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ओशो से प्रश्नोत्तर
नहीं कर सकता शांति की। कल्पना को होती है।
उत्सव मनाते, इसे बांटते, इससे आनंदित जरूरत रहती है किसी रूपाकार की; मौन चिंता मत करना कि यह वास्तविक है होते? इसे बनने दो एक गान, एक नृत्य, के पास कोई आकार नहीं होता। कल्पना या अवास्तविक है, या कि इसके बाद एक कविता। इसे बनने दो सृजनात्मक। का अर्थ होता है बिम्ब में सोचना, और अराजकता आएगी या नहीं। इस ढंग से तुम्हारे मौन को होने दो सृजनात्मक; कुछ मौन का कोई प्रतिबिम्ब नहीं होता। तुम सोचने द्वारा अराजकता तो तुम ले ही आए न कुछ करो इसका। कल्पना नहीं कर सकते संबोधि की, सतोरी हो। यह तुम्हारा विचार होता है जो कि लाखों चीजें संभव होती हैं क्योंकि मौन की, समाधि की, मौन की। नहीं। कल्पना निर्मित कर सकता है अराजकता। और जब से ज्यादा सृजनात्मक तो कुछ और नहीं को चाहिए कोई आधार, कोई आकार, वह निर्मित हो जाती है, तो मन कहेगा, होता। कोई जरूरत नहीं बहुत बड़ा और मौन होता है आकारविहीन, 'अब सोच लो, मैंने तो ऐसा पहले ही कह चित्रकार बनने की, पिकासो की भांति अनिर्वचनीय। किसी ने कभी नहीं बनाया दिया था तुमसे।'
संसार प्रसिद्ध होने की। कोई जरूरत नहीं इसका कोई चित्र; कोई नहीं बना सकता। मन बहुत स्वतः आपूरक होता है। पहले हेनरी मूर बनने की; कोई जरूरत नहीं किसी ने नहीं गढ़ी इसकी कोई मूरत; कोई यह तुम्हें दे देता है बीज, और जब वह महान कवि बनने की। महान बनने की वे कर नहीं सकता ऐसा।
प्रस्फुटित होता है तो मन कहता है, 'देख महत्वाकांक्षाएं मन की होती हैं, मौन की तुम मौन की कल्पना नहीं कर सकते। लिया, मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था नहीं। मन चालाकियां चल रहा है। मन तों कि तुम्हें धोखा हुआ है।' अराजकता पहुंच अपने ढंग से चित्र बनाना, चाहे कितना कहेगा, 'यह जरूर कल्पना ही होगी। ऐसा चुकी और यह विचार द्वारा लायी गयी है। ही मामूली हो। तुम्हारे अपने ढंग से हाइकू संभव कैसे हो सकता है तुम्हारे लिए? तो इस बारे में क्यों चिंता करनी कि भविष्य रचना, चाहे वह कितना ही साधारण हो। तुम्हारे जैसा इतना मूढ़ व्यक्ति और मौन में अभी अराजकता आने को है या नहीं? कितना ही सामान्य हो-तुम्हारे अपने ढंग घट रहा है तुमको? जरूर यही होगा कि कि वह गुजर गई है या नहीं? बिलकुल से गीत गाना; थोड़ा नृत्य करना, उत्सव तुम कल्पना कर रहे हो।' या, 'इस आदमी इसी घड़ी तुम मौन हो, क्यों उत्सव नहीं मनाना। तुम पाओगे कि अगला ही क्षण ले ओशो ने सम्मोहित कर दिया है तुम्हें। मनाते इस बात पर? और मैं कहता हूं आता है ज्यादा मौन। तुम जान जाओगे कि कहीं कुछ तुम्हें धोखा हो रहा होगा।' ऐसी तुमसे, यदि तुम उत्सव मनाते हो, तो वह जितना ज्यादा तुम उत्सव मनाते हो, उतना समस्याएं मत खड़ी कर लेना। ऐसे ही बढ़ता है।
ज्यादा तुम्हें दिया जाता है; जितना ज्यादा जीवन में काफी समस्याएं हैं। जब मौन चेतना के इस संसार में और कुछ इतना तुम बांटते हो, उतने ज्यादा तुम ग्रहण करने घट रहा हो, तो उसमें आनंदित होना, सहायक नहीं है जितना कि उत्सव। उत्सव में सक्षम हो जाते हो। हर क्षण वह बढ़ता उसका उत्सव मनाना। इसका अर्थ हुआ पौधों को पानी देने जैसी बात है। चिंता है, बढ़ता ही चला जाता है। कि अराजक शक्तियां बाहर निकाली जा ठीक विपरीत है उत्सव के यह जड़ों को और अगला क्षण सदा ही इस क्षण से चुकी हैं। मन अपना अंतिम खेल खेल काट देने जैसी बात है। प्रसन्नता अनुभव उत्पन्न होता है, तो फिक्र क्यों करनी रहा है। वह बिलकुल अंत तक खेलता है; करो! मौन के साथ नृत्य करो! इस क्षण उसकी! यदि यह वर्तमान क्षण शांतिपूर्ण सर्वथा, पूर्णतया अंत तक वह खेलता ही वह मौजूद है-पर्याप्त है। मांग क्यों है, तो अगला क्षण कैसे अराजक हो जाता है, अंतिम घड़ी में जब संबोधि घटने करनी ज्यादा की? कल अपनी फिक्र अपने सकता है? कहां से आएगा वह ? उसे इसी को ही होती है, तब भी मन अंतिम आप कर लेगा। यह क्षण ही बहुत काफी क्षण से ही उत्पन्न होना होता है। यदि मैं चालाकी चलता है। यह अंतिम लड़ाई है; इसे क्यों नहीं जी लेते! क्यों नहीं इसका प्रसन्न हूं इस क्षण, तो कैसे मैं अप्रसन्न हो
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