चीज उस कमा 266 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर पर जबरदस्ती लादने की कोई जरूरत नहीं, हो, तो एक अनुशासन तुममें आ जाता जीवन की सुनिश्चितता अभी भी आयी तुम्हें उसे गढ़ने की कोई जरूरत नहीं, कोई है-एक आंतरिक अनुशासन। यह नहीं। यह एक बहुत ज्यादा संभावनापूर्ण जरूरत नहीं कि तुम उसे कोई ढांचा दो, अकारण होता है, अहेतुक होता है। यह घड़ी होती है, बहुत गर्भित घड़ी। यदि तुम कोई अनुशासन दो और कोई व्यवस्था दो। किसी चीज की तलाश नहीं है, यह तो बस डर जाते हो और वापस मुड़ जाते हो, तो जीवन की अपनी व्यवस्था है, उसका घटता है। जैसे कि तुम सांस लेते हो, जैसे तुम संभावना को चूक जाओगे। अपना अनुशासन है। तुम बस उसके साथ कि जब तुम्हें भूख अनुभव होती है और आगे है सच्ची निश्चितता। वह सच्ची चलो, तुम बहो उसके साथ, तुम नदी को तुम कुछ खा लेते हो, जैसे कि जब तुम्हें निश्चितता अनिश्चितता के विपरीत नहीं धकेलने की कोशिश मत करना। नदी तो नींद आने लगती है और तुम बिस्तर पर है। आगे है सच्ची सुरक्षा, लेकिन वह बह रही है-तुम उसके साथ एक हो चले जाते हो। यह आंतरिक सुव्यवस्था सुरक्षा असुरक्षा के विपरीत नहीं है। वह जाओ और नदी ले जाती तुम्हें सागर तक। होती है, एक अंतर्निहित सुव्यवस्था। वह सुरक्षा इतनी विशाल होती है कि वह __ यही होता है एक संन्यासी का जीवनः आ बनेगी जब तुम्हारा ताल-मेल बैठ जाता असुरक्षा को स्वयं के भीतर ही समाए सहज होने देने का जीवन-करने का है असुरक्षा के साथ, जब तुम्हारी सुसंगति रहती है। वह इतनी विशाल होती है कि नहीं। तब तुम्हारी अंतस-सत्ता पहुंच जाती बन जाती है अपने भीतर के अजनबी वह असुरक्षा से भयभीत नहीं होती। वह है, धीरे-धीरे, बादलों से ऊपर, बादलों के साथ, जब तुम अपने भीतर की अज्ञात असुरक्षा को सोख लेती है स्वयं में ही, वह और अंतर्विरोध के पार। अचानक तुम सत्ता के साथ लयबद्ध हो जाते हो। सारी विपरीत बातों को समाए रहती है। मुक्त होते हो। जीवन की अव्यवस्था में, झेन में उनके पास एक कथन है, इसलिए कोई उसे कह सकता है असुरक्षा तुम एक नई व्यवस्था पा लेते हो। लेकिन सुंदरतम कथनों में से एकः जब कोई और कोई उसे कह सकता है-सुरक्षा। व्यवस्था की गुणवत्ता अब संपूर्णतया व्यक्ति संसार में रहता है, तो पर्वत पर्वत वस्तुतः वह इनमें से कुछ भी नहीं, या फिर अलग होती है। यह कोई तुम्हारे द्वारा होते हैं, नदियां नदियां होती हैं। जब कोई दोनों ही है। आरोपित चीज नहीं होती, यह स्वयं जीवन व्यक्ति ध्यान में उतरता है, तब पर्वत फिर यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम स्वयं के साथ ही आत्मीयता से गुंथी होती है। पर्वत नहीं रहते, नदियां नदियां नहीं रहतीं। के लिए अजनबी बन गए हो, तो उत्सव वृक्षों में भी एक व्यवस्था होती है, हर चीज एक भ्रम और एक अव्यवस्था मनाओ इसका, अनुगृहीत अनुभव करो। नदियों में भी, पर्वतों में भी, लेकिन ये होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति उपलब्ध यह घड़ी बहुत विरल, अनूठी होती है; व्यवस्थाएं वे नहीं जो नैतिकतावादियों कर लेता है सतोरी को, समाधि को, फिर आनंदित होओ इससे। जितना ज्यादा तुम द्वारा, प्यूरिटन्स द्वारा, पुरोहितों द्वारा नदियां नदियां होती हैं और पर्वत होते हैं आनंदित होते हो, उतना ज्यादा तुम पाओगे आरोपित होती हैं। वे किसी के पास पर्वत। कि निश्चितता तुम्हारे ज्यादा निकट चली मार्गनिर्देशन के लिए नहीं जाती। व्यवस्था तीन अवस्थाएं होती हैं: पहली में तुम आ रही है, और-और तेजी से चली आ अंतर्निहित होती है; वह स्वयं जीवन में ही अहंकार के प्रति सुनिश्चित होते हो; तीसरी रही है तुम्हारी ओर। यदि तुम उत्सव मना होती है। अहंकार वहां नहीं रहता योजनाएं में तुम निरहंकार अवस्था में परिपूर्ण सको तुम्हारे अजनबीपन का, तुम्हारे बनाने को, यहां-वहां खींचने-धकेलने निश्चित होते हो और इन दोनों के बीच उखड़ाव का, तुम्हारी गृहविहीनता का, तो को–कि यह करो और वह करो। अराजकता की अवस्था है, जब अहंकार अचानक तुम पहुंच जाते हो घर-तीसरी __ जब तुम पूरी तरह अहंकार से मुक्त होते' की निश्चितता तिरोहित हो गयी है और अवस्था आ गयी होती है। 8 267 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर होश के क्षणों का संबल आप हमें हर चीज के प्रति वो लोग भी कार्य के समय तो कार्य में सजगता रखने के लिए बड़े सजग होने को कहते हैं-जिसका सजग होने का प्रयास कर रहे प्रशिक्षण और शिक्षण की जरूरत है, और अर्थ हआ हर चीज और हर कत्य हैं, यह उनकी बुनियादी समस्याओं में से बहुत ही सीधे-सरल कृत्यों से शुरू करना के साक्षी हो जाना। एक है क्योंकि कार्य की मांग है कि तुम होता है, जैसे टहलना। तुम टहल सकते जब मैं कार्य में सजग होने का स्वयं को बिलकुल भूल जाओ। उसमें तुम्हें हो, और सजग हो सकते हो कि तुम टहल निर्णय लेता हूं, तो सजगता के बिलकुल गहन होकर संबद्ध होना पड़ता रहे हो-हर कदम होश से भरा हो सकता है...जैसे कि तुम अनुपस्थित हो। जब है। भोजन करना...जैसे झेन मठों में वे __ विषय में भूल जाता हूं, तक ऐसी समग्र संबद्धता न हो, कार्य चाय पीते हैं-इसे वे 'टी सेरेमनी' कहते और जब मुझे यह बोध होता है कि उथला-उथला ही रहता है। हैं, क्योंकि चाय पीते समय व्यक्ति को मैं सजग नहीं था तो मनुष्य की कृतियों में जो कुछ भी महान सचेत व सजग रहना होता है। ग्लानि अनुभव करता हूँ; है-चित्रकारिता में, काव्य में, वास्तुकला ये छोटे-छोटे कृत्य हैं लेकिन शुरू गता है कि में, मूर्तिकला में, जीवन के किसी भी करने के लिए बिलकुल ठीक हैं। चित्र मैंने कोई गलती कर दी। आयाम में-उसमें तुम्हारी पूरी संबद्धता बनाने या नृत्य करने जैसी किसी चीज से क्या आप कृपया समझाएंगे? चाहिए। और यदि साथ ही तुम सजग होने यह शुरू नहीं करना चाहिए-वे बड़ी की चेष्टा कर रहे हो, तो तुम्हारा कार्य गहन और जटिल घटनाएं हैं। दैनिक कभी भी प्रथम कोटि का नहीं होगा, जीवन के छोटे-छोटे कृत्यों से शुरू करो। क्योंकि फिर तुम उसमें मौजूद नहीं जैसे-जैसे तुम सजगता से अधिक परिचित होओगे। होते जाते हो, जब सजगता तुम्हारी 268 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर श्वास-प्रश्वास की तरह हो जाती उपयोग करो। लौट तो आई है। है-तुम्हें उसके लिए कोई प्रयास नहीं एक दिन आता है, जब संसार में ऐसा इसे कोई पश्चात्ताप, कोई करना पड़ता, वह सहज हो जाती कोई कृत्य नहीं रहता जिसे पूरी समग्रता से अपराध-भाव, कोई उदासी मत है-फिर किसी भी कृत्य में, किसी भी करते हुए भी तुम उसमें सजग नहीं रह बनाओ-क्योंकि अपराधी और दुखी कार्य में तुम सजग हो सकते हो। सकते। होने से तुम्हारा कोई भला नहीं होने वाला। लेकिन शर्त याद रखोः वह प्रयासरहित तुम कह रहे हो, “जब मैं कार्य में सजग गहरे में तुम असफल अनुभव करोगे। और होनी चाहिए; उसे सहजता से आना होने का निर्णय लेता हूं तो सजगता के एक बार असफलता का भाव तुममें चाहिए। फिर चित्र बनाते हुए या संगीत विषय में भूल जाता हूं।" यह तुम्हारा बैठ जाए, तो सजगता और भी कठिन रचते हुए, या नाचते हुए, या तलवार निर्णय नहीं, तुम्हारी लंबी साधना होनी हो जाएगी। लेकर किसी शत्रु से लड़ते हुए भी तुम चाहिए। और सजगता सहज ही आनी अपना पूरा फोकस बदल डालो। यह पूर्णतः सजग रह सकते हो। लेकिन यह चाहिए; तुम्हें इसे बुलाना नहीं है, इससे बड़ी बात है कि तुम इस बात के प्रति सजगता वह नहीं है जिसके लिए तुम जबरदस्ती नहीं करनी है। सजग हो गए कि तुम सजग होना भूल गए प्रयास कर रहे हो। यह शुरुआत नहीं है; “और जब मुझे यह बोध होता है कि मैं थे। अब जितनी देर तक संभव हो सके, यह तो एक लंबी साधना की परिणति है। सजग नहीं था तो दोषी अनुभव करता हूं।" मत भूलो। फिर दोबारा तुम भूलोगे; फिर कई बार यह बिना प्रशिक्षण के भी घट यह बिलकुल मूढ़ता है। जब तुम्हें यह बोध से तुम्हें स्मरण आएगा-लेकिन हर बार, सकती है। हो कि तुम सजग नहीं थे, तो प्रसन्न होओ विस्मृति का अंतराल छोटा से छोटा होता लेकिन ऐसा कभी-कभार ही हो सकता कि कम से कम अब तो तुम सजग हो। जाएगा। यदि तुम अपराध-भाव से बच है-बिलकुल अति की परिस्थितियों में। अपराध-भाव की धारणा का मेरी देशना में सको-जो कि मूलतः क्रिश्चियन है-तो रोजमर्रा के जीवन में तुम्हें सहज क्रम का कोई स्थान नहीं है। तुम्हारी विस्मृत के अंतराल छोटे होते पालन करना चाहिए। पहले ऐसे कृत्यों के अपराध-भाव आत्मा में लगने वाले जाएंगे, और एक दिन वे बस समाप्त हो प्रति सजग होना शुरू करो जिनमें तुम्हारी कैंसरों में से एक है। और सभी धर्मों ने जाएंगे। सजगता तुम्हारी श्वास-प्रश्वास संबद्धता नहीं चाहिए। तुम टहल सकते तुम्हारी गरिमा, तुम्हारे गौरव को नष्ट करने या धड़कन या रक्त प्रवाह की तरह हो हो और सोचते जा सकते हो; खाते रह के लिए, और तुम्हें गुलाम बनाने के लिए जाएगी-दिन हो कि रात। सकते हो और विचारते चले जा सकते हो। अपराध-भाव का उपयोग किया है। तो सावधान रहो कि कहीं तुम्हें सोच-विचार के स्थान पर सजगता को ले अपराधी अनुभव करने की कोई जरूरत अपराध-भाव न अनुभव हो। अपराधी आओ। खाते रहो, और सजग रहो कि तुम नहीं, यह स्वाभाविक है। सजगता इतनी अनुभव करने को कुछ भी नहीं है। यह खा रहे हो। चलो, और सोच-विचार महत घटना है कि कुछ सैकेंड के लिए भी बड़े सौभाग्य की बात है कि वृक्ष के स्थान पर सजगता को ले आओ। चलते सजग हो सको, तो आह्लादित होओ। उन कैथोलिक पादरियों की नहीं सुनते। वरना रहो; शायद तुम्हारा चलना थोड़ा धीमा क्षणों पर कोई बहुत ध्यान दो जब तुम भूल तो वे गुलाब को अपराध-भाव से भर देंगे और अधिक प्रसादपूर्ण हो जाए। लेकिन जाते हो। उस अवस्था पर ध्यान दो जब कि "तुममें कांटे क्यों हैं?" और जो गुलाब सजगता ऐसे छोटे-छोटे कृत्यों के साथ ही अचानक तुम्हें स्मरण आता है, “मैं सजग हवा में, वर्षा में, सूर्य की रोशनी में नाच संभव है। और जैसे-जैसे तुम ज्यादा नहीं था।" धन्यभागी अनुभव करो कि रहा था, वह अचानक उदास हो जाएगा। कुशल होते हो तो ज्यादा जटिल कृत्यों का कुछ घंटों के बाद कम से कम सजगता नृत्य विदा हो जाएगा; आनंद विदा हो 269 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर गए जाएगा; सुवास विलीन हो जाएगी। अब की अपेक्षा स्वयं को दंड दे लेना बेहतर इजाजत नहीं दे सकते। कांटा ही उसकी वास्तविकता, उसका घाव है-क्योंकि वह दंड तो यह होगा कि तुम एक महान सूफी शायर उमर खय्याम ने बन जाएगा-"तुममें कांटे क्यों हैं?" अनंत काल के लिए नरक के गहन अपने विश्व प्रसिद्ध काव्य-संग्रह, लेकिन क्योंकि गुलाब की कोई झाड़ी अंधकार में फेंक दिए जाओगे। और वहां रुबाइयात, में लिखा है : “मैं तो पिऊंगा, इतनी मूढ़ नहीं है कि किसी धर्म के पुरोहित कोई बचाव, कोई निकास-द्वार नहीं नाचूंगा, प्रेम करूंगा। मैं हर पाप करूंगा को सुने, इसलिए गुलाब नाचते चले जाते है-एक बार तुम नरक में प्रवेश किए, तो क्योंकि परमात्मा की करुणा में मेरी श्रद्धा हैं, और गुलाब के साथ-साथ कांटे भी बस हमेशा के लिए प्रवेश कर गए। है-वह क्षमा कर देगा। मेरे पाप बहुत नाचते हैं। पूरी मनुष्यता को किसी न किसी मात्रा छोटे हैं; उसकी करुणा अपार है।" पूरा अस्तित्व अपराध-भाव से मुक्त में अपराध-भाव से भर दिया गया है। जब पंडितों को उसकी पुस्तक के बारे में है। और जिस क्षण कोई व्यक्ति इसने तुम्हारी आंखों से चमक छीन ली पता चला-क्योंकि उन दिनों पुस्तकें हाथ अपराध-भाव से मुक्त होता है, वह जीवन है; इसने तुम्हारे चेहरे से सौंदर्य छीन लिया से लिखी जाती थीं, कोई छापाखाना नहीं के जागतिक प्रवाह का हिस्सा हो जाता है। है; तुम्हारे अंतस से प्रसाद छीन लिया होता था...