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नहीं है और फिर हम चिन्ता करने लगते हैं कि दूसरे लोग इस बाबत क्या सोचेंगे। बहुधा मन की यह भीतरी बड़बड़ाहट हमें ऐसा खयाल देती है कि हम दुखी व्यक्ति हैं। यह साक्षीभाव नहीं है।
ओशो हमें याद दिलाते हैं : "कुछ भी करने की जरूरत नहीं है; बस साक्षी बने रहो — एक देखने वाले, एक निरीक्षक, मन की ट्रैफिक को देखने वाले - गुजरते हुए विचार, इच्छाएं स्मृतियां, सपने, कल्पनाएं – इन सब को देखने वाले । बस तटस्थ खड़े रहें - शांत, देखते हुए, जानते हुए; बिना किसी मूल्यांकन के, बिना किसी निंदा के–न कहें कि 'यह अच्छा है', न कहें कि 'यह बुरा है। " 4
ध्यान की इन विधियों द्वारा, जो इस पुस्तक में वर्णित हैं, आप आविष्कृत कर पायेंगे कि साक्षी क्या है। ओशो की उपस्थिति में बैठे-बैठे साक्षी सहज ही फलित होने लगता है। ऐसे क्षण आते हैं जब हम मात्र बैठे रहते हैं, जो भी हो रहा है उसे सुनते हुए, अनुभव करते हुए, देखते हुए - शांत, मौन | यह मौन है विराट शून्य आकाश की भांति - फिर भी जीवन से ओतप्रोत ।
ओशो का निवास है आकाश और उनकी सत्ता है मौन । उनके शब्द हृदय के
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भूमिका
अंतरतम को छूते हैं, उनके गीत शून्य सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण क्षण, आकाश के गीत हैं। जब निषेध करने को कुछ भी पीछे नहीं बचता।”
“तुम्हारी अंतस सत्ता और कुछ नहीं वरन अंतस आकाश है। बादल आते हैं और चले जाते हैं; ग्रह-उपग्रह जन्मते हैं और विसर्जित होते हैं; तारे बनते और मिटते हैं, लेकिन अंतस आकाश पूर्ववत बना रहता है— अस्पर्शित, स्वच्छ, अखंड । इस अंतस आकाश को हम कहते हैं: साक्षी, द्रष्टा- और यही है ध्यान का सारा लक्ष्य। "
“भीतर मुड़ो और
अंतस आकाश का आनंद लो। ध्यान रहे, जो भी तुम देख पाते हो, वह तुम नहीं हो।
तुम विचारों को देख सकते हो, तब तुम विचार नहीं हो । तुम अपने भावों को देख सकते हो, तो तुम अपने भाव नहीं हो । तुम अपने सपनों, इच्छाओं, स्मृतियों, कल्पनाओं, प्रक्षेपों को देख सकते हो, तो तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो । जो भी तुम देख पाते हो, उसको अलग करते जाओ। तब एक दिन एक दुर्लभ क्षण आता है, तुम्हारे जीवन का
" समस्त दृश्य विलीन हो गये हैं और केवल द्रष्टा रह गया है। द्रष्टा है अंतस आकाश।"
"इसे जान लेना अभय हो जाना है, और इसे जानना
प्रेम से आपूरित हो जाना है। इसे जान लेना दिव्य हो जाना है, अमृत हो जाना है।" s
इस पुस्तक के माध्यम से आप आमंत्रित हैं अपने अंतस आकाश का अनुभव करने के लिए।
मेरा अहोभाव और प्रेम शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, केवल आंसू ही मेरे भावों को व्यक्त कर सकते हैं। प्यारे ओशो के मुक्ति के आह्वान को सुन कर जीवन द्वारा क्षण-क्षण बरसाये गये सौंदर्य और प्रसाद के प्रति मेरा जागना प्रारंभ हुआ है।
अहोभाव, प्यारे सद्गुरु!
स्वामी देव वदूद, पूना