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________________ “ध्वनि के केंद्र में स्नान करो—मानो जलप्रपात के सतत नाद में स्नान कर रहे हो । या कानों में उंगली डालकर नादों के नाद अनाहत को सुनो।” तुम अपनी उंगलियों से या किसी दूसरी चीज से कानों को बंद करके भी यह ध्वनि पैदा कर सकते हो उस हालत में भी एक ध्वनि सुनाई देती है । वह कौन-सी ध्वनि है जो कानों को बंद करने पर सुनाई देती है ? और उसे तुम क्यों सुनते हो ? जैसे फोटोग्राफ के निगेटिव होते हैं वैसे ही नकारात्मक ध्वनियां भी होती हैं। और न सिर्फ आंखें नकारात्मक चित्र देखती हैं, कान भी नकारात्मक ध्वनि सुनते हैं। तो जब तुम कान बंद करते हो तो तुम ध्वनियों के नकारात्मक संसार को सुनते हो । सभी ध्वनियां बंद हो गई हैं और अचानक एक नई आवाज सुनाई देने लगी है। यह ध्वनि ध्वनियों की अनुपस्थिति है । एक अंतराल आ गया; तुम कुछ चूक रहे हो। और तब तुम अनुपस्थिति को सुनते हो । “या कानों में उंगली डाल कर तुम नादों के नाद को, अनाहत नाद को सुनो" वह नकारात्मक ध्वनि ही अनाहत नाद कहलाती है। क्योंकि वास्तव में वह ध्वनि नहीं है, उसकी अनुपस्थिति है या वह ध्यान की विधियां नैसर्गिक ध्वनि है; क्योंकि वह किसी माध्यम से पैदा नहीं की गई है। “कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को, अनाहत नाद को सुनो।” यह ध्वनियों की अनुपस्थिति बहुत ही सूक्ष्म अनुभव है। यह तुम्हें क्या दे सकता है ? जिस क्षण ध्वनियां नहीं रहती हैं, तुम अपने पर आ जाते हो । ध्वनियों के साथ तुम दूर चल पड़ते हो; ध्वनि के साथ तुम दूसरे की तरफ चल पड़ते हो। इसे समझने की कोशिश करोः ध्वनि से हम दूसरे से संबंधित होते हैं, दूसरे से संवाद करते हैं । .. यदि ध्वनि दूसरे तक पहुंचने का वाहन है तो निर्ध्वनि स्वयं में पहुंचने का माध्यम बन जाता है। ध्वनि के द्वारा तुम दूसरे के साथ संवाद करते हो; निर्ध्वनि के द्वारा तुम अपने में, अपने अतल शून्य में उतर जाते हो । यही कारण है कि अनेक विधियों में अंतर्यात्रा के लिए निर्ध्वनि को काम में लाया जाता है। बिलकुल गूंगे और बहरे हो जाओ - जरा देर लिए ही सही । तब तुम अपने अतिरिक्त और कहीं नहीं जा सकते। अचानक तुम पाओगे कि तुम अपने अंतस में विराजमान हो; फिर कोई गति संभव नहीं होगी। इस कारण से ही मौन की इतनी साधना की जाती थी । मौन में दूसरे तक के सारे सेतु गिर जाते हैं। ... "या कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को सुनो।” एक ही विधि के अंदर दो विपरीत बातें कही गई हैं। “ध्वनि के केंद्र में स्नान करो - मानो किसी जलप्रपात के सतत नाद में स्नान कर रहे हो।" यह एक अति है। "या कानों में उंगली डाल कर नादों के नाद को सुनो”; यह दूसरी है। एक हिस्सा कहता है अपने केंद्र पर पहुंचने वाली ध्वनि को सुनो, और दूसरा हिस्सा कहता है कि सब ध्वनियों को बंद करके ध्वनियों की ध्वनि को सुनो। एक ही विधि में दोनों को समाहित करने का एक विशेष उद्देश्य है कि तुम एक छोर से दूसरे छोर तक गति कर सको। यहां “या” शब्द चुनाव करने को नहीं कहता है कि इनमें से किसी एक प्रयोग को करना है। नहीं, दोनों का प्रयोग करो। यही कारण है कि एक विधि के भीतर दोनों को समाविष्ट किया गया है। पहले कुछ महीने तक एक प्रयोग करो, और तब दूसरे का प्रयोग कुछ माह करो। तब तुम ज्यादा जीवंत होओगे और तुम दोनों छोरों को जान लोगे । और यदि तुम दोनों छोरों में आसानी से डोल सको तो तुम सदा युवा बने रह सकते हो। 8 164
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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