पंडितों को पता चला कि वह यही संबोधि है-एक अपराध-भाव से है। इसने तुम्हें अपराधी बना दिया ऐसी अधार्मिक चीजें लिख रहा है, कि वह मुक्त चेतना जो हर उस चीज का आनंद है-व्यर्थ ही। कह रहा है, "चिंता मत करो, जो चाहते हो मनाती चली जाती है जो अस्तित्व उपलब्ध स्मरण रखोः मनुष्य क्षीण और कमजोर करते रहो क्योंकि परमात्मा शुद्ध करुणा करवाता है: प्रकाश सुंदर है। ऐसे ही है, और गलती करना मानवीय है। और और प्रेम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अंधकार भी सुंदर है। जिन लोगों ने यह कहावत गढ़ी है कि सत्तर वर्ष के जीवन में तुम कितना पाप कर जब तुम अपराध-भाव अनुभव करने "गलती करना मानवीय है" उन्हीं लोगों सकते हो?-उसकी करुणा की तुलना में के लिए कुछ भी न खोज पाओ, तो मेरे ने यह कहावत भी गढ़ी है कि “क्षमा करना यह कुछ भी नहीं है।" अनुसार तुम धार्मिक व्यक्ति हुए। दिव्य है।" दूसरे हिस्से से मैं सहमत नहीं वह प्रसिद्ध गणितज्ञ भी था, अपने देश तथाकथित धर्मों के अनुसार जब तक तुम हूं। में विख्यात था। पंडित-पुरोहित उसके पास अपराध-भाव अनुभव नहीं करते, तुम मैं कहता हूं, “गलती करना मानवीय है पहुंचे और बोले, “तुम कैसी बातें लिख धार्मिक नहीं हो; जितनी तुम्हें ग्लानि हो, और क्षमा करना भी मानवीय है।" और रहे हो? तुम तो लोगों की धार्मिकता को उतने ही तुम धार्मिक हो। स्वयं को क्षमा करना महानतम पुण्यों में से नष्ट कर दोगे! लोगों में भय पैदा करो, दंड के रूप में, प्रायश्चित के रूप में है, क्योंकि यदि तुम स्वयं को ही क्षमा नहीं लोगों को बताओ कि परमात्मा बड़ा लोग स्वयं को प्रताड़ित कर रहे हैं। लोग कर सकते तो संसार में किसी को भी क्षमा न्यायोचित है: यदि तुमने कोई पाप किया मुक्के मार-मार कर अपनी छाती पर तब नहीं कर सकते–यह असंभव है। तुम है, तो तुम्हें सजा मिलेगी। कोई करुणा नहीं तक चोट करते हैं जब तक छाती से खून न घावों से, अपराध-भाव से इतने भरे हुए की जाएगी।" निकलने लगे। ये लोग, मेरे देखे, हो, किसी को कैसे क्षमा कर सकते हो? उमर खय्याम की पुस्तक उसके मानसिक रूप से रुग्ण हैं; ये धार्मिक नहीं तुम्हारे तथाकथित संत कहे चले जाते हैं कि जीवनकाल में ही जला दी गई। जब भी हैं। उनके तथाकथित धर्मों ने उन्हें सिखाया तुम नरक में फेंक दिए जाओगे। कोई प्रति मिल जाती, पंडित-पुरोहित है कि यदि तुम कोई गलती करो तो वास्तविकता यह है कि वे नरक में जी रहे उसको जला देते, क्योंकि यह व्यक्ति ऐसे कयामत के दिन परमात्मा से दंडित होने हैं! वे परमात्मा को भी तुम्हें क्षमा करने की खतरनाक विचार सिखा रहा था। 270 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि यह विचार मनुष्यों में फैल जाए और सभी जीवन में आनंदित होने लगें तो पुरोहितों का क्या होगा ? संतों का क्या होगा ? स्वर्ग और नरक और परमात्मा की उनकी पौराणिक कहानियों का क्या होगा ? सब कुछ हवा में विलीन हो जाएगा। कम से कम मेरे लिए, उमर खय्याम संबुद्ध सूफी संतों में से एक है, और वह जो कह रहा है उसमें अथाह सत्य है। उसका यह अभिप्राय नहीं है कि तुम पाप करो। उसका इतना ही अर्थ है कि तुम्हें अपराध-भाव अनुभव नहीं करना चाहिए। जो भी तुम करते हो - यदि वह सही नहीं है, तो उसे फिर से मत करो। यदि तुम्हें लगता है कि इससे किसी को दुख होता है, तो उसे दोबारा मत करो। लेकिन अपराधी अनुभव करने की जरूरत नहीं है, पश्चात्ताप करने की, प्रायश्चित करने की, तपस्या करने की और स्वयं को 271 ओशो से प्रश्नोत्तर प्रताड़ित करने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा फोकस पूरी तरह बदलना चाहता हूं। बजाय इसको गिनने के कि कितनी बार तुम सजग होना भूले, उन थोड़े से सुंदर क्षणों की गिनती करो जब तुम स्फटिक की तरह स्पष्ट और सजग थे। वे थोड़े से क्षण तुम्हें बचाने के लिए, तुम्हारा उपचार करने के लिए पर्याप्त हैं। और यदि तुम उन पर ध्यान दो तो वे तुम्हारी चेतना में बढ़ते और फैलते चले जाएंगे। धीरे-धीरे बेहोशी का सारा अंधकार मिट जाएगा। प्रारंभ में कई बार तुम्हें यह भी लगेगा कि शायद कार्य करना और सजग रहना साथ-साथ संभव नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यह न केवल संभव है, बल्कि बहुत ही सरलता से संभव है। बस जरा ठीक ढंग से शुरू करो। क्ष त्र ज्ञ से शुरू मत करो; क ख ग से शुरू करो। जीवन में हम गलत शुरुआत के कारण कई चीजें चूकते चले जाते हैं। हर चीज बिलकुल प्रारंभ से शुरू करनी चाहिए । हमारे मन अधीर हैं; हम सबकुछ जल्दी से करना चाहते हैं। हम सीढ़ी के हर सोपान से गुजरे बिना उच्चतम बिंदु पर पहुंचना चाहते हैं। लेकिन उसका अर्थ होगा पूर्ण असफलता । और सजगता जैसी चीज में तुम एक बार असफल हो गए तो यह कोई छोटी असफलता नहीं है— शायद तुम फिर कभी भी इसका प्रयास नहीं करोगे । असफलता दुखती है। तो जो भी चीज सजगता जैसी मूल्यवान हो— क्योंकि यह अस्तित्व के रहस्यों के सारे द्वार खोल सकती है, यह तुम्हें परमात्मा के मंदिर पर पहुंचा सकती है— इन्हें तुम्हें बड़ी सावधानी से शुरू करना चाहिए और आरंभ से ही फूंक-फूंक कर चलो। थोड़ा-सा धैर्य, और लक्ष्य बहुत दूर नहीं है। 9 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर द्रष्टा को स्थूल से सूक्ष्म की ओर गहराओ तातुन मन के एक हिस्से द्वारा मन के गरू करना होता है शरीर को भावदशाओं को देखते हो, तो द्रष्टा इतना दूसरे हिस्से को देखने और द्रष्टा चलते हुए, बैठे हुए, बिस्तर पर मजबूत हो जाता है कि स्वयं बना रह के बीच मैं किस प्रकार भेद कर जाते या खाते हुए देखने से। सकता है-स्वयं को देखता हुआ, जैसे सकता हूं? क्या द्रष्टा स्वयं को स्थूलतम चीजों से व्यक्ति को शुरू करना कि अंधेरी रात में जलता हुआ एक दीया न देख सकता है? एक दिन, मुझे चाहिए, क्योंकि यह सरल है। और फिर केवल अपने आस-पास प्रकाश करता है, लगा मैंने द्रष्टा को पा लिया, उसे सूक्ष्म अनुभवों की ओर जाना चाहिए, बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है! विचारों को देखना शुरू करना चाहिए। द्रष्टा को उसकी विशुद्धता में खोज और उसी दिन प्रवचन में मैंने और जब व्यक्ति विचारों को देखने में लेना अध्यात्म में सबसे बड़ी उपलब्धि है, आपको यह कहते सुना, “यदि तुम कुशल हो जाता है तो उसे अनुभूतियों को क्योंकि तुम्हारे भीतर का द्रष्टा तुम्हारी सोचते हो कि तुमने द्रष्टा को देखना शुरू करना चाहिए। जब तुम्हें लगे देर आत्मा है, तुम्हारे भीतर का द्रष्टा तुम्हारा पा लिया 'कि तुम अपनी अनुभूतियों को भी देख अमरत्व है। लेकिन एक क्षण के लिए भी तब से मैंने शरीर की अनुभूतियों, सकते हो. तो फिर अपनी भावदशाओं को यह मत सोचो, "मैंने पा लिया," क्योंकि विचारों और भावों का द्रष्टा होने देखना शरू करो, जो कि अनुभूतियों से तब भी उसी क्षण तुम चूक जाते हो। का प्रयास किया है। अधिकांशतः, अधिक सूक्ष्म भी हैं और अस्पष्ट भी। अवलोकन एक सनातन प्रक्रिया है; तुम तो मैं उन्हीं में पकड़ा जाता हूं, द्रष्टा होने का चमत्कार यह है कि जब गहन से गहनतर होते जाते हो, लेकिन ऐसे लेकिन कभी-कभार मैं बिलकुल तुम शरीर को देखते हो तो तुम्हारा द्रष्टा अंतिम छोर पर तुम कभी नहीं पहुंचते जहां अधिक मजबूत होता है; जब तुम अपने कह सको “मैंने पा लिया" । बल्कि जितने और कछ भी ठहरता नहीं-बस विचारों को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा और गहरे तुम जाते हो उतना ही तुम्हें बोध होता चलता रहता है। क्या कहै भी मजबूत होता है; और जब अनुभूतियों है कि तुम एक ऐसी प्रक्रिया में प्रवेश कर जो किया जा सकता है? को देखते हो, तो तुम्हारा द्रष्टा फिर और गए जो सनातन है-अनादि और अनंत। मजबूत होता है। जब तुम अपनी लेकिन लोग बस दूसरों को देख रहे हैं; विशा. 272 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है - यह सबसे उथले तल पर देखना हैं - कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है; देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है, दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिक अनुभूतियों, विचारों और भावदशाओं की ओर करना है - और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है। “महाराज, आपने कॉलर उलटा करके पीछे की ओर क्यों पहना हुआ है ?" "क्योंकि मैं एक फादर हूं," पादरी ने जवाब दिया। लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो ? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पद करते हुए पकड़ा है ? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो; तुम्हारा सारा देखना दूसरों के गाड़ी में एक यहूदी एक पादरी के सामने विषय में ही है, और उसका कोई लाभ नहीं बैठा है। है । “फादर तो मैं भी हूं, लेकिन मैं अपना कॉलर ऐसे नहीं पहनता, ” यहूदी कहता है। ओशो से प्रश्नोत्तर लोग एक-दूसरे को बड़े गौर से देखते हैं। दो पोलक टहलने के लिए बाहर गए और अचानक बारिश होने लगी । “जल्दी करो,” एक ने दूसरे से कहा, “अपना छाता खोलो।” “उससे कुछ नहीं होगा,” दूसरा बोला, “मेरी छतरी में छेद ही छेद हैं।” "तो तुम छतरी लाए ही क्यों थे?" "मैंने सोचा ही नहीं था कि बारिश भी हो सकती है।" 