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ध्यान का विज्ञान
तुम सोए हो और समय है कि जाग साध पाओगे, और द्रष्टा साक्षी नहीं है। एक प्रकार की एकाग्रता है, द्रष्टा तुम्हें जाओ।
फिर क्या करना है? पिघलना है, अलग रखे रहता है। द्रष्टा तो तुम्हारे ये सभी अनुभव प्रसुप्त मन के विलीन होना है। जब एक गुलाब के फूल अहंकार में अभिवृद्धि करेगा, उसे सशक्त अनुभव हैं।
को देखो, तो बिलकुल भूल जाओ कि एक करेगा। जितने तुम द्रष्टा होते जाओगे जाग्रत मन का कोई अनुभव नहीं होता। 21 विषय है जो देखा गया और एक चेतना है उतना तुम्हें लगेगा जैसे एक द्वीप हो
जो देखने वाली है। उस क्षण के सौंदर्य गए—विभाजित, एकाकी, सुदूर।
को, उस क्षण की धन्यता को तुम दोनों को युगों से, संसार भर के साधक द्रष्टा को द्रष्टा साक्षी नहीं है
अभिभूत कर लेने दो, ताकि तुम और साधते रहे हैं। वे भले ही इसे साक्षी कहते
गुलाब भिन्न न रहो, बल्कि एक लय, एक रहे हों, पर यह साक्षी नहीं है। साक्षी तो टष्टा और दृश्य साक्षी के दो पहलू हैं। गीत, एक मस्ती बन जाओ।
बिलकुल भिन्न है, गुणात्मक रूप से भिन्न जब वे एक-दूसरे में तिरोहित हो जाते प्रेम करते हुए, संगीत सुनते हुए, है। द्रष्टा को साधा जा सकता है, हैं, जब वे एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं, सूर्यास्त को देखते हुए, इसे बार-बार होने प्रयासपूर्वक विकसित किया जा सकता है; जब वे एक हो जाते हैं, तो पहली बार दो। यह जितना हो उतना ही अच्छा, उसे साधकर तुम बेहतर द्रष्टा बन सकते साक्षी का उसकी समग्रता में प्रादुर्भाव होता क्योंकि यह कोई कला नहीं बल्कि एक हो।
कौशल है, एक गुर है। तुम्हें इसका वैज्ञानिक अवलोकन करता है, संत परंतु एक प्रश्न कई लोगों को उठता है। सूत्र-संकेत ग्रहण कर लेना है; एक बार साक्षी रहता है। विज्ञान की पूरी प्रक्रिया ही इसका कारण है कि वे साक्षी को ही द्रष्टा तुम इसे पा लो तो इसे कहीं भी, कभी भी अवलोकन की है : इतने तत्पर, सूक्ष्म और समझते हैं। उनके मन में द्रष्टा और साक्षी शुरू कर सकते हो।
तीक्ष्ण ढंग से देखना होता है कि कुछ भी पर्याय हैं। यह भ्रांतिपूर्ण है; द्रष्टा साक्षी जब साक्षी का प्रादुर्भाव होता है, तो न चूक न जाए। लेकिन वैज्ञानिक परमात्मा नहीं है, बल्कि उसका केवल एक अंश है। तो कोई देखने वाला बचता है, न देखा को नहीं जान पाता। यद्यपि उसका
और जब भी अंश स्वयं को पूर्ण मानता है, जाने वाला। साक्षी एक निर्मल दर्पण है, अवलोकन बहुत ही कुशल होता है, फिर गलती शुरू हो जाती है।
जो कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं करता। यह भी वह परमात्मा से अनभिज्ञ रहता है। द्रष्टा का अर्थ है चेतनागत, और दृश्य कहना भी उचित नहीं है कि वह एक दर्पण उसका कभी परमात्मा से मिलना नहीं का अर्थ है पदार्थगत, विषयगत। द्रष्टा का है; यह कहना बेहतर होगा कि वह एक होता; बल्कि वह परमात्मा के होने से अर्थ है: जो दृश्य के बाहर हो, और द्रष्टा दर्पणत्व है। वह तो पिघलने और विलीन इनकार करता है, क्योंकि जितना वह का अर्थ है जो भीतर है। भीतर और बाहर होने की एक गत्यात्मक प्रक्रिया है; वह अवलोकन करता है और यह पूरी को विभाजित नहीं किया जा सकता; वे कोई जड़ घटना नहीं, एक प्रवाह है! तुम प्रक्रिया अवलोकन की ही है-उतना ही युगपत हैं, और युगपत ही हो सकते हैं। गुलाब तक पहुंच रहे हो, गुलाब तुममें वह अस्तित्व से अलग हो जाता है। सेतु जब इस युगपत्य का, या कहा जाए अद्वैत पहुंच रहा है: यह अंतरात्मा का एक टूट जाते हैं और दीवारें खड़ी हो जाती हैं; का अनुभव हो जाता है तो साक्षी का आदान-प्रदान है।
वह अपने ही अहंकार में कैद हो जाता है। प्रादुर्भाव होता है।
यह धारणा भूल जाओ कि साक्षी द्रष्टा संब साक्षी रहता है। लेकिन स्मरण साक्षी को तुम साध नहीं सकते। यदि है; वह द्रष्टा नहीं है। द्रष्टा को साधा जा रखना, साक्षित्व एक घटना है, एक तुम साक्षी को साधो, तो बस द्रष्टा को ही सकता है, साक्षी सहज घटता है। द्रष्टा तो उप-उत्पत्ति है-क्षण में, परिस्थिति में,