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ध्यान में बाधाएं
जरूरत है। लेकिन अस्तित्व को भाषा की चेतना और अस्तित्व के मिलन को ध्यान फैलती है। जरूरत नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कहते हैं।
भाषा की जरूरत है, वह अनिवार्य है, तुम भाषा के बिना जिओ। उसका उपयोग भाषा तो छोड़नी ही होगी। मेरा यह अर्थ लेकिन फिर तुम्हें हमेशा उसी में नहीं बने तो तुम्हें करना ही पड़ेगा, लेकिन शब्द देने नहीं कि तुम्हें उसे धकेल कर एक ओर कर रहना चाहिए। ऐसे क्षण भी होने चाहिए की जो प्रक्रिया है, उसका जो मैकेनिज्म है देना है, कि तुम्हें उसका दमन करना है या जब तुम बस अस्तित्वगत हो रहो और वह ऐसा होना चाहिए जिसे तुम शुरू भी उसका निषेध करना है। मेरा यह अभिप्राय भीतर कोई शब्द न सरक रहे हों। जब तुम कर सको और बंद भी कर सको। है कि समाज में जिस चीज की जरूरत है, बस होते हो-और इसका यह अर्थ नहीं - जब तुम सामाजिक प्राणी की तरह वह तुम्हारी चौबीस घंटे की आदत बन गई कि तुम्हारा जीवन निष्प्राण हो जाए तो जिओ, तो भाषा के मैकेनिज़म की जरूरत है और वैसे उसकी कोई जरूरत नहीं है। चेतना होती है, और वह अधिक तीव्र, है; उसके बिना तुम समाज में नहीं जी जब तुम चलते हो, तो तुम्हें पांव हिलाने अधिक जीवंत हो जाती है, क्योंकि भाषा सकते। लेकिन जब तुम अस्तित्व के साथ की जरूरत होती है लेकिन बैठे हुए तुम्हें चेतना को मंद कर देती है। भाषा तो अकेले हो, तो मैकेनिज्म को बंद कर देना अपने पांव नहीं हिलाने चाहिए। यदि बैठे पुनरुक्तिपूर्ण होने को बाध्य है लेकिन चाहिए; उसको बंद करने की तुम्हारी हुए भी तुम्हारे पांव चलते रहें तो तुम अस्तित्व में कोई पुनरुक्ति नहीं है। तो क्षमता होनी चाहिए। यदि तुम उसे बंद न पागल हो, तो पांव विक्षिप्त हो गए हैं। भाषा ऊब पैदा करती है। भाषा तुम्हारे लिए कर सको तो मैकेनिज्म विक्षिप्त हो तुममें उन्हें रोकने की क्षमता होनी चाहिए। जितनी महत्वपूर्ण होगी, तुम्हारा मन जितना गया–यदि वह चालू ही रहे, चालू ही रहे उसी तरह, जब तुम किसी से भी बोल नहीं ज्यादा भाषा-उन्मुख होगा, उतने ही तुम
और तुम उसे बंद न कर सको, तो रहे, तो भीतर भाषा नहीं होनी चाहिए। वह ज्यादा ऊबोगे। भाषा एक पुनरुक्ति है, मैकेनिज़म ने तुम्हारी डोर संभाल ली। तुम बात करने का एक यंत्र है, बात करने के अस्तित्व पुनरुक्ति नहीं है। उसके गुलाम हो गए। मन तो एक यंत्र ही लिए एक विधि है; जब तुम कोई बात कर जब तुम एक गुलाब को देखते हो, तो होना चाहिए, मालिक नहीं। लेकिन वह रहे हो तो भाषा का उपयोग होना चाहिए। वह कोई पुनरुक्ति नहीं है। वह एक नया, मालिक बन गया है।
लेकिन जब तुम किसी से भी बात नहीं कर एक बिलकुल नया गुलाब है। न तो वह जब मन मालिक होता है, तो गैर-ध्यान रहे, तब भीतर भाषा नहीं होनी चाहिए। पहले कभी हुआ और न फिर कभी होगा। की एक अवस्था होती है। जब तुम मालिक यदि तुम यह कर सको-और यह तभी वह पहली बार और अंतिम बार मौजूद है। होते हो, तुम्हारी चेतना मालिक होती है तो संभव है जब तुम इसे समझते होओ-तब लेकिन जब हम कहते हैं कि यह एक एक ध्यानपूर्ण अवस्था होती है। तो ध्यान तुम ध्यान में विकसित हो सकते हो। मैं गुलाब है, तो 'गुलाब' शब्द एक पुनरुक्ति का अर्थ है: मैकेनिज्म पर मालकियत, कहता हूँ "तुम विकसित हो सकते हो" है वह सदा से है और सदा रहेगा। तुमने मैकेनिज़्म का मालिक हो जाना। क्योंकि जीवन की प्रक्रियाएं कभी मृत पुराने शब्द से नए को मार डाला।
संकलन नहीं होती, वे सदा ही विकासमान अस्तित्व सदा युवा है, और भाषा सदा नहीं है। तुम उसके पार हो और अस्तित्व प्रक्रियाएं होती हैं। तो ध्यान एक बूढ़ी। भाषा के कारण तुम अस्तित्व को उसके पार है। चेतना भाषा के पार है। विकासमान प्रक्रिया है, कोई विधि नहीं। चूक जाते हो, भाषा के कारण तुम जीवन अस्तित्व भाषा के पार है। जब चेतना और विधि सदा मृत होती है; वह तुममें जोड़ी को चूक जाते हो, क्योंकि भाषा मृत है। अस्तित्व एक हो जाते हैं, तो उनका मिलन जा सकती है, लेकिन प्रक्रिया सदा जीवंत भाषा में तुम जितने ग्रसित होओगे उतने ही होता है। इसी अवस्था को ध्यान कहते हैं। होती है। वह विकसित होती है, वह तुम ज्यादा निर्जीव होते जाओगे। पंडित
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