273 अवलोकन की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते । सरल-सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान “ओह, लेकिन मैं तो हजारों के लिए बन जाता है। फादर हूं।" “फिर तो शायद, ” यहूदी कहता है, “आपको अपनी पतलून उलटी करके पहननी चाहिए। " भीतर जाओगे, उतने ही सुखी अनुभव करोगे - शांत, अधिक मौन, अधिक एकजुट, अधिक महिमावान, अधिक प्रसादपूर्ण । बोधगया में जहां बुद्ध संबोधि को उपलब्ध हुए एक मंदिर बनाया गया है दो किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा बातों की स्मृति में एक है वह सकता है। बोध-वृक्ष जिसके नीचे बुद्ध ध्यान में बैठा करते थे । वृक्ष के बाजू में छोटे-छोटे पत्थर हैं धीरे-धीरे चलने के लिए। वे बैठते, ध्यान करते और जब उन्हें लगता कि बैठना बहुत ज्यादा हो गया और शरीर के लिए कुछ व्यायाम की जरूरत है— तब वे उन पत्थरों पर चलने लगते। वह उनका चलते हुए ध्यान करना था। जब मैं बोधगया में ध्यान शिविर ले जो कुछ भी तुम्हें तुम तक ले जाए, वही ध्यान है। और अपना स्वयं का ध्यान खोज लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उस खोजने में ही तुम अथाह आनंद पा लोगे। और क्योंकि यह तुम्हारी अपनी खोज है - तुम पर आरोपित कोई विधि-विधान नहीं— उसके भीतर तुम सहजता से गहरे चले जाओगे। और जितने गहरे तुम उसके अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीब पर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे। अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद को देख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होता है। तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उससे तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथ ही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा था तो मंदिर देखने गया । मैंने तिब्बत से, जापान से, चीन से आए लामाओं को देखा। वे सभी बोधि वृक्ष को अपनी श्रद्धांजलि दे रहे थे, और मुझे एक भी लामा नजर नहीं आया जो उन पत्थरों के प्रति सम्मान प्रकट कर रहा हो जिन पर बुद्ध मीलों-मील चले थे। मैंने उन्हें कहा, "यह ठीक नहीं है। तुम्हें उन पत्थरों को नहीं भूलना चाहिए । गौतम बुद्ध के चरणों ने उन्हें लाखों बार स्पर्श किया है। लेकिन मुझे पता है तुम उनकी ओर कोई ध्यान क्यों नहीं दे रहे, क्योंकि तुम बिलकुल भूल चुके हो कि बुद्ध का इस बात पर जोर था ओशो से प्रश्नोत्तर कि तुम अपने शरीर के हर कृत्य का अवलोकन करो : चलना, बैठना, लेटना । " एक भी क्षण तुम बेहोशी में मत जाने दो। द्रष्टा होना तुम्हारे होश को पैना करेगा। यही मूल धर्म है— बाकी तो सब कोरी बातचीत है। लेकिन मुझसे पूछते हो, “क्या इसके अतिरिक्त कुछ और भी है ?” नहीं, यदि तुम केवल द्रष्टा होना भर साध सको तो किसी और चीज की जरूरत नहीं है। यहां मेरा प्रयास है कि धर्म को जितना हो सके सरल बना दूं। सब धर्मों ने ठीक इससे विपरीत प्रयास किया है उन्होंने चीजों को बहुत जटिल बना लिया है — इतना जटिल कि लोगों ने कभी उनको करने की चेष्टा ही नहीं की। उदाहरण के लिए, बौद्ध शास्त्रों में बौद्ध भिक्षुओं के लिए तैंतीस हजार नियम हैं; और उन्हें स्मरण रखना तक असंभव है। तैंतीस हजार की संख्या ही तुम्हें घबड़ाने के लिए पर्याप्त है: “मैं तो गया ! मेरा पूरा जीवन व्यथित और विनष्ट हो जाएगा। " मैं तुम्हें सिखाता हूं कि बस एक नियम खोज लो जो तुम्हें ठीक बैठता हो, जो तुम्हारे साथ लयबद्ध होता हो — और वह पर्याप्त है। 10 274 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर साक्षित्व के बीज और अ-मन के फल साक्षित्व किस प्रकार अ-मन तक यान एक बहुत लंबी तीर्थयात्रा भूमि तैयार कर सकते हो, लेकिन फूल ले जाता है? मैं अपने शरीर, ना तय करता है। जब मैं कहता अपने-आप से आएंगे। तुम उन्हें आने के अपने विचारों और भावों को हूं “साक्षी होना ही ध्यान है," तो यह ध्यान लिए बाध्य नहीं कर सकते। वसंत तम्हारी देख पाने में सक्षम होता जा रहा है. की शुरुआत है। और जब मैं कहता हूं पहुंच के बाहर है। लेकिन यदि तुम्हारी और यह अच्छा लगता है। लेकिन "ध्यान अ-मन है," तो यह यात्रा की तैयारी ठीक है, तो वसंत आता है। यह पूरी निर्विचार के क्षण बीच-बीच में पूर्णाहति है। साक्षित्व प्रारंभ है, और तरह सुनिश्चित है। अ-मन है पूर्णाहुति। साक्षित्व अ-मन तक जिस तरह से तुम बढ़ रहे हो वह बहुत-बहुत दूरी पर आते हैं। पहुंचने की विधि है। बिलकुल ठीक है। साक्षित्व तुम्हारा मार्ग है जब मैं आपको यह क स्वभावतः साक्षित्व तुम्हें अधिक सरल और कभी-कभार तुम विचारशून्य क्षण को कि "साक्षी होना हा ध्यान है," ता जोगा। वह तम्हारे करीब पडता है। भी अनभव करने लगे हो। य अ-मन का मुझे लगता है बात मेरी समझ में लेकिन साक्षित्व केवल बीज की भांति है झलकें हैं, लेकिन केवल एक क्षण के पड़ती है। लेकिन जब आप और फिर प्रतीक्षा का एक लंबा समय होता लिए। 'अ-मन' की बात करते हैं तो वह है केवल प्रतीक्षा ही नहीं, बल्कि श्रद्धा एक बुनियादी नियम याद रखोः जो मुझे बिलकुल समझ नहीं आती। कि यह बीज अंकुरित होगा ही, कि यह एक क्षण के लिए ठहर सकता है, वह आप कृपया कुछ कहेंगे? पौधा भी बनेगा, कि एक दिन वसंत सनातन भी बन सकता है, क्योंकि तुम्हें आएगा और पौधे में फूल भी आएंगे। हमेशा एक ही क्षण मिलता है-दो क्षण अ-मन खिलावट की अंतिम स्थिति है। एक साथ नहीं मिलते। और यदि तुम एक बीज बोना निश्चित ही बहुत सरल है। क्षण को निर्विचार दशा में रूपांतरित कर यह तुम्हारे हाथों में है। लेकिन फूल ले सको, तो तुम राज सीखने लगे। तो फिर आना तुम्हारे बस के बाहर है। तुम पूरी कोई बाधा नहीं है कि तुम क्यों नहीं बदल 275 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर सकते। दूसरा क्षण भी उसी संभावना और क्योंकि तुम क्रोध के साथ तादात्म्य कर रहे तुम उनके द्रष्टा नहीं हो सकते, तब तुम उसी क्षमता को लिए हुए अकेला ही हो। अपने विचारों से प्रभावित हो जाते हो और आएगा। लेकिन जब तुम कहते हो, "मैं अपने उन्हीं में रंग जाते हो। क्रोध तुम्हें क्रोधित यदि तुम राज जान जाओ, तो तुम्हारे भीतर मन के परदे पर से क्रोध को गुजरता कर देता है, लोभ तुम्हें लोभी कर देता है, हाथ कुंजी लग गई जो हर क्षण को अ-मन देख रहा हूँ," तो तुम क्रोध को अब कोई वासना तुम्हें वासना से भर देती है, क्योंकि की झलक के लिए खोल दे सकती है। जीवन, कोई रस, कोई ऊर्जा नहीं दे रहे बीच में बिलकुल भी दूरी नहीं है। वे इतने अ-मन अंतिम अवस्था है, जब मन हो। तुम उसे देख पाओगे क्योंकि तुमने करीब हैं कि तुम यह सोचने को बाध्य ही सदा-सदा के लिए विलीन हो जाता है, उससे तादात्म्य नहीं किया है। क्रोध हो कि तुम और तुम्हारे विचार एक हैं। और निर्विचार अंतराल तुम्हारी अंतर्निहित बिलकुल नपुंसक है, उसका तुम पर कोई द्रष्टत्व इस ऐक्य को तोड़कर एक वास्तविकता बन जाता है। यदि ये प्रभाव नहीं है, वह तुम्हें बदलता नहीं, विभाजन पैदा कर देता है। जितना तुम थोड़ी-सी झलकें आ रही हैं तो इनसे पता प्रभावित नहीं करता। वह बिलकुल अवलोकन करते हो, दूरी उतनी बड़ी हो चलता है कि तुम सही मार्ग पर हो और खोखला और मुरदा है। वह गुजर जाएगा जाती है; जितनी बड़ी दूरी होती है, उतनी सही विधियों का उपयोग कर रहे हो। और आकाश को स्वच्छ और मन के परदे ही कम ऊर्जा तुम्हारे विचार तुमसे ग्रहण लेकिन अधीर मत होओ। अस्तित्व को खाली छोड़ जाएगा। करते हैं, और अन्य तो कोई स्रोत उनके बड़ा धैर्य चाहता है। परम रहस्य उन्हीं के धीरे-धीरे तुम अपने विचारों से बाहर पास है ही नहीं। लिए खलते हैं जिनमें अथाह धैर्य होता है। निकलने लगते हो। साक्षी और द्रष्टा की शीघ्र ही वे मरने लगते हैं, मिटने लगते एक बार कोई व्यक्ति अ-मन की दशा में पूरी प्रक्रिया ही यही है। दूसरे शब्दों में, हैं। मिटने के इन क्षणों में तुम्हें अ-मन की आ जाए तो कुछ भी उसे उसकी जार्ज गुरजिएफ इसे 'अतादात्म्य' कहा पहली झलक मिलेगी-जैसा कि तुम अंतस-सत्ता से विचलित नहीं कर सकता। करते थे। अब तुम अपने विचारों के साथ अनुभव कर रहे हो। तुम कहते हो, “मैं अ-मन की शक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं तादात्म्य नहीं बना रहे। तुम हट कर अकेले अपने शरीर, अपने विचारों और भावों को है। ऐसे व्यक्ति को कोई नुकसान नहीं खड़े हुए हो-तटस्थ, जैसे कि वे किसी देख पाने में सक्षम होता जा रहा हूं, और पहुंचाया जा सकता। कोई मोह, कोई और के विचार हों। तुमने उनसे अपने यह अच्छा लगता है।" यह तो केवल बस लोभ, कोई ईर्ष्या, कोई क्रोध, कुछ भी संबंध तोड़ लिए। तभी तुम उन्हें देख सकते शुरुआत है। शुरुआत भी अपूर्व रूप से उसमें उठ नहीं सकता। अ-मन एक हो। सुंदर है। बस ठीक मार्ग पर आ जाना बिलकुल विशुद्ध आकाश है जिसमें कोई द्रष्टा होने के लिए एक निश्चित दूरी की ही-चाहे तुम एक भी कदम न बादल नहीं। जरूरत है। यदि तुम उनके साथ तादात्म्य बढ़ाओ-तुम्हें अकारण ही अपूर्व आनंद तुम कहते हो, “साक्षित्व किस प्रकार बनाए हुए हो, तो कोई दूरी नहीं हुई, वे से भर देगा। अ-मन तक ले जाता है?" एक अंतर्भूत बहुत करीब हैं। यह ऐसे ही है जैसे तुम और एक बार तुम ठीक मार्ग पर चलने नियम है: विचारों का अपना कोई जीवन दर्पण को अपनी आंख के बहुत करीब लगो तो तुम्हारा आनंद, तुम्हारे सुंदर नहीं है। वे परजीवी हैं। वे तुम्हारे तादात्म्य लगा लो-तब तुम अपना चेहरा नहीं देख अनुभव और-और गहराएंगे, नए रंगों, पर जीते हैं जो तुमने उनके साथ बना लिया पाओगे। एक निश्चित दूरी चाहिए, तभी नए फूलों और नई सुगंधों के साथ है। जब तुम कहते हो, "मैं क्रोधित हूं" तो तुम दर्पण में अपना चेहरा देख सकते हो। और-और फैलेंगे। तुम क्रोध में जीवन ऊर्जा डाल रहे हो, यदि विचार तुम्हारे बहुत करीब हों, तो तुम कहते हो, “लेकिन निर्विचार के 276 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर तुमने में अनुभव नहीं का सदा ही क्षण बीच-बीच में बहुत-बहुत दूरी पर जाएंगे-रंग जो तुमने संसार में कभी देखे सकता। अ-मन का यह अर्थ नहीं है कि आते हैं।" यह एक बड़ी उपलब्धि है, नहीं, सुगंधे जो तुमने संसार में कभी मन नष्ट हो गया। अ-मन का इतना ही क्योंकि लोगों को तो एक अंतराल का भी अनुभव नहीं की। फिर तुम मार्ग पर चल अर्थ है कि मन हटा कर अलग रख पता नहीं है। उनके विचारों की सदा ही सकते हो बिना इस भय के कि तुम गलत दिया गया। जिस क्षण भी तुम संसार से धक्का-मुक्की रहती है। विचारों पर भी जा सकते हो। संवाद करना चाहो उसे सक्रिय कर ले विचार, कंधे से कंधा मिलाए। लाइन लगी ये अंतर्भानुभव तुम्हें सदा ठीक मार्ग पर सकते हो, फिर वह तुम्हारा गुलाम हो रहती है-चाहे तुम जागे हो कि सोए हो। रखेंगे। बस इतना स्मरण रखो कि वे जाएगा। अभी तो वह तुम्हारा मालिक है। जिन्हें तुम अपने स्वप्न कहते हो वे चित्रों विकसित हो रहे हैं। इसका अर्थ है कि तुम जब तुम अकेले भी बैठे होते हो तो के रूप में विचारों के अतिरिक्त और कुछ बढ़ रहे हो। अब तुम्हारे पास निर्विचार के वह चलता रहता है: याकेटी-याक, नहीं हैं, क्योंकि अचेतन मन अक्षरों की कुछ क्षण हैं। यह कोई साधारण उपलब्धि याकेटी-याक! और तुम कुछ भी नहीं कर भाषा नहीं जानता। नहीं है, यह एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि सकते। तुम इतने असहाय हो। . जो तुम अनुभव कर रहे हो वह इस बात __ लोग तो अपने पूरे जीवन में भी कोई ऐसा अ-मन का इतना ही अर्थ है कि मन का बड़ा संकेत है कि तुम सही मार्ग पर क्षण नहीं जान पाते जब कोई विचार न हो। अपने सही स्थान पर आ गया। गुलाम की हो। साधक के सामने सदा ही यह प्रश्न ये अंतराल बढ़ेंगे। जैसे-जैसे तुम तरह वह अच्छा यंत्र है। मालिक की भांति रहता है कि वह ठीक दिशा में चल रहा है अधिक केंद्रित होओगे, अधिक सजग बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है, खतरनाक है। तब वह कि नहीं। कोई सुरक्षा, कोई संरक्षण, कोई होओगे, ये अंतराल बड़े होने लगेंगे। और तुम्हारा पूरा जीवन नष्ट कर देगा। गारंटी नहीं है। सभी आयाम