SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वे कभी स्वयं को देखने की चिंता नहीं लेते। हर कोई देख रहा है - यह सबसे उथले तल पर देखना हैं - कि दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति क्या पहन रहा है, वह कैसा लगता है। हर व्यक्ति देख रहा है; देखने की प्रक्रिया कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिसे तुम्हारे जीवन में प्रवेश देना है। उसे बस गहराना है, दूसरों से हटाकर स्वयं की आंतरिक अनुभूतियों, विचारों और भावदशाओं की ओर करना है - और अंततः स्वयं द्रष्टा की ओर ही इंगित कर देना है। “महाराज, आपने कॉलर उलटा करके पीछे की ओर क्यों पहना हुआ है ?" "क्योंकि मैं एक फादर हूं," पादरी ने जवाब दिया। लोगों की हास्यास्पद बातों पर तुम आसानी से हंस सकते हो, लेकिन कभी तुम स्वयं पर भी हंसे हो ? कभी तुमने स्वयं को कुछ हास्यास्पद करते हुए पकड़ा है ? नहीं, स्वयं को तुम बिलकुल अनदेखा रखते हो; तुम्हारा सारा देखना दूसरों के गाड़ी में एक यहूदी एक पादरी के सामने विषय में ही है, और उसका कोई लाभ नहीं बैठा है। है । “फादर तो मैं भी हूं, लेकिन मैं अपना कॉलर ऐसे नहीं पहनता, ” यहूदी कहता है। ओशो से प्रश्नोत्तर लोग एक-दूसरे को बड़े गौर से देखते हैं। दो पोलक टहलने के लिए बाहर गए और अचानक बारिश होने लगी । “जल्दी करो,” एक ने दूसरे से कहा, “अपना छाता खोलो।” “उससे कुछ नहीं होगा,” दूसरा बोला, “मेरी छतरी में छेद ही छेद हैं।” "तो तुम छतरी लाए ही क्यों थे?" "मैंने सोचा ही नहीं था कि बारिश भी हो सकती है।" 273 अवलोकन की इस ऊर्जा का उपयोग अपने अंतस के रूपांतरण के लिए कर लो। यह इतना आनंद दे सकती है, इतने आशीष बरसा सकती है कि तुम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते । सरल-सी प्रक्रिया है, लेकिन एक बार तुम इसका उपयोग स्वयं पर करने लगो, तो यह एक ध्यान “ओह, लेकिन मैं तो हजारों के लिए बन जाता है। फादर हूं।" “फिर तो शायद, ” यहूदी कहता है, “आपको अपनी पतलून उलटी करके पहननी चाहिए। " भीतर जाओगे, उतने ही सुखी अनुभव करोगे - शांत, अधिक मौन, अधिक एकजुट, अधिक महिमावान, अधिक प्रसादपूर्ण । बोधगया में जहां बुद्ध संबोधि को उपलब्ध हुए एक मंदिर बनाया गया है दो किसी भी चीज को ध्यान बनाया जा बातों की स्मृति में एक है वह सकता है। बोध-वृक्ष जिसके नीचे बुद्ध ध्यान में बैठा करते थे । वृक्ष के बाजू में छोटे-छोटे पत्थर हैं धीरे-धीरे चलने के लिए। वे बैठते, ध्यान करते और जब उन्हें लगता कि बैठना बहुत ज्यादा हो गया और शरीर के लिए कुछ व्यायाम की जरूरत है— तब वे उन पत्थरों पर चलने लगते। वह उनका चलते हुए ध्यान करना था। जब मैं बोधगया में ध्यान शिविर ले जो कुछ भी तुम्हें तुम तक ले जाए, वही ध्यान है। और अपना स्वयं का ध्यान खोज लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उस खोजने में ही तुम अथाह आनंद पा लोगे। और क्योंकि यह तुम्हारी अपनी खोज है - तुम पर आरोपित कोई विधि-विधान नहीं— उसके भीतर तुम सहजता से गहरे चले जाओगे। और जितने गहरे तुम उसके अवलोकन तो तुम सभी जानते हो, इसलिए उसे सीखने का कोई प्रश्न नहीं है, केवल देखने के विषय को बदलने का प्रश्न है। उसे करीब पर ले आओ। अपने शरीर को देखो, और तुम चकित होओगे। अपना हाथ मैं बिना द्रष्टा हुए भी हिला सकता हूं, और द्रष्टा होकर भी हिला सकता हूं। तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन मैं भेद को देख सकता हूं। जब मैं हाथ को द्रष्टा-भाव के साथ हिलाता हूं तो उसमें एक प्रसाद और सौंदर्य होता है, एक शांति और एक मौन होता है। तुम हर कदम को देखते हुए चल सकते हो, उससे तुम्हें वे सब लाभ तो मिलेंगे ही जो चलना तुम्हें एक व्यायाम के रूप में दे सकता है, साथ ही इससे तुम्हें एक बड़े सरल ध्यान का लाभ भी मिलेगा ।
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy