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________________ तिनका तो तुम तभी हो सकते हो जब 'मैं' के विचार को बिलकुल छोड़ दोअन्यथा तुम बहता हुआ तिनका नहीं हो सकते; संघर्ष चलता रहेगा। यही कारण है कि जब तुम ध्यान के लिए आते हो तो बहुत कठिनाई होती है। यदि मैं शांत बैठने के लिए कहूं, तो तुम नहीं बैठ सकते — और कितनी सरल बात है । कोई सोचेगा, यह तो सबसे सरल काम है; इसको तो सिखाने की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए। बस व्यक्ति बैठे और बना रहे। लेकिन तुम बैठ नहीं रह सकते क्योंकि 'मैं' तुम्हें विश्राम का एक क्षण भी नहीं दे सकता। एक बार विश्राम का एक क्षण मिल जाए तो तुम सत्य को देख पाओगे। एक बार सत्य जान लिया गया, तो 'मैं' को गिरा दिया जाना होगा। तब वह बना नहीं रह सकता। तो 'मैं' तुम्हें कभी छुट्टी नहीं देता। तुम किसी पहाड़ पर, किसी ग्रीष्म सैरगाह पर चले जाओ तो वहां भी 'मैं' तुम्हें छुट्टी नहीं लेने देगा। तुम अपना रेडियो ले जाते हो, अपना टी वी सेट ले जाते हो; अपनी सभी समस्याएं तुम ले जाते हो और तुम व्यस्त बने रहते हो। वहां तुम विश्राम करने गए थे, लेकिन अपना ढर्रा वैसा का वैसा जारी रखते हो। तुम विश्राम नहीं करते। 'मैं' विश्राम नहीं कर सकता। वह जीता ही तनाव पर है। वह नए-नए तनाव निर्मित कर लेगा, नई-नई चिंताएं खड़ी कर लेगा; लगातार नई से नई परेशानियां पैदा करता रहेगा, वह तुम्हें विश्राम नहीं करने देगा। विश्राम का एक क्षण भर मिल जाए ध्यान में बाधाएं और 'मैं' का पूरा भवन ढहने लगता है— क्योंकि वास्तविकता इतनी सुंदर है और 'मैं' इतना असुंदर । व्यक्ति व्यर्थ ही संघर्ष किए चला जाता है। तुम उन चीजों के लिए लड़ रहे हो जो अपने आप से होने ही वाली हैं। व्यर्थ ही तुम लड़ रहे हो। तुम ऐसी चीजों की चाह कर रहे हो जो बिना चाहे भी तुम्हारी होने वाली हैं। वास्तव में, चाहने से तो तुम उनको खो दोगे। इसीलिए तो बुद्ध कहते हैं: “धारा के साथ बहो । उसे तुम्हें सागर की ओर ले जाने दो।” ‘मेरा', 'मुझ’, 'तू', 'मैं’– यह जाल है । और यह जाल दुख, विक्षिप्तता और पागलपन पैदा करता है। अब समस्या यह है कि बच्चे को इससे गुजरना होगा, क्योंकि वह कौन है, यह उसको पता नहीं और उसे कुछ पहचान चाहिए - चाहे झूठी पहचान ही सही, पर वह भी पहचान न होने से तो बेहतर है। उसे कोई पहचान चाहिए। उसे जानना है कि ठीक-ठीक वह है कौन, तो एक झूठा केंद्र निर्मित हो जाता है। 'मैं' तुम्हारा वास्तविक केंद्र नहीं है। वह एक झूठा केंद्र है— उपयोगी है, लेकिन काल्पनिक, तुम्हारे द्वारा ही बनाया हुआ । उसका तुम्हारे वास्तविक केंद्र से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारा जो वास्तविक केंद्र है वही समष्टि का भी केंद्र है। तुम्हारा वास्तविक स्व सभी का स्व है। केंद्र पर पूरा अस्तित्व एक है-ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश के स्त्रोत पर, सूर्य में, सभी किरणें एक हैं। वे जितनी दूर चली जाती हैं, उतनी ही एक-दूसरे से भी दूर हो जाती हैं। तुम्हारा वास्तविक केंद्र केवल तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, वह समस्त का केंद्र भी है। लेकिन हमने अपने स्वयं के छोटे-छोटे केंद्र बना लिए हैं - होममेड, स्वनिर्मित | उनकी जरूरत है, क्योंकि बच्चा पैदा होता है बिना किसी सीमा के, बिना किसी खयाल के कि वह है कौन। यह जिंदा रहने के लिए एक अनिवार्यता है। वह जिंदा कैसे रहेगा? उसे कोई नाम देना होगा; वह कौन है— इस बात का उसे खयाल देना होगा । निश्चित ही यह खयाल बाहर से आता है : कोई कहता है तुम सुंदर हो, कोई कहता है तुम बुद्धिमान हो, कोई कहता है तुम कितने जीवंत हो। लोग जो कहते हैं, वे खबरें तुम इकट्ठी कर लेते हो । लोग तुम्हारे बारे में जो कहते हैं, उस सबको इकट्ठा करके तुम एक निश्चित छवि बना लेते हो। तुम कभी अपने भीतर, उसकी ओर नहीं झांकते जो तुम हो । यह छवि तो झूठी होने ही वाली है— क्योंकि कोई और नहीं जान सकता कि तुम कौन हो, कोई और नहीं बता सकता कि तुम कौन हो। तुम्हारी अंतर्वास्तविकता तुम्हारे अतिरिक्त किसी और के लिए उपलब्ध नहीं है। तुम्हारी अंतर्वास्तविकता तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी के लिए अभेद्य है। वहां बस तुम ही जा सकते हो। जिस दिन तुम्हें बोध होता है कि तुम्हारी पहचान झूठी है, जोड़-जाड़ कर इकट्ठी की हुई है, कि तुमने लोगों की धारणाएं इकट्ठी कर ली हैं... कभी जरा सोचो; बस शांत 226
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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