खुले हुए हैं; यदि तुम बिना पीछे मुड़े, बिना भटके मन केवल एक माध्यम है-जब तुम सही का चुनाव तुम कैसे करोगे? चलते चले जाओ तो वह दिन भी दूर नहीं दूसरों से जुड़ना चाहते हो। लेकिन जब तुम ये उपाय हैं और कसौटियां हैं कि है-यदि तुम सीधे चलते रहो, तो वह अकेले होते हो, तो मन की कोई जरूरत व्यक्ति कैसे चुनाव करे। यदि तुम किसी दिन दूर नहीं है जब पहली बार तुम्हें लगेगा नहीं है। तो जब भी तुम उसका उपयोग भी मार्ग पर, किसी भी विधि पर चलो और कि अंतराल इतने बड़े हो गए हैं कि घंटों करना चाहो, कर सकते हो। फिर एक बात वह तुम्हारे लिए आनंद ले आए, अधिक बीत जाते हैं और एक भी विचार नहीं और याद रखोः जब मन घंटों तक शांत संवेदनशीलता और अधिक द्रष्टा-भाव ले उठता। अब तुम्हें अ-मन के बृहत्तर रहता है, तो वह ताजा और युवा हो जाता आए और तुम्हें मंगल का एक भाव दे दे, अनुभव मिलने लगे। है, अधिक सक्रिय, अधिक संवेदनशील तो यही एक कसौटी है कि तुम ठीक मार्ग परम उपलब्धि तब होती है जब तुम और विश्राम करके पुनरुज्जीवित हो जाता पर चल रहे हो। यदि तुम और दुखी, और चौबीस घंटे अ-मन से घिरे रहते हो। है। क्रोधित, और अहंकारी, और लोभी, और इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपने मन का साधारण लोगों के मन लगभग तीन या वासनायुक्त हो जाओ तो ये संकेत हैं कि उपयोग नहीं कर सकते। यह भ्रांति उन चार वर्ष की उम्र के आस-पास सक्रिय तुम गलत मार्ग पर चल रहे हो। लोगों द्वारा फैलाई गई है जो अ-मन के होते हैं और सत्तर-अस्सी वर्ष तक बिना सही मार्ग पर तुम्हारा आनंद रोज-रोज विषय में कुछ भी नहीं जानते। रुके चलते रहते हैं। स्वभावतः वे बहुत अधिकाधिक विकसित होता जाएगा। और अ-मन का यह अर्थ नहीं है कि तुम मन सृजनात्मक नहीं हो सकते। वे बिलकुल सुंदर अनुभूतियों के तुम्हारे अनुभव अपार का उपयोग नहीं कर सकते। इसका इतना थके-टूटे होते हैं, और थकते हैं रूप से अलौकिक व रंगपूर्ण हो ही अर्थ है कि मन तुम्हारा उपयोग नहीं कर कूड़े-कचरे से। संसार में लाखों लोग बिना 277 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी सृजनात्मकता के जीते हैं। और सृजनात्मकता महानतम आनंददायी अनुभवों में से एक है। लेकिन लोगों के मन थक चुके हैं। वे ऊर्जा के अतिरेक की दशा में नहीं हैं। अ-मन को प्राप्त हुआ व्यक्ति मन को विश्राम में रखता है, ऊर्जा से परिपूर्ण और अति संवेदनशील रखता है, उसको तैयार रखता है कि जिस क्षण भी आदेश दे वह सक्रिय हो जाए । यह कोई संयोग नहीं है कि जिन लोगों को अ-मन का अनुभव हुआ है, उनके शब्दों में अपना एक जादू आने लगता है। जब वे अपने मन का उपयोग करते हैं तो उसमें एक करिश्मा होता हैं, एक चुंबकत्व होता है। उसमें अत्यंत सहजता होती है और सूर्योदय से पूर्व भोर के ओस-क्षणों की सी ताजगी होती है। और मन अभिव्यक्ति तथा सृजनात्मकता के लिए प्रकृति का सबसे विकसित माध्यम है। ओशो से प्रश्नोत्तर और यदि तुम ग्रहण करने और सुनने को तैयार होओ तो इस स्व-प्रमाणित सत्य को अपने हृदय में अनुभव करोगे । तुम कहते हो, "जब मैं आपको यह कहते सुनता हूं कि 'साक्षी होना ही ध्यान है' तो मुझे लगता है: बात मेरी समझ में पड़ती है। लेकिन जब 'अ-मन' की बात करते हैं तो वह मुझे बिलकुल समझ नहीं आती।” कैसे समझ पड़ सकती है? वह तुम्हारे भविष्य की संभावना है। ध्यान तुमने शुरू कर दिया है, वह चाहे अभी प्रारंभिक स्थिति में हो, लेकिन तुम्हें उसका कुछ अनुभव हुआ है जो तुम्हें मुझे समझने में सक्षम बनाता है। लेकिन यदि तुम ध्यान को समझ सकते हो, तो फिर बिलकुल भी चिंता मत करो। ध्यान निश्चित ही अ-मन तक ले जाता है, जैसे हर नदी बिना किसी नक्शे और बिना किसी मार्गदर्शन के सागर की ओर बढ़ती जाती है। हर नदी बिना किसी अपवाद के अंततः सागर पर पहुंच जाती है। हर ध्यान, बिना किसी अपवाद के, अंततः अ-मन की दशा तक पहुंच जाता है। लेकिन स्वभावतः गंगा जब हिमालय के पहाड़ों और घाटियों में भटक रही होती है, तो उसे कुछ पता नहीं होता कि सागर क्या है, वह सागर के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन सागर की ओर बढ़ती चली जाती हैं क्योंकि पानी में सदा निम्नतम स्थान खोज लेने की एक अंतर्भूत क्षमता होती है, और सागर निम्नतम हैं। तो तो ध्यानी व्यक्ति, या दूसरे शब्दों में अ-मनी व्यक्ति अपने गद्य को भी पद्य में बदल लेता है। बिना किसी प्रयास के उसके शब्द इतने अधिकार से भर जाते हैं। कि उनके लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं रहती, वे स्वयं अपने तर्क बन जाते हैं। उनमें जो शक्ति होती है वह स्व-प्रमाणित सत्य बन जाती है। तर्क या शास्त्रों से किसी और समर्थन की जरूरत नहीं रहती । अ-मन को प्राप्त हुए व्यक्ति के शब्दों में अपनी एक अंतर्भूत निश्चितता होती है। नदियां हिमालय के शिखरों पर जन्मती हैं। और तत्क्षण निम्नतर क्षेत्रों की ओर बहने लगती हैं और अंततः वे सागर को खोज ही लेंगी। ध्यान की प्रक्रिया इससे बिलकुल उलटी है वह उच्चतर शिखरों की ओर ऊपर उठता है । और अ-मन परम शिखर है। अ-मन एक सीधा-सरल शब्द है, लेकिन इसका अर्थ होता है : संबोधि, मुक्ति, हर बंधन से स्वतंत्रता, मृत्यु - अतीत और अमृत का अनुभव ये बड़े शब्द हैं और मैं यह नहीं चाहता कि तुम इनसे भयभीत होओ। तो मैं एक सीधे से शब्द का उपयोग करता हूं: अ- मन । मन को तुम जानते हो । उस अवस्था की तुम कल्पना कर सकते हो जब मन अक्रिया में हो जाएगा। एक बार यह मन निष्क्रिय हो जाए, तो तुम ब्रह्मांडीय मन के, जागतिक मन के हिस्से हो जाते हो। जब तुम जागतिक मन के हिस्से होते हो तो तुम्हारा व्यक्तिगत मन एक सुंदर अनुचर बन जाता है। उसने मालिक को पहचान लिया। और वह जागतिक मन से उन लोगों के लिए खबर लाता है जो अभी भी व्यक्तिगत मन से बंधे हुए हैं। जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तो वास्तव में ब्रह्मांड मेरा उपयोग कर रहा है। मेरे शब्द मेरे शब्द नहीं हैं। ये जागतिक सत्य के शब्द हैं। वही इनकी शक्ति है, वही इनका करिश्मा है, वही इनका जादू है । 278 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 279 मैंने सदा आपको यह कहते सुना है, "करना छोड़ो। देखो। " हाल ही में मैंने कई बार आपको यह कहते सुना है कि मन हमारे मालिक की अपेक्षा हमारा सेवक होना चाहिए। ऐसा लगता है कि देखने के अतिरिक्त और कुछ भी करने को नहीं है। लेकिन फिर भी प्रश्न उठता है: क्या इस उच्छृंखल को मात्र देखने के अतिरिक्त उसके साथ कुछ और नहीं किया जा सकता ? ओशो से प्रश्नोत्तर साक्षित्व पर्याप्त है बुझा होता है तो चोर घर की ओर आकर्षित होते हैं। अंधकार एक आमंत्रण बन जाता है। जैसा कि गौतम बुद्ध कहा करते थे, यही बात तुम्हारे विचारों, कल्पनाओं, स्वप्नों, चिंताओं और पूरे मन के संबंध में है। स उच्छृंखल सेवक के साथ और कुछ भी करने जैसा नहीं है, सिवाय उसे देखने के। ऊपरी तौर पर तो यह अत्यंत जटिल समस्या का एक अत्यंत सरल समाधान दिखाई पड़ता है। लेकिन यह अस्तित्व के रहस्यों का हिस्सा है। समस्या चाहे बहुत जटिल हो, समाधान अत्यंत सरल हो सकता है। देखना, साक्षी होना, सजग होना इत्यादि मन की पूरी जटिलता को सुलझाने के लिए बड़े छोटे शब्द लगते हैं। वंश, परंपरा, संस्कार और पूर्वाग्रह के लाखों वर्ष मात्र देखने भर से किस तरह मिट जाएंगे? लेकिन वे मिट जाते हैं। जैसा कि गौतम बुद्ध कहते थे, यदि घर में प्रकाश जलता हो तो चोर उस घर के करीब नहीं आते – वे जान जाते हैं कि घर का मालिक जागा है, क्योंकि खिड़कियों से, द्वार से प्रकाश झांक रहा है, तुम देख सकते हो कि प्रकाश जल रहा है। यह घर में घुसने का समय नहीं है। जब प्रकाश यदि साक्षी मौजूद हो, तो साक्षी लगभग प्रकाश की भांति है। ये चोर भागने लगते हैं। और यदि इन चोरों को पता लग जाए कि साक्षी मौजूद नहीं है तो वे अपने भाइयों को, अपने रिश्तेदारों को और सबको बुलाने लगते हैं कि, “आ जाओ।” यह प्रकाश जैसी सीधी घटना है। जिस क्षण तुम प्रकाश भीतर लाते हो, अंधकार मिट जाता है। तुम यह नहीं पूछते कि, “क्या अंधकार को मिटाने के लिए प्रकाश ही पर्याप्त है?" या, "जब हम प्रकाश ला चुके हों, तो क्या अंधकार को मिटाने के लिए कुछ और भी करना पड़ेगा ?” नहीं, बस प्रकाश की उपस्थिति मात्र ही अंधकार की अनुपस्थिति है और प्रकाश की अनुपस्थिति अंधकार की उपस्थिति है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो से प्रश्नोत्तर भरी। साक्षी की उपस्थिति मन की अनुपस्थिति है शिथिल, शांत और अपनी नियति की ओर मिलेगा; अपने साथियों से तिरस्कार और साक्षी की अनुपस्थिति मन की बहता हुआ होता है। देखने के अतिरिक्त सहो..." यह कहते-कहते उसकी आवाज उपस्थिति है। तुम्हें और कुछ नहीं करना है। लड़खड़ाने लगी और उसने लंबी सांस तो जिस क्षण तुम देखना शुरू करते हो, धीरे-धीरे जैसे तुम्हारा द्रष्टा मजबूत होता पैडी ने नीलामी में एक तोता खरीदा। “अच्छा," दूसरा भिखारी बोला, “यदि है, तुम्हारा मन क्षीण हो जाएगा। जिस क्षण उसने नीलाम कराने वाले से पूछा : “इस तुम्हें ऐसा ही लगता है तो तुम अपने लिए मन को बोध होता है कि द्रष्टा परिपक्व हो तोते पर मैंने काफी पैसे लगाए हैं-तुम्हें कोई नौकरी क्यों नहीं ढूंढ लेते?" गया तो मन तत्क्षण एक अच्छे नौकर की पक्का है कि यह बोल सकता है?" "क्या!" पहला भिखारी आश्चर्य से तरह समर्पण कर देता है। वह एक विक्रेता ने जवाब दिया, “निश्चित ही मुझे बोला, “और अपनी असफलता स्वीकार यंत्र-रचना है। यदि मालिक आ पहुंचे, तो पूरा विश्वास है; यही तो तुम्हारे खिलाफ कर लूं?" मशीन का उपयोग किया जा सकता है। बोली लगा रहा था!" यदि मालिक मौजूद न हो या गहरी नींद __ मन मालिक होने का आदी हो गया है। में सोया हो तो मशीन अपने आप से जो ऐसी मन की बेहोशी है और ऐसी मन उसके होश ठिकाने लगाने में थोड़ा समय कर सकती है करती चली जाती है। न तो की मूढ़ताएं हैं। लगेगा। साक्षित्व पर्याप्त है। यह एक बड़ी कोई आदेश देने को है, न कोई यह कहने शांत प्रक्रिया है, लेकिन इसके परिणाम को है कि, “नहीं, रुक जाओ। यह काम मैंने सुना है, आयरलैंड के नास्तिकों ने विराट हैं। जहां तक मन के अंधकार को नहीं करना है।" फिर मन को धीरे-धीरे जब देखा कि आस्तिकों ने डायल-ए-प्रेयर मिटाने का संबंध है, साक्षित्व से बेहतर विश्वास हो जाता है कि वही मालिक है, सर्विस शुरू की है, तो उन्होंने भी शुरू कर कोई और उपाय नहीं है। वास्तव में, ध्यान और हजारों वर्षों से वह तुम्हारा मालिक दी, जबकि वे नास्तिक हैं। प्रतियोगी मन की एक सौ बारह विधियां हैं। मैं उन सब रहा है। है...