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________________ बस यह देखते रहो कि वे राख हो गए हैं। आग ऊपर उठ रही है, और जिन-जिन अंगों से वह गुजरी है, वे अब नहीं रहे; वे राख हो गए हैं। ऊपर जाते जाओ, और अंततः सिर भी विलीन हो जाता है। तुम पर्वतशिखर पर बैठे एक द्रष्टा बने रहोगे । शरीर मौजूद होगा – मृत जला हुआ, राख - और तुम द्रष्टा होओगे, तुम साक्षी ओगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं होता । यह विधि अहंकारशून्य दशा तक पहुंचने के लिए अच्छी है। क्यों ? — क्योंकि इसमें बहुत-सी बातें समाहित हैं। यह सरल लगती है; इतनी सरल है नहीं । व्यक्ति की आंतरिक संरचना बहुत जटिल है। पहली बात : तुम्हारी स्मृतियां तुम्हारे शरीर का हिस्सा हैं। स्मृति भौतिक है; इसीलिए उसे संगृहीत किया जा सकता है—वह मस्तिष्क की कोशिकाओं में संगृहीत है । वह भौतिक है, शरीर का हिस्सा है। तुम्हारे मस्तिष्क की कोशिकाओं की शल्य चिकित्सा की जा सकती है, और यदि कुछ विशेष कोशिकाएं हटा दी जाएं तो तुम्हारी कुछ विशेष स्मृतियां तुमसे विदा हो जाएंगी। स्मरण रखो, यह समझने की बात है: यदि स्मृति अभी भी मौजूद है, तो शरीर बना रहेगा और तुम धोखा ही दे रहे थे। यदि तुम सच में ही इस भाव में गहरे चले जाओ कि शरीर मर गया है, जल रहा है, और आग ने उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया है, तो उस क्षण में कोई स्मृति नहीं होगी । ध्यान की विधियां द्रष्टा होने के उस क्षण में, कोई मन नहीं बचेगा। सब कुछ रुक जाएगा - विचार की कोई गति नहीं, बस देखना, बस देखना कि क्या हुआ है। और एक बार तुम यह जान जाओ, तो तुम इस दशा में सतत रह सकते हो । एक बार तुम जान जाओ कि तुम स्वयं को शरीर से अलग कर सकते हो - यह विधि तुम्हें शरीर से अलग करने का, तुम्हारे और शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षण के लिए शरीर से बाहर हो जाने का एक उपाय है। यदि तुम यह कर सको, तो तुम शरीर में रह सकते हो लेकिन फिर भी तुम शरीर में नहीं होओगे। तुम ऐसे ही रह सकते हो जैसे पहले रह रहे थे, लेकिन फिर तुम वही नहीं होओगे। यह विधि कम से कम तीन महीने लेगी। इसे करते रहो। यह एक दिन में नहीं होनें वाला, लेकिन यदि एक घंटा रोज तुम इस विधि को करते रहो, तो तीन महीने के भीतर, एक दिन अचानक तुम्हारी कल्पना अपना काम कर चुकेगी और अंतराल निर्मित हो जाएगा, और तुम शरीर को सच ही राख हुआ देखोगे। तब तुम अवलोकन कर सकते हो। उस अवलोकन में तुम्हें एक गहन अनुभूति होगी- कि अहंकार एक झूठी सत्ता है । अहंकार इसलिए था कि शरीर से, विचारों से, मन से तुम्हारा तादात्म्य था। तुम इनमें से कुछ भी नहीं हो—न मन और न शरीर। जो कुछ भी तुम्हें घेरे है, तुम उस सब से भिन्न हो; तुम अपनी परिधि से भिन्न हो । 2 मृत्यु का उत्सव मनाना ' ने तीन फकीरों के बारे में सुना है। उनके नाम का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी को अपना नाम नहीं बताया, उन्होंने कभी किसी बात का जवाब नहीं दिया। इसलिए चीन में उन्हें बस 'तीन हंसते फकीरों' के नाम से ही जाना जाता है। वे एक ही काम करते थे : वे किसी गांव में प्रवेश करते, बाजार में खड़े हो जाते, और हंसना शुरू कर देते । अचानक लोग सजग हो जाते, और वे अपने पूरे प्राणों से हंसते । फिर दूसरे लोग भी प्रभावित हो जाते, और एक भीड़ जमा हो जाती, और उनको देखने भर से ही पूरी भीड़ भी हंसने लगती। यह क्या हो रहा है? फिर पूरा शहर सम्मिलित हो जाता। और वे फकीर किसी दूसरे शहर को चल देते। उन्हें बहु प्रेम किया जाता था । उनका यही एक मात्र उपदेश था, यही एक संदेश था- कि हंसो । और वे कुछ सिखाते नहीं थे, बस परिस्थिति पैदा कर देते थे। फिर ऐसा हुआ कि वे देश भर में प्रसिद्ध हो गए- 'तीन हंसते फकीर' । पूरा चीन उनको प्रेम करता था, उनका सम्मान करता था। किसी ने भी इस तरह से शिक्षा नहीं दी — कि जीवन एक हंसी होना चाहिए, और अन्यथा कुछ भी नहीं। और वे किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं हंस रहे थे, लेकिन बस हंस रहे थे, जैसे कि वे 184
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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