________________
ध्यान का विज्ञान
तुम्हारे लिए विषय जैसा कुछ भी नहीं हो सकता है, व्यक्ति इसकी कल्पना भी है, जब ज्ञाता ही ज्ञात हो जाता है, जब बचता, बस तुम ही अपने चैतन्य में बच नहीं कर सकता। और संसार के बहुत से देखने वाला ही देखा गया बन जाता है, तो रहते हो।
संत आनंद पर रुक गए हैं। भले ही वह घर आ पहुंचा। दर्पण रिक्त हो गया। वह कुछ भी दशा सुन्दर हो, मनोरम हो, परंतु वे अभी यही घर वह वास्तविक मंदिर है जिसकी प्रतिबिंबित नहीं कर रहा। यह तुम हो। घर नहीं पहुंचे।
हम जन्मों से खोज करते रहे हैं, पर हम अंतर्जगत के बड़े-बड़े साधक भी सुंदर जब तुम ऐसे बिंदु पर पहुंचते हो जब भटक जाते हैं। हम सुंदर अनुभवों से अनुभवों में अटक गए हैं। वे यह सोचकर सारे अनुभव बिदा हो जाते हैं, कोई विषय संतुष्ट हो जाते हैं। उन अनुभवों से तादात्मय बना लिए हैं, नहीं रहता, तब चेतना निर्बाध हुई एक साहसी साधक को वे सभी सुंदर "कि मैंने स्वयं को पा लिया।" वे उस वर्तुल में गति करती है-अस्तित्व में हर अनुभव पीछे छोड़ देने होंगे, और बढ़ते अंतिम अवस्था पर पहुंचने से पहले ही चीज, यदि निर्बाध हो तो, वर्तल में ही गति चले जाना होगा। जब सभी अनुभव रुक गए जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते करती है-वह तुम्हारी स्व-सत्ता के स्रोत समाप्त हो जाते हैं और वह अपने ही
से आती है, और चारों ओर फैल जाती है। एकाकीपन में बच रहता है...तो संबोधि कोई अनुभव नहीं है। यह तो कोई बाधा न पाकर न कोई अनुभव, न कोई आनंद इससे बड़ा नहीं है, कोई वह अवस्था है जहां तुम नितांत अकेले रह विषय-वह वापस लौट आती है। और आह्लाद इससे अधिक आह्लादमय नहीं जाते हो, कुछ भी जानने को नहीं रहता। चेतना स्वयं विषय हो जाती है। यही तो है, कोई सत्य इससे अधिक सत्यतर नहीं कोई भी विषय-कैसा ही सुंदर क्यों न जे.कृष्णमूर्ति अपने जीवन भर कहते रहे: है। तुम उसमें प्रवेश कर गए जिसे मैं हो-नहीं बचता। उसी क्षण में तुम्हारी जब द्रष्टा ही दृश्य बन जाए तो जानना कि भगवत्ता कहता हूं, तुम एक भगवान चेतना, किसी भी विषय से निर्बाध होकर, तुम पहुंच गए। उससे पहले मार्ग में हजारों हो गए। मुड़ती है और स्रोत की ओर लौट जाती है। चीजें आती हैं। शरीर अपने अनुभव देता वह आत्मानुभूति बन जाती है। वह बुद्धत्व है, जो कुंडलिनी के चक्रों के अनुभव की एक वृद्ध व्यक्ति अपने डॉक्टर के पास बन जाती है।
भांति जाने जाते हैं; सात केंद्र सात कमल गया और बोला, "मुझे मल-मूत्र संबंधी ___ मैं तुम्हें 'विषय'-आब्जेक्ट-शब्द के बन जाते हैं। हर कमल पहले से विशाल तकलीफ है।" बारे में बताऊं। हर विषय का अर्थ है और उच्चतर होता है, और उसकी सुरभि “अच्छा, चलो देखते हैं। तुम्हारे अवरोध। इस शब्द ही का अर्थ मादक होती है। मन तुम्हें गहन आयाम मूत्र-त्याग की कैसी स्थिति है?" है-अवरोध, बाधा।
देता है-असीम और अनंत। लेकिन यह "हर सुबह ठीक सात बजे आ जाता है, तो विषय तुमसे बाहर, पदार्थ जगत में मूलभूत सूत्र याद रखना कि 'घर' अभी भी जैसे बच्चों को आना चाहिए।" भी हो सकता है, और तुम्हारे भीतर तुम्हारे नहीं आया है।
__"बहुत अच्छा। और मल-त्याग मानसिक जगत में भी हो सकता है; विषय यात्रा का आनंद लो और मार्ग में वृक्षों, कैसा है?" तुम्हारे हृदय में, भावनाओं में, भावावेगों पर्वतों, पुष्पों, सरिताओं, सूर्य, चांद और हर सुबह ठीक आठ बजे, बिलकुल में, भावुकताओं में, भावदशाओं में भी हो तारों के जो दृश्य आएं उनका भी आनंद जैसे घड़ी चलती है।" सकता है। और विषय तुम्हारे आध्यात्मिक लो-लेकिन जब तक तुम्हारी चेतना ही "तो फिर तकलीफ क्या है?" डॉक्टर संसार में भी हो सकते हैं। और वे इतने अपना विषय न बन जाए, तब तक कहीं ने पूछा। आनंददायी होते हैं कि इससे अधिक कुछ भी रुको मत। जब द्रष्टा ही दृश्य बन जाता “मैं नौ बजे से पहले नहीं उठता!"