उन्होंने भी डायल-ए-प्रेयर सर्विस विधियों से गुजरा हूं-मात्र बौद्धिक रूप तो जब तुम साक्षी होने का प्रयास करते शुरू कर दी है। जब तुम उन्हें फोन करो, से नहीं। हर विधि से गुजरने और उसके हो तो मन संघर्ष करता है, क्योंकि यह कोई भी जवाब नहीं आता। सार को खोजने में मुझे वर्षों लगे। उसके जीवन-मरण का प्रश्न है। वह और एक सौ बारह विधियों से गुजरने बिलकुल भूल ही चुका है कि वह केवल दो भिखारी एक रात आग के पास बैठे के बाद, मैं हैरान हुआ कि सब का सार सेवक है। तुम इतने समय से अनुपस्थित थे। उनमें से एक बहुत ही उदास था। साक्षित्व ही है; विधियों के गैर-अनिवार्य हो-तुम्हें वह पहचानता ही नहीं। “जानते हो जिम," वह बोला, “भिखारी अंग तो भिन्न हैं, लेकिन सबका केंद्र इसीलिए साक्षी और विचारों में संघर्ष की जिंदगी इतनी मजेदार नहीं होती जितनी साक्षित्व है। चलता है। लेकिन अंतिम विजय तुम्हारी ही लोग कहते हैं। बगीचों के बैंचों पर या तो मैं तुमसे कह सकता हूं कि पूरे विश्व होगी, क्योंकि स्वभाव और अस्तित्व दोनों किसी ठंडे अस्तबल में रात बिताओ। में एक ही ध्यान है, और वह है साक्षित्व ही चाहते हैं कि तुम मालिक बनो और मन पैदल चलते रहो और हमेशा पुलिस से की कला। वही सब कुछ कर सेवक हो। तब चीजें तारतम्यता में आ बचते-बचाते रहो। एक शहर से दूसरे देगी-तुम्हारी समग्र सत्ता का जाती हैं। तब मन पथ-भ्रष्ट नहीं हो शहर में ठुकराए जाओ, और इस बात का रूपांतरण-और सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् सकता। तब सब कुछ अस्तित्वगत रूप से ठिकाना नहीं कि अगला भोजन कहां से के द्वार खोल देगी। 12 280 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति परिशिष्ट-सूची xvii ओशो के विषय में xx संदर्भ पुस्तकें xxvi ध्यान-विधियों की सूची xxix ओशो का अंग्रेजी साहित्य xxxiii ओशो का हिंदी साहित्य xxxvi ओशो पत्रिकाएं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति xvi Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो के विषय में ओशो के विषय में न द्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, वे अतीत की ॐ किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके साथ ही समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है: ओशो पूर्व तथा ओशो पश्चात। ___ ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत का, एक नये युग का 'सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में वे कहते होते। वे आध्यात्मिक जन-जागरण की एक धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सर्वथा अनूठे हैं: 'अब मैं किसी भी प्रकार की खोज में नहीं: लहर फैला रहे थे। उनकी वाणी में और उनकी संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। हूं। अस्तित्व ने अपने समस्त द्वार मेरे लिए उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी जो ___ मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 खोल दिये हैं।' उन दिनों वे जबलपुर के एक किसी पार के लोक से आती है। दिसंबर 1931 को जन्मे ओशो का बचपन का कालेज में दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे। संबोधि सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय नाम रजनीश चन्द्रमोहन था। उन्होंने जीवन के घटित होने के पश्चात भी उन्होंने अपनी शिक्षा के प्राध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया ताकि प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र जारी रखी और सन 1957 में सागर अस्तित्व ने जिस परम भगवत्ता का खजाना आत्मा का परिचय दिया। खतरों से खेलना विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी उन पर लुटाया है उसे वे पूरी मानवता के प्रति उन्हें प्रीतिकर था। 100 फीट ऊंचे पुल से कूद में प्रथम (गोल्डमेडलिस्ट) रहकर एम.ए. की बांट सकें और एक नये मनुष्य को जन्म देने कर बरसात में उफनती नदी को तैरकर पार उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात वे जबलपुर की प्रक्रिया में समग्रतः लग सकें। करना उनके लिए साधारण खेल था। युवा विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक ओशो का यह नया मनुष्य 'ज़ोरबा दि ओशो ने अपनी अलौकिक बुद्धि तथा दृढ़ता पद पर कार्य करने लगे। विद्यार्थियों के बीच बुद्धा' एक ऐसा मनुष्य है जो ज़ोरबा की भांति से पंडित-पुरोहितों, मुल्ला-पादरियों, संत- वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से अतिशय भौतिक जीवन का पूरा आनंद मनाना जानता है महात्माओं-जो स्वानुभव के बिना ही भीड़ लोकप्रिय थे। और जो गौतम बुद्ध की भांति मौन होकर के अगुवा बने बैठे थे—की मूढ़ताओं और विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य पाखंडों का पर्दाफाश किया। अध्यापन-काल के दौरान वे पूरे भारत में जो भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से 21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की भ्रमण भी करते रहे। प्रायः ही 60-70 हजार समृद्ध है। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक समग्र व आयु में ओशो संबोधि (परम जागरण) को की संख्या में श्रोता उनकी सभाओं में उपस्थित अविभाजित मनुष्य है। इस नये मनुष्य के xvii Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो के विषय में बिना पृथ्वी का कोई भविष्य शेष नहीं है। शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या- शहर बन गया। किंतु कट्टरपंथी ईसाई सन 1970 में ओशो बंबई में रहने के विस्फोट, पर्यावरण तथा संभावित परमाणु धर्माधीशों के दबाव में व राजनीतिज्ञों के लिए आ गये। अब पश्चिम से सत्य के खोजी युद्ध के व उससे भी बढ़कर एड्स महामारी के निहित स्वार्थवश प्रारंभ से ही कम्यून के इस भी जो अकेली भौतिक समृद्धि से ऊब चुके थे विश्व-संकट जैसे अनेक विषयों पर भी प्रयोग को नष्ट करने के लिए अमरीका की और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को उनकी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है। संघीय, राज्य और स्थानीय सरकारें हर संभव जानने और समझने के लिए उत्सुक थे, उन शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए प्रयास कर रही थीं। तक पहुंचने लगे। ओशो ने उन्हें बताया कि उनके ये प्रवचन छह सौ पचास से भी अधिक जैसे अचानक एक दिन ओशो मौन हो अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में __ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और गये थे वैसे ही अचानक अक्तूबर 1984 में सार्थकता के फूलों के खिलने में सहयोगी तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके उन्होंने पुनः प्रवचन देना प्रारंभ कर दिया। सिद्ध होगा। . हैं। वे कहते हैं, “मेरा संदेश कोई सिद्धांत, जीवन-सत्यों के इतने स्पष्टवादी व मुखर __ कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश तो रूपांतरण । विवेचनों से निहित स्वार्थों की जड़ें और भी (हिमालय) में आयोजित अपने एक शिविर की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" चरमराने लगीं। में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ ओशो अपने आवास से दिन में केवल दो अक्तूबर 1985 में अमरीकी सरकार ने किया। इसी समय के आसपास वे आचार्य बार बाहर आते-प्रातः प्रवचन देने के लिए ओशो पर आप्रवास-नियमों के उल्लंघन के रजनीश से भगवान श्री रजनीश के रूप में और संध्या समय सत्य की यात्रा पर निकले 35 मनगढंत आरोप लगाए। बिना किसी जाने जाने लगे। हुए साधकों को मार्गदर्शन एवं नये प्रेमियों को गिरफ्तारी-वारंट के ओशो को बंदूकों की नोक सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यास-दीक्षा देने के लिए। पर हिरासत में ले लिया गया। 12 दिनों तक संन्यासियों के साथ पूना आ गये जहां 'श्री सन 1980 में कट्टरपंथी हिंदू समुदाय के उनकी जमानत स्वीकार नहीं की गयी और रजनीश आश्रम' की स्थापना हुई। पूना आने एक सदस्य द्वारा उनकी हत्या का प्रयास भी उनके हाथ-पैर में हथकड़ी व बेड़ियां डालकर के बाद उनके प्रभाव का दायरा विश्वव्यापी उनके एक प्रवचन के दौरान किया गया। उन्हें एक जेल से दूसरी जेल में घुमाते हुए होने लगा। ___ अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने पोर्टलैंड (ओरेगॅन) ले जाया गया। इस श्री रजनीश आश्रम पूना में प्रतिदिन अपने से 1981 की वसंत ऋतु में वे मौन में चले प्रकार, जो यात्रा कुल पांच घंटे की है वह प्रवचनों में ओशो ने मानव-चेतना के विकास गये। चिकित्सकों के परामर्श पर उसी वर्ष जून आठ दिन में पूरी की गयी। जेल में उनके के हर पहलू को उजागर किया। बुद्ध, में उन्हें अमरीका ले जाया गया। उनके शरीर के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और महावीर, कृष्ण, शिव, शांडिल्य, नारद, अमरीकी शिष्यों ने ओरेगॅन राज्य के मध्य यहीं संघीय सरकार के अधिकारियों ने उन्हें जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म- भाग में 64,000 एकड़ जमीन खरीदी थी जहां 'थेलियम' नामक धीमे असरवाला जहर दिया। आकाश के अनेक नक्षत्रों-आदिशंकराचार्य, उन्होंने ओशो को रहने के लिए आमंत्रित 14 नवंबर 1985 को अमरीका छोड़ कर गोरख, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, किया। धीरे-धीरे यह अर्ध- रेगिस्तानी जगह ओशो भारत लौट आये। यहां की तत्कालीन दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों एक फूलते-फलते कम्यून में परिवर्तित होती सरकार ने भी उन्हें समूचे विश्व से अलगप्रवचन उपलब्ध हैं। जीवन का ऐसा कोई भी गई। वहां लगभग 5,000 प्रेमी मित्र थलग कर देने का पूरा प्रयास किया। तब आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित मिल-जुलकर अपने सद्गुरु के सान्निध्य में ओशो नेपाल चले गये। नेपाल में भी उन्हें रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी आनंद और उत्सव के वातावरण में एक अनूठे अधिक समय तक रुकने की अनुमति नहीं दी जैसी विभिन्न साधना-परंपराओं के गूढ़ रहस्यों नगर के सृजन को यथार्थ रूप दे रहे थे। शीघ्र गयी। पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही ही यह नगर रजनीशपुरम नाम से संयुक्त राज्य फरवरी 1986 में ओशो विश्व-भ्रमण के राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, अमरीका का एक निगमीकृत (इन्कार्पोरेटेड) लिए निकले जिसकी शुरुआत उन्होंने ग्रीस से xviii Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो के विषय में की, लेकिन अमरीका के दबाव के अंतर्गत 21 प्रेमियों ने एकमत से अपने प्यारे सद्गुरु को ओशो शरीर छोड़कर महाप्रयाण कर गये। देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित किया 'ओशो' नाम से पुकारने का निर्णय लिया। इसकी घोषणा सांध्य-सभा में की गयी। ओशो या फिर देश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं दी। अक्तूबर 1985 में जेल में अमरीका की की इच्छा के अनुरूप, उसी सांध्य-सभा में इन तथाकथित स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देशों में रीगन सरकार द्वारा ओशो को थेलियम नामक उनका शरीर गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में ग्रीस, इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ग्रेट धीमा असर करने वाला जहर दिये जाने एवं दस मिनट के लिए लाकर रखा गया। दस ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, हालैंड, कनाडा, उनके शरीर को प्राणघातक रेडिएशन से गुजारे हजार शिष्यों और प्रेमियों ने उनकी आखिरी जमाइका और स्पेन प्रमुख थे। जाने के कारण उनका शरीर तब से निरंतर विदाई का उत्सव संगीत-नृत्य, भावातिरेक ___ ओशो जुलाई 1986 में बम्बई और अस्वस्थ रहने लगा था और भीतर से क्षीण और मौन में मनाया। फिर उनका शरीर जनवरी 1987 में पूना के अपने आश्रम में होता चला गया। इसके बावजूद वे ओशो दाहक्रिया के लिए ले जाया गया। लौट आए, जो अब ओशो कम्यून कम्यून इंटरनेशनल, पूना के गौतम दि बुद्धा 21 जनवरी 1990 के पूर्वाह्न में उनके इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है। यहां वे आडिटोरियम में 10 अप्रैल 1989 तक अस्थि-फूल का कलश महोत्सवपूर्वक कम्यून पुनः अपनी क्रांतिकारी शैली में अपने प्रवचनों प्रतिदिन संध्या दस हजार शिष्यों, खोजियों में लाकर च्यांग्त्सू हॉल में निर्मित संगमरमर के से पंडित-पुरोहितों और राजनेताओं के पाखंडों और प्रेमियों की सभा में प्रवचन देते रहे और समाधि भवन में स्थापित किया गया। व मानवता के प्रति उनके षड्यंत्रों का उन्हें ध्यान में डुबाते रहे। इसके बाद के अगले ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में पर्दाफाश करने लगे। __ कई महीने उनका शारीरिक कष्ट बढ़ गया। अंकित है : . इसी बीच भारत सहित सारी दुनिया के 17 सितंबर 1989 से पुनः गौतम दि बुद्धिजीवी वर्ग व समाचार माध्यमों ने ओशो बुद्धा आडिटोरियम में हर शाम केवल आधे OSHO के प्रति गैर-पक्षपातपूर्ण व विधायक चिंतन __ घंटे के लिए आकर ओशो मौन दर्शन-सत्संग Never Born का रुख अपनाया। छोटे-बड़े सभी प्रकार के के संगीत और मौन में सबको डुबाते रहे। इस : Never Died समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में अक्सर उनके बैठक को उन्होंने “ओशो व्हाइट रोब Only Visited this अमृत-वचन अथवा उनके संबंध में लेख व ब्रदरहुड" नाम दिया। ओशो 16 जनवरी Planet Earth between समाचार प्रकाशित होने लगे। देश के 1990 तक प्रतिदिन संध्या सात बजे "ओशो ___Dec 11 1931-Jan 19 1990 अधिकांश प्रतिष्ठित संगीतज्ञ, नर्तक, व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की सभा में आधे घंटे के साहित्यकार, कवि व शायर ओशो कम्यून लिये उपस्थित होते रहे। ध्यान और सृजन का यह अनूठा इंटरनेशनल में अक्सर आने लगे। मनुष्य की 17 जनवरी को वे सभा में केवल नव-संन्यास उपवन, ओशो कम्यून, ओशो चिर-आकांक्षित उटोपिया का सपना साकार नमस्कार करके वापस चले गए। 18 जनवरी की विदेह-उपस्थिति में भी आज पूरी दुनिया देखकर उन्हें अपनी ही आंखों पर विश्वास न को "ओशो व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की के लिए एक ऐसा प्रबल चुंबकीय होता। सांध्य-सभा में उनके निजी चिकित्सक स्वामी आकर्षण-केंद्र बना हुआ है कि यहां निरंतर 26 दिसंबर 1988 को ओशो ने अपने प्रेम अमृतो ने सूचना दी कि ओशो के शरीर नए-नए लोग आत्म-रूपांतरण के लिए आ नाम के आगे से 'भगवान' संबोधन हटा दिया। का दर्द इतना बढ़ गया है कि वे हमारे बीच रहे हैं तथा ओशो की सघन-जीवंत उपस्थिति 27 फरवरी 1989 को ओशो कम्यून नहीं आ सकते, लेकिन वे अपने कमरे में ही में अवगाहन कर रहे हैं। इंटरनेशनल के बुद्ध सभागार में सांध्य- सात बजे से हमारे साथ ध्यान में बैठेंगे। दूसरे प्रवचन के समय उनके 10,000 शिष्यों व दिन 19 जनवरी 1990 को, अपराह्न पांच बजे xix Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION NOTES TO THE READER ABOUT MEDITATION THE SCIENCE OF MEDITATION 1. 2. 3. 4. 5. 6. 6. 7. 8. 9. संदर्भ पुस्तकें The Book, Series II, p. 240. Ibid., p. 305. Ibid., p. 240. Ibid., p. 240. 17. 18. 19. 20. Sannyas, Number 3, 1980, p. 4. The Book of the Books, Vol. I, Session 2. 1. 2. 3. The Rajneesh Upanishad, Session 3. 4. Light on the Path: Talks in the Himalayas. 5. The Search, Session 7. The Book, Series I, pp. 87-88. Beyond Enlightenment, Session 9. The Psychology of the Esoteric, Session 2. The Golden Future, Session 1. The Orange Book, p. 94. The Rajneesh Bible, Vol. IV, Session 2. 10. Beyond Enlightenment, Session 28. 11. The Search, Session 7. 12. Guida Spirituale, Session 15. 13. The Book, Series I, p. 230. 14. The Secret of Secrets, Vol. II, Session 3. 15. 16. Guida Spirituale, Session 12. The Book, Series I, p. 28, 30. Ibid., p. 30. Ibid., p. 31. The Book of the Books, Vol. II, Session 8. Guida Spirituale, Session 2. 1. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 15. 2. Tantra: The Supreme Understanding, Session 8. 3. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 2. 4. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 9. 5. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 9. 6. The Book of the Secrets, Vol. I, Session 1. 7. 8. 9. The Book of Wisdom, Vol. I, Session 1. The Book of the Secrets, Vol. V, Session 11. The Book of the Secrets, Vol. V, Session 7. XX Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ पुस्तकें THE SCIENCE OF MEDITATION 10. The Secret of Secrets, Vol. II, Session 1. Ibid. Yoga: The Alpha and the Omega, Vol. VI. Session 7. 13. Meditation: The Art of Ecstasy, Session 4. 14. The Great Zen Master: Ta Hui, Session 20. Ibid., Session 14. Ancient Music in the Pines, Session 7. A Cup of Tea, Letter 72. The Book of Wisdom, Vol. I, Session 9. Yoga: The Science of the Soul, Vol. III, Session 10. YAA-HOO! The Mystic Rose, Session 8. The Hidden Splendor, Session 10. 22. The Book of Wisdom, Vol. II, Session 7. Sermons in Stones, Session 4. 24. What Is, Is, What Ain't, Ain't, Session 10. Light on the Path: Talks in the Himalayas. THE MEDITATIONS Two Powerful Methods for Awakening The Orange Book, pp. 135-136 My Way: The Way of the White Clouds, Session 4. Instructions currently in use at Osho Commune International, Poona, India, Meditation: The Art of Ecstasy, Session 3. The Orange Book, pp. 29-30. Ibid., pp. 132-136. The Meditative Therapies YAA-HOO! The Mystic Rose, Session 30. Instructions currently in use at Osho Commune International, Poona, India. Live Zen, Session 17. The Supreme Doctrine, Session 1. 2. 3. 1. 2. 3. Dancing as a Meditation The Orange Book, pp. 50-52. Ibid., pp 49-50 Ibid., pp 143-145. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ पुस्तकें THE MEDITATIONS 1. 2. 3. 4. 5. 2. 3. 5. 6. 2. 3. Anything Can Be a Meditation The Orange Book, p. 64., Ibid., pp. 23-26. A Sudden Clash of Thunder, Session 9. The Orange Book, p. 16. The Secret of Secrets, Vol. II, Session 4. The Orange Book, pp. 65-69. Breath - a Bridge to Meditation The Book of the Secrets, Vol. I, Session 3. The New Dawn, Session 16. Instructions currently in use at Osho Commune International, Poona, India. The Book of the Secrets, Vol. I, Session 3. Ibid., Session 5. Ibid. Yoga: The Science of the Soul, Volume II, Session 9. Opening the Heart The Book, Series I, p. 634. The Book of the Secrets, Vol. 1, Session 12. The Orange Book, pp. 195-196. The Book of the Secrets, Vol. V, Session 7. The Book of the Secrets, Vol. I, Session 11. The Book of Wisdom, Vol. I, Session 1. Ibid., Session 5. Inner Centering Unio Mystica, Vol. I, Session 2. The Book of Wisdom, Vol. II, Session 2. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 1 Ibid., Session 5. Ibid., Session 3. Ibid. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 13. Looking Within The Book of the Secrets, Vol. II, Session 5. Ibid. Ibid. The Secret of Secrets, Vol. I, Session 7. 5. 6. 7. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 2. 3. xxii Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ पुस्तकें THE MEDITATIONS 1. 2. 3. 4. Meditations on Light The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 1. The Secret of Secrets, Vol. II, Session 13 The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 1. Ibid., Session 15. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 15. Meditations on Darkness The Shadow of the Bamboo, Session 11. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 3. Ibid. Moving Energy Upwards You Ain't Seen Nothin' Yet, Session 7. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 15. Ibid. 2. 3. 5. 6. 7. 8. 9. Listening to the Soundless Sound The Secret of Secrets, Vol. I, Session 13. The Orange Book, pp. 153-154 Ibid. The Book of the Secrets, Vol. II, Session 11. Yoga: The Science of the Soul, Vol. III, Session 6. The Orange Book, pp. 201-202. The Book of the Secrets, Vol. II, Session 11. Ibid., Session 9. Ibid., Session 11. 1. 2. 3. Finding the Space Within The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 8. Ibid., Session 1. Ibid., Session 13. The Orange Book p. 62-63. Yoga: The Science of the Soul, Vol. III, Session 7. Tantra: The Supreme Understanding, Session 4. 5. 6. 1. Entering into Death The Revolution, Session 9. xxjii Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ पुस्तकें THE MEDITATIONS 2. 3. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 5. Vedanta - Seven Steps to Samadhi, Session 15. 1. 2. 3. Watching with the Third Eye The Hidden Splendor Session 19. The Orange Book, pp. 199-200. Ibid., pp. 36-37 The Book of the Secrets, Vol. I, Session 5. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 15. The Secret of Secrets, Vol. I, Session 11. 5. 6. ciri Just Sitting The Book of the Books, Vol. I, Session 9. Ibid. The Orange Book, pp. 114-115. Instructions currently in use at Osho Commune International, Poona, India. Roots and Wings, Session 10. ciri Rising in Love: A Partnership in Meditation Beyond Enlightenment, Session 16. The Book of the Secrets, Vol. V, Session 3. The Book of the Secrets, Vol. III, Session 1. Ibid. OBSTACLES TO MEDITATION 1. ciritvoodoo Light on the Path: Talks in the Himalayas. The Discipline of Transcendence, Vol. IV, Session 3. Light on the Path: Talks in the Himalayas. The Psychology of the Esoteric, Session 2. A Sudden Clash of Thunder, Session 2. Ancient Music In the Pines, Session 3. Yoga: The Alpha and the Omega, Vol. VI, Session 6. The Book of the Secrets, Vol. IV, Session 8. Ibid. Light on the Path: Talks in the Himalayas. The Rebel, Session 17. xxiv Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ QUESTIONS TO THE MASTER XXV 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. संदर्भ पुस्तकें The Book of the Books, Vol. IV, Session 10. Beyond Psychology, Session 18. The True Sage, Session 5. The Tantra Vision, Vol. I, Session 8. The Rajneesh Upanishad, Session 10. Ah, This!, Session 8. Yoga: The Science of the Soul, Vol.III, Session 4. Yoga: The Alpha and the Omega, Vol. IV, Session 10. The Hidden Splendor, Session 11. The Golden Future, Session 19. 11. Satyam-Shivam-Sundram, Session 7. 12. Ibid., Session 22. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इस पुस्तक में वर्णित ध्यान-विधियों की पूरी सूची ध्यान की विधियां पृष्ठ सक्रिय-ध्यान (डाइनैमिक मेडिटेशन) कुंडलिनी ध्यान "मिस्टिक रोज़" ध्यान "नो-माइंड" ध्यान बॉर्न अगेन नटराज ध्यान व्हिरलिंग ध्यान दौड़ना, जॉगिंग और तैरना हंसना ध्यान धूम्रपान ध्यान विपस्सना चलते हुए विपस्सनाः चंक्रमण श्वासों के बीच के अंतराल को देखना बाजार में अंतराल को देखना स्वप्न पर स्वामित्व मनोदशाओं को बाहर फेंकना बुद्धि से हृदय की ओर प्रार्थना ध्यान शांत हृदय हृदय का केंद्रीकरण अतीशा की हृदय विधि दुखी या सुखी होने का निर्णय वास्तविक स्रोत की खोज झंझावात का केंद्र 101 103 105 xxvi Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक में वर्णित ध्यान-विधियों की पूरी सूची ध्यान की विधियां पृष्ठ 110 112 113 117 119 121 125 अनुभव करो–'मैं हूं' मैं कौन हूं? स्व-सत्ता के केंद्र की ओर अंतर्दर्शन ध्यान समग्रता को देखना ऊर्जा का अंतर्वृत्त स्वर्णिम प्रकाश ध्यान प्रकाश का हृदय सूक्ष्म शरीर को देखना आलोकमयी उपस्थिति आंतरिक अंधकार आंतरिक अंधकार को बाहर लाओ जीवन ऊर्जा का आरोहण-12 जीवन ऊर्जा का आरोहण-2 नादब्रह्म ध्यान स्त्री-पुरुष जोड़ों के लिए नादब्रह्म ओम् ॐ देववाणी संगीत : एक ध्यान ध्वनि का केंद्र ध्वनि का आरंभ और अंत रिक्त आकाश में प्रवेश करो सब को समाविष्ट करो जेट-सेट के लिए एक ध्यान 127 129 131 135 141 143 149 153 154 155 158 160 162 165 169 172 174 xxvii Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • इस पुस्तक में वर्णित ध्यान-विधियों की पूरी सूची ध्यान की विधियां विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो बांस की पोली पोंगरी मृत्यु में प्रवेश मृत्यु का उत्सव मनाना गौरीशंकर ध्यान मंडल ध्यान साक्षी को खोजना पंख की भांति छूना नासाग्र को देखना झा-झेन प्रेम का वर्तुल संभोग में कंपना प्रेम का आत्म-वर्तुल पृष्ठ 175 178 181 184 189 191 192 195 198 205 215 217 219 xxviii Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का अंग्रेजी साहित्य BOOKS BY OSHO ENGLISH LANGUAGE EDITIONS Early Discourses and Writings A Cup of Tea Letters to Disciples Dimensions Beyond the Known From Sex to Superconsciousness The Great Challenge Hidden Mysteries I Am the Gate The Inner Journey The Long and the Short and the All The Psychology of the Esoteric Seeds of Wisdom Meditation And Now, and Here (Volumes 1&2) In Search of the Miraculous (Volumes 1&2) Meditation: The Art of Ecstasy Meditation: The First and Last Freedom The Orange Book Meditation Techniques The Perfect Way Vigyan Bhairav Tantra (Series 1&2) (boxed 2-volume set with 1/2 meditation cards) The Path of Meditation YAA-HOO! The Mystic Rose Krishna Krishna: The Man and His Philosophy Ashtavakra Enlightenment: The Only Revolution The Upanishads Finger Pointing to the Moon Adhyatma Upanishad Heartbeat of the Absolute Ishavasya Upanishad I Am That Isa Upanishad Behind a Thousand Names Nirvana Upanishad Philosophia Ultima Mandukya Upanishad The Supreme Doctrine Kenopanishad That Art Thou Sarvasar Upanishad, Kaivalya Upanishad, Adhyatma Upanishad The Ultimate Alchemy (Volumes 1&2) Atma Pooja Upanishad Vedanta: Seven Steps to Samadhi Akshya Upanishad Jesus and Christian Mystics Come Follow to You (Volumes 1-4) The Sayings of Jesus I Say Unto You (Volumes 1&2) The Sayings of Jesus The Mustard Seed The Gospel of Thomas Theologia Mystica The Treatise of St. Dionysius Jewish Mystics The Art of Dying The True Sage Buddha and Buddhist Masters Sufism The Dhammapada (Vols 1-12) The Way of the Buddha The Diamond Sutra The Vajrachchedika Prajnaparamita Sutra The Discipline of Transcendence (Volumes 1-4) On the Sutra of 42 Chapters The Heart Sutra The Prajnaparamita Hridayam Sutra The Book of Wisdom Atisha's Seven Points of Mind Training Just Like That The Perfect Master (Volumes 1&2) The Secret Sufis: The People of the Path (Volumes 1&2) Unio Mystica (Volumes 1&2) The Hadiqa of Hakim Sanai Journey to the Heart (same as Until You Die) The Wisdom of the Sands (Volumes 1&2) Tantra Indian Mystics The Bauls The Beloved (Volumes 1&2) Kabir The Divine Melody Ecstasy: The Forgotten Language The Fish in the Sea is Not Thirsty The Great Secret The Guest The Path of Love The Revolution Tantra: The Supreme Understanding Tilopa's Song of Mahamudra The Tantra Experience The Royal Song of Saraha (same as Tantra Vision Vol.1) Tantric Transformation The Royal Song of Saraha (same as Tantra Vision Vol.2) xxix Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का अंग्रेजी साहित्य Yoga Yoga: The Alpha and the Omega (Volumes 1-10) The Yoga Sutras of Patanjali Zen Manifesto: Freedom from oneself Zen: The Mystery and the Poetry of the Beyond Tao Zen Bored Sets The World of Zen A boxed set of 5 volumes, containing: Live Zen This. This. A Thousand Times This. Zen: The Quantum Leap from Mind to No-Mind Zen: The Solitary Bird, Cuckoo of the Forest Zen: The Diamond Thunderbolt Zen: All the Colors of the Rainbow A boxed set of 5 volumes, containing: The Miracle Turning In The Ogiginal Man The Language of Existence The Buddha: The Emptiness of the Heart Osho: On the Ancient Masters of Zen A boxed set of 7 volumes, containing: * Dögen, the Zen Master: A Search and a Fulfillment Ma Tzu: The Empty Mirror Hyakujo: The Everest of Zen, with Basho's Haikus Nansen: The Point of Departure Joshū: The Lion's Roar Rinzai: Master of the Irrational Isan: No Footprints in the Blue Sky *Each volume is also available individually The Empty Boat The Stories of Chuang Tzu The Secret of Secrets (Volumes 1&2) The Secret of the Golden Flower Tao: The Golden Gate (Volumes 1&2) Tao: The Pathless Path (Volumes 1&2) The Stories of Lieh Tzu Tao: The Three Treasures (Volumes 1-4) The Tao Te Ching of Lao Tzu When the Shoe Fits The Stories of Chuang Tzu Western Mystics Guida Spirituale On the Desiderata The Hidden Harmony The Fragments of Heraclitus The Messiah (Volumes 1&2) Commentaries on Kahlil Gibran's The Prophet The New Alchemy: To Turn You On Mabel Collins' Light on the Path Philosophia Perennis (Volumes 1&2) The Golden Verses of Pythagoras Zarathustra: A God That Can Dance Commentaries on Friedrich Nietzsche's Thus Spake Zarathustra Zarathustra: The Laughing Prophet Commentaries on Friedrich Nietzsche's Thus Spake Zarathustra Zen And Zen Masters Ah, This! Ancient Music in the Pines And the Flowers Showered A Bird on the Wing (same as Roots and Wings) Dang Dang Doko Dang The First Principle The Grass Grows By Itself Nirvana: The Last Nightmare No Water, No Moon Returning to the Source The Search Talks on The Ten Bulls of Zen A Sudden Clash of Thunder Walking in Zen, Sitting in Zen Zen: The Path of Paradox (Volumes 1-3) Zen: The Special Transmission The Mystery School Communism and Zen Fire, Zen Wind God is Dead: Now Zen is the Only Living Truth I Celebrate Myself: God is No Where: Life is Now Here No Mind: The Flowers of Eternity One Seed Makes the Whole Earth Green Zen Masters Bodhidharma: The Greatest Zen Master Commentaries on the Teachings of the Messenger of Zen from India to China The Great Zen Master Ta Hui Reflections on the Transformation of an Intellectual to Enlightenment Hsin Hsin Ming: The Book of Nothing Discourses on the Faith-Mind of Sosan Kyozan: A True Man of Zen The Sun Rises in the Evening Sutras of Yoka Daishi Take it Easy (Volumes 1&2) Poems of Ikkyu This Very Body the Buddha Hakuin's Song of Meditation The White Lotus The Sayings of Bodhidharma Yakusan: Straight to the point of Enlightenment Responses to Questions Be Still and Know Come, Come, Yet Again Come The Goose is Out! The Great Pilgrimage: From Here to Here The Invitation My Way: The Way of the White Clouds Nowhere to Go But In The Razor's Edge XXX Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का अंग्रेजी साहित्य Walk Without Feet, Fly Without Wings and Think Without Mind The Wild Geese and the Water Zen: Zest, Zip, Zap and Zing Talks in America From Bondage to Freedom Answers to the Seekers of the Path From Darkness to Light Answers to the Seekers of the Path From Death to Deathlessness Answers to the Seekers of the Path From the False to the Truth Answers to the Seekers of the Path From Unconsciousness to Consciousness The Rajneesh Bible (Volumes 1-4) The World Tour Beyond Enlightenment Talks in Bombay Beyond Psychology Talks in Uruguay Light on the Path Talks in the Himalayas The Path of the Mystic Talks in Uruguay The Osho Upanishad Talks in Bombay Sermons in Stones Talks in Bombay Socrates Poisoned Again After 25 Centuries Talks in Greece The Sword and the Lotus Talks in the Himalayas The Transmission of the Lamp Talks in Uruguay Osho's Vision for the World The Golden Future The Hidden Splendor The New Dawn The Rebel The Rebellious Spirit Darshan Diaries - Intimate Talks between Master and Disciple Hammer on the Rock (December 10, 1975 - January 15, 1976) Above All Don't Wobble (January 16 - February 12, 1976) Nothing to Lose But Your Head (February 13 - March 12, 1976) Be Realistic: Plan For a Miracle (March 13 - April 6, 1976) Get Out of Your Own Way (April 7-May 2, 1976) Beloved of My Heart (May 3-28, 1976) The Cypress in the Courtyard (May 29 - June 27, 1976) A Rose is a Rose is a Rose (June 28 - July 27, 1976) Dance Your Way to God (July 28 - August 20, 1976) The Passion for the Impossible(August 21 - September 18, 1976) The Great Nothing (September 19 - October 11, 1976) God is Not for Sale (October 12 - November 7, 1976) The Shadow of the Whip (November 8 - December 3, 1976) Blessed are the Ignorant (December 4-31, 1976) The Buddha Disease (January 1977) What Is, Is, What Ain't, Ain't (February 1977) The Zero Experience (March 1977) For Madmen Only (Price of Admission: Your Mind (April 1977) This is It (May 1977) The Further Shore (June 1977) Far Beyond the Stars (July 1977) The No Book (No Buddha, No Teaching, No Discipline) (August 1977) Don't Just Do Something, Sit There (September 1977) Only Losers Can Win in This Game (October 1977) The Open Secret (November 1977) The Open Door (December 1977) The Sun Behind the Sun Behind the Sun (January 1978) Believing the Impossible Before Breakfast (February 1978) Don't Bite My Finger, Look Where I'm Pointing (March 1978) Let Go! (April 1978) The 99 Names of Nothingness (May 1978) The Madman's Guide to Enlightenment (June 1978) Don't Look Before You Leap (July 1978) Hallelujah! (August 1978) God's Got a Thing About You (September 1978) The Tongue-Tip Taste of Tao (October 1978) The Sacred Yes (November 1978) Turn On, Tune In, and Drop the Lot (December 1978) Zorba the Buddha (January 1979) Won't You Join the Dance? (February 1979) You Ain't Seen Nothin' Yet (March 1979) The Shadow of the Bamboo (April 1979) Just Around the Corner (May 1979) Snap Your Fingers, Slap Your Face & Wake Up! (June 1979) The Rainbow Bridge (July 1979) Don't Let Yourself Be Upset by the Sutra, Rather Upset the Sutra Yourself (August/September 1979) The Sound of One Hand Clapping (March 1981) The Mantra Series Satyam-Shivam-Sundram Truth-Godliness-Beauty Sat-Chit-Anand Truth-Consciousness-Bliss Om Mani Padme Hum The Sound of Silence: The Diamond in the Lotus Hari Om Tat Sat The Divine Sound: That is the Truth Om Shantih Shantih Shantih The Soundless Sound: Peace, Peace, Peace Personal Glimpses Books I Have Loved Glimpses of a Golden Childhood Notes of a Madman Interviews with the World Press The Last Testament (Volume 1) XXXi Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का अंग्रेजी साहित्य Compilations At the Feet of the Master Beyond the Frontiers of the Mind Bhagwan Shree Rajneesh: On Basic Human Rights The Book An Introduction to the Teachings of Bhagwan Shree Rajneesh Series I from A -H Series II from I-Q Series III from R -Z Death: The Greatest Fiction The Greatest Challenge: The Golden Future India My Love I Teach Religiousness Not Religion Jesus Crucified Again, This Time in Ronald Reagan's America The New Man: The Only Hope for the Future Priests and Politicians: The Mafia of the Soul The Rebel: The Very Salt of the Earth Sex: Quotations from Bhagwan Shree Rajneesh Tantra, Spirituality and Sex Excerpts from The Book of the Secrets What is Meditation Gift Books of Osho Quotations A Must for Morning Contemplation A Must for Contemplation Before Sleep Gold Nuggets More Gold Nuggets Words from a Man of No Words Photobiographies Shree Rajneesh: A Man of Many Climates, Seasons and Rainbows Through the Eye of the Camera This Very Place The Lotus Paradise Bhagwan Shree Rajneesh and His Work 1978-1984 Books about Osho Bhagwan: The Buddha For The Future (by Juliet Forman) Bhagwan Shree Rajneesh: The Most Dangerous Man Since Jesus Christ (by Sue Appleton) Bhagwan: The Most Godless Yet The Most Godly Man (by Dr. George Meredith) Bhagwan: One Man Against the Whole Ugly Past of Humanity The World Tour and Back Home Again to India (by Juliet Forman) Bhagwan: Twelve Days That Shook The World (by Juliet Forman) The Choice is Ours (by Dr. George Meredith) Diamond Days With Osho (by Ma Prem Shunyo) Was Bhagwan Shree Rajneesh Poisoned by Ronald Reagan's America? (by Sue Appleton) Xxxii Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य ओशो का हिन्दी साहित्य अष्टावक्र अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र) मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) कृष्ण गीता-दर्शन __ (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) जिन-सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) पद धुंघरू बांध (मीरा) पलटू अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) xxxiii Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य पत्र-संकलन अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल . बोध-कथा मिट्टी के दीये नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुसें (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्र: नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोपलें फिर फूट आई फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी क्या सोवै तू बावरी चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो माटी कहै कुम्हार सूं मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में) प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलैं तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर ध्यान, साधना ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति नेति-नेति चेति सकै तो चेति हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् समाधि कमल साक्षी की साधना धर्म साधना के सूत्र मैं कौन हूँ समाधि के द्वार पर अपने माहिं टटोल ध्यान दर्शन तृषा गई एक बूंद से ध्यान के कमल जीवन संगीत जो घर बारे आपना । प्रेम दर्शन योग पतंजलि योग-सूत्र (पांच भागों में) योगः नये आयाम विचार-पत्र क्रांति-बीज पथ के प्रदीप xxxiv Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य - साधना-शिविर साधना-पथ मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की ) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) ध्यान-सूत्र जीवन ही है प्रभु असंभव क्रांति रोम-रोम रस पीजिए विविध मैं कहता आंखन देखी एक एक कदम जीवन क्रांति के सूत्र जीवन रहस्य करुणा और क्रांति विज्ञान, धर्म और कला शून्य के पार प्रभु मंदिर के द्वार पर तमसो मा ज्योतिर्गमय प्रेम है द्वार प्रभु का अंतर की खोज अमृत की दिशा अमृत वर्षा अमृत द्वार चित चकमक लागे नाहिं एक नया द्वार प्रेम गंगा समुंद समाना बुंद में सत्य की प्यास शून्य समाधि व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज अज्ञात की ओर धर्म और आनंद जीवन-दर्शन जीवन की खोज क्या ईश्वर मर गया है नानक दुखिया सब संसार नये मनुष्य का धर्म धर्म की यात्रा स्वयं की सत्ता सुख और शांति अनंत की पुकार राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज नये भारत की खोज नये भारत का जन्म नारी और क्रांति शिक्षा और धर्म भारत का भविष्य अंतरंग वार्ताएं संबोधि के क्षण प्रेम नदी के तीरा सहज मिले अविनाशी उपासना के क्षण ओशो के आडियो-वीडियो प्रवचन एवं साहित्य की समस्त जानकारी, आर्डर एवं राशि भेजने के लिए सम्पर्क-सूत्रः साधना फाउंडेशन 17, कोरेगांव पार्क, पुणे-411001 (महाराष्ट्र) फोन : (0212) 628562 Fax: (0212) 624181 XXXV Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो पत्रिकाएं ओशोटाइमस... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र ओशोटाइम्स IVANMOHS एक वर्ष में 12 अंक एक प्रति का मूल्य 15 रुपये हिंदी संस्करण अंग्रेजी संस्करण वार्षिक शुल्क 150 रुपये 660 रुपये 55 रुपये ओशो टाइम्स इंटरनेशनल के लिए संपर्क सूत्र : ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पुणे-411001 (महाराष्ट्र) फोन : (0212) 628562 XXXVI Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में कुछ अनिवार्य तत्व है। विधि कोई भी हो, वे अनिवार्य तत्व हर विधि के लिए आवश्यक है। पहली है एक विश्रामपूर्ण अवस्था : मन के साथ कोई संघर्ष नहीं, 'मन पर कोई नियंत्रण नहीं कोई एकाग्रता नहीं ।। दसरा, जो भी चल रहा है उसे बिना किसी हस्तक्षेप के, बस शांत सजगता से देखो भरशांत हो कर, बिना किसी निर्णय और मूल्यांकन के, बस मन को देखते रहो। ये तीन बातें हैं: विश्राम, साक्षित्व, अनिर्णय और धीरे-धीरे एक गहन मौन तुम पर उतर आता है। तम्हारे भीतर की सारी हलचल समाप्त हो जाती है। तुम हो, लेकिन मैं हूं' का भाव नहीं हैबस एक शुद्ध आकाश है। ध्यान की एक सौ बारह विधिया है; मैं उन सभी विधियों पर बोला हूं। उनकी संरचना में भेद है, परंतु उनके आधार वही हैं। विश्राम, साक्षित्व और एक अनिर्णयात्मक दृष्टिकोण।। ओशो यह ओशो का विशेष गुण है कि वे व्यक्ति को सारे आध्यात्मिक अनुभव के गहन बोध में ले जाने में उसकी मदद करते हैं। में मानता है कि हमारे समय में वे धार्मिक चेतना की एका प्रमुख शक्ति है। जेम्स ब्रोटन प्रसिद्ध अभिनेता Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A REBEL